धर्म का राजनीति से क्या लेनादेना है? धर्म और हिंसा का क्या संबंध है? वर्तमान समय में, विभिन्न राजनैतिक एजेण्डे कौनसा रूप धर कर हमारे सामने आ रहे हैं?
ऐसा लगता है कि राजनीति ने धर्म का चोला ओड़ लिया है और यह प्रवृत्ति दक्षिण व पष्चिमएशिया में अधिक नजर आती है। अगर हम पिछले कुछ दशकों की बात करें तो धर्म की राजनीति में घुसपैठ की शुरूआत हुई ईरान में अयातुल्लाह खुमैनी के सत्ता में आने के साथ। इसके पहले, मुसादिक की सरकार का तख्ता पलट दिया गया था। मुसादिक, सन् 1953 में प्रजातांत्रिक रास्ते से ईरान के प्रधानमंत्री चुने गए थे। उन्होंने देश के कच्चे तेल के भंडार का राष्ट्रीयकरण कर दिया, जो, पष्चिम विशेष कर अमरीकी बहुराष्ट्रीय तेल कंपनियों को पसंद नहीं आया क्योंकि इससे उनका मुनाफा प्रभावित हो रहा था। मुसादिक सरकार को उखाड़ फेंकने के बाद, अमरीका के पिट्ठू शाह रजा पहलवी को सत्ता सौंप दी गई। इसके बाद हुई एक क्रांति के जरिये अयातुल्लाह खुमैनी सत्ता में आए। खुमैनी और उनके साथी कट्टरवादी इस्लाम के झंडाबरदार थे। उनके सत्ता में आने से पष्चिमी मीडिया में हलचल मच गई और इस्लाम को ‘आने वाले समय का सबसे बड़ा खतरा’ बताया जाने लगा। जहां तक दक्षिण एशिया का सवाल है, पिछले कुछ दशकों में भारत में हिंदू धर्म की पहचान की राजनीति परवान चढ़ी और पाकिस्तान में जिया-उल-हक ने राजनीति का इस्लामीकरण किया। इस्लाम की मौलाना मौदूदी की व्याख्या का इस्तेमाल, जिया-उल-हक ने अपनी सत्ता को मजबूती देने के लिए किया। इसके कुछ समय बाद, म्यंामार में अशिन विरथू जैसे लोगों का उदय हुआ, जिसे बर्मा का बिन लादेन कहा जाने लगा। श्रीलंका में बौद्ध पुरोहित वर्ग ने धर्म के नाम पर राजनीति में घुसपैठ शुरू कर दी। इसी दौर में अमरीका में ईसाई कट्टरवाद का बोलबाला बढ़ा।
न्यूयार्क के डब्ल्यूटीसी टाॅवर पर 9/11 के हमले के बाद, अमरीकी मीडिया ने ‘इस्लामिक आतंकवाद’ शब्द गढ़ा। इसके जरिये इस्लाम को आतंकवादी हिंसा के कीचड़ में घसीट लिया गया। तब से लेकर आज तक यह आम धारणा बनी हुई है-बल्कि मजबूत हुई है-कि इस्लाम और मुसलमान, आतंकवादी हिंसा की जड़ में हैं। इस्लाम का राजनीति मे उपयोग और कुछ सिरफिरे लोगों द्वारा अपने हितों की रक्षा के लिए इस्लाम के नाम का इस्तेमाल करने के कारण इस धारणा को मजबूती मिली और पूरी दुनिया में मुसलमानों की छवि खराब हुई।
लगभग सभी धर्म, अपने-अपने संदर्भों में, मानवतावाद की बात करते हैं परंतु न जाने क्यों, धर्मों के दर्शनिक पक्ष की बजाए उनके रीतिरिवाज, सामुदायिक कार्यक्रम और पुरोहित वर्ग उनकी पहचान बन गए और अब भी बने हुए हैं।
