देशी तालिबानियों से संघर्ष की शुरुआत
अब मैं वे सब काम करने को तत्पर था, जो तालिबान के इस भारतीय संस्करण को चोट पहुँचा सके, इसकी शुरुआत मैंने छात्र राजनीति में विद्रोही कदम उठाने के जरिये की, भीलवाड़ा कॉलेज में आरएसएस के विद्यार्थी संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् से बगावत करके एक नया छात्र संगठन बनाया गया, जिसे विद्यार्थी अधिकार रक्षक संघ (वार्स) नाम दिया गया, संघ के ही एक अन्य बगावती स्वयंसेवक बृजराज कृष्ण उपाध्याय इसका नेतृत्व कर रहे थे, मैं इसके प्रारंभिक काल का संगठन मंत्री बना, हमने संघी छात्र संगठन के पाँव उखाड़ना चालू कर दिया, जगह-जगह पर वार्स की इकाइयाँ स्थापित होने लगीं, लोग संघ की मानसिक गुलामी से निजात पाने के लिए वार्स को विकल्प के रूप में देखने लगे, हमारे नेता बृजराज में गजब की हिम्मत और लगन रही, अद्भुत जीवट वाला व्यक्ति, उस बन्दे पर आरएसएस के लोगों ने बहुत जुल्म ढाए अलग छात्र संगठन बनाना संघ को बर्दाश्त नहीं था, इसलिए आरएसएस और एबीवीपी के कार्यकर्ताओं द्वारा उन पर कई बार जानलेवा हमले किए गए, एक बार तो मांडलगढ़़ इलाके में त्रिवेणी चैराहे के पास उनके साथ भयंकर मारपीट की गयी, सिर में पेचकश घुसेड़ दिया गया और फिर मरा समझ कर छोड़कर भाग गए, यह हमला इसलिए किया गया क्योंकि वार्स के साथी संघ से जुड़े लोगों के आपराधिक कृत्यों को उजागर कर रहे थे
दरअसल उन दिनों संघ के अल्पकालिक प्रचारक और विस्तारक किस्म के जो लोग थे, वे इस खनन क्षेत्र में अवैध एक्सप्लोजिव तथा हथकड़ी शराब बेचने वालों को संरक्षण दे रहे थे, ऐसा हमें मालूम हुआ था, यह भी पता चला कि कुछ माननीय भाई साहब ऐसे लोगों से वसूली भी करते रहे थे, बस इन्हीं बातों के बारे में सार्वजनिक रूप से बोलना हमें भारी पड़ गया, निशाने पर पूरा संगठन ही था, मगर हत्थे सिर्फ बृजराज कृष्ण उपाध्याय ही चढ़े, सो उन्हें इतना मारा गया कि वे राष्ट्रभक्तों के हाथों शहीद होते-होते बचे वैसे भी मांडलगढ़ सेंड स्टोन माइनिंग का इलाका है जहाँ पर किसी की भी जान लेना खनन माफिया के दाहिने हाथ का खेल रहा है, ऐसे इलाके में उपाध्याय को मारने की साजिश की गई थी, लेकिंन किसी प्रकार से उनकी जान बचा ली गयी, आसपास के लोगों ने गंभीर रूप से घायल उपाध्याय को समय रहते उपचार के लिए महात्मा गांधी चिकित्सालय भीलवाड़ा पहुँचा दिया, जहाँ वे लम्बे उपचार के पश्चात ठीक हो पाए। बात सिर्फ संघ के कथित अनुशासित स्वयंसेवकों के धतकरमों को उजागर करने मात्र की ही नहीं थी बल्कि चरित्र, शील और संस्कार का दंभ भरने वाले उस छात्र संगठन की कारगुजारियों के पर्दाफाश की भी थी, जिन्होंने अपनी ही छात्रा इकाई की पदाधिकारियों के शील को भंग करने जैसे पाप कर्म करने से भी गुरेज नहीं किया था, हालत इतने संगीन थे