भारत में विकास, सार्वजनिक नीतियों, राजकाज तथा लोक कल्याण आदि विषयों के बारे में सोच कुछ गहरी विसंगतियों से भरा हुआ है। उसका एक बहुधा नजर आने वाला पक्ष है आर्थिक तथा सामाजिक पक्षों को अलग-अलग करके, कभी कभार तो विरोधी या प्रतिद्वंद्वी रूप में देखना। इस प्रवृत्ति का नतीजा है कि आर्थिक विकास या कल्याण को सामाजिक विकास या कल्याण से अलग करके देखा और पेश किया जाता है। भारत में आर्थिक विकास को प्राथमिकता दी गयी है। धारणा हैं कि आर्थिक विकास एक तो सामाजिक विकास का रास्ता खोलेगा, दूसरे आर्थिक विकास (यानी ऊँची, सम्पूर्ण तथा प्रति व्यक्ति राष्ट्रीय आय) के ऊँचे और तेजी से बढ़ते स्तर के कारण राजकीय राजस्व या आमदनी का ऊँचा स्तर सुलभ हो पाएगा। इस आधार पर राज्य सामाजिक सेवाओं सुविधाओं, सुरक्षा की उपलब्धता में तेजी से इजाफा कर पाएगा। इस तरह माना गया कि एक ओर निजी ऊँची आमदनी तथा दूसरी ओर राज्य द्वारा दी गई सामाजिक सेवाओं का तेजी से प्रसार सारे देश के सामाजिक विकास को लगातार नई ऊँचाइयाँ देता रहेगा। इस तरह यह निष्कर्ष निकाला गया कि आर्थिक विकास सामाजिक विकास का रास्ता भी प्रशस्त करता है। परिणाम स्वरूप विकास के इन दो पक्षों या पहलूओं में कोई मूलभूत या दूरगामी अन्तरविरोध नहीं माना गया। भारत की पाँच साला विकास योजनाओं और सालाना बजटों पर इस सोच की गहरी छाप दिखाई देती है।
हम आजादी के सात दशक पूरे करने जा रहे हैं। विकास रणनीति, योजनाओं, आर्थिक और सामाजिक नीतियों और कार्यक्रमों के कारण आज भारतीय अर्थ व्यवस्था और सामाजिक स्थिति में कड़वे मीठे, सीमित तथा व्यापक फैलाव वाले परिवर्तनों के सत्य को झुठलाया नहीं जा सकता है। हर साल बजट दर बजट कुछ नई आर्थिक सामाजिक नीतियों और कार्यक्रमों का एक मिश्रण देश में लागू किया जाता है। आमतौर पर इन नीतियों और कार्यक्रमों की समीक्षा में केन्द्रीय तथा राज्य सरकारों की भूमिका का साझा आकलन किया जाता है। राज्य सरकारों के कामों-नीतियों में जिस तरह भिन्नता नजर आती है, उसी तरह केन्द्र द्वारा भी अपने संसाधनों के प्रादेशिक आवंटन में एक सीमा तक गैर बराबरी का पुट साफ नजर आता है। आवंटन में सबसे बड़ी गंभीर तथा अनुचित असमानता गाँवों तथा शहरों के बीच देखी जाती है। किन्तु देश ने अब तक यह देखा है कि एक ओर जहाँ भारत की बहुआयामी विविधता और विषमताएँ बढ़ रही हैं, तो दूसरी ओर कुल मिलाकर विकास इन दोनों पैमानों पर काफी नाकाफी भी रहा है।
