चन्द रोज पहले मैं ढाका में था। बांग्लादेश में हमारे लोकसभा चुनाव में इतनी गहरी दिलचस्पी पाई गई कि इस पर यकीन करना ही पड़ता है। लोग चुनाव की छोटी से छोटी तफसील से भी इस तरह वाकिफ थे जैसे अपनी हथेली की लकीरों से। वे पाकिस्तान में वर्जित हिन्दुस्तान टी.वी. चैनल देखते हैं। वे यह देखते हैं कि लोग मोदी की इस रायजनी से बद्दिल हैं कि बांग्लादेशियों को चुनाव के नतायज के एलान वाले दिन यानी 16 मई को बोरिया बिस्तर लपेट कर रुखसत हो जाना चाहिए।
कोई भी मोदी को हिन्दुस्तान का वजीर-ए-आजम बनते देखना नहीं चाहता। मुसलमानों के खिलाफ इनकी जहर अफशानी बांग्लादेशियों को बाउर कराती है कि सेक्यूलर डेमोक्रेटिक सियासी निजाम वाले मुल्क के बजाए एक शिद्दत पसन्द हिन्दू मुल्क उनका पड़ोसी है। इससे बढ़कर उनको ये खौफ है कि मोदी कहीं इस कुरबत की फिजा को दूषित न कर दें जिसमें दोनों मुल्क बांग्लादेश की आजादी की जद्दोजहद के जमाने से रहते आए हैं। ढाका के सफर के दौरान एक कदम पीछे हटकर चुनाव का जायजा लेने का भी मौका मिला। मैं सियासत में मजहब का दखल देख रहा हूँ। मोदी और बी0जे0पी0 ने अत्यधिक धार्मिक और सांस्कृतिक मुल्क को धु्रवीकरण करने के लिए हिन्दू कार्ड खेला है। जो नुकसान उन्होंने पहुँचाया है उसकी शायद भरपाई न हो सके। हमारे पुरखों का ये ख्वाब कि मजहब के नाम पर तक्सीम के बावजूद आजादी के बाद हिन्दुस्तान अनेकता में एकता वाला मुल्क होगा, शायद पूरा न हो सके। मोदी हिन्दुस्तानी मुसलमानों में दरार पैदा करने में कामयाब हो गए हंै। ये ऐसी कोशिश है जिसे हम अगस्त 1947 से अब तक कामयाबी के साथ नाकाम बनाते रहे हैं।
मुझे इसमें शक नहीं कि मुल्क की सियासत के जिस्म में जो जहर भरा गया है वह एक दिन खत्म होगा। लेकिन इस बीच मुल्क को अविश्वसनीयता और अजनबीपन के मरहले से गुजरना पड़ेगा। दोनांे फिरकों के पक्षपात रहित लोगों को जिनकी तादाद रोज बरोज कम होती जा रही है आइन्दा एक संगीन जंग लड़नी है। सेक्यूलरिज्म की श्रेष्ठता कायम करने के लिए इन्हें ज्यादा लगन से मेहनत करनी पड़ेगी।
मोदी और बी0जे0पी0 को इससे ज्यादा साजगार मौका नहीं मिल सकता था। अवाम परिवर्तन चाहती है और उनके पास कांग्रेस को हराने का कोई अन्य रास्ता नहीं है, जिसने इन्हें हर मैदान में मायूस किया है चाहे वह आर्थिक तरक्की हो या मुल्क का इन्तजाम। आम आदमी पार्टी अभी हाल ही में वजूद में आयी है जो उत्तर भारत के शहरी इलाकों तक सीमित है।
इसलिए मोदी और बी0जे0पी0 को डाला गया वोट नकारात्मक वोट होगा। वजीर आजम मनमोहन सिंह को दस साला निष्फल हुकूमत की कीमत कांग्रेस को अपने दोबारा चुनाव की शक्ल में चुकानी पड़ रही है। रोशनी में आने वाले मुख्तलिफ घोटालों ने पार्टी को और अधिक नुकसान पहुँचाया है।