कि उनमें से एक का गर्भपात करवा कर भ्रूण हत्या जैसी अधम कार्यवाही तक को अंजाम दिया गया था। इस फर्जी शील, चरित्र और संस्कार पर हम नहीं बोलते, ऐसा तो हो नहीं सकता था, हमने जब उनकी पोल खोलनी शुरू की तो वे अपने चिर परिचित हथियार डंडे के साथ हम लोगों से विचार विमर्श करने आ पहुँचे, संघ के लोग ज्यादातर मौकों पर तर्क के स्थान पर लट्ठ का उपयोग करते हैं, उन्हें यही सिखाया गया है कि लातों के भूत बातों से नहीं मानते हैं खैर, संघी आकाओं के इशारे पर शिक्षा के मंदिरों को गुंडागर्दी के अड्डे बनाने की हर कोशिश को विफल करने के लिए वार्स बेहद मजबूती से कई साल तक भीलवाड़ा में सक्रिय रहा,कई कॉलेजों में कई बार छात्र संघ चुनाव में हमारे अभ्यर्थी जीते, हमने न केवल भाजपाई संघी छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् को, बल्कि कांग्रेसी छात्र संगठन एनएसयूआई को भी कॉलेज परिसर से खदेड़ दिया। वार्स एक वैकल्पिक छात्र संगठन के रूप में उभरा जिसने लम्बे समय तक केवल छात्र समस्याओं को ही नहीं उठाया बल्कि शहर और जिले की विभिन्न जन समस्याओं को भी प्रभावी तरीके से उठाया तथा युवाओं को जातिवादी और सांप्रदायिक छात्र संगठनों से भी दूर रखा।
ये कौन से ब्राह्मण हुए ?
संघ की वजह से अम्बेडकर छात्रावास छूट गया था और अब संघ कार्यालय भी, शहर में रहने का नया ठिकाना ढूँढना पड़ा, मेरे एक परिचित संत चैतन्य शरण शास्त्री, जो स्वयं को अटल बिहारी वाजपेयी का निजी सहायक बताते थे, वे उन दिनों कृषि उपज मंडी भीलवाडा में स्थित शिव हनुमान मंदिर पर काबिज थे, मैंने उनके साथ रहना शुरू किया, हालाँकि थे तो वे भी घनघोर हिन्दुत्ववादी लेकिन संघ से थोड़े रूठे हुए भी थे, शायद उन्हें किसी यात्रा के दौरान पूरी तवज्जोह नहीं दी गयी थी, किसी जूनियर संत को ज्यादा भाव मिल गया, इसलिए वे खफा हो गए, हम दोनों ही खफा-खफा हिंदूवादी एक हो गए और एक साथ रहने लगे। मैं दिन में छात्र राजनीति करता और रात्रि विश्राम के लिए शास्त्री जी के पास मंदिर में रुक जाता, बेहद कठिन दिन थे, कई बार जेब में कुछ भी नहीं होता था, भूखे रहना पड़ता, ऐसे भी मौके आए जब किसी पार्क में ही रात गुजारनी पड़ी भूखे प्यासे ऊपर से एंग्री यंगमैन की भूमिका जहाँ भी जब भी मौका मिलता, आरएसएस के खिलाफ बोलता और लिखता रहता। उन दिनों कोई मुझे ज्यादा भाव तो नहीं देता था पर मेरा अभियान जारी रहता, लोग मुझे आदिविद्रोही समझने लगे। संघ की ओर से उपेक्षा का रवैय्या था ना तो वे मेरी बातों पर कुछ बोलते और ना ही प्रतिवाद करते, एकठंडी सी खामोशी थी उनकी ओर से, इससे मैं और भी चिढ गया। संत शास्त्री भी कभी कभार मुझे टोकाटाकी करते थे कि इतना उन लोगों के खिलाफ मत बोलो, तुम उन लोगों को जानते नहीं हो अभी तक, संघ के लोग बोरे में भर कर पीटेंगे और रोने भी नहीं देंगे। पर मैंने कभी उनकी बातों की परवाह नहीं की