इस स्थिति को समझने की कोशिशों का पहला बिन्दु हमें यह नजर आता है कि आर्थिक और सामाजिक विकास को अलग अलग समझना अवास्तविक है। साथ ही आर्थिक विकास की वैशाखी पकड़ कर सामाजिक विकास की ओर बढ़ सकने की परिकल्पना से सामाजिक जीवन के दोनों ही पहलू आहत हुए हैं। खास बात यह है कि इस बिलगाव के असर में आर्थिक तरक्की को प्रधानतः प्रति व्यक्ति राष्ट्रीय आय के रूप में देखा गया है आयके समाज के विभिन्न तबकों, समूहों, वर्गों में न्यायपूर्ण और समुचित वितरण की इतनी घोर उपेक्षा की गई कि वितरण की विषमता के विस्तृत होते विष को भी शिरोधार्य कर लिया गया। वास्तव में यह सम्पन्न और सशक्त लोगों के क्षुद्र और संक्रीर्ण हितों और लोभ की वेदी पर करोड़ों नागरिकों की कई पीढि़यों की न्यूनतम मानवीय जरूरतों की आहुति देने जैसा दुष्कर्म साबित होता जा रहा है। सन् 1990 तक सामाजिक शक्ति, क्षमताओं, प्रभाव और सम्पत्ति पर अत्यधिक आधिपत्य जमाये तबकों को आर्थिक एकांगी विकास की बागडोर देते हुए भी उन पर लोकतांत्रिक राज्य का नेतृत्व अपने महावती उत्तरदायित्व का अंकुश रखने की कोशिशों में लगा रहा। इन प्रयासों को असफल करने के बाद तो सन् 1990 के बाद शक्ति सम्पत्ति के शीर्षस्थ तबकों ने सामाजिक विकास को पूरी तरह हासिये पर डाल दिया। रोटी, कपड़ा, मकान की मांग अधर में लटक गई। अब बिजली पानी, सड़क भी आन्दोलनों के मुद्दे बन गए। शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, पोषण, स्वच्छता के बदले महानगरों में तेजी से बढ़ती राष्ट्रीय आय सम्पन्नों के अरमान राज्य के केन्द्र बन गए। देसी परदेसी कम्पनियों के हाथों में अभूतपूर्व केन्द्रीकरण हुआ किन्तु न तो राजकीय राजस्व अनुपात बढ़ पाया और न ही उसका सामाजिक विकास के लिए आवंटन बढ़ा। निरपेक्ष रूप से सामाजिक कामों के लिए धन बढ़ाया गया किन्तु राजकोषीय आवंटन वृद्धिमान आमदनी, उसके स्वरूप, उससे जुड़ी तकनीकों, प्रबंधन व्यवस्था, उसमें बढ़ते सेवाओं के अनुपात और उससे जुड़ी निजीकरण प्रक्रिया आदि के चलते दलितों, वंचितों, आदिवासियों तथा प्रदूषित समावेशन के शिकारों आदि की स्थिति बदतर होती गई। सकल, वास्तविक राष्ट्रीय आय में विश्व में तीसरे नम्बर पर आया भारत मानव विकास के तुलनात्मक प्रतिमानों की कसौटी पर विश्व में 134वें पायदान पर आ टिका। अब तो आर्थिक और सामाजिक सुधार दोनों पर ग्रहण लग गया है, जाहिर है दर्जनों सुन्दर गुलदस्तों नुमा नौकरशाही तथा नेताओं, छुटभैय्यों की जमात द्वारा नियंत्रित संचालित कार्यक्रम अपने घोषित मकसदों से दूर भटकते गये। युद्धों में मध्यकालिक सेनाओं द्वारा की गई लूट की तरह अब सरकारी अमला और राजनैतिक दलाल दोनों हाथों सामाजिक विकास के लिए बांटी गयी राशि को बटोर रहे हैं। मनरेगा, शिक्षा का अधिकार, राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन, आवास योजनाएँ जिन्हें सच्चे विकास पथ से भटके राजनीतिज्ञों के नाम पर प्रचारित करना बेहद घटिया अलोकतांत्रिक मजाक है। खाद्य अधिकार, आदि अपने घोषित उद्देश्यों के