उच्चतम न्यायालय ने 7 जुलाई 2014 को घोषित अपने एक निर्णय में कहा कि फतवों की कोई कानूनी वैधता नहीं है और फतवे किसी फौजदारी या दीवानी मामले में निर्णय का आधार नहीं बन सकते। स्वतंत्र भारत की संवैधानिक व्यवस्था में फतवों के लिए कोई जगह नहीं है। यद्यपि सुप्रीम कोर्ट ने इस्लामिक धार्मिक संस्थाओं जैसे दारूलउलूम, देवबंद, दारूलकज़ा या निजामेकज़ा द्वारा फतवे जारी करने पर प्रतिबंध नहीं लगाया है क्योंकि'फतवे अपने आप में गैरकानूनी नहीं हैं' परंतु न्यायालय ने यह स्पष्ट किया है कि 'फतवे अदालती डिक्री नहीं है और ना ही वे न्यायालयों, राज्य अथवा व्यक्ति पर बंधनकारी हैं।'
उच्चतम न्यायालय ने इस मामले में संतुलित रूख अपनाया है। जहाँ उसने फतवों को प्रतिबंधित नहीं किया है वहीं यह स्पष्ट कर दिया है कि वे बंधनकारी नहीं होंगे और अदालतें उनका संज्ञान नहीं लेंगी। न्यायालय किसी भी व्यक्ति को अपनी धार्मिक राय व्यक्त करने से नहीं रोक सकता क्योंकि संविधान का अनुच्छेद 25 प्रत्येक नागरिक को अपनी पसंद का धर्म मानने, उसका पालन करने और उसका प्रचार करने का अधिकार देता है। परंतु ये विचार किसी तीसरे व्यक्ति पर लादे नहीं जा सकते और ना ही किसी को उन्हें मानने पर मजबूर किया जा सकता है। मुस्लिम समुदाय में साक्षरता व शिक्षा का स्तर नीचा होने के कारण व सामाजिक.आर्थिक पिछड़ेपन और सुरक्षा की भावना के अभाव के चलते, समुदाय के गरीब तबके के सदस्य आधा.अधूरा ज्ञान रखने वाले इमामों ;वह व्यक्ति जो मस्जिदों में नमाज का नेतृत्व करता है,द् द्वारा जारी फतवों को भी ईश्वरीय कानून समझ बैठते हैं। इन लोगों के दैनिक जीवन में धार्मिक संस्थायें और संगठन महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। वे उन्हें मदद और नैतिक सहारा उपलब्ध करवाते हैं जिसके कारण उन पर इन संगठनों का गहरा प्रभाव रहता है। फतवों आदि को पुरूषों की तुलना में महिलाएं अधिक महत्व देती हैं क्योंकि मुस्लिम समुदाय में अब भी पितृसत्तामक मूल्यों का बोलबाला है और महिलाओं को पुरूषों के बराबर दर्जा उपलब्ध नहीं है। असम की एक मस्जिद के इमाम ने कुछ समय पहले एक बहुत अजीब सा फतवा जारी किया था। एक महिला ने अपने पड़ोसियों को बताया कि उसके पति ने सपने में तीन बार तलाक शब्द का उच्चारण किया। पति.पत्नि दोनों ने इस सपने को हंसी में उड़ा दिया परंतु पड़ोसियों ने इसकी सूचना इमाम को दे दी जिसने तुरंत यह घोषणा कर दी कि सपने में भी तीन बार तलाक कहने से पति.पत्नि का तलाक हो गया है और अब उनका साथ रहना हराम है। इस तरह के मूर्खतापूर्ण फतवों को भी समुदाय के कुछ सदस्य महत्व देते हैं और इससे समुदाय की छवि को गंभीर क्षति पहुंचती है। कई बार मुफ्ती और इमाम, परस्पर विरोधाभासी फतवे जारी कर देते हैं। सुन्नियों में चार विधिशास्त्र प्रचलित हैं.हनाफी, ,शफी व मलिकी और शियाओं में तीन.जाफरी, इस्माइली व जैदी। जाहिर है कि जो इमाम या मुफ्ती इन सात विधिशास्त्रों में से जिसे मानता है, वह उसके हिसाब से फतवा जारी कर देता है। ऐसे में इन फतवों में परस्पर विरोधाभास स्वाभाविक है।
फतवों के बारे में कई तरह के भ्रम हैं। फतवे जारी करना और वैवाहिक विवादों में मध्यस्थता करना दो अलग.अलग चीजें हैं। फतवे जारी करने का काम दारूलइफ्ता द्वारा किया जाता है जबकि वैवाहिक विवादों में मध्यस्थता करने का काम दारूलकज़ा या निजामेकज़ा का है। कभी.कभी बिरादरी के सदस्य मिलकर भी इस तरह के विवादों का निपटारा करते हैं। दारूलकज़ा द्वारा की जाने वाली मध्यस्थता को ही शरिया अदालत कहा जाता है। इस मामले में याचिकाकर्ता एडवोकेट विश्वलोचन मदान ने उच्चतम न्यायालय से यह प्रार्थना की थी कि शरिया अदालतों पर प्रतिबंध लगाया जाए और काजियों और नायब काजियों को आम लोगों की जिंदगी में हस्तक्षेप करने के अधिकार से वंचित किया जाए।
