मंगलवार, 8 जुलाई 2014

देश के सम्मुख चुनौतियां

  ऐसा कहा जाता है कि भारत,दुनिया का सबसे बड़ा प्रजातंत्र है। हमारे दक्षिण एशियाई पड़ोसियों की तुलना में हमारे देश में प्रजातंत्र का रिकार्ड बहुत अच्छा रहा है। देश की सांस्कृतिक विविधताओं के बावजूद, पिछले 67 सालों से हमारे देश में प्रजातांत्रिक व्यवस्था जीवित है।
    अंग्रेजों के राज में भारत में सामंती ताकतों का बोलबाला था। ये सामंती ताकतें लैंगिक, जातिगत व वर्गीय पदानुक्रम की हामी थीं। सामंती परंपराओं और संस्कृति के कारण, उस समय यह 'स्वाभाविक' माना जाता था कि दलितों और महिलाओं को दबाकर रखा जाए,उन्हें शिक्षा और धार्मिक गतिविधियों से दूर रखा जाए और सभी समुदायों को उनके पारंपरिक काम.धंधे ही करने पर मजबूर किया जाए। उस दौर में दमित लोगों से बिना वेतन दिए काम करवाना आम था। अंग्रेज शासकों ने अपनी मजबूरियों के चलते कुछ परिवर्तन व सुधार समाज पर थोपे, जिनके नतीजे में सामाजिक ऊँचनीच व सामंती परंपराएं और संस्कृति कुछ हद तक कमजोर हुईं। कुछ शहरी क्षेत्रों में उद्योग स्थापित करने की इजाजत दी गई। उद्योगों को श्रमिकों की जरूरत थी और जो लोग गांवों की जातिगत व्यवस्था को तोड़कर,शहरों में आ सके उन्हें औद्योगिक श्रमिकों के रूप में रोजगार मिला। यद्यपि सैद्धान्तिक तौर पर दलितों और महिलाओं के लिए शिक्षा के द्वार खोल दिए गए थे तथापि उनके लिए जाति व्यवस्था के बंधन को तोड़कर शिक्षा पाना आसान नहीं था। बहुत कम संख्या में दलित और महिलाएं शिक्षा प्राप्त करने में सफल हो सके। महत्वाकांक्षी मध्यमवर्ग के युवा इंग्लैण्ड जाकर उच्च शिक्षा प्राप्त करने लगे और उनमें से कई ने आईसीएस की परीक्षा भी पास की। इंग्लैण्ड में शिक्षा प्राप्त करने के दौरान वे धर्मनिरपेक्ष विचारधारा और स्वतंत्रताए समानता व बंधुत्व के उदारवादी मूल्यों से परिचित हुए। इसी शिक्षित वर्ग ने बाद में आमजनों को संगठित किया और आजादी की जंग शुरू की।
ब्रिटिश शासन के खिलाफ संघर्ष से धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के रूप में भारत की अवधारणा उपजी। हमारे औपनिवेशिक शासक स्वयं को वंचित वर्ग के भारतीयों और मुस्लिम अल्पसंख्यकों के रक्षक के रूप में प्रस्तुत करते थे। औपनिवेशिक शासकों से मुक्ति पाने के लिए भारत की सभी जातियों,वर्गों और क्षेत्रों के लोगों को एक करना आवश्यक था। वंचित वर्गों व मध्यम जातियों को एक करने के लिए कांग्रेस ने मंदिर प्रवेश आंदोलनों का समर्थन किया। उसके नेताओं ने छुआछूत प्रथा का विरोध किया और यह आश्वासन दिया कि स्वतंत्र भारत में वंचित वर्गों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया जायेगा। ये सभी कदम इसलिए उठाए गए ताकि जनता में यह संदेश जाए कि स्वतंत्र भारत में सभी नागरिक समान और स्वतंत्र होंगे, उन्हें न्याय मिलेगा और उन्हें गरिमापूर्ण जीवन बिताने का हक होगा। गांधी जी दो चीजों को भारत की स्वतंत्रता की राह में रोड़ा मानते थे.अछूत प्रथा और हिंदुओं और मुसलमानों के बीच बैरभाव। उनके विचार में जब तक ये दोनों समस्याएं हल नहीं होतीं तब तक स्वतंत्रता का कोई अर्थ नहीं था।