बरक्स पूरी तरह बौने हैं। अतः सामाजिक तथा आर्थिक नीतियों और कार्यक्रमों के बीच की दीवारों को गिराकर समग्र, सर्वांगीण, सर्व समावेशी, सामाजिक विकास नीतियों और कार्यक्रमों का श्री गणेश होना चाहिए। आर्थिक, तकनीकी, प्रादेशिक ग्रामीण, शहरी आदि सभी प्रकार के विकास आपस में एक दूसरे से अलग-अलग नहीं किए जा सकते। इसी तरह शिक्षा, सुपोषण, स्वास्थ्य, स्वच्छता, महिलाओं, बच्चों-वृद्धों की जरूरतों को संभालती सामाजिक सुरक्षा सेवाएँ आदि भी एक पूरे समवेत पैकेज के रूप में एक निश्चित समय सीमा में सबको और केवल नाम दिखाऊ नहीं पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध कराने की गारंटी ही आर्थिक और सामाजिक विकास की एक बरण हुई गंगा यमुना को सदनीरा रूप में प्रवाहित कर सकती है।
इन चर्चाओं में आंकड़ों की खेती उगाना जन चेतना और अधिकारों के लिए जूझने की तैयारी के रूप में निरर्थक ही साबित होती है। अभी हालिया चुनाव में किस तरह इन कागजी कार्यक्रमों और आम आदमी की कल्पना से कोसों दूर मोटे-मोटे करोड़ों अरबों की राशियों को बखानते आंकड़े प्रभावहीन साबित हुए यह बताने की जरूरत नहीं है। केन्द्र तथा राज्य सरकारों के विभिन्न सामाजिक सेवाओं पर राजस्व खर्च सन् 1990-91 में कई हजार करोड़ रूपयों के लगभग था। महंगाई, जनसंख्या वृद्धि, नई सेवाओं आदि के चलते यह खर्च सन् 2012-13 में लगभग 105 लाख करोड़ रूपये अनुमानित है। यदि यह करीब सत्रह गुणा वृद्धि कुछ गुणात्मक बदलाव का संकेत देती तो भारत के सामाजिक परिदृश्य का कायाकल्प हो गया होता। अतः असली कसौटियाँ हैं-एक अल्पकाल में इन सेवाओं की गुणवत्ता बढ़ाकर उन्हें गारंटी सहित सर्व सुलभ करनी, दूसरे इन सेवाओं की प्रति उपयोगकर्ता पर्याप्त मात्रा तथा तीसरे इन सेवाओं की लोगों की विभिन्न जरूरतों के अनुरूप उपयुक्तता।
यदि ऐसा किया जाता है तो आर्थिक प्रगति के साथ साथ सामाजिक विकास की गाड़ी भी चल पड़ेगी। किन्तु इन सब सामाजिक सेवाओं की जरूरत संयुक्त रूप से होती है और इनकी उपलब्धता सबसे पहली प्राथमिकता के रूप में हमारे साढ़े छः लाख गाँवों के लिए होनी चाहिए। इनमें कुछ की अनुपलब्धता बाकी की सेवाओं की प्रभावशीलता घटा देती है और हमारे नागरिकों को दुष्प्रभाव्यता ग्रसित बना देती है। इन दिनों लोगों की उम्मीदों का बयान अच्छे दिनों के इन्तजार के रूप में हो रहा है। अतः आज के ग्रामीण भारत के सामाजिक विकास के एजेण्डे के नीचे बताए गए बारहों बिन्दुओं पर एक साथ पक्का, पुख्ता, तीन सालों में पूरा होने वाला कार्यक्रम लागू किया जाना चाहिए। इस 10 जुलाई को हमारे देश के 70 प्रतिशत ग्रामीण केन्द्र और राज्यों के बजट से द्वादश नियामतों के एक समग्र पैकेज की प्रतीक्षा करेंगे। ये हैं:-