फतवाए अरबी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है राय या मत। दूसरे शब्दों मेंए फतवा, शरियत से जुड़े किसी मसले पर फतवा जारी करने वाले की राय है। चूंकि इस्लाम में पुरोहित वर्ग नहीं है अतः फतवा जारी करने वाला चाहे कितना ही विद्वान क्यों न हो, फतवा कभी किसी पर बंधनकारी नहीं हो सकता। दारूलइफ्ता द्वारा जारी हर फतवे की अंतिम पंक्ति यह होती है,'परंतु अल्लाह बेहतर जानता है'। इन शब्दों से ही यह स्पष्ट है कि फतवा जारी करने वाला यह स्वीकार कर रहा है कि उसने अपने ज्ञान के हिसाब से जो भी कहा है वह बंधनकारी नहीं है क्योंकि'अल्लाह बेहतर जानता है'।
फतवा तब जारी किया जाता है जब कोई व्यक्ति अपनी रोजमर्रा की जिंदगी से जुड़े किसी मसले पर शरियत के अनुरूप राय मांगे। इस तरह की राय कोई भी व्यक्ति मांग सकता है और यह आवश्यक नहीं है कि मुद्दा उससे ही संबंधित हो। कई बार पत्रकार,मस्जिदों के इमामों से किसी भी मुद्दे पर उनकी राय पूछ लेते हैं। इन इमामों को इस्लामिक धर्मशास्त्र का बहुत अल्प ज्ञान होता है। इनकी राय को बाद में फतवे के रूप में अखबारों में छापा जाता है या टीवी चैनलों पर प्रसारित किया जाता है। इसका उद्देश्य अखबार की बिक्री या चैनल का टीआरपी बढ़ाना होता है। दूसरे अखबार व चैनल भी इन फतवों पर महीनों चर्चा करते हैं। इमराना के मामले में फतवा एक पत्रकार के अनुरोध पर जारी किया गया था ना कि इमराना या उसके पति या उसके बलात्कारी ससुर के कहने पर।
फतवे केवल इस्लामिक विद्वानों द्वारा,इस्लामिक कानून के आधार पर, जारी किए जा सकते हैं। जो व्यक्ति फतवे जारी करने के लिए अधिकृत होता है उसे मुफ्ती कहा जाता है। जो व्यक्ति फतवे जारी करता है उसका एकमात्र उद्देश्य फतवा मांगने वाले को सही रास्ता दिखाना होना चाहिए। उसे धर्मशास्त्र का गहरा ज्ञान होना चाहिए। उसे संतुलित व शांत तबियत का होना चाहिए और उसे समकालीन मुद्दों और सामान्य लोगों के जीवन की जानकारी होनी चाहिए। अल्लामा इकबाल ने अपनी पुस्तक 'रिकन्सट्रक्शन ऑफ रिलीजियस थॉट इन इस्लाम' में लिखा है कि मुसलमानों की हर पीढ़ी को सभी मुद्दों पर पुनर्विचार करना चाहिए और अपनी बदली हुई आवश्यकताओं के अनुरूप नए नियम और कानून बनाने चाहिए। गांवों की मस्जिदों में बहुत कम वेतन पर काम करने वाले इमामों को न तो धर्मशास्त्र का ज्ञान होता है और ना ही वे इतने बुद्धिमान व समझदार होते हैं कि किसी मुद्दे पर ठीक राय दे सकें। जो कुछ लिखा है वे उसे यंत्रवत दोहरा देते हैं। इससे कई तरह की समस्याएं उत्पन्न होती हैं और वे उपासना, अर्थव्यवस्था, परिवार, राजनीति, सरकार आदि किसी भी मुद्दे पर अपनी अधकचरी राय को फतवे के रूप में प्रस्तुत कर देते हैं।
फतवा किसी व्यक्ति विशेष से संबंधित हो सकता है या फिर पूरे समुदाय से। मौलाना हुसैन अहमद मदनी ने विभिन्न पंथों के उलेमा द्वारा भारत के विभाजन के विरूद्ध जारी सौ से अधिक फतवों को संकलित कर एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया था। जिस नये मुस्लिम देश को बनाने की मांग की जा रही थी उसका नाम पाकिस्तान रखा जाना प्रस्तावित था। मदनी का कहना था कि किसी भी भौगोलिक इलाके को'पाक' अर्थात पवित्र कहना गुनाह है। उनका यह भी तर्क था कि इस्लाम के पैगम्बर ने जिस पहले राज्य की स्थापना की थी वह समग्र राष्ट्रवाद पर आधारित था। मदीना के समझौते के अनुसार मुसलमानों, ईसाईयों और यहूदियों ने यह प्रण किया था कि मदीना पर यदि उसके शत्रु हमला करेंगे तो वे एकसाथ मिलकर शत्रु से मुकाबला करेंगे परंतु साथ हीए मदीना के सभी रहवासी अपने.अपने धर्म का पालन करने के लिए स्वतंत्र होंगे। भारत का राष्ट्रवाद भी समग्र राष्ट्रवाद था जिसमें सभी धर्मों को फलने.फूलने का मौका उपलब्ध था और मुसलमानों को अपने धर्म का पालन करने की आजादी थी। मदनी ने देश के एक कोने से दूसरे कोने तक यात्राएं कीं और सार्वजनिक सभाओं में मुसलमानों से यह अपील की कि पाकिस्तान के निर्माण का विरोध करना उनका धार्मिक कर्तव्य है।