सामंती, प्राक्-औद्योगिक समाज में पुरोहित वर्ग और सत्ताधारियों के बीच गठजोड़ हुआ करता था। पुरोहित वर्ग ने ही इस अवधारणा को प्रस्तुत किया कि राजाओं को शासन करने का दैवीय अधिकार है। यूरोप में राजा और पोप हमराही हो गए, इस्लामिक दुनिया के बड़े हिस्से में नवाब और शाही इमाम में दोस्ती हो गई और हिंदू धर्म के प्रभाव वाले क्षेत्रों में राजा और राजगुरू एक साथ खड़े दिखने लगे। इस गठजोड़ का लाभ यह हुआ कि शासक अब अधिक से अधिक सत्ता अपने हाथों में केंद्रित करने के लिए धर्म का इस्तेमाल कर सकते थे। आश्चर्य नहीं कि राजाओं ने अपनी विस्तारवादी महत्वाकांक्षाओं को धार्मिक आधार पर औचित्यपूर्ण ठहराना शुरू कर दिया। अगर कोई ईसाई राजा अपने राज्य का विस्तार करना चाहता था तो उसके लिए किए जाने वाले युद्ध को वह ‘क्रूसेड’ बताता था। इसी तरह, मुस्लिम राजा कभी युद्ध नहीं करते थे, वे हमेशा जिहाद करते थे। हिंदू राजाओं की हर लड़ाई धर्मयुद्ध हुआ करती थी।
जिन देशों में धर्मनिरपेक्षीकरण की प्रक्रिया शुरू हो गई और समाज पर सामंती-पुरोहित वर्ग का शिकंजा ढीला हो गया, वहां धर्म को उसके दायरे में सीमित कर दिया गया। धर्म, हर व्यक्ति का व्यक्तिगत मसला है, यह मान्यता पुष्ट हुई। राज्य सभी नागरिकों को समान दर्जा देने लगा, चाहे उनकी धार्मिक आस्था कुछ भी हो। इसके विपरीत, दक्षिण एशिया में या तो धर्मनिरपेक्षीकरण की प्रक्रिया शुरू ही नहीं हुई और या फिर अधूरी रह गई। जमींदारों और पुरोहितों के अस्त होते वर्गों ने जोरशोर से धर्म के नाम पर राजनीति शुरू कर दी। भारत में हिंदू और मुस्लिम सांप्रदायिक धाराएं उभरीं, जिनको बढ़ावा दिया राजाओं, नवाबों और जमींदारों के एक तबके ने। बाद में शिक्षित मध्यम वर्ग के कुछ लोग भी इन धाराओं का हिस्सा बन गए। हिंदू और मुस्लिम राष्ट्रवादी उभरे, जिनका नेतृत्व जिन्ना, सावरकर व गोलवलकर जैसे उच्च शिक्षित श्रेष्ठी वर्ग के सदस्यों के हाथों में था। इन सांप्रदायिक धाराओं ने हमारे औपनिवेषिक षासकों को उनकी ‘‘फूट डालो और राज करो’’ की नीति को लागू करने में मदद की। औपनिवेशिक ताकतें, जो शनैः शनैः साम्राज्यवादी ताकतें बनती जा रही थीं, का आर्थिक प्रभुत्व बनाए रखने में सांप्रदायिक ताकतों ने उनकी मदद की। इसके विपरीत, मौलाना अबुल कलाम आजाद और मोहनदास करमचंद गांधी जैसे नेता, धार्मिक होते हुए भी धर्मनिरपेक्ष राज्य और समाज के हामी थे। सांप्रदायिक धाराएं जहां दूसरे समुदायों के विरूद्ध विष वमन करती थीं वहीं ये नेता सभी धर्मों को साथ लेकर चलने की नीति में विष्वास रखते थे और उस पर अमल भी करते थे।
समय के साथ दक्षिण एषिया में सांप्रदायिक हिंसा ने भयावह रूप धारण कर लिया है। भारत में वह हिंदू धर्म का चोला ओढ़े है तो बांग्लादेश और पाकिस्तान में इस्लाम का। श्रीलंका और म्यांमार में वह बौद्ध धर्म के वेश में है। इस हिंसा का राजनैतिक लक्ष्य और एजेंडा है प्राक्-आधुनिक सामंतवादी मूल्यों को आधुनिक कलेवर में समाज पर लादना। जाति और लैंगिक पदानुक्रम के सामंती मूल्यों को मजबूती देने के लिए ऐसी भाषा का इस्तेमाल किया जाता है जो आधुनिक मालूम होती है। कई बार समकालीन संदर्भों के अनुरूप इन मूल्यों में थोड़े-बहुत परिवर्तन भी कर लिए जाते हैं।