वैसे तो चैतन्य शरण शास्त्री जी अच्छे इन्सान थे मगर थे पूरे जातिवादी। एक बार मेरा उनसे जबरदस्त विवाद हो गया, हुआ यह कि शास्त्री और मैं गांधी नगर में गणेश मंदिर के पास किसी बिहारी उद्योगपति के घर पर शाम का भोजन करने गए, संभवतः उन्होंने किन्हीं धार्मिक कारणों से ब्राह्मणों को भोजन के लिए आमंत्रित किया था, शास्त्री जी मुझे भी साथ ले गए, मुझे कुछ अधिक मालूम न था, सिर्फ इतनी सी जानकारी थी कि आज शाम का भोजन किसी करोड़पति बिहारी बनिए के घर पर है। इस प्रकार घर-घर जाकर भोजन करने की आदत संघ में सक्रियता के दौरान पड़ ही चुकी थी, इसलिए कुछ भी अजीब नहीं लगा, संघ कार्यालय प्रमुख रहते हुए मैं अक्सर प्रचारकों के साथ संघ के विभिन्न स्वयंसेवकांे के यहाँ खाने के लिए जाता था और वह भी कथित उच्च जाति के लोगों के यहाँ, सो बिना किसी संकोच के मैं शास्त्री जी के साथ चल पड़ा। भोजन के दौरान यजमान (दरअसल मेजबान) परिवार ने मेरा नाम पूछा, मैंने जवाब दिया-भंवर मेघवंशी, वे लोग बिहार से थे, राजस्थान की जातियों के बारे में ज्यादा परिचित नहीं थे, इसलिए और पूँछ बैठे कि-ये कौन से ब्राह्मण हुए? मैंने मुँह खोला-मैं अनुसूचित, मेरा जवाब पूरा होता उससे पहले ही शास्त्री जी बोल पड़े-ये क्षत्रिय मेघवंशी ब्राह्मण हैं। बात वहीं खत्म हो गई, लेकिन जात छिपाने की पीड़ा ने मेरे भोजन का स्वाद कसैला कर दिया और शास्त्री भी खफा हो गए कि मैंने उन्हें क्यों बताने की कोशिश की कि मैं अनुसूचित जाति से हूँ। हमारी जमकर बहस हो गई मैंने उन पर झूठ बोलकर धार्मिक लोगों की आस्था को ठेस पहँुचाने का आरोप लगा दिया तो उन्होंने भी आखिर कह ही दिया कि ओछी जाति के लोग ओछी बुद्धि के ही होते हैं। मैं तो तुम्हे ब्राह्मण बनाने की कोशिश कर रहा हूँ और तुम उसी गन्दी नाली के कीड़े बने रहना चाहते हो, मैं गुस्से के मारे काँपने लगा, जी हुआ कि इस ढोंगी की जमकर धुनाई कर दूँ पर कर नहीं पाया, मगर उस पर चिल्लाया, मैं भी कम नहीं मैंने भी कह दिया तुम भी जन्मजात भिखमंगे ही तो हो, तुमने कौन सी कमाई की आज तक मेहनत करके, तो शास्त्री ने मुझे नीच जाति का प्रमाण पत्र जारी कर दिया और मैंने उन्हें भिखारी घोषित कर दिया अब साथ रह पाने का सवाल ही नहीं था। मैं मंदिर से निकल गया, मेरे साथ रहने से उनके ब्राह्मणत्व पर दुष्प्रभाव पड़ सकता था और कर्मकांड से होने वाली उनकी आय प्रभावित हो सकती थी, वहीं मैं भी अगर ब्राहमणत्व की ओर अग्रसर रहता तो मेरी भी संघ से लड़ाई प्रभावित हो सकती थी, इसलिए हमारी राहें जुदा हो गईं, न मैं ब्राह्मण बन सका और न ही वे इन्सान बनने को राजी हुए, बाद में हम कभी नहीं मिले।
-भँवर मेघवंशी
लोकसंघर्ष पत्रिका -सितम्बर अंक में प्रकाशित