इसी तरह निर्दोशों को निशाना बनाने वाले आतंकवाद के खिलाफ भारत और दुनिया के अन्य कई देशों के उलेमा ने फतवे जारी किए हैं। तुर्की के मर्दिन में हुई बैठक में सऊदी अरब, तुर्की, भारत, सेनेगल, कुवैत,ईरान,मोरक्को व इंडोनेशिया से आए इस्लामिक विद्वान इकट्ठा हुए। इनमें बोस्निया के बड़े मुफ्ती मुस्तफा सेरिक, मोरिटीनिया के शेख अब्दुल्ला बिन बया और यमन के शेख हबीब अली अल.जिफ़री शामिल थे। इस बैठक में इन सभी विद्वानो ने इमाम इब्न तैमिया के उस फतवे को खारिज किया जिसका इस्तेमाल ओसामा बिन लादेन और उसके समर्थक अपनी तथाकथित जिहाद को उचित ठहराने के लिए कर रहे थे। इमाम इब्न तयमिया के फतवे में यह कहा गया था कि किसी अन्यायी शासक के खिलाफ हिंसा का इस्तेमाल औचित्यपूर्ण है यदि अन्याय से लड़ने का वही एकमात्र रास्ता बचा हो। इमाम हनबल ने अन्यायी शासक के खिलाफ भी विद्रोह को प्रतिबंधित किया था क्योंकि इससे खून.खराबा और अराजकता होती। मर्दिन सम्मेलन में नागरिकों और निर्दोषों के खिलाफ अकारण हिंसा को गलत ठहराया गया और उसकी निंदा की गई। यह कहा गया कि आज की दुनिया में अन्यायी शासक से मुक्ति पाने के लिए भी हिंसा के अतिरिक्त अन्य तरीके उपलब्ध हैं। परंतु यह दुःख की बात है कि इस तरह के सकारात्मक फतवों को मीडिया पर्याप्त महत्व नहीं देता। इसका एक कारण तो जानकारी का अभाव है और दूसरा यह कि मीडियाए इस्लाम को पिछड़ा हुआ,हिंसक व आक्रामक धर्म मानता है और इसलिए जब इस्लामिक विद्वान शांति, रहम और करूणा की बात करते हैं तो मीडिया उसे महत्व नहीं देता।
फतवे और मुस्लिम महिलाएं
समुदाय के भीतर सब कुछ ठीक नहीं है। मुफ्ती अपने.अपने विधिशास्त्र के नियमों का यंत्रवत पालन करते हैं और फतवा जारी करने के पहले बदली हुई परिस्थितियों और संदर्भ पर विचार ही नहीं करते। असली समस्या यह है कि भारत में इज्तिहाद ;बदली हुई परिस्थितियों के अनुरूप इस्लामिक शिक्षाओं की रचनात्मक व्याख्या व अमल,के दरवाजे मध्यकाल में ही बंद कर दिए गए थे। भारत में अंग्रेजों के आने के पहले तक इस्लामिक विधिशास्त्र एक विकसित होता विज्ञान था, जिसमें बदलते वक्त के अनुसार परिवर्तन किए जाते थे। सन 1772 की वारेन हैस्टिंग्स योजना के अंतर्गत भारत में दीवानी और फौजदारी अदालतें स्थापित की गईं और उत्तराधिकार,विवाह आदि के मामलो में हिंदुओं और मुसलमानों को उनके परंपरागत नियमों व कानूनों को मानने की स्वतंत्रता दी गई। सन् 1791 में हैस्टिंग्स के निर्देश पर चार्ल्स हैमिंग्टन ने 'हिदाया' ;पथ प्रदर्शक;का अरबी से अंग्रेजी में अनुवाद किया। इसके बाद से ब्रिटिश अदालतें लिखित सामग्री के आधार पर अपने निर्णय देने लगीं और शरियत में समय के साथ होने वाले परिवर्तनों की प्रक्रिया थम गई। मौलाना मोहम्मद कासिम नानोटवी ने इस्लामिक आस्थाओं पर संभावित पश्चिमी हमले को रोकने के लिए दारूलउलूम देवबंद की स्थापना की।
दारूलउलूम ने दारूलइफ्ता का गठन किया और तभी से दारूलइफ्ता, इस्लाम के दकियानूसी वहाबी व हनाफी विधिशास्त्र के हिसाब से फतवे जारी करता आ रहा है। इन दकियानूसी फतवों से सबसे ज्यादा परेशानियां मुस्लिम महिलाओं को उठानी पड़ रही हैं क्योंकि इन फतवों के जरिये उनके अधिकारों को कम किया जा रहा है और उनकी आजादी पर बंदिशें लगाई जा रही हैं। ये फतवे यह मानकर जारी किए जाते हैं कि महिलाओं को बहुत ही कम अधिकार उपलब्ध हैं और उनका एकमात्र काम अपने पतियों की सेवा करना है। ये फतवे पुरूषों को महिलाओं के शरीर पर पूरा अधिकार देते हैं। इनके अनुसार, पुरूष, महिलाओं के आने.