1. सारे गाँव में नालियों और पानी की निकास व्यवस्था युक्त पक्की सड़कें। 2. मुख्य बाहरी सड़क से जोड़ती सड़क। 3. शौचालय 4. पेयजल 5. प्राथमिक स्कूल भवन 6. चिकित्सा और स्वास्थ्य केन्द्र 7. पंचायत के नियंत्रण में पक्का गोदाम 8. पंचायत का कम्प्यूटरयुक्त दफ्तर। 9. चारागाह 10. ऊर्जा आपूर्ति व्यवस्था।
11 बैंक 12. सार्वजनिक सभा स्थल और खेल का मैदान जिससे कि जब हम आजादी की 70वीं जयंती मना रहे हों तब सारा भारत इन नागरिक सुविधाओं सेवाओं युक्त हो जाए तो हमारा स्वराज्य रामराज्य की नींव डाल देगा।
-कमल नयन काबरा
मोबाइलः 09013504389
लोकसंघर्ष पत्रिका में प्रकाशित
दिसम्बर --2014
हम आजादी के सात दशक पूरे करने जा रहे हैं। विकास रणनीति, योजनाओं, आर्थिक और सामाजिक नीतियों और कार्यक्रमों के कारण आज भारतीय अर्थ व्यवस्था और सामाजिक स्थिति में कड़वे मीठे, सीमित तथा व्यापक फैलाव वाले परिवर्तनों के सत्य को झुठलाया नहीं जा सकता है। हर साल बजट दर बजट कुछ नई आर्थिक सामाजिक नीतियों और कार्यक्रमों का एक मिश्रण देश में लागू किया जाता है। आमतौर पर इन नीतियों और कार्यक्रमों की समीक्षा में केन्द्रीय तथा राज्य सरकारों की भूमिका का साझा आकलन किया जाता है। राज्य सरकारों के कामों-नीतियों में जिस तरह भिन्नता नजर आती है, उसी तरह केन्द्र द्वारा भी अपने संसाधनों के प्रादेशिक आवंटन में एक सीमा तक गैर बराबरी का पुट साफ नजर आता है। आवंटन में सबसे बड़ी गंभीर तथा अनुचित असमानता गाँवों तथा शहरों के बीच देखी जाती है। किन्तु देश ने अब तक यह देखा है कि एक ओर जहाँ भारत की बहुआयामी विविधता और विषमताएँ बढ़ रही हैं, तो दूसरी ओर कुल मिलाकर विकास इन दोनों पैमानों पर काफी नाकाफी भी रहा है।
इस स्थिति को समझने की कोशिशों का पहला बिन्दु हमें यह नजर आता है कि आर्थिक और सामाजिक विकास को अलग अलग समझना अवास्तविक है। साथ ही आर्थिक विकास की वैशाखी पकड़ कर सामाजिक विकास की ओर बढ़ सकने की परिकल्पना से सामाजिक जीवन के दोनों ही पहलू आहत हुए हैं। खास बात यह है कि इस बिलगाव के असर में आर्थिक तरक्की को प्रधानतः प्रति व्यक्ति राष्ट्रीय आय के रूप में देखा गया है आयके समाज के विभिन्न तबकों, समूहों, वर्गों में न्यायपूर्ण और समुचित वितरण की इतनी घोर उपेक्षा की गई कि वितरण की विषमता के विस्तृत होते विष को भी शिरोधार्य कर लिया गया। वास्तव में यह सम्पन्न और सशक्त लोगों के क्षुद्र और संक्रीर्ण हितों और लोभ की वेदी पर करोड़ों नागरिकों की कई पीढि़यों की न्यूनतम मानवीय जरूरतों की आहुति देने जैसा दुष्कर्म साबित होता जा रहा है। सन् 1990 तक सामाजिक शक्ति, क्षमताओं, प्रभाव और सम्पत्ति पर अत्यधिक आधिपत्य जमाये तबकों को आर्थिक एकांगी विकास की बागडोर देते हुए