मोदी की गैर जिम्मेदाराना तकरीरों ने किसी हद तक दोबारा साख बनाने में कांग्रेस की मदद की है। लेकिन कांग्रेस के नायब सदर राहुल गांधी ने अपनी विचारधारा का जो एलान किया है इससे इलाकाई पार्टियों द्वारा हुकूमत बनाने की मनसा पर पानी फिर गया। इन्होंने कांग्रेस की तरफ से तीसरे मोर्चे का नेतृत्व या इसकी हिमायत की पुरजोर मुखालफत की है।
नेशनल इलेक्शन कमीशन जो बेशक खुद मुख्तार है, इन्तखाबी जाब्ते की खिलाफ वरजी करने वालों के लिए नरमी बरतता रहा है। एक तो मोदी ही हैं जिन्होंने अपनी तकरीरों के लिए मुकदमा चलाने के लिए इलेक्शन कमीशन को ललकारा। इनकी तकरीरों में हर एतबार से मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैलाने वाली बातंे होती हैं। कमीशन का रवैया महज कानून पसन्दाना रहा है। कमीशन का ये रवैया इन्तिखाबात की आजादाना हैसियत पर असर अन्दाज हुआ है।
चुनाव से मुताल्लिक वाकई बुरी खबर बाएँ बाजू की ताकतों का खात्मा है। वे कट्टर पंथियों की राह में रूकावट डालना चाहते थे और सेक्युलर तत्वों के संभावना को विस्तार देना चाहते थे। दरअसल पूरे हिन्दो पाक में सियासी सरगर्मी का अलमिया यही है।
1940 की दहाई में मेरे कालेज के दिनों में यह कहा जाता था कि अगर आप 25 साल की उम्र में कम्युनिस्ट नहीं बनते तो आप को किसी डाक्टर से सलाह लेनी चाहिए। वक्त गुजरने के साथ-साथ ये तसव्वुरात धुँधले पड़ते गए। कट्टर पंथी तत्व अलग-थलग होकर नहीं बैठे रहे। उन्होंने मेहनत करके नवजवानों के जहनों को मुतासिर किया जिनकी आँखंे आज दौलत और हर उस चीज की चमक से चकाचैंध हैं जो उनके भविष्य को रोशन करंे। कार्ल माक्र्स पर गुफ्तगू का तो जिक्र ही क्या इसे तो पढ़ा भी नहीं जाता।
चुनाव मुहिम में बाएँ बाजू के नजरिए का कहीं जिक्र न आने पर मुझे हैरत नहीं होती। यहाँ तक कि बहुमत ने सोशलिज्म या समता पसन्दी की बात नहीं की। इन्हें भी यकीन हो गया है कि मनमोहन सिंह के दस साल के दौरे एक्तदार में मजबूत हुई बाएँ बाजू की सियासत के लिए शायद ही गुंजाइश बची हो। हैरतनाक जवाब इसका ये है कि माक्र्सज्मि से वफदारी का दम भरने वालों की भी जबान पर ताले पड़े हुए हैं।
फिर भी ये हकीकत अपनी जगह कायम है कि 1952 के पहले आम चुनाव में कम्युनिस्टों की फतेह हुई थी। बाद में त्रिपुरा और पश्चिमी बंगाल में बाएँ वाजू की हुकूमत बनी। आज वाया बाजू त्रिपुरा तक महदूद है। लोकसभा में इनकी तादाद तेजी से कम हो रही है। बजाहिर इनका जोर बहुत कम हो गया है। मेरा मुशाहिदा यह है कि हिन्दुस्तानी कम्युनिस्टों ने सेक्युलरिज्म पर इतना ज्यादा भरोसा कर लिया कि कम्युनिज्म का किला सोवियत यूनियन के टूटने पर वह खुद को यतीम महसूस करने लगे। इससे कम्युनिस्ट नजरिए पर गहरी चोट लगी। हिन्दुस्तान में इसके हामियों पर इतनी बद्दिली तारी हुई कि वह अमलन इसके किले से दस्तबरदार हो गए और पूँजीपतियों के लिए मैदान खुला छोड़ दिया।