जाने पर नियंत्रण रख सकते हैं और महिलाएं केवल पुरूषों की शारीरिक भूख को शांत करने, उनके बच्चे पैदा करने और घर का कामकाज निपटाने के लिए बनी हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि यह सोच इस्लाम की मूल आत्मा के विरूद्ध है। डाक्टर असगर अली इंजीनियर के अनुसार, पवित्र कुरान,मुस्लिम महिलाओं को पूरी स्वतंत्रता देती है। वे अपने जीवनयापन के लिए धन कमा सकती हैं और अपनी कमाई को अपनी मर्जी से खर्च कर सकती हैं। तलाक की स्थिति में उन्हें अपने पतियों से गुजारा भत्ता पाने का हक है और वे अपनी मर्जी के वस्त्र पहन सकती हैं बशर्ते उससे उनकी जीनत का सार्वजनिक प्रदर्शन न होता हो। उन्हें अपने पति को एकतरफा तलाक देने का हक है जिसे खुला कहा जाता है। उन्हें ज्ञान प्राप्त करने का अधिकार है, मस्जिद में नमाज पढ़ने का हक है और वे मस्जिद में पुरूषों और महिला नमाजियों के समूह का नेतृत्व भी कर सकती हैं। वे काज़ी की भूमिका भी अदा कर सकती हैं। स्थान की कमी के कारण हम यहां इन अधिकारों का कुरान में संदर्भ नहीं दे रहे हैं।
हाल में एक फतवा जारी किया गया जिसमें यह कहा गया कि महिलाओं को किसी ऐसे संस्थान में काम नहीं करना चाहिए जहां दूसरे पुरूष काम करते होंए जब तक कि उनके परिवार को चलाने के लिए उनकी आमदनी आवश्यक न हो। और अगर मजबूरी में उनको पुरूष सहयोगियों के साथ काम करना भी पड़े तो कार्यालय में नख से शिख तक उनका पूरा शरीर ढ़का होना चाहिए। कश्मीर में लड़कियों के बैंड के विरूद्ध फतवा जारी किया गया जिसके बाद उस बैंड को भंग कर दिया गया। कई फतवों में टीवी चैनल देखनाए संगीत सुनना आदि को भी महिलाओं के लिए प्रतिबंधित किया गया है। सबसे ज्यादा खतरनाक और दुर्भाग्यपूर्ण फतवा वह था जिसमें महिलाओं को सूफी दरगाहों में प्रवेश करने से रोका गया था। जबकि सूफी दरगाहों में महिलाओं और पुरूषोंए हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच किसी तरह का कोई भेदभाव नहीं होता। अगस्त 2005 में दारूलउलूम ने एक फतवा जारी कर मुस्लिम महिलाओं के वोट देने पर प्रतिबंध लगा दिया और यह कहा कि यदि वे वोट देने जाएं भी तो बुर्का पहनकर जाएं। और उनके चुनाव लड़ने का तो प्रश्न ही नहीं था। यह सौभाग्य और संतोष की बात है कि मुस्लिम समुदाय,इस तरह के बेवकूफाना फतवों को जरा भी तवज्जो नहीं देता।
सबसे पहले हमें उच्चतम न्यायालय के फैसले का स्वागत करना चाहिए जो कि मुस्लिम समुदाय को यह याद दिलाता है कि यद्यपि फतवे जारी करना असंवैधानिक नहीं है परंतु फतवे केवल जारी करने वाले की राय है जो किसी पर बंधनकारी नहीं हैं। उच्चतम न्यायालय ने फतवा जारी करने वाले व्यक्तियों और संस्थाओं को यह सलाह भी दी है कि वे किसी तीसरे व्यक्ति या पक्ष, जिसका संबंधित मामले से कोई लेना.देना नहीं हो, के कहने पर फतवा जारी न करें। क्योंकि ऐसा करने से कई प्रकार की समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं।
हमें मुस्लिम समुदाय व विशेषकर गांवों व कस्बों में रहने वाली महिलाओं को यह समझाना चाहिए कि उनके लिए फतवों का पालन करना आवश्यक नहीं है। जहां भी संभव हो हमें छोटी.छोटी सभाएं आयोजित कर उच्चतम न्यायालय के इस निर्णय का स्वागत करना चाहिए। इसमें कोई संदेह नहीं कि शरिया अदालतों की तुलना में संविधान के अंतर्गत काम करने वाली अदालतों ने मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों और पात्रताओं की रक्षा के लिए कहीं ज्यादा किया है.फिर चाहे वह तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं को गुजारा भत्ता देने का सवाल हो या केवल तीन बार तलाक शब्द का उच्चारण करके तलाक देने की प्रक्रिया को गैरकानूनी ठहराने का। बच्चों की अभिरक्षा, उत्तराधिकार व घरेलू हिंसा का सामना कर रही मुस्लिम महिलाओं को सुरक्षा देने के मामलों में भी सामान्य अदालतों और कानूनों ने धार्मिक अदालतों और कानूनों की तुलना में महिलाओं की कहीं अधिक मदद की है। जाहिर है कि मुस्लिम महिलाओं को वहीं जाना चाहिए जहां उन्हें न्याय मिले।
