
हममें से बहुतों ने लालटेन, लैंप, ढिबरी की रोशनी में या म्युनिस्पलिटी के लैंप पोस्ट या बिजली के खंभे के नीचे बैठ कर पढ़ाई की होगी। आज भी हजारों गाँवों का यही हाल है। विद्युतीकरण हो भी गया है तो 12-15 घंटे या दो-दो दिन बिजली नहीं आती। बिजली उपलब्ध भी हुई तो प्राथमिकता खेती को देनी पड़ती है। तो मोदी आज भी इतना दुखी क्यों हैं? उनके बाल्य काल के दुख में क्या खास बात है? वह दुख तो करोड़ों भारतीयों का है।
यहाँ मोदी के सोच की झलक मिलती है। राजनेता समाज और देश के विकास की योजना व्यापक संदर्भ में बनाते हैं। एक महान राष्ट्र की परिकल्पना उन्हें अनुप्राणित करती है। वह अपने बचपन की यादों को पीछे छोड़ देते हैं। लेकिन मोदी के साथ ऐसा नहीं है। उन्होंने अपने निजी जीवन के आधार पर ‘ज्योतिग्राम योजना’ शुरू की। इस योजना के तहत गुजरात में घरेलू और कृषि इस्तेमाल के लिए अलग-अलग फीडर बनाए गए। लेकिन इसमें नया कुछ नहीं है। बस नई बात है मोदी की मार्केटिंग ट्रिक। बिजली का
उत्पादन बढ़ेगा और कमी नहीं रहेगी तो अलग-अलग फीडर से बिजली दो या न दो मिलती सबको रहेगी। मोदी के मुख्यमंत्री बनने तक स्थितियाँ काफी बदल चुकी थीं। वह जिस विकास का श्रेय खुद ले रहे हैं, उसकी शुरुआत तो बहुत पहले हो चुकी थी। यह उसी तरह है, जैसे पोखरण-2 के बाद भाजपाइयों का यह गाल बजाना कि अटल जी की सरकार ने ऐटम बम से देश को लैस कर दिया। बम तो कांग्रेसी सरकारों ने बना रखा था। बम दो-चार हफ्ते में नहीं बना करते। बम हो या गुजरात का विकास, राजनैतिक लाभ के लिए मिथ्या प्रचार भाजपाइयों की संस्कृति का हिस्सा है।
ट्रिक्स अच्छी तरह सीख गए हैं। गरीबी हो या पिछड़ापन, दुख दूसरों का हो या अपना, वास्तविकता हो या कल्पना मोदी हर बात को अपनी निजी उपलब्धि और महत्वाकांक्षा से जोड़ कर वोट में बदलने का कोई मौका हाथ से जाने नहीं देते।
-प्रदीप कुमार
लोकसंघर्ष पत्रिका चुनाव विशेषांक से
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