भारत का संविधान, दुनिया के सर्वश्रेष्ठ संविधानों में से एक है। वह अपने सभी नागरिकों को समानता व न्याय की गारंटी देता है व उसमें सामाजिक व शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों व अनुसूचित जातियों व जनजातियों को आरक्षण दिए जाने का प्रावधान है। परंतु समस्या यह है कि सभी धार्मिक, जातीय, नस्लीय व भाषायी समूहों ने अपनी.अपनी परंपराओं,रीति.रिवाजों और अलग पहचान को कायम रखने के लिए कमर कस ली है। सभी समुदायों के उदारवादी तत्व उन सामंती परंपराओं, रीतिरिवाजों व धार्मिक.सांस्कृतिक पहचानों को थोपे जाने का विरोध करते हैंए जिनका उद्देश्य विभिन्न समुदायों को एकसार बनाना है।
हिन्दू राष्ट्रवादी संगठन और मुस्लिम समुदाय का श्रेष्ठी वर्ग यह नहीं चाहता कि संविधान में दी गई स्वतंत्रताए समानता व न्याय की गारंटी को राज्य पूरा करे। वे चाहते हैं कि राज्य, उनके सामंती विशेषाधिकारों, सामाजिक पदानुक्रम में उनकी उच्च स्थिति व उनकी संकीर्ण परंपराओं व रीति.रिवाजों का रक्षक बने। यद्यपि श्रेष्ठी वर्ग, जो अपने समुदाय का प्रतिनिधि होने का दावा करता हैए संख्याबल की दृष्टि से बहुत छोटा है परंतु उसके पास ढेर सारे संसाधन हैं। उसका समुदाय के शैक्षणिक संस्थानों व आराधना स्थलों पर कब्जा है और पुरोहित वर्ग, धर्मशास्त्र और यहां तक कि ईश्वर पर उनकी प्रभुता है। संविधान के अंतर्गत प्रजातांत्रिक राज्य का यह कर्तव्य था कि वह उदारवादियों के अधिकारों की रक्षा करे और श्रेष्ठी वर्ग को अपने.अपने समुदायों पर संप्रदायवादी पहचानें थोपने की इजाजत न दे। 
अर्थव्यवस्था
जब भारत स्वतंत्र हुआ, तब उसकी अर्थव्यवस्था श्रमप्रधान कृषि पर आधारित थी और उसकी आबादी के लगभग 40 प्रतिशत हिस्से को, जिनमें छोटे किसान और खेतिहर मजदूर शामिल थे,भरपेट खाना भी नहीं मिलता था। इसका कारण यह नहीं था कि कृषि उत्पादन कम था बल्कि इसका कारण यह था कि सामंती ताकतों का अतिशेष उत्पादन पर कब्जा था। नवस्वतंत्र भारत के सामने चुनौती यह थी कि वह कैसे एक औद्योगिकृत राष्ट्र बने। घरेलू बचत की दर बहुत कम थी व इस कारण पूंजी निर्माण नहीं हो रहा था। निजी निवेशकों के लिए स्टील, खनन, टेलिकॉम, बीमा व बिजली उत्पादक संयंत्रों जैसे उद्योगों की स्थापना करना असंभव था। इस कारण इन उद्योगों का विकास सार्वजनिक क्षेत्र में किया गया।
सन् 1990 के दशक के बाद से देश की अर्थव्यवस्था की दिशा पलट गई। अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष ने देश की अर्थव्यवस्था में संस्थागत सुधार के लिए ऋण दिया परंतु यह ऋण कई शर्तों के साथ दिया गया। भारतीय अर्थव्यवस्था का उदारीकरण हो गया और सार्वजनिक क्षेत्र की नवरत्न कंपनियों का निजीकरण कर दिया गया। इससे उन औद्योगिक घरानों को बेतहाशा लाभ हुआ जो सत्ताधारी राजनीतिज्ञों के नजदीक थे। जो विदेशी निवेशक भारत में पैसा लगा रहे थे वे भरपूर मुनाफा कमाना और भारत के आर्थिक संसाधनों का जमकर दोहन करना चाहते थे। वे नहीं चाहते थे कि पर्यावरण और श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा संबंधी कानून कड़ाई से लागू किए जायें। राज्य ने उनका साथ दिया और किसानों, दलितों, आदिवासियों, मछुआरों और अन्य कमजोर तबकों को उनकी जमीन व रोजगार से वंचित करए अरबपति उद्योगपतियों को बहुत कम कीमत पर भूमि प्रदान की।