-इरफान इंजीनियर
उच्चतम न्यायालय ने इस मामले में संतुलित रूख अपनाया है। जहाँ उसने फतवों को प्रतिबंधित नहीं किया है वहीं यह स्पष्ट कर दिया है कि वे बंधनकारी नहीं होंगे और अदालतें उनका संज्ञान नहीं लेंगी। न्यायालय किसी भी व्यक्ति को अपनी धार्मिक राय व्यक्त करने से नहीं रोक सकता क्योंकि संविधान का अनुच्छेद 25 प्रत्येक नागरिक को अपनी पसंद का धर्म मानने, उसका पालन करने और उसका प्रचार करने का अधिकार देता है। परंतु ये विचार किसी तीसरे व्यक्ति पर लादे नहीं जा सकते और ना ही किसी को उन्हें मानने पर मजबूर किया जा सकता है। मुस्लिम समुदाय में साक्षरता व शिक्षा का स्तर नीचा होने के कारण व सामाजिक.आर्थिक पिछड़ेपन और सुरक्षा की भावना के अभाव के चलते, समुदाय के गरीब तबके के सदस्य आधा.अधूरा ज्ञान रखने वाले इमामों ;वह व्यक्ति जो मस्जिदों में नमाज का नेतृत्व करता है,द् द्वारा जारी फतवों को भी ईश्वरीय कानून समझ बैठते हैं। इन लोगों के दैनिक जीवन में धार्मिक संस्थायें और संगठन महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। वे उन्हें मदद और नैतिक सहारा उपलब्ध करवाते हैं जिसके कारण उन पर इन संगठनों का गहरा प्रभाव रहता है। फतवों आदि को पुरूषों की तुलना में महिलाएं अधिक महत्व देती हैं क्योंकि मुस्लिम समुदाय में अब भी पितृसत्तामक मूल्यों का बोलबाला है और महिलाओं को पुरूषों के बराबर दर्जा उपलब्ध नहीं है। असम की एक मस्जिद के इमाम ने कुछ समय पहले एक बहुत अजीब सा फतवा जारी किया था। एक महिला ने अपने पड़ोसियों को बताया कि उसके पति ने सपने में तीन बार तलाक शब्द का उच्चारण किया। पति.पत्नि दोनों ने इस सपने को हंसी में उड़ा दिया परंतु पड़ोसियों ने इसकी सूचना इमाम को दे दी जिसने तुरंत यह घोषणा कर दी कि सपने में भी तीन बार तलाक कहने से पति.पत्नि का तलाक हो गया है और अब उनका साथ रहना हराम है। इस तरह के मूर्खतापूर्ण फतवों को भी समुदाय के कुछ सदस्य महत्व देते हैं और इससे समुदाय की छवि को गंभीर क्षति पहुंचती है। कई बार मुफ्ती और इमाम, परस्पर विरोधाभासी फतवे जारी कर देते हैं। सुन्नियों में चार विधिशास्त्र प्रचलित हैं.हनाफी, ,शफी व मलिकी और शियाओं में तीन.जाफरी, इस्माइली व जैदी। जाहिर है कि जो इमाम या मुफ्ती इन सात विधिशास्त्रों में से जिसे मानता है, वह उसके हिसाब से फतवा जारी कर देता है। ऐसे में इन फतवों में परस्पर विरोधाभास स्वाभाविक है।
फतवों के बारे में कई तरह के भ्रम हैं। फतवे जारी करना और वैवाहिक विवादों में मध्यस्थता करना दो अलग.अलग चीजें हैं। फतवे जारी करने का काम दारूलइफ्ता द्वारा किया जाता है जबकि वैवाहिक विवादों में मध्यस्थता करने का काम दारूलकज़ा या निजामेकज़ा का है। कभी.कभी बिरादरी के सदस्य मिलकर भी इस तरह के विवादों का निपटारा करते हैं। दारूलकज़ा द्वारा की जाने वाली मध्यस्थता को ही शरिया अदालत कहा जाता है। इस मामले में याचिकाकर्ता एडवोकेट विश्वलोचन मदान ने उच्चतम न्यायालय से यह प्रार्थना की थी कि शरिया अदालतों पर प्रतिबंध लगाया जाए और काजियों और नायब काजियों को आम लोगों की जिंदगी में हस्तक्षेप करने के अधिकार से वंचित किया जाए।
