पिछले लोकसभा चुनाव से पहले भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने कई दलित नेताओं जैसे राम विलास पासवान और रामदास अठावले के साथ गठजोड़ किया था। उस ने उदित राज को अपनी पार्टी में शामिल करके दलितों में अपनी घुस पैठ बढ़ाई थी। चुनाव परिणाम से सिद्ध हुआ कि इसमें उसे आशातीत सफलता मिली थी। उत्तर प्रदेश में तो वह सभी 18 आरक्षित सीटें जीत गई थी। इससे प्रोत्साहित होकर और वर्तमान उपचुनावों के मद्देनजर उस ने दलितों को आकर्षित करने का अभियान तेज कर दिया है। इस हेतु उसने कई रणनीतियाँ अपनाई हैं। पहली रणनीति उनकी हिन्दू पहचान को उभारने की है और उन्हें बड़े हिन्दू समूह का हिस्सा बनाने की है। इसके लिए उसने राजनीति के संप्रदायीकरण की प्रक्रिया के अंतर्गत दलितों को मुसलमानों से लड़ाने की नीति अपनाई है। उसने दलितों के मुसलमानों के साथ सामान्य विवादों को हिन्दू-मुस्लिम झगड़े का रंग देने का काम किया है। उत्तर प्रदेश चुनाव के बाद हिन्दू-मुस्लिम टकराव की घटनाओं में से लगभग 70 घटनाएँ दलित मुस्लिम टकराव की थीं। इन में मुख्य मुरादाबाद जिले के कांठ गाँव की लाउड स्पीकर वाली घटना, सहारनपुर में सिख- मुस्लिम फसाद की घटना थी, जिस में हिन्दुओं की तरफ से सब से अधिक दलित ही गिरफ्तार हुए थे तथा अन्य दलित लड़की और मुस्लिम लड़का या मुस्लिम लड़की और दलित लड़का वाली घटनाएँ शामिल हैं। इस प्रकार कम से कम उत्तर प्रदेश में तो भाजपा ने हिन्दू मुस्लिम फसाद के मामलों में दलितों को हिन्दू पक्ष का एक प्रमुख हिस्सा बना लिया है। इससे पहले भी भाजपा बाल्मीकियों, खटिकों और जाटवों का हिन्दू-मुस्लिम फसाद में इस्तेमाल करती रही है।
भाजपा ने दलितों को आकर्षित करने के लिए दूसरा हथियार उनके ब्राह्मणीकरण का अपनाया है। इसके द्वारा उस ने उन दलित उपजातियों में अपनी घुसपैठ बढ़ाई है जो अभी भी कट्टर हिन्दू हैं और दलितों की बड़ी उपजातियों के विरोध में रहती हैं। उदाहरण के तौर पर उत्तर प्रदेश में चमार/जाटव दलितों की सब से बड़ी उपजाति है और पासी, बाल्मीकि, धोबी और खटिक छोटी उपजातियाँ हंै। परम्परा से यह छोटी उपजातियाँ चमार/जाटव उपजाति से प्रतिस्पर्धा और प्रतिरोध में रही हैं। इसीलिए ये उपजातियाँ राजनैतिक तौर पर भी इस बड़ी उपजाति से प्रतिस्पर्धा में रही हैं। बसपा का सब से बड़ा आधार चमार/जाटव उपजाति रही है और यह छोटी उपजातियाँ बसपा के साथ थोड़ी हद तक ही जुडी थीं। यह उपजातियाँ बसपा से प्रतिक्रिया में भाजपा अथवा समाजवादी पार्टी के साथ रही हैं। दलितों के सामाजिक विभाजन का असर उन के राजनैतिक जुड़ाव पर भी दिखाई देता है। उत्तर प्रदेश में पिछले विधान सभा चुनाव में यह उप जातियाँ सपा की तरफ गई थीं और मायावती से रुष्ट हो कर चमार/जाटव वोटर भी सपा की तरफ गए थे। पूर्व में कांग्रेस और भाजपा भी इन जातियों को सीमित सीमा में अपनी पार्टी