वास्तव में कम्युनिस्ट पार्टी आॅफ इण्डिया (सी.पी.आई.) माक्र्स (सी.पी.आई.एम.) की कोशिश बी0जे0पी0 को एकतदार में आने से रोकने पर केन्द्रित है। अपनी सीमा को एक प्लेटफार्म पर लाकर वह एक तरह के फेडरल फ्रन्ट की स्थापना की उम्मीद रखते हैं।
यह खयाल माकूल तो है क्यांेकि कांग्रेस और बी0जे0पी0 दोनों ही घोटालों और फिरकापरस्ती में डूबे हुए हैं कि इनकी शिकस्त हिन्दुस्तान के लिए फायदेमन्द होगी। शायद यही वजह है कि राहुल गांधी ने तीसरे मोर्चे की स्थापना पर हमला किया है। उन्हें विश्वास है कि गैर बीजेपी पार्टियाँ यह महसूस करेंगी कि हुकूमत बनाने में कांग्रेस की हिमायत करने के अलावा उनके लिए कोई और चारा नहीं है।
फिरकापरस्त और घोटालेबाज ताकतों को शिकस्त देना जितना जरूरी है उतना ही जरूरी बराबरी, एकता के उन्नयन के लिए सकारात्मक सोच की भी जरूरत है। आजादी की जद्दोजहद में इसी असूल की पाबन्दी की गयी थी। फिलहाल दोनों कम्युनिस्ट पार्टियां समता के बुनियादी फलसफे दूर जा पड़ी हैं। कुछ कारणों से उन्होंने विश्वास कर लिया है कि सेक्यूलरिज्म आखिरकार
इनका ये अन्दाजा, लगाये जाने वाले पक्षपाती या नफरत भरे नारों से देखा जा सकता है और इनमें ज्यादातर कारपोरेट से इतनी कुरबत रखते हैं कि जब भी इन्हें हुकूमत में शामिल होने का मौका मिला है इन्होंने पब्लिक सेक्टर के किरदार का कोई जिक्र ही नहीं किया। मंजरनामा वाकई निराशाजनक है।
-कुलदीप नय्यर
कोई भी मोदी को हिन्दुस्तान का वजीर-ए-आजम बनते देखना नहीं चाहता। मुसलमानों के खिलाफ इनकी जहर अफशानी बांग्लादेशियों को बाउर कराती है कि सेक्यूलर डेमोक्रेटिक सियासी निजाम वाले मुल्क के बजाए एक शिद्दत पसन्द हिन्दू मुल्क उनका पड़ोसी है। इससे बढ़कर उनको ये खौफ है कि मोदी कहीं इस कुरबत की फिजा को दूषित न कर दें जिसमें दोनों मुल्क बांग्लादेश की आजादी की जद्दोजहद के जमाने से रहते आए हैं। ढाका के सफर के दौरान एक कदम पीछे हटकर चुनाव का जायजा लेने का भी मौका मिला। मैं सियासत में मजहब का दखल देख रहा हूँ। मोदी और बी0जे0पी0 ने अत्यधिक धार्मिक और सांस्कृतिक मुल्क को धु्रवीकरण करने के लिए हिन्दू कार्ड खेला है। जो नुकसान उन्होंने पहुँचाया है उसकी शायद भरपाई न हो सके। हमारे पुरखों का ये ख्वाब कि मजहब के नाम पर तक्सीम के बावजूद आजादी के बाद हिन्दुस्तान अनेकता में एकता वाला मुल्क होगा, शायद पूरा न हो सके। मोदी हिन्दुस्तानी मुसलमानों में दरार पैदा करने में कामयाब हो गए हंै। ये ऐसी कोशिश है जिसे हम अगस्त 1947 से अब तक कामयाबी के साथ नाकाम बनाते रहे हैं।