फतवाए अरबी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है राय या मत। दूसरे शब्दों मेंए फतवा, शरियत से जुड़े किसी मसले पर फतवा जारी करने वाले की राय है। चूंकि इस्लाम में पुरोहित वर्ग नहीं है अतः फतवा जारी करने वाला चाहे कितना ही विद्वान क्यों न हो, फतवा कभी किसी पर बंधनकारी नहीं हो सकता। दारूलइफ्ता द्वारा जारी हर फतवे की अंतिम पंक्ति यह होती है,'परंतु अल्लाह बेहतर जानता है'। इन शब्दों से ही यह स्पष्ट है कि फतवा जारी करने वाला यह स्वीकार कर रहा है कि उसने अपने ज्ञान के हिसाब से जो भी कहा है वह बंधनकारी नहीं है क्योंकि'अल्लाह बेहतर जानता है'।
फतवा तब जारी किया जाता है जब कोई व्यक्ति अपनी रोजमर्रा की जिंदगी से जुड़े किसी मसले पर शरियत के अनुरूप राय मांगे। इस तरह की राय कोई भी व्यक्ति मांग सकता है और यह आवश्यक नहीं है कि मुद्दा उससे ही संबंधित हो। कई बार पत्रकार,मस्जिदों के इमामों से किसी भी मुद्दे पर उनकी राय पूछ लेते हैं। इन इमामों को इस्लामिक धर्मशास्त्र का बहुत अल्प ज्ञान होता है। इनकी राय को बाद में फतवे के रूप में अखबारों में छापा जाता है या टीवी चैनलों पर प्रसारित किया जाता है। इसका उद्देश्य अखबार की बिक्री या चैनल का टीआरपी बढ़ाना होता है। दूसरे अखबार व चैनल भी इन फतवों पर महीनों चर्चा करते हैं। इमराना के मामले में फतवा एक पत्रकार के अनुरोध पर जारी किया गया था ना कि इमराना या उसके पति या उसके बलात्कारी ससुर के कहने पर।
फतवे केवल इस्लामिक विद्वानों द्वारा,इस्लामिक कानून के आधार पर, जारी किए जा सकते हैं। जो व्यक्ति फतवे जारी करने के लिए अधिकृत होता है उसे मुफ्ती कहा जाता है। जो व्यक्ति फतवे जारी करता है उसका एकमात्र उद्देश्य फतवा मांगने वाले को सही रास्ता दिखाना होना चाहिए। उसे धर्मशास्त्र का गहरा ज्ञान होना चाहिए। उसे संतुलित व शांत तबियत का होना चाहिए और उसे समकालीन मुद्दों और सामान्य लोगों के जीवन की जानकारी होनी चाहिए। अल्लामा इकबाल ने अपनी पुस्तक 'रिकन्सट्रक्शन ऑफ रिलीजियस थॉट इन इस्लाम' में लिखा है कि मुसलमानों की हर पीढ़ी को सभी मुद्दों पर पुनर्विचार करना चाहिए और अपनी बदली हुई आवश्यकताओं के अनुरूप नए नियम और कानून बनाने चाहिए। गांवों की मस्जिदों में बहुत कम वेतन पर काम करने वाले इमामों को न तो धर्मशास्त्र का ज्ञान होता है और ना ही वे इतने बुद्धिमान व समझदार होते हैं कि किसी मुद्दे पर ठीक राय दे सकें। जो कुछ लिखा है वे उसे यंत्रवत दोहरा देते हैं। इससे कई तरह की समस्याएं उत्पन्न होती हैं और वे उपासना, अर्थव्यवस्था, परिवार, राजनीति, सरकार आदि किसी भी मुद्दे पर अपनी अधकचरी राय को फतवे के रूप में प्रस्तुत कर देते हैं।
फतवा किसी व्यक्ति विशेष से संबंधित हो सकता है या फिर पूरे समुदाय से। मौलाना हुसैन अहमद मदनी ने विभिन्न पंथों के उलेमा द्वारा भारत के विभाजन के विरूद्ध जारी सौ से अधिक फतवों को संकलित कर एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया था। जिस नये मुस्लिम देश को बनाने की मांग की जा रही थी उसका नाम पाकिस्तान रखा जाना प्रस्तावित था। मदनी का कहना था कि किसी भी भौगोलिक इलाके को'पाक' अर्थात पवित्र कहना गुनाह है। उनका यह भी तर्क था कि इस्लाम के पैगम्बर ने जिस पहले राज्य की स्थापना की थी वह समग्र राष्ट्रवाद पर आधारित था। मदीना के समझौते के अनुसार मुसलमानों, ईसाईयों और यहूदियों ने यह प्रण किया था कि मदीना पर यदि उसके शत्रु हमला करेंगे तो वे एकसाथ मिलकर शत्रु से मुकाबला करेंगे परंतु साथ हीए मदीना के सभी रहवासी अपने.अपने धर्म का पालन करने के लिए स्वतंत्र होंगे। भारत का राष्ट्रवाद भी समग्र राष्ट्रवाद था जिसमें सभी धर्मों को फलने.फूलने का मौका उपलब्ध था और मुसलमानों को अपने धर्म का पालन करने की आजादी थी। मदनी ने देश के एक कोने से दूसरे कोने तक यात्राएं कीं और सार्वजनिक सभाओं में मुसलमानों से यह अपील की कि पाकिस्तान के निर्माण का विरोध करना उनका धार्मिक कर्तव्य है।