अब मैं वे सब काम करने को तत्पर था, जो तालिबान के इस भारतीय संस्करण को चोट पहुँचा सके, इसकी शुरुआत मैंने छात्र राजनीति में विद्रोही कदम उठाने के जरिये की, भीलवाड़ा कॉलेज में आरएसएस के विद्यार्थी संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् से बगावत करके एक नया छात्र संगठन बनाया गया, जिसे विद्यार्थी अधिकार रक्षक संघ (वार्स) नाम दिया गया, संघ के ही एक अन्य बगावती स्वयंसेवक बृजराज कृष्ण उपाध्याय इसका नेतृत्व कर रहे थे, मैं इसके प्रारंभिक काल का संगठन मंत्री बना, हमने संघी छात्र संगठन के पाँव उखाड़ना चालू कर दिया, जगह-जगह पर वार्स की इकाइयाँ स्थापित होने लगीं, लोग संघ की मानसिक गुलामी से निजात पाने के लिए वार्स को विकल्प के रूप में देखने लगे, हमारे नेता बृजराज में गजब की हिम्मत और लगन रही, अद्भुत जीवट वाला व्यक्ति, उस बन्दे पर आरएसएस के लोगों ने बहुत जुल्म ढाए अलग छात्र संगठन बनाना संघ को बर्दाश्त नहीं था, इसलिए आरएसएस और एबीवीपी के कार्यकर्ताओं द्वारा उन पर कई बार जानलेवा हमले किए गए, एक बार तो मांडलगढ़़ इलाके में त्रिवेणी चैराहे के पास उनके साथ भयंकर मारपीट की गयी, सिर में पेचकश घुसेड़ दिया गया और फिर मरा समझ कर छोड़कर भाग गए, यह हमला इसलिए किया गया क्योंकि वार्स के साथी संघ से जुड़े लोगों के आपराधिक कृत्यों को उजागर कर रहे थे
दरअसल उन दिनों संघ के अल्पकालिक प्रचारक और विस्तारक किस्म के जो लोग थे, वे इस खनन क्षेत्र में अवैध एक्सप्लोजिव तथा हथकड़ी शराब बेचने वालों को संरक्षण दे रहे थे, ऐसा हमें मालूम हुआ था, यह भी पता चला कि कुछ माननीय भाई साहब ऐसे लोगों से वसूली भी करते रहे थे, बस इन्हीं बातों के बारे में सार्वजनिक रूप से बोलना हमें भारी पड़ गया, निशाने पर पूरा संगठन ही था, मगर हत्थे सिर्फ बृजराज कृष्ण उपाध्याय ही चढ़े, सो उन्हें इतना मारा गया कि वे राष्ट्रभक्तों के हाथों शहीद होते-होते बचे वैसे भी मांडलगढ़ सेंड स्टोन माइनिंग का इलाका है जहाँ पर किसी की भी जान लेना खनन माफिया के दाहिने हाथ का खेल रहा है, ऐसे इलाके में उपाध्याय को मारने की साजिश की गई थी, लेकिंन किसी प्रकार से उनकी जान बचा ली गयी, आसपास के लोगों ने गंभीर रूप से घायल उपाध्याय को समय रहते उपचार के लिए महात्मा गांधी चिकित्सालय भीलवाड़ा पहुँचा दिया, जहाँ वे लम्बे उपचार के पश्चात ठीक हो पाए। बात सिर्फ संघ के कथित अनुशासित स्वयंसेवकों के धतकरमों को उजागर करने मात्र की ही नहीं थी बल्कि चरित्र, शील और संस्कार का दंभ भरने वाले उस छात्र संगठन की कारगुजारियों के पर्दाफाश की भी थी, जिन्होंने अपनी ही छात्रा इकाई की पदाधिकारियों के शील को भंग करने जैसे पाप कर्म करने से भी गुरेज नहीं किया था, हालत इतने संगीन थे कि उनमें से एक का गर्भपात करवा कर भ्रूण हत्या