मुझे इसमें शक नहीं कि मुल्क की सियासत के जिस्म में जो जहर भरा गया है वह एक दिन खत्म होगा। लेकिन इस बीच मुल्क को अविश्वसनीयता और अजनबीपन के मरहले से गुजरना पड़ेगा। दोनांे फिरकों के पक्षपात रहित लोगों को जिनकी तादाद रोज बरोज कम होती जा रही है आइन्दा एक संगीन जंग लड़नी है। सेक्यूलरिज्म की श्रेष्ठता कायम करने के लिए इन्हें ज्यादा लगन से मेहनत करनी पड़ेगी।
मोदी और बी0जे0पी0 को इससे ज्यादा साजगार मौका नहीं मिल सकता था। अवाम परिवर्तन चाहती है और उनके पास कांग्रेस को हराने का कोई अन्य रास्ता नहीं है, जिसने इन्हें हर मैदान में मायूस किया है चाहे वह आर्थिक तरक्की हो या मुल्क का इन्तजाम। आम आदमी पार्टी अभी हाल ही में वजूद में आयी है जो उत्तर भारत के शहरी इलाकों तक सीमित है।
इसलिए मोदी और बी0जे0पी0 को डाला गया वोट नकारात्मक वोट होगा। वजीर आजम मनमोहन सिंह को दस साला निष्फल हुकूमत की कीमत कांग्रेस को अपने दोबारा चुनाव की शक्ल में चुकानी पड़ रही है। रोशनी में आने वाले मुख्तलिफ घोटालों ने पार्टी को और अधिक नुकसान पहुँचाया है।
मोदी की गैर जिम्मेदाराना तकरीरों ने किसी हद तक दोबारा साख बनाने में कांग्रेस की मदद की है। लेकिन कांग्रेस के नायब सदर राहुल गांधी ने अपनी विचारधारा का जो एलान किया है इससे इलाकाई पार्टियों द्वारा हुकूमत बनाने की मनसा पर पानी फिर गया। इन्होंने कांग्रेस की तरफ से तीसरे मोर्चे का नेतृत्व या इसकी हिमायत की पुरजोर मुखालफत की है।
नेशनल इलेक्शन कमीशन जो बेशक खुद मुख्तार है, इन्तखाबी जाब्ते की खिलाफ वरजी करने वालों के लिए नरमी बरतता रहा है। एक तो मोदी ही हैं जिन्होंने अपनी तकरीरों के लिए मुकदमा चलाने के लिए इलेक्शन कमीशन को ललकारा। इनकी तकरीरों में हर एतबार से मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैलाने वाली बातंे होती हैं। कमीशन का रवैया महज कानून पसन्दाना रहा है। कमीशन का ये रवैया इन्तिखाबात की आजादाना हैसियत पर असर अन्दाज हुआ है।
चुनाव से मुताल्लिक वाकई बुरी खबर बाएँ बाजू की ताकतों का खात्मा है। वे कट्टर पंथियों की राह में रूकावट डालना चाहते थे और सेक्युलर तत्वों के संभावना को विस्तार देना चाहते थे। दरअसल पूरे हिन्दो पाक में सियासी सरगर्मी का अलमिया यही है।
1940 की दहाई में मेरे कालेज के दिनों में यह कहा जाता था कि अगर आप 25 साल की उम्र में कम्युनिस्ट नहीं बनते तो आप को किसी डाक्टर से सलाह लेनी चाहिए। वक्त गुजरने के साथ-साथ ये तसव्वुरात धुँधले पड़ते गए। कट्टर पंथी तत्व अलग-थलग होकर नहीं बैठे रहे। उन्होंने मेहनत करके नवजवानों के जहनों को मुतासिर किया जिनकी आँखंे आज दौलत और हर उस चीज की चमक से चकाचैंध हैं जो उनके भविष्य को रोशन करंे। कार्ल माक्र्स पर गुफ्तगू का तो जिक्र ही क्या इसे तो पढ़ा भी नहीं जाता।
