मंगलवार, 22 अप्रैल 2014

चुनाव आयोग :पेड न्यूज मीडिया की एक लाइलाज बीमारी


    पेड न्यूज के ऊपर चुनाव आयोग ने इस बार काफी चिन्ता व्यक्त की है। हर जिले में जिला निर्वाचन अधिकारी के नेतृत्व में एक मानीटरिंग कमेटी बनाकर इसकी निगरानी किए जाने के निर्देश भी चुनाव आयोग द्वारा दिए गए हैं। बावजूद इसके प्रेस की भूमिका पर सवाल खड़े हैं।
    यह सवाल खड़ा होना लाजिमी है क्योंकि अधिकांश चुनावी दलों को जनता तक अपनी झूठी सच्ची बात पहुँचाने के लिए मीडिया की आवश्यकता होती है। चुनावी खर्चा न बढ़े इसके लिए अधिकांश प्रत्याशी प्रिन्ट व इलेक्ट्रानिक मीडिया को बंद मुट्ठी डील कर लेते हैं और जनसम्पर्क के नाम पर अपने लिखे लिखाए प्रेस नोट देश के प्रमुख समाचार पत्रों में छपवाए जाते हैं।
    चुनाव के अंतिम चरणों में समीक्षा छापने का सिलसिला प्रारम्भ किया जाता है और चुनावी सर्वे की भाँति जातिगत तथा बिरादरी पर आधारित आँकड़े मतदाताओं के सम्मुख परोस कर उन मतदाताओं को प्रभावित किया जाता है जो अन्तिम समय तक चुनाव में विजयी होने वाले प्रत्याशी के ऊपर अपना मत दाँव स्वरूप लगाते हैं। जाति तथा बिरादरी के आँकड़ों को अपने मनमाफिक ऐसा खींचतान कर मतदाताओं के सामने प्रस्तुत किया जाता है कि मतदाता अपना निर्णय गलत ले लेता है।
    विगत लोकसभा चुनाव में पेड न्यूज का सिलसिला इतना परवान चढ़ा कि प्रेस परिषद ने बाद में इसे संज्ञान में लिया और कुछ समाचार पत्रों व प्रत्याशियों के खेल को बेनकाब कर उनके विरुद्ध कार्रवाई की। बाकायदा लाखों रूपये का स्पेस देश के प्रमुख समाचार पत्रों में बुक किया गया। देखने में यह विज्ञापन न लगे इसलिए पत्रकारिता के हुनर के जौहर दिखलाते हुए इसे ऐसी भाषा में पाठकों के सामने परोसा जाता है कि पेड न्यूज के दायरे से बचा जा सके।
    उधर इलेक्ट्रानिक मीडिया की हालत इस मामले में और भी बदतरीन है। जिस प्रकार से नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा व उसके सहयोगी एन.डी.ए. गठबंधन को चुनाव से पूर्व सर्वे के माध्यम से दिखाया जा रहा है और उससेे भाजपा एन.डी.ए. के पक्ष में हवा बाँधी जा रही है उस पर कांग्रेस, आप पार्टी, जनता दल (यू) राष्ट्रीय लोकदल, वाम मोर्चा, बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी व आर0जे0डी0 समेत सभी राजनैतिक दलों ने कड़ा विरोध दर्ज कराया है, परन्तु इस मामले में बेबस चुनाव आयोग यह कहते हुए अपने हाथ खड़े कर चुका है कि सर्वे पर रोक लगाना उसके बस में नहीं है क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय की ओर से केवल दो दिन पूर्व के सर्वे को प्रतिबंधित किया गया है। कम्युनिस्ट पार्टियाँ मीडिया को रूपया नहीं देती हैं इसलिए उनका समाचार न तो प्रिन्ट मीडिया और न ही इलेक्ट्रानिक मीडिया पर दिखाई देता है।
    पेड न्यूज का प्रारम्भ विगत दो दशकों से अधिक देखने को मिल रहा है। वास्तव में हाईटेक प्रचार का चलन जबसे भारतीय राजनीति में आया है तभी से मीडिया का महत्व राजनैतिक दलों में बढ़ा है। बाकायदा मीडिया प्रभारी की एक पोस्ट हर पार्टी ने अपने यहाँ रख कर मीडिया मैनेजमेन्ट की कवायद शुरू कर दी।
    वैसे मीडिया द्वारा जनता का मिजाज बदलने का चलन बहुत पुराना है और पूरे विश्व स्तर पर मीडिया का महत्व इसीलिए है कि प्रचार के द्वारा अपनी बात समाज में पोषित की जा सकती है। अभी हाल में विश्व स्तर पर स्थापित सोशल मीडिया ने मध्य एशिया के अरब, अफ्रीकी राष्ट्रों में हुकूमतों का तख्ता पलट दिया। परिणाम स्वरूप बहुत से राष्ट्रों ने अपने यहाँ फेसबुक इत्यादि पर प्रतिबंध भी लगा दिया है।
    देश के विभाजन से लेकर रामलहर के हक मंे देश में माहौल साजगार करने के लिए भी मीडिया का जमकर दुरुपयोग किया गया था। संसार में जहाँ नैतिक मूल्यों व जिम्मेदारियाँ को परित्याग, व्यावसायिक सोच एवं उपभोक्तावाद के चलते समाज के हर पेशे को प्रभावित किया है तो भला मीडिया इस बीमारी से केसे बच पाता? केवल कानून बनाने से मीडिया के अन्दर व्याप्त पेड न्यूज रूपी भ्रष्टाचार का इलाज नहीं किया जा सकता। देश भक्ति व सामाजिक जिम्मेदारी के एहसास का संचार जब तक समाज के हर वर्ग में नहीं होगा भ्रष्टाचार नए-नए रूप में सामने आता रहेगा।
लोकसंघर्ष पत्रिका  चुनाव विशेषांक से

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