जैसी अधम कार्यवाही तक को अंजाम दिया गया था। इस फर्जी शील, चरित्र और संस्कार पर हम नहीं बोलते, ऐसा तो हो नहीं सकता था, हमने जब उनकी पोल खोलनी शुरू की तो वे अपने चिर परिचित हथियार डंडे के साथ हम लोगों से विचार विमर्श करने आ पहुँचे, संघ के लोग ज्यादातर मौकों पर तर्क के स्थान पर लट्ठ का उपयोग करते हैं, उन्हें यही सिखाया गया है कि लातों के भूत बातों से नहीं मानते हैं खैर, संघी आकाओं के इशारे पर शिक्षा के मंदिरों को गुंडागर्दी के अड्डे बनाने की हर कोशिश को विफल करने के लिए वार्स बेहद मजबूती से कई साल तक भीलवाड़ा में सक्रिय रहा,कई कॉलेजों में कई बार छात्र संघ चुनाव में हमारे अभ्यर्थी जीते, हमने न केवल भाजपाई संघी छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् को, बल्कि कांग्रेसी छात्र संगठन एनएसयूआई को भी कॉलेज परिसर से खदेड़ दिया। वार्स एक वैकल्पिक छात्र संगठन के रूप में उभरा जिसने लम्बे समय तक केवल छात्र समस्याओं को ही नहीं उठाया बल्कि शहर और जिले की विभिन्न जन समस्याओं को भी प्रभावी तरीके से उठाया तथा युवाओं को जातिवादी और सांप्रदायिक छात्र संगठनों से भी दूर रखा।
ये कौन से ब्राह्मण हुए ?
संघ की वजह से अम्बेडकर छात्रावास छूट गया था और अब संघ कार्यालय भी, शहर में रहने का नया ठिकाना ढूँढना पड़ा, मेरे एक परिचित संत चैतन्य शरण शास्त्री, जो स्वयं को अटल बिहारी वाजपेयी का निजी सहायक बताते थे, वे उन दिनों कृषि उपज मंडी भीलवाडा में स्थित शिव हनुमान मंदिर पर काबिज थे, मैंने उनके साथ रहना शुरू किया, हालाँकि थे तो वे भी घनघोर हिन्दुत्ववादी लेकिन संघ से थोड़े रूठे हुए भी थे, शायद उन्हें किसी यात्रा के दौरान पूरी तवज्जोह नहीं दी गयी थी, किसी जूनियर संत को ज्यादा भाव मिल गया, इसलिए वे खफा हो गए, हम दोनों ही खफा-खफा हिंदूवादी एक हो गए और एक साथ रहने लगे। मैं दिन में छात्र राजनीति करता और रात्रि विश्राम के लिए शास्त्री जी के पास मंदिर में रुक जाता, बेहद कठिन दिन थे, कई बार जेब में कुछ भी नहीं होता था, भूखे रहना पड़ता, ऐसे भी मौके आए जब किसी पार्क में ही रात गुजारनी पड़ी भूखे प्यासे ऊपर से एंग्री यंगमैन की भूमिका जहाँ भी जब भी मौका मिलता, आरएसएस के खिलाफ बोलता और लिखता रहता। उन दिनों कोई मुझे ज्यादा भाव तो नहीं देता था पर मेरा अभियान जारी रहता, लोग मुझे आदिविद्रोही समझने लगे। संघ की ओर से उपेक्षा का रवैय्या था ना तो वे मेरी बातों पर कुछ बोलते और ना ही प्रतिवाद करते, एकठंडी सी खामोशी थी उनकी ओर से, इससे मैं और भी चिढ गया। संत शास्त्री भी कभी कभार मुझे टोकाटाकी करते थे कि इतना उन लोगों के खिलाफ मत बोलो, तुम उन लोगों को जानते नहीं हो अभी तक, संघ के लोग बोरे में भर कर पीटेंगे और रोने भी नहीं देंगे। पर मैंने कभी उनकी बातों की परवाह नहीं की