इसी तरह निर्दोशों को निशाना बनाने वाले आतंकवाद के खिलाफ भारत और दुनिया के अन्य कई देशों के उलेमा ने फतवे जारी किए हैं। तुर्की के मर्दिन में हुई बैठक में सऊदी अरब, तुर्की, भारत, सेनेगल, कुवैत,ईरान,मोरक्को व इंडोनेशिया से आए इस्लामिक विद्वान इकट्ठा हुए। इनमें बोस्निया के बड़े मुफ्ती मुस्तफा सेरिक, मोरिटीनिया के शेख अब्दुल्ला बिन बया और यमन के शेख हबीब अली अल.जिफ़री शामिल थे। इस बैठक में इन सभी विद्वानो ने इमाम इब्न तैमिया के उस फतवे को खारिज किया जिसका इस्तेमाल ओसामा बिन लादेन और उसके समर्थक अपनी तथाकथित जिहाद को उचित ठहराने के लिए कर रहे थे। इमाम इब्न तयमिया के फतवे में यह कहा गया था कि किसी अन्यायी शासक के खिलाफ हिंसा का इस्तेमाल औचित्यपूर्ण है यदि अन्याय से लड़ने का वही एकमात्र रास्ता बचा हो। इमाम हनबल ने अन्यायी शासक के खिलाफ भी विद्रोह को प्रतिबंधित किया था क्योंकि इससे खून.खराबा और अराजकता होती। मर्दिन सम्मेलन में नागरिकों और निर्दोषों के खिलाफ अकारण हिंसा को गलत ठहराया गया और उसकी निंदा की गई। यह कहा गया कि आज की दुनिया में अन्यायी शासक से मुक्ति पाने के लिए भी हिंसा के अतिरिक्त अन्य तरीके उपलब्ध हैं। परंतु यह दुःख की बात है कि इस तरह के सकारात्मक फतवों को मीडिया पर्याप्त महत्व नहीं देता। इसका एक कारण तो जानकारी का अभाव है और दूसरा यह कि मीडियाए इस्लाम को पिछड़ा हुआ,हिंसक व आक्रामक धर्म मानता है और इसलिए जब इस्लामिक विद्वान शांति, रहम और करूणा की बात करते हैं तो मीडिया उसे महत्व नहीं देता।
फतवे और मुस्लिम महिलाएं
समुदाय के भीतर सब कुछ ठीक नहीं है। मुफ्ती अपने.अपने विधिशास्त्र के नियमों का यंत्रवत पालन करते हैं और फतवा जारी करने के पहले बदली हुई परिस्थितियों और संदर्भ पर विचार ही नहीं करते। असली समस्या यह है कि भारत में इज्तिहाद ;बदली हुई परिस्थितियों के अनुरूप इस्लामिक शिक्षाओं की रचनात्मक व्याख्या व अमल,के दरवाजे मध्यकाल में ही बंद कर दिए गए थे। भारत में अंग्रेजों के आने के पहले तक इस्लामिक विधिशास्त्र एक विकसित होता विज्ञान था, जिसमें बदलते वक्त के अनुसार परिवर्तन किए जाते थे। सन 1772 की वारेन हैस्टिंग्स योजना के अंतर्गत भारत में दीवानी और फौजदारी अदालतें स्थापित की गईं और उत्तराधिकार,विवाह आदि के मामलो में हिंदुओं और मुसलमानों को उनके परंपरागत नियमों व कानूनों को मानने की स्वतंत्रता दी गई। सन् 1791 में हैस्टिंग्स के निर्देश पर चार्ल्स हैमिंग्टन ने 'हिदाया' ;पथ प्रदर्शक;का अरबी से अंग्रेजी में अनुवाद किया। इसके बाद से ब्रिटिश अदालतें लिखित सामग्री के आधार पर अपने निर्णय देने लगीं और शरियत में समय के साथ होने वाले परिवर्तनों की प्रक्रिया थम गई। मौलाना मोहम्मद कासिम नानोटवी ने इस्लामिक आस्थाओं पर संभावित पश्चिमी हमले को रोकने के लिए दारूलउलूम देवबंद की स्थापना की।
दारूलउलूम ने दारूलइफ्ता का गठन किया और तभी से दारूलइफ्ता, इस्लाम के दकियानूसी वहाबी व हनाफी विधिशास्त्र के हिसाब से फतवे जारी करता आ रहा है। इन दकियानूसी फतवों से सबसे ज्यादा परेशानियां मुस्लिम महिलाओं को उठानी पड़ रही हैं क्योंकि इन फतवों के जरिये उनके अधिकारों को कम किया जा रहा है और उनकी आजादी पर बंदिशें लगाई जा रही हैं। ये फतवे यह मानकर जारी किए जाते हैं कि महिलाओं को बहुत ही कम अधिकार उपलब्ध हैं और उनका एकमात्र काम अपने पतियों की सेवा करना है। ये फतवे पुरूषों को महिलाओं के शरीर पर पूरा अधिकार देते हैं। इनके अनुसार, पुरूष, महिलाओं के आने.