धर्म के नाम पर हिंसा के संदर्भ में इस्लाम को सबसे ज्यादा बदनाम किया गया है। जहां खोमैनी के बाद इस्लाम को दुनिया के लिए नया खतरा बताया गया, वहीं 9/11 के बाद खुलकर, इस्लामिक आतंकवाद शब्द का इस्तेमाल होने लगा। समय के साथ अलकायदा उभरा जो मध्य व पष्चिम एशिया में आतंकवादी हिंसा की अधिकतर वारदातों के पीछे था। बोको हरम, आईसिस और अलकायदा की तिकड़ी, इस्लामिक पहचान को केंद्र में रखकर वीभत्स हिंसा कर रही है। यह प्रक्रिया शुरू हुई थी अफगानिस्तान में सोवियत सैनिकों को काफिर बताकर उन पर हमला करने के आह्वान से। अब हालत यह है कि मुसलमानों का एक पंथ ही दूसरे पंथ के सदस्यों को काफिर बता रहा है और अत्यंत क्रूर व दिल दहलाने वाले तरीकों से लोगों की जान ली जा रही है। इसमें कोई संदेह नहीं कि इस तिकड़ी द्वारा जिन लोगों की जान ली गई है, उनमें से सबसे ज्यादा मुसलमान ही हैं।
अलकायदा के उभार के पीछे कई कारक थे। इनमें से एक था जिया-उल-हक द्वारा पाकिस्तान का इस्लामीकरण। जिया-उल-हक ने पाकिस्तान में ऐसे मदरसों की स्थापना की, जिनका इस्तेमाल युवाओं के दिमाग में जहर भरने के लिए किया जाने लगा। सउदी अरब से इस्लाम के वहाबी संस्करण का आयात कर लिया गया। वहाबियों की यह मान्यता है कि शासक, ईश्वर का प्रतिनिधि होता है। इस्लाम के इस संस्करण के अनुसार, जो उनसे सहमत नहीं है, वह काफिर है और काफिर की जान लेना पवित्र जिहाद है। जो लोग इस जिहाद में मारे जाते हैं उन्हें जन्नत नसीब होती है। अलकायदा के खूनी अभियान को सबसे
अधिक मदद अमरीका से मिली, जिसने लगभग 800 करोड़ डाॅलर और 7000 टन असला अलकायदा को उपलब्ध करवाया। कैंसर की तरह अलकायदा धीरे-धीरे पूरे दक्षिण एशिया में फैल गया और उसे उखाड़ फेंकना मुष्किल होता गया।
तो अब हमारे सामने आगे की राह क्या है? अलग-अलग काल में धर्म की अलग-अलग भूमिका रही है। हमें धर्मों की संत परंपरा को पुनर्जीवित करना होगा। हमें लोगों को यह बताना होगा कि धर्म एक नैतिक षक्ति है और धर्म के नाम पर हिंसा किसी भी स्थिति में जायज़ नहीं है। और यह भी कि धर्म के नाम पर की जा रही हिंसा का असली उद्देष्य पुरातनपंथी मूल्यों को समाज पर लादना है। धार्मिक विद्वानों और अध्येताओं को धर्मों के नैतिक पक्ष पर जोर देना चाहिए और लोगों को पहचान से जुड़े मुद्दों और बाहरी आडंबर से दूर रहने की सलाह देनी चाहिए।