भी उन पर लोकतांत्रिक राज्य का नेतृत्व अपने महावती उत्तरदायित्व का अंकुश रखने की कोशिशों में लगा रहा। इन प्रयासों को असफल करने के बाद तो सन् 1990 के बाद शक्ति सम्पत्ति के शीर्षस्थ तबकों ने सामाजिक विकास को पूरी तरह हासिये पर डाल दिया। रोटी, कपड़ा, मकान की मांग अधर में लटक गई। अब बिजली पानी, सड़क भी आन्दोलनों के मुद्दे बन गए। शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, पोषण, स्वच्छता के बदले महानगरों में तेजी से बढ़ती राष्ट्रीय आय सम्पन्नों के अरमान राज्य के केन्द्र बन गए। देसी परदेसी कम्पनियों के हाथों में अभूतपूर्व केन्द्रीकरण हुआ किन्तु न तो राजकीय राजस्व अनुपात बढ़ पाया और न ही उसका सामाजिक विकास के लिए आवंटन बढ़ा। निरपेक्ष रूप से सामाजिक कामों के लिए धन बढ़ाया गया किन्तु राजकोषीय आवंटन वृद्धिमान आमदनी, उसके स्वरूप, उससे जुड़ी तकनीकों, प्रबंधन व्यवस्था, उसमें बढ़ते सेवाओं के अनुपात और उससे जुड़ी निजीकरण प्रक्रिया आदि के चलते दलितों, वंचितों, आदिवासियों तथा प्रदूषित समावेशन के शिकारों आदि की स्थिति बदतर होती गई। सकल, वास्तविक राष्ट्रीय आय में विश्व में तीसरे नम्बर पर आया भारत मानव विकास के तुलनात्मक प्रतिमानों की कसौटी पर विश्व में 134वें पायदान पर आ टिका। अब तो आर्थिक और सामाजिक सुधार दोनों पर ग्रहण लग गया है, जाहिर है दर्जनों सुन्दर गुलदस्तों नुमा नौकरशाही तथा नेताओं, छुटभैय्यों की जमात द्वारा नियंत्रित संचालित कार्यक्रम अपने घोषित मकसदों से दूर भटकते गये। युद्धों में मध्यकालिक सेनाओं द्वारा की गई लूट की तरह अब सरकारी अमला और राजनैतिक दलाल दोनों हाथों सामाजिक विकास के लिए बांटी गयी राशि को बटोर रहे हैं। मनरेगा, शिक्षा का अधिकार, राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन, आवास योजनाएँ जिन्हें सच्चे विकास पथ से भटके राजनीतिज्ञों के नाम पर प्रचारित करना बेहद घटिया अलोकतांत्रिक मजाक है। खाद्य अधिकार, आदि अपने घोषित उद्देश्यों के बरक्स पूरी तरह बौने हैं। अतः सामाजिक तथा आर्थिक नीतियों और कार्यक्रमों के बीच की दीवारों को गिराकर समग्र, सर्वांगीण, सर्व समावेशी, सामाजिक विकास नीतियों और कार्यक्रमों का श्री गणेश होना चाहिए। आर्थिक, तकनीकी, प्रादेशिक ग्रामीण, शहरी आदि सभी प्रकार के विकास आपस में एक दूसरे से अलग-अलग नहीं किए जा सकते। इसी तरह शिक्षा, सुपोषण, स्वास्थ्य, स्वच्छता, महिलाओं, बच्चों-वृद्धों की जरूरतों को संभालती सामाजिक सुरक्षा सेवाएँ आदि भी एक पूरे समवेत पैकेज के रूप में एक निश्चित समय सीमा में सबको और केवल नाम दिखाऊ नहीं पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध कराने की गारंटी ही आर्थिक और सामाजिक विकास की एक बरण हुई गंगा यमुना को सदनीरा रूप में प्रवाहित कर सकती है।