जाने पर नियंत्रण रख सकते हैं और महिलाएं केवल पुरूषों की शारीरिक भूख को शांत करने, उनके बच्चे पैदा करने और घर का कामकाज निपटाने के लिए बनी हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि यह सोच इस्लाम की मूल आत्मा के विरूद्ध है। डाक्टर असगर अली इंजीनियर के अनुसार, पवित्र कुरान,मुस्लिम महिलाओं को पूरी स्वतंत्रता देती है। वे अपने जीवनयापन के लिए धन कमा सकती हैं और अपनी कमाई को अपनी मर्जी से खर्च कर सकती हैं। तलाक की स्थिति में उन्हें अपने पतियों से गुजारा भत्ता पाने का हक है और वे अपनी मर्जी के वस्त्र पहन सकती हैं बशर्ते उससे उनकी जीनत का सार्वजनिक प्रदर्शन न होता हो। उन्हें अपने पति को एकतरफा तलाक देने का हक है जिसे खुला कहा जाता है। उन्हें ज्ञान प्राप्त करने का अधिकार है, मस्जिद में नमाज पढ़ने का हक है और वे मस्जिद में पुरूषों और महिला नमाजियों के समूह का नेतृत्व भी कर सकती हैं। वे काज़ी की भूमिका भी अदा कर सकती हैं। स्थान की कमी के कारण हम यहां इन अधिकारों का कुरान में संदर्भ नहीं दे रहे हैं।
हाल में एक फतवा जारी किया गया जिसमें यह कहा गया कि महिलाओं को किसी ऐसे संस्थान में काम नहीं करना चाहिए जहां दूसरे पुरूष काम करते होंए जब तक कि उनके परिवार को चलाने के लिए उनकी आमदनी आवश्यक न हो। और अगर मजबूरी में उनको पुरूष सहयोगियों के साथ काम करना भी पड़े तो कार्यालय में नख से शिख तक उनका पूरा शरीर ढ़का होना चाहिए। कश्मीर में लड़कियों के बैंड के विरूद्ध फतवा जारी किया गया जिसके बाद उस बैंड को भंग कर दिया गया। कई फतवों में टीवी चैनल देखनाए संगीत सुनना आदि को भी महिलाओं के लिए प्रतिबंधित किया गया है। सबसे ज्यादा खतरनाक और दुर्भाग्यपूर्ण फतवा वह था जिसमें महिलाओं को सूफी दरगाहों में प्रवेश करने से रोका गया था। जबकि सूफी दरगाहों में महिलाओं और पुरूषोंए हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच किसी तरह का कोई भेदभाव नहीं होता। अगस्त 2005 में दारूलउलूम ने एक फतवा जारी कर मुस्लिम महिलाओं के वोट देने पर प्रतिबंध लगा दिया और यह कहा कि यदि वे वोट देने जाएं भी तो बुर्का पहनकर जाएं। और उनके चुनाव लड़ने का तो प्रश्न ही नहीं था। यह सौभाग्य और संतोष की बात है कि मुस्लिम समुदाय,इस तरह के बेवकूफाना फतवों को जरा भी तवज्जो नहीं देता।
सबसे पहले हमें उच्चतम न्यायालय के फैसले का स्वागत करना चाहिए जो कि मुस्लिम समुदाय को यह याद दिलाता है कि यद्यपि फतवे जारी करना असंवैधानिक नहीं है परंतु फतवे केवल जारी करने वाले की राय है जो किसी पर बंधनकारी नहीं हैं। उच्चतम न्यायालय ने फतवा जारी करने वाले व्यक्तियों और संस्थाओं को यह सलाह भी दी है कि वे किसी तीसरे व्यक्ति या पक्ष, जिसका संबंधित मामले से कोई लेना.देना नहीं हो, के कहने पर फतवा जारी न करें। क्योंकि ऐसा करने से कई प्रकार की समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं।
हमें मुस्लिम समुदाय व विशेषकर गांवों व कस्बों में रहने वाली महिलाओं को यह समझाना चाहिए कि उनके लिए फतवों का पालन करना आवश्यक नहीं है। जहां भी संभव हो हमें छोटी.छोटी सभाएं आयोजित कर उच्चतम न्यायालय के इस निर्णय का स्वागत करना चाहिए। इसमें कोई संदेह नहीं कि शरिया अदालतों की तुलना में संविधान के अंतर्गत काम करने वाली अदालतों ने मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों और पात्रताओं की रक्षा के लिए कहीं ज्यादा किया है.फिर चाहे वह तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं को गुजारा भत्ता देने का सवाल हो या केवल तीन बार तलाक शब्द का उच्चारण करके तलाक देने की प्रक्रिया को गैरकानूनी ठहराने का। बच्चों की अभिरक्षा, उत्तराधिकार व घरेलू हिंसा का सामना कर रही मुस्लिम महिलाओं को सुरक्षा देने के मामलों में भी सामान्य अदालतों और कानूनों ने धार्मिक अदालतों और कानूनों की तुलना में महिलाओं की कहीं अधिक मदद की है। जाहिर है कि मुस्लिम महिलाओं को वहीं जाना चाहिए जहां उन्हें न्याय मिले।
-इरफान इंजीनियर
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