भारत की अर्थव्यवस्था सन् 1990 के दशक से लेकर 21वीं सदी के पहले दशक तक 8.9 प्रतिशत प्रतिवर्ष की उच्च दर से बढ़ी। परंतु इस उच्च आर्थिक वृद्धि दर से केवल बड़े औद्योगिक घरानों और विदेशी निवेशकों को फायदा हुआ। मध्यम वर्ग का आकार बढ़ गया और उसके सदस्यों को सूचना प्रौद्योगिकी व उससे जुड़े अन्य उद्योगों में उच्च वेतन पर रोजगार मिला। परंतु इन अपवादों को छोड़करए उच्च आर्थिक वृद्धि दर से किसी को लाभ नहीं पहुंचा। देश की तेजी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था से केवल मुठ्ठी भर लोग लाभांवित हुए। महाराष्ट्र,गुजरात और आंध्रप्रदेश में किसानों की आत्महत्याएं जारी रहीं। आंध्रप्रदेश में बड़ी संख्या में बुनकरों ने मौत को गले लगा लिया क्योंकि वे उन पर लदे कर्जे के बोझ से मुक्ति पाने में असमर्थ थे। अर्जुन सेनगुप्ता रपट के अनुसार, 80 प्रतिशत से अधिक भारतीयों की आय 2 डालर प्रतिदिन से भी कम थी। सन् 2011.12 में गरीबी की रेखा से नीचे जीवनयापन करने वाले लोगों का प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों में 25.7, शहरी क्षेत्रों में 13.7 और कुल मिलाकर 21.9 था। परंतु यहां यह ध्यान रखना आवश्यक है कि गरीबी की रेखा की परिभाषा यह थी कि शहरी क्षेत्रों में जो व्यक्ति प्रतिदिन 32 रूपए से अधिक और ग्रामीण क्षेत्रों में 26 रूपए से अधिक खर्च करता है, वह गरीब नहीं है।
बढ़ती हुई आर्थिक असमानताओं ने समाज पर गहरा प्रभाव डाला। जैसे.जैसे सरकार ने अपना आर्थिक घाटा कम करने के लिए कृषिए ऊर्जा,चिकित्सा,शिक्षा व अन्य क्षेत्रों में अनुदान में कटौती करनी प्रारंभ की,सांप्रदायिक श्रेष्ठी वर्ग ने इन क्षेत्रों में प्रवेश कर लिया, जिससे उसकी ताकत बढ़ी, जबकि विभिन्न समुदायों के उदारवादी तत्व और कमजोर हुए।  
चुनौतियां
हमारे प्रजातंत्र और कानून के राज को इस समय सबसे बड़ी चुनौती सांप्रदायिक श्रेष्ठी वर्ग और कार्पोरेट सेक्टर के धनकुबेर पूंजीपतियों से मिल रही है।
सांप्रदायिक श्रेष्ठी वर्ग की इच्छा अपने.अपने स्वर्णयुग में लौटने की है, जिसमें सामंती मूल्यों, परंपराओं और रीतिरिवाजों का बोलबाला होगा और जिसमें व्यक्ति की समाज में स्थिति का निर्धारण, उसके परिवार, जाति व लिंग से होगा। वे आधुनिक उपभोक्तावाद और आरामदायक जीवन की सभी सुविधाएं चाहते हैं परंतु इसके साथ ही वे चाहते हैं कि समाज काए व्यक्ति के जीवन पर कड़ा नियंत्रण रहे और हर व्यक्ति,उसके जन्म पर आधारित, पूर्वपरिभाषित कर्तव्यों का पालन करे। वे अपने प्रभाव क्षेत्र में लगातार वृद्धि करना चाहते हैं। वे ज्यादा से ज्यादा विशेषाधिकार चाहते हैं। वे अपने समुदाय को सुरक्षा प्रदान करने और'दूसरे समुदाय' पर उसकी श्रेष्ठता स्थापित करने के नाम पर अपने समर्थकों के राजनैतिक अधिकारों में कटौती करना चाहते हैं। वे 'दूसरी दुनिया'में मिलने वाले सुख या अगले जन्म में मिलने वाले उच्च सामाजिक दर्जे के नाम पर अपने समर्थकों को भरमाते हैं।
संवैधानिक और कानूनी अधिकारों की उनके लिए कोई कीमत ही नहीं है। वे तो संसद की संस्था की विश्वसनीयता पर भी उंगली उठाते हैं। वे कहते हैं कि आस्था, संविधान और प्रजातंत्र से ऊपर है। मुसलमानों का सांप्रदायिक श्रेष्ठी वर्ग यह दावा करता है कि शरीयत अपरिवर्तनीय है और उससे कोई छेड़छाड़ नहीं की जा सकती। वे जानबूझकर इस तथ्य को नजरअंदाज करते हैं कि मानव हमेशा से ईश्वरीय वचनों को समझने और उनका विश्लेषण करने की कोशिश करता आया है। वे कई किताबों पर प्रतिबंध लगाने की मांग करते हैं जिनमें सलमान रश्दी की 'सेटेनिक वर्सेस' और तस्लीमा नसरीन की 'लज्जा' शामिल हैं। इसी तरह, हिन्दू राष्ट्रवादी संगठन यह कहते हैं कि चूंकि उन्हें विश्वास है कि भगवान राम, अयोध्या में एक विशेष स्थान पर जन्मे थे इसलिए जहां कभी बाबरी मस्जिद हुआ करती थी,वहां राममंदिर बनाया जाना चाहिए। उनके पास भी किताबों, फिल्मों व अन्य कलाकृतियों की एक लंबी सूची है, जिन्हें वे प्रतिबंधित करवाना चाहते हैं।
भारतीय राज्य और उसकी संस्थाएं कई मौकों पर दोनों धर्मों के कट्टरपंथियों के समक्ष आत्मसमर्पण करती आई हैं। इसका कारण यह है कि उनका सामाजिक व राजनैतिक क्षेत्र में गैर.आनुपातिक रूतबा है। जिसकी लाठी उसकी भैंस की कहावत के अनुरूप, ये तत्व अपनी मनमानी करते आए हैं।
जब नेहरू इस देश के प्रधानमंत्री थे तब सार्वजनिक नीतियों को यह ध्यान में रखते हुए नहीं बनाया जाता था कि उससे किस वर्ग के लोग लाभांवित होंगे। नेहरू कहते थे कि बड़े बांध, अस्पताल और श्रेष्ठ शिक्षा प्रदान करने वाले विश्वविद्यालय ही राज्य के मंदिर हैं। इनके अलावा, राज्य का न कोई मंदिर है, न मस्जिद और न गिरजाघर। उनकी नीतियों के चलते, सामंती श्रेष्ठी वर्ग शनैः शनैः हाशिए पर खिसकता गया। नेहरू ने देश को एक मजबूत औद्योगिक नींव दी।
जब सामंती श्रेष्ठी वर्ग ने देखा कि वह लगातार कमजोर होता जा रहा है तो उसने सांप्रदायिक श्रेष्ठी वर्ग से हाथ मिला लिया। हिन्दू राष्ट्रवादी संगठनों ने राष्ट्रवाद की एक नई परिभाषा गढ़ी, जिसमें राष्ट्रवाद को अल्पसंख्यकों के संदर्भ में परिभाषित किया गया। यह कहा गया कि मुसलमान और ईसाई,देश के आंतरिक दुश्मन हैं और पाकिस्तान, बाहरी शत्रु।  
सांप्रदायिक श्रेष्ठी वर्ग की बढ़ती ताकत
पिछले कुछ समय में सांप्रदायिक श्रेष्ठी वर्ग की ताकत में तेजी से वृद्धि हुई है। पिछले लगभग डेढ़ दशक से कई धार्मिक त्यौहार सार्वजनिक रूप से और बहुत जोरशोर से मनाए जाने लगे हैं। इनको मनाने के तरीकों में कई परिवर्तन किए गए हैं। इन आयोजनों का मुख्य उद्देश्य, आयोजनकर्ताओं का शक्ति प्रदर्शन होता है। धर्म के नाम पर एक बड़ी धनराशि चंदे के रूप में इकट्ठा की जाती है।
हाल में हुए 16वीं लोकसभा के चुनाव में भाजपा ने अकूत धन खर्च किया। देशभर में लगभग 400 बड़ी रैलियां आयोजित की गईं। ऐसा अनुमानित है कि भाजपा ने अपने चुनाव अभियान पर 3000 करोड़ से लेकर 10,000 करोड़ रूपए तक खर्च किए। पार्टी ने इस संबंध में कोई तथ्य जनता के सामने नहीं रखे हैं। ऐसा संदेह है कि यह धनराशि कार्पोरेट घरानों द्वारा पार्टी को दी गई। चुनाव के कई महीनों पहले भारत के सबसे धनी औद्योगिक समूहों ने मोदी का नाम प्रधानमंत्री के तौर पर प्रस्तावित किया था। औद्योगिक घरानों को प्रधानमंत्री के नाम का प्रस्ताव क्यों करना चाहिए? सांप्रदायिक श्रेष्ठी वर्ग और लंपट पूंजीपतियों का गठजोड, देश के लिए सबसे बड़ी चुनौती है।
देश में दक्षिणपंथी विचारधारा के बढ़ते प्रभाव के चलते भारत के लोगों ने एक स्वघोषित हिन्दू राष्ट्रवादी को  प्रधानमंत्री के रूप में चुना है। लोगों ने उन्हें इसलिए चुना है क्योंकि उन्हें उम्मीद है कि वे देश का विकास करेंगे और करोड़ों बेरोजगारों को काम मिलेगा। क्या उनकी आशाएं पूरी होंगी? क्या सांप्रदायिक श्रेष्ठी वर्ग और पूंजीपतियों के गठबंधन द्वारा प्रस्तावित विकास के मॉडल का लाभ आम भारतीयों को मिलेगा?या फिर यह मॉडल, उदारवाद और प्रजातंत्र के लिए एक खतरा बनकर उभरेगा?इन प्रश्नों का उत्तर केवल समय ही देगा। -इरफान इंजीनियर

1 टिप्पणी:

राजा कुमारेन्द्र सिंह सेंगर ने कहा…
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