ऐसा लगता है कि राजनीति ने धर्म का चोला ओड़ लिया है और यह प्रवृत्ति दक्षिण व पष्चिमएशिया में अधिक नजर आती है। अगर हम पिछले कुछ दशकों की बात करें तो धर्म की राजनीति में घुसपैठ की शुरूआत हुई ईरान में अयातुल्लाह खुमैनी के सत्ता में आने के साथ। इसके पहले, मुसादिक की सरकार का तख्ता पलट दिया गया था। मुसादिक, सन् 1953 में प्रजातांत्रिक रास्ते से ईरान के प्रधानमंत्री चुने गए थे। उन्होंने देश के कच्चे तेल के भंडार का राष्ट्रीयकरण कर दिया, जो, पष्चिम विशेष कर अमरीकी बहुराष्ट्रीय तेल कंपनियों को पसंद नहीं आया क्योंकि इससे उनका मुनाफा प्रभावित हो रहा था। मुसादिक सरकार को उखाड़ फेंकने के बाद, अमरीका के पिट्ठू शाह रजा पहलवी को सत्ता सौंप दी गई। इसके बाद हुई एक क्रांति के जरिये अयातुल्लाह खुमैनी सत्ता में आए। खुमैनी और उनके साथी कट्टरवादी इस्लाम के झंडाबरदार थे। उनके सत्ता में आने से पष्चिमी मीडिया में हलचल मच गई और इस्लाम को ‘आने वाले समय का सबसे बड़ा खतरा’ बताया जाने लगा। जहां तक दक्षिण एशिया का सवाल है, पिछले कुछ दशकों में भारत में हिंदू धर्म की पहचान की राजनीति परवान चढ़ी और पाकिस्तान में जिया-उल-हक ने राजनीति का इस्लामीकरण किया। इस्लाम की मौलाना मौदूदी की व्याख्या का इस्तेमाल, जिया-उल-हक ने अपनी सत्ता को मजबूती देने के लिए किया। इसके कुछ समय बाद, म्यंामार में अशिन विरथू जैसे लोगों का उदय हुआ, जिसे बर्मा का बिन लादेन कहा जाने लगा। श्रीलंका में बौद्ध पुरोहित वर्ग ने धर्म के नाम पर राजनीति में घुसपैठ शुरू कर दी। इसी दौर में अमरीका में ईसाई कट्टरवाद का बोलबाला बढ़ा।
न्यूयार्क के डब्ल्यूटीसी टाॅवर पर 9/11 के हमले के बाद, अमरीकी मीडिया ने ‘इस्लामिक आतंकवाद’ शब्द गढ़ा। इसके जरिये इस्लाम को आतंकवादी हिंसा के कीचड़ में घसीट लिया गया। तब से लेकर आज तक यह आम धारणा बनी हुई है-बल्कि मजबूत हुई है-कि इस्लाम और मुसलमान, आतंकवादी हिंसा की जड़ में हैं। इस्लाम का राजनीति मे उपयोग और कुछ सिरफिरे लोगों द्वारा अपने हितों की रक्षा के लिए इस्लाम के नाम का इस्तेमाल करने के कारण इस धारणा को मजबूती मिली और पूरी दुनिया में मुसलमानों की छवि खराब हुई।
लगभग सभी धर्म, अपने-अपने संदर्भों में, मानवतावाद की बात करते हैं परंतु न जाने क्यों, धर्मों के दर्शनिक पक्ष की बजाए उनके रीतिरिवाज, सामुदायिक कार्यक्रम और पुरोहित वर्ग उनकी पहचान बन गए और अब भी बने हुए हैं।
सामंती, प्राक्-औद्योगिक समाज में पुरोहित वर्ग और सत्ताधारियों के बीच गठजोड़ हुआ करता था। पुरोहित वर्ग ने ही इस अवधारणा को प्रस्तुत किया कि राजाओं को शासन करने का दैवीय अधिकार है। यूरोप में राजा और पोप हमराही हो गए, इस्लामिक दुनिया के बड़े हिस्से में नवाब और शाही इमाम में दोस्ती हो गई और हिंदू धर्म के प्रभाव वाले क्षेत्रों में राजा और राजगुरू एक साथ खड़े दिखने लगे। इस गठजोड़ का लाभ यह हुआ कि शासक अब अधिक से अधिक सत्ता अपने हाथों में केंद्रित करने के लिए धर्म का इस्तेमाल कर सकते थे। आश्चर्य नहीं कि राजाओं ने अपनी विस्तारवादी महत्वाकांक्षाओं को धार्मिक आधार पर औचित्यपूर्ण ठहराना शुरू कर दिया। अगर कोई ईसाई राजा अपने राज्य का विस्तार करना चाहता था तो उसके लिए किए जाने वाले युद्ध को वह ‘क्रूसेड’ बताता था। इसी तरह, मुस्लिम राजा कभी युद्ध नहीं करते थे, वे हमेशा जिहाद करते थे। हिंदू राजाओं की हर लड़ाई धर्मयुद्ध हुआ करती थी।
जिन देशों में धर्मनिरपेक्षीकरण की प्रक्रिया शुरू हो गई और समाज पर सामंती-पुरोहित वर्ग का शिकंजा ढीला हो गया, वहां धर्म को उसके दायरे में सीमित कर दिया गया। धर्म, हर व्यक्ति का व्यक्तिगत मसला है, यह मान्यता पुष्ट हुई। राज्य सभी नागरिकों को समान दर्जा देने लगा, चाहे उनकी धार्मिक आस्था कुछ भी हो। इसके विपरीत, दक्षिण एशिया में या तो धर्मनिरपेक्षीकरण की प्रक्रिया शुरू ही नहीं हुई और या फिर अधूरी रह गई। जमींदारों और पुरोहितों के अस्त होते वर्गों ने जोरशोर से धर्म के नाम पर राजनीति शुरू कर दी। भारत में हिंदू और मुस्लिम सांप्रदायिक धाराएं उभरीं, जिनको बढ़ावा दिया राजाओं, नवाबों और जमींदारों के एक तबके ने। बाद में शिक्षित मध्यम वर्ग के कुछ लोग भी इन धाराओं का हिस्सा बन गए। हिंदू और मुस्लिम राष्ट्रवादी उभरे, जिनका नेतृत्व जिन्ना, सावरकर व गोलवलकर जैसे उच्च शिक्षित श्रेष्ठी वर्ग के सदस्यों के हाथों में था। इन सांप्रदायिक धाराओं ने हमारे औपनिवेषिक षासकों को उनकी ‘‘फूट डालो और राज करो’’ की नीति को लागू करने में मदद की। औपनिवेशिक ताकतें, जो शनैः शनैः साम्राज्यवादी ताकतें बनती जा रही थीं, का आर्थिक प्रभुत्व बनाए रखने में सांप्रदायिक ताकतों ने उनकी मदद की। इसके विपरीत, मौलाना अबुल कलाम आजाद और मोहनदास करमचंद गांधी जैसे नेता, धार्मिक होते हुए भी धर्मनिरपेक्ष राज्य और समाज के हामी थे। सांप्रदायिक धाराएं जहां दूसरे समुदायों के विरूद्ध विष वमन करती थीं वहीं ये नेता सभी धर्मों को साथ लेकर चलने की नीति में विष्वास रखते थे और उस पर अमल भी करते थे।
समय के साथ दक्षिण एषिया में सांप्रदायिक हिंसा ने भयावह रूप धारण कर लिया है। भारत में वह हिंदू धर्म का चोला ओढ़े है तो बांग्लादेश और पाकिस्तान में इस्लाम का। श्रीलंका और म्यांमार में वह बौद्ध धर्म के वेश में है। इस हिंसा का राजनैतिक लक्ष्य और एजेंडा है प्राक्-आधुनिक सामंतवादी मूल्यों को आधुनिक कलेवर में समाज पर लादना। जाति और लैंगिक पदानुक्रम के सामंती मूल्यों को मजबूती देने के लिए ऐसी भाषा का इस्तेमाल किया जाता है जो आधुनिक मालूम होती है। कई बार समकालीन संदर्भों के अनुरूप इन मूल्यों में थोड़े-बहुत परिवर्तन भी कर लिए जाते हैं।