चुनाव मुहिम में बाएँ बाजू के नजरिए का कहीं जिक्र न आने पर मुझे हैरत नहीं होती। यहाँ तक कि बहुमत ने सोशलिज्म या समता पसन्दी की बात नहीं की। इन्हें भी यकीन हो गया है कि मनमोहन सिंह के दस साल के दौरे एक्तदार में मजबूत हुई बाएँ बाजू की सियासत के लिए शायद ही गुंजाइश बची हो। हैरतनाक जवाब इसका ये है कि माक्र्सज्मि से वफदारी का दम भरने वालों की भी जबान पर ताले पड़े हुए हैं।
फिर भी ये हकीकत अपनी जगह कायम है कि 1952 के पहले आम चुनाव में कम्युनिस्टों की फतेह हुई थी। बाद में त्रिपुरा और पश्चिमी बंगाल में बाएँ वाजू की हुकूमत बनी। आज वाया बाजू त्रिपुरा तक महदूद है। लोकसभा में इनकी तादाद तेजी से कम हो रही है। बजाहिर इनका जोर बहुत कम हो गया है। मेरा मुशाहिदा यह है कि हिन्दुस्तानी कम्युनिस्टों ने सेक्युलरिज्म पर इतना ज्यादा भरोसा कर लिया कि कम्युनिज्म का किला सोवियत यूनियन के टूटने पर वह खुद को यतीम महसूस करने लगे। इससे कम्युनिस्ट नजरिए पर गहरी चोट लगी। हिन्दुस्तान में इसके हामियों पर इतनी बद्दिली तारी हुई कि वह अमलन इसके किले से दस्तबरदार हो गए और पूँजीपतियों के लिए मैदान खुला छोड़ दिया।
वास्तव में कम्युनिस्ट पार्टी आॅफ इण्डिया (सी.पी.आई.) माक्र्स (सी.पी.आई.एम.) की कोशिश बी0जे0पी0 को एकतदार में आने से रोकने पर केन्द्रित है। अपनी सीमा को एक प्लेटफार्म पर लाकर वह एक तरह के फेडरल फ्रन्ट की स्थापना की उम्मीद रखते हैं।
यह खयाल माकूल तो है क्यांेकि कांग्रेस और बी0जे0पी0 दोनों ही घोटालों और फिरकापरस्ती में डूबे हुए हैं कि इनकी शिकस्त हिन्दुस्तान के लिए फायदेमन्द होगी। शायद यही वजह है कि राहुल गांधी ने तीसरे मोर्चे की स्थापना पर हमला किया है। उन्हें विश्वास है कि गैर बीजेपी पार्टियाँ यह महसूस करेंगी कि हुकूमत बनाने में कांग्रेस की हिमायत करने के अलावा उनके लिए कोई और चारा नहीं है।
फिरकापरस्त और घोटालेबाज ताकतों को शिकस्त देना जितना जरूरी है उतना ही जरूरी बराबरी, एकता के उन्नयन के लिए सकारात्मक सोच की भी जरूरत है। आजादी की जद्दोजहद में इसी असूल की पाबन्दी की गयी थी। फिलहाल दोनों कम्युनिस्ट पार्टियां समता के बुनियादी फलसफे दूर जा पड़ी हैं। कुछ कारणों से उन्होंने विश्वास कर लिया है कि सेक्यूलरिज्म आखिरकार
इनका ये अन्दाजा, लगाये जाने वाले पक्षपाती या नफरत भरे नारों से देखा जा सकता है और इनमें ज्यादातर कारपोरेट से इतनी कुरबत रखते हैं कि जब भी इन्हें हुकूमत में शामिल होने का मौका मिला है इन्होंने पब्लिक सेक्टर के किरदार का कोई जिक्र ही नहीं किया। मंजरनामा वाकई निराशाजनक है।
-कुलदीप नय्यर
सोशालिज्म की तरफ ले जाएगा।
साभार: इंकलाब
लोकसंघर्ष पत्रिका में प्रकाशित
2 टिप्पणियां:
shaandaar lekh
सुंदर ।
एक टिप्पणी भेजें