वैसे तो चैतन्य शरण शास्त्री जी अच्छे इन्सान थे मगर थे पूरे जातिवादी। एक बार मेरा उनसे जबरदस्त विवाद हो गया, हुआ यह कि शास्त्री और मैं गांधी नगर में गणेश मंदिर के पास किसी बिहारी उद्योगपति के घर पर शाम का भोजन करने गए, संभवतः उन्होंने किन्हीं धार्मिक कारणों से ब्राह्मणों को भोजन के लिए आमंत्रित किया था, शास्त्री जी मुझे भी साथ ले गए, मुझे कुछ अधिक मालूम न था, सिर्फ इतनी सी जानकारी थी कि आज शाम का भोजन किसी करोड़पति बिहारी बनिए के घर पर है। इस प्रकार घर-घर जाकर भोजन करने की आदत संघ में सक्रियता के दौरान पड़ ही चुकी थी, इसलिए कुछ भी अजीब नहीं लगा, संघ कार्यालय प्रमुख रहते हुए मैं अक्सर प्रचारकों के साथ संघ के विभिन्न स्वयंसेवकांे के यहाँ खाने के लिए जाता था और वह भी कथित उच्च जाति के लोगों के यहाँ, सो बिना किसी संकोच के मैं शास्त्री जी के साथ चल पड़ा। भोजन के दौरान यजमान (दरअसल मेजबान) परिवार ने मेरा नाम पूछा, मैंने जवाब दिया-भंवर मेघवंशी, वे लोग बिहार से थे, राजस्थान की जातियों के बारे में ज्यादा परिचित नहीं थे, इसलिए और पूँछ बैठे कि-ये कौन से ब्राह्मण हुए? मैंने मुँह खोला-मैं अनुसूचित, मेरा जवाब पूरा होता उससे पहले ही शास्त्री जी बोल पड़े-ये क्षत्रिय मेघवंशी ब्राह्मण हैं। बात वहीं खत्म हो गई, लेकिन जात छिपाने की पीड़ा ने मेरे भोजन का स्वाद कसैला कर दिया और शास्त्री भी खफा हो गए कि मैंने उन्हें क्यों बताने की कोशिश की कि मैं अनुसूचित जाति से हूँ। हमारी जमकर बहस हो गई मैंने उन पर झूठ बोलकर धार्मिक लोगों की आस्था को ठेस पहँुचाने का आरोप लगा दिया तो उन्होंने भी आखिर कह ही दिया कि ओछी जाति के लोग ओछी बुद्धि के ही होते हैं। मैं तो तुम्हे ब्राह्मण बनाने की कोशिश कर रहा हूँ और तुम उसी गन्दी नाली के कीड़े बने रहना चाहते हो, मैं गुस्से के मारे काँपने लगा, जी हुआ कि इस ढोंगी की जमकर धुनाई कर दूँ पर कर नहीं पाया, मगर उस पर चिल्लाया, मैं भी कम नहीं मैंने भी कह दिया तुम भी जन्मजात भिखमंगे ही तो हो, तुमने कौन सी कमाई की आज तक मेहनत करके, तो शास्त्री ने मुझे नीच जाति का प्रमाण पत्र जारी कर दिया और मैंने उन्हें भिखारी घोषित कर दिया अब साथ रह पाने का सवाल ही नहीं था। मैं मंदिर से निकल गया, मेरे साथ रहने से उनके ब्राह्मणत्व पर दुष्प्रभाव पड़ सकता था और कर्मकांड से होने वाली उनकी आय प्रभावित हो सकती थी, वहीं मैं भी अगर ब्राहमणत्व की ओर अग्रसर रहता तो मेरी भी संघ से लड़ाई प्रभावित हो सकती थी, इसलिए हमारी राहें जुदा हो गईं, न मैं ब्राह्मण बन सका और न ही वे इन्सान बनने को राजी हुए, बाद में हम कभी नहीं मिले।
-भँवर मेघवंशी
लोकसंघर्ष पत्रिका -सितम्बर अंक में प्रकाशित
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