में समाहित करने में सफल रही हैं। मायावती की गलत नीतियों के कारण इन उपजातियों में यह धारणा पनप गई थी कि बसपा केवल चमारों/जाटवों की पार्टी है और इस का लाभ केवल उन्हीं तक सीमित है। इस आरोप में काफी सच्चाई भी है। अतः ये उप जातियाँ बसपा की जगह दूसरी पार्टियों में अपना स्थान ढूँढ़ती रही हैं और इधर बसपा से लगभग अलगाव में चली गई हैं, जिस का खामियाजा मायावती को 2012 और 2014 के चुनाव में भुगतना पड़ा। यही स्थिति रिपब्लिकन पार्टी आॅफ इंडिया के समय में थी। देश के दूसरे राज्यों में भी इसी प्रकार का सामाजिक और राजनैतिक विभाजन है। महाराष्ट्र में महार दलितों की सब से बड़ी उपजाति है और चम्भार और ढेड छोटी उपजातियाँ हैं। वहाँ पर उसी प्रकार का सामाजिक और राजनैतिक विभाजन है। आन्ध्र प्रदेश में भी माला और मादिगा में सामाजिक और राजनैतिक विभाजन है। कर्नाटक में भी ऐसा ही उपजाति बँटवारा है। भाजपा की इन उपजातियों में काफी समय से पैठ रही है।
दलितों के इस राजनैतिक और सामाजिक बँटवारे का कारण राजनैतिक आरक्षण भी है। वर्तमान संयुक्त मताधिकार प्रणाली के अंतर्गत आरक्षित सीटों पर वही दलित जीत पाता है जो सवर्ण जातियों का वोट प्राप्त कर सकता है। चूँकि सवर्ण वोट सवर्ण राजनैतिक पार्टियों के पास रहता है अतः वे जिस को चाहते हैं वह ही जीत पाता है। यह व्यवस्था दलित पार्टियों की सब से बड़ी कमजोरी है। अतः यह देखा गया है कि अधिकतर आरक्षित सीटें सवर्ण पार्टियों द्वारा ही जीत ली जाती हैं। इसीलिए सवर्ण पार्टियाँ अपने स्वामीभक्त और हलके फुल्के दलितों को खड़ा करके आरक्षित सीटें जीत लेती हैं और दलित पार्टियों के अच्छे से अच्छे उम्मीदवार हार जाते हैं। इसी कुचक्र में डॉ. अंबेदकर को दो बार हार का मुँह देखना पड़ा था। दरअसल अलग मताधिकार के अंतर्गत दलितों को राजनैतिक स्वतंत्रता का जो अधिकार मिला था उसे
गांधी जी ने अनुचित दबाव में पूना पैक्ट के अंतर्गत छीन लिया जिस का खामियाजा आज तक दलित भुगत रहे हैं। अब दलित राजनैतिक तौर पर बड़ी सवर्ण पार्टियों के गुलाम हैं और इस ने दलितों के अन्दर एक स्वार्थी और लम्पट तबके को पैदा कर दिया है जो चुनाव तो दलितों के नाम पर जीतता है परन्तु वफादारी सवर्ण आकाओं की निभाता है। भाजपा ने भी इस चुनाव में इसी व्यवस्था का लाभ फायदा उठाया है और सब से अधिक आरक्षित सीटें जीती हैं और आगे भी काफी आशान्वित है।
दरअसल दलितों में शुरू से ही दो प्रकार की सांस्कृतिक विचारधारा पनपती रही हैं। एक हिन्दू धर्म और ब्राह्मणवाद के खिलाफ और दूसरी उसकी पक्षधर/पुराने समय में भक्ति आन्दोलन और वर्तमान में अम्बेडकरवाद के प्रभाव में कुछ उपजातियाँ भक्ति आन्दोलन के प्रभाव में ब्राह्मणवाद के विरोध में खड़ी हुई थीं और कुछ उपजातियाँ हिन्दू धर्म के दायरे में ही रहीं। पंजाब में आदि-धर्म आन्दोलनउत्तर प्रदेश में आदि-हिन्दू आन्दोलन, आंध्र