इन चर्चाओं में आंकड़ों की खेती उगाना जन चेतना और अधिकारों के लिए जूझने की तैयारी के रूप में निरर्थक ही साबित होती है। अभी हालिया चुनाव में किस तरह इन कागजी कार्यक्रमों और आम आदमी की कल्पना से कोसों दूर मोटे-मोटे करोड़ों अरबों की राशियों को बखानते आंकड़े प्रभावहीन साबित हुए यह बताने की जरूरत नहीं है। केन्द्र तथा राज्य सरकारों के विभिन्न सामाजिक सेवाओं पर राजस्व खर्च सन् 1990-91 में कई हजार करोड़ रूपयों के लगभग था। महंगाई, जनसंख्या वृद्धि, नई सेवाओं आदि के चलते यह खर्च सन् 2012-13 में लगभग 105 लाख करोड़ रूपये अनुमानित है। यदि यह करीब सत्रह गुणा वृद्धि कुछ गुणात्मक बदलाव का संकेत देती तो भारत के सामाजिक परिदृश्य का कायाकल्प हो गया होता। अतः असली कसौटियाँ हैं-एक अल्पकाल में इन सेवाओं की गुणवत्ता बढ़ाकर उन्हें गारंटी सहित सर्व सुलभ करनी, दूसरे इन सेवाओं की प्रति उपयोगकर्ता पर्याप्त मात्रा तथा तीसरे इन सेवाओं की लोगों की विभिन्न जरूरतों के अनुरूप उपयुक्तता।
यदि ऐसा किया जाता है तो आर्थिक प्रगति के साथ साथ सामाजिक विकास की गाड़ी भी चल पड़ेगी। किन्तु इन सब सामाजिक सेवाओं की जरूरत संयुक्त रूप से होती है और इनकी उपलब्धता सबसे पहली प्राथमिकता के रूप में हमारे साढ़े छः लाख गाँवों के लिए होनी चाहिए। इनमें कुछ की अनुपलब्धता बाकी की सेवाओं की प्रभावशीलता घटा देती है और हमारे नागरिकों को दुष्प्रभाव्यता ग्रसित बना देती है। इन दिनों लोगों की उम्मीदों का बयान अच्छे दिनों के इन्तजार के रूप में हो रहा है। अतः आज के ग्रामीण भारत के सामाजिक विकास के एजेण्डे के नीचे बताए गए बारहों बिन्दुओं पर एक साथ पक्का, पुख्ता, तीन सालों में पूरा होने वाला कार्यक्रम लागू किया जाना चाहिए। इस 10 जुलाई को हमारे देश के 70 प्रतिशत ग्रामीण केन्द्र और राज्यों के बजट से द्वादश नियामतों के एक समग्र पैकेज की प्रतीक्षा करेंगे। ये हैं:-
1. सारे गाँव में नालियों और पानी की निकास व्यवस्था युक्त पक्की सड़कें। 2. मुख्य बाहरी सड़क से जोड़ती सड़क। 3. शौचालय 4. पेयजल 5. प्राथमिक स्कूल भवन 6. चिकित्सा और स्वास्थ्य केन्द्र 7. पंचायत के नियंत्रण में पक्का गोदाम 8. पंचायत का कम्प्यूटरयुक्त दफ्तर। 9. चारागाह 10. ऊर्जा आपूर्ति व्यवस्था।
11 बैंक 12. सार्वजनिक सभा स्थल और खेल का मैदान जिससे कि जब हम आजादी की 70वीं जयंती मना रहे हों तब सारा भारत इन नागरिक सुविधाओं सेवाओं युक्त हो जाए तो हमारा स्वराज्य रामराज्य की नींव डाल देगा।
-कमल नयन काबरा
मोबाइलः 09013504389
लोकसंघर्ष पत्रिका में प्रकाशित
दिसम्बर --2014
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