धर्म के नाम पर हिंसा के संदर्भ में इस्लाम को सबसे ज्यादा बदनाम किया गया है। जहां खोमैनी के बाद इस्लाम को दुनिया के लिए नया खतरा बताया गया, वहीं 9/11 के बाद खुलकर, इस्लामिक आतंकवाद शब्द का इस्तेमाल होने लगा। समय के साथ अलकायदा उभरा जो मध्य व पष्चिम एशिया में आतंकवादी हिंसा की अधिकतर वारदातों के पीछे था। बोको हरम, आईसिस और अलकायदा की तिकड़ी, इस्लामिक पहचान को केंद्र में रखकर वीभत्स हिंसा कर रही है। यह प्रक्रिया शुरू हुई थी अफगानिस्तान में सोवियत सैनिकों को काफिर बताकर उन पर हमला करने के आह्वान से। अब हालत यह है कि मुसलमानों का एक पंथ ही दूसरे पंथ के सदस्यों को काफिर बता रहा है और अत्यंत क्रूर व दिल दहलाने वाले तरीकों से लोगों की जान ली जा रही है। इसमें कोई संदेह नहीं कि इस तिकड़ी द्वारा जिन लोगों की जान ली गई है, उनमें से सबसे ज्यादा मुसलमान ही हैं।
अलकायदा के उभार के पीछे कई कारक थे। इनमें से एक था जिया-उल-हक द्वारा पाकिस्तान का इस्लामीकरण। जिया-उल-हक ने पाकिस्तान में ऐसे मदरसों की स्थापना की, जिनका इस्तेमाल युवाओं के दिमाग में जहर भरने के लिए किया जाने लगा। सउदी अरब से इस्लाम के वहाबी संस्करण का आयात कर लिया गया। वहाबियों की यह मान्यता है कि शासक, ईश्वर का प्रतिनिधि होता है। इस्लाम के इस संस्करण के अनुसार, जो उनसे सहमत नहीं है, वह काफिर है और काफिर की जान लेना पवित्र जिहाद है। जो लोग इस जिहाद में मारे जाते हैं उन्हें जन्नत नसीब होती है। अलकायदा के खूनी अभियान को सबसे
अधिक मदद अमरीका से मिली, जिसने लगभग 800 करोड़ डाॅलर और 7000 टन असला अलकायदा को उपलब्ध करवाया। कैंसर की तरह अलकायदा धीरे-धीरे पूरे दक्षिण एशिया में फैल गया और उसे उखाड़ फेंकना मुष्किल होता गया।
तो अब हमारे सामने आगे की राह क्या है? अलग-अलग काल में धर्म की अलग-अलग भूमिका रही है। हमें धर्मों की संत परंपरा को पुनर्जीवित करना होगा। हमें लोगों को यह बताना होगा कि धर्म एक नैतिक षक्ति है और धर्म के नाम पर हिंसा किसी भी स्थिति में जायज़ नहीं है। और यह भी कि धर्म के नाम पर की जा रही हिंसा का असली उद्देष्य पुरातनपंथी मूल्यों को समाज पर लादना है। धार्मिक विद्वानों और अध्येताओं को धर्मों के नैतिक पक्ष पर जोर देना चाहिए और लोगों को पहचान से जुड़े मुद्दों और बाहरी आडंबर से दूर रहने की सलाह देनी चाहिए।
-राम पुनियानी
1 टिप्पणी:
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (21-03-2015) को "नूतनसम्वत्सर आया है" (चर्चा - 1924) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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भारतीय नववर्ष की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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