में आदि-आंध्र, तमिलनाडु में आदि-द्रविड़ आन्दोलन और बंगाल में नमोशूद्र आन्दोलन इसके प्रमुख आन्दोलन रहे हैं। बीसवीं सदी में डॉ. अंबेदकर के प्रभाव में हिन्दू धर्म के खिलाफ एक देश व्यापी आन्दोलन चला जिस की परिणति 1956 में हिन्दू धर्म का त्याग और बौद्ध धम्म का स्वीकार है। एक तरफ हिन्दू धर्म छोड़कर बौद्ध धम्म ग्रहण करने वालों की संख्या में बहुत बड़ी वृद्धि हो रही है वहीं दूसरी ओर दलितों की छोटी उपजातियों का ब्राह्मणीकरण हो रहा है।
हाल में आर.एस.एस. ने दलितों की छोटी हिन्दू उप-जातियों को पटाने के लिए तीन पुस्तकों का विमोचन किया है जिस में कहा गया है कि खटिक, बाल्मीकि और चमार पूर्व में क्षत्रिय जातियाँ थीं परन्तु मुसलमानों ने उन्हें अपना गुलाम बनाकर प्रताडि़त किया और नीच बना दिया और भाजपा उन्हें फिर से क्षत्रिय बनाकर सम्मान दे रही है। इस से कुछ दलित उपजातियों के भाजपा के जाल में फँसने की पूरी सम्भावना है क्योंकि एक तो वे अभी तक हिन्दू बनी हुई हैं और दूसरे वे बड़ी उपजातियों से प्रतिक्रिया में रहती हैं। इसके अलावा वर्तमान चुनाव प्रक्रिया से भाजपा उन्हें आरक्षित सीटें जितवाकर राजनैतिक लाभ भी पहुँचाने की स्थिति में है। इस हालत के लिए दलितों की राजनैतिक पार्टियाँ भी काफी हद तक जिम्मेदार हैं जिन्होंने इन उपजातियों को उचित प्रतिनिधित्व न देकर भाजपा को उन्हें अपनी तरफ आकर्षित करने का अवसर दिया है, जिस से हिंदुत्व मजबूत हुआ है। एक तरीके से जातिवादी राजनीति भी हिंदुत्व को ही मजबूत करती है क्योंकि
धर्म की राजनीति जाति को माध्यम बनाकर वोटों का ध्रुवीकरण करती है।
अतः दलितों को जाति की राजनीति के स्थान पर मुद्दों की राजनीति को अपनाना होगा जो जाति को तोड़कर दलितों और गैर दलितों को एकजुट कर सकती है। हिंदुत्व दलितों के लिए सब से बड़ा खतरा है क्योंकि हिंदुत्व वर्ण व्यवस्था का पक्षधर है जो जाति व्यवस्था को मजबूत करता है। जाति व्यवस्था शोषण की व्यवस्था है जिस का सबसे बड़े शिकार दलित ही हैं। अतः दलितों को आर.एस.एस. द्वारा जाति उच्चीकरण के नाम पर फेंके जा रहे हिंदुत्व के जाल में फँसने से बचना होगा। उन्हें जाति की राजनीति के स्थान पर मुद्दों की राजनीति को अपनाना होगा। उन्हें अपने फायदे के लिए हिंदुत्ववादी ताकतों के साथ जाति के नाम पर सौदा करने वाले दलित नेताओं से भी बचना होगा। उनकी मुक्ति तो डॉ. अंबेदकर के जाति विनाश के आन्दोलन को मजबूत करने से ही संभव है न कि जाति को सुदृढ़ करने से। धर्म आधारित हिंदुत्व की जातिवादी राजनीति उन्हें गुलामी की ओर ही ले जाएगी, मुक्ति की ओर नहीं। उन्हें डॉ. अंबेदकर के भारत में जातिविहीन और वर्गविहीन समाज की स्थापना के लक्ष्य को पूरा करने में अग्रणी भूमिका निभानी होगी।
- एस.आर.दारापुरी
मोबाइल: 09415164845
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