हिंदू राष्ट्रवादी संगठनों द्वारा गौरक्षा के लिए चलाए जा रहे अभियान का उद्देश्य राजनैतिक है। ये संगठन उच्च जातियों के सांस्कृतिक वर्चस्व को पुनर्स्थापित करना चाहते हैं और उस पदक्रम आधारित व सामंती संस्कृति.जो ऊँची जातियों को विशेषाधिकार देती है.को राष्ट्रीय संस्कृति का दर्जा देना चाहते हैं। महाराष्ट्र विधानसभा ने सन् 1995 में 'महाराष्ट्र पशु संरक्षण अधिनियम 1976' में संशोधन किया था। इस संशोधन अधिनियम को 20 साल बाद, सन् 2015 में, राष्ट्रपति की स्वीकृति प्राप्त हुई। इस संशोधन अधिनियम का उद्देश्य गौवंश की रक्षा नहीं बल्कि अतिवादी व अराजक हिंदू राष्ट्रवादी समूहों को, हाशिए पर पड़े समुदायों,विशेषकर मुसलमानों, को भयाक्रांत करने का अवसर उपलब्ध करवाना है।
सन् 1976 के पशु संरक्षण अधिनियम, जिसे सन् 1988 में संशोधित किया गया था, में केवल गाय ;व उसके नर व मादा बछड़ों का वध प्रतिबंधित किया गया था और कानून का उल्लंघन करने वालों को छः माह तक के कारावास से दंडित किए जाने का प्रावधान था। यदि अदालत चाहे तो अपराधी पर रूपये 1000 तक का जुर्माना भी लगा सकती थी।
सन् 2015 का अधिनियम,एक प्रजातांत्रिक, संवैधानिक राज्य को एकाधिकारवादी, सांस्कृतिक राज्य में परिवर्तित करता है.एक ऐसे राज्य में जो अतिशय शक्तिसंपन्न है और जिसके तंत्र को नागरिकों के रसोईघरों, रेफ्रिजिरेटरों और खाने की थाली में झांकने का अधिकार है। अधिनियम में गाय के अलावा बैलों और सांडों का वध भी प्रतिबंधित कर दिया गया है। जिस तथ्य पर अधिकांश लोगों का ध्यान नहीं गया है वह यह है कि यह अधिनियम यूएपीए ;गैरकानूनी गतिविधियां निवारण अधिनियम या टाडा ;आंतकवादी व विध्वंसकारी गतिविधियां निवारण अधिनियम या पोटा ;आतंकवादी गतिविधियां निवारण अधिनियम जितना ही भयावह है। इस अधिनियम के लागू होने से उन अतिवादी व मुख्यधारा के हिंदू राष्ट्रवादी संगठनों को प्रोत्साहन मिलेगा जो कई तरह की गैरकानूनी गतिविधियों में संलग्न हैं। ऐसी गतिविधियों में शामिल हैं ऐसे ट्रक व अन्य वाहनों को रोकना जिनमें मवेशी ढोए जा रहे हों व मवेशियों का मालिक, विक्रेता या क्रेता या वाहन का मालिक या ड्रायवर मुसलमान हो। ये समूह, जिनमें अक्सर चार से छः संडमुसंड व्यक्ति होते हैं,ड्रायवर से कागजात मांगते हैंए उन कागजातों को फाड़कर फेंक देते हैं और मवेशी लूट लेते हैं। अगर ड्रायवर मुसलमान हो तो उसकी पिटाई लगाते हैं, पुलिस को बुला लेते हैं और झूठा प्रकरण दर्ज करवाकर वाहन को जब्त करवा देते है। उसके बाद वे मीडिया को बुलाकर यह प्रचार करते हैं कि मुसलमान, गायों को काटने के लिए ले जा रहे थे और उन्होंने उन्हें रोका।
राज्य और पवित्र गाय
सरकार का कहना है कि 2015 का अधिनियम,संविधान के चौथे भाग के अनुच्छेद 48 के अनुरूप है, जो राज्य के नीति निदेशक तत्वों से संबंधित है। ये नीति निदेशक तत्व अदालतों के जरिए लागू नहीं करवाए जा सकते। अनुच्छेद 48 कहता है,'राज्य, कृषि और पशुपालन को आधुनिक और वैज्ञानिक प्रणालियों से संगठित करने का प्रयास करेगा और विशिष्टतया गायों और बछड़ों तथा अन्य दुधारू और वाहक पशुओं की नस्लों के परिरक्षण व सुधार के लिए और उनके वध का प्रतिषेध करने के लिए कदम उठाएगा।' राज्य सरकार ने बंबई हाईकोर्ट को बताया कि यह अधिनियम इसलिए लागू किया गया है ताकि गौवंश की रक्षा हो सके। सरकार का यह भी कहना था कि गाय के दूध, गोबर और मूत्र का इस्तेमाल कीटनाशक और अन्य औषधीय उत्पादों में किया जाता है। राज्य सरकार के इस दावे की किसी वैज्ञानिक शोध से पुष्टि नहीं हुई है और ना ही सरकार,अदालत के समक्ष ऐसे किसी भी शोध का हवाला दे सकी। जहां तक बैल के भारवाही पशु के रूप में इस्तेमाल का सवाल है, इस आधार पर तो फिर भैंसों, ऊँटों और घोड़ों के वध को भी प्रतिबंधित किया जाना चाहिए। सरकार ने प्राचीन वैदिक ग्रंथों का हवाला देकर भी अपने नये कानून को उचित ठहराया। यहां तक कि 'नेशनल कमीशन ऑन केटल' की रपट में भी वैदिक ग्रंथों और 'स्मृतियों' के आधार पर यह 'साबित' किया गया है कि गाय एक उपयोगी पशु है! सच यह है कि ऊँची जातियों की धार्मिक परंपराओं का सहारा लिए बिना, गौवध पर प्रतिबंध को औचित्यपूर्ण सिद्ध करना असंभव नहीं तो बहुत कठिन अवश्य है।
अगर सन् 2015 के अधिनियम का उद्देश्य महाराष्ट्र के पशुधन का उसके दूध, गोबर और मूत्र के उत्पादों की खातिर संरक्षण करना और भारवाही पशु के रूप में बैल की उपयोगिता की दृष्टि से उसे वध से बचाना है तो फिर अधिनियम की धारा 5डी के अंतर्गत, किसी व्यक्ति के पास अन्य राज्यों से आयात किए गए गौमांस का पाया जाना अपराध घोषित क्यों किया गया है। निश्चित तौर पर अगर महाराष्ट्र के बाहर से गौमांस आयात किया जाता है तो उससे राज्य के पशुधन में कमी नहीं आएगी और ना ही राज्य में उपलब्ध गायों के दूध,गोबर या मूत्र की मात्रा घटेगी! दूसरी ओरए गौवंश के राज्य से बाहर निर्यात ;सिवा वध के लिए करने की अनुमति क्यों दी गई है ? गौवंश को चाहे वध के लिए निर्यात किया जाए या किसी अन्य उद्देश्य के लिएए महाराष्ट्र तो अपना पशुधन खोएगा ही और साथ ही दूध, गोबर और मूत्र भी खोएगा।
दरअसल, इस अधिनियम का उद्देश्य ना तो गौवंश का संरक्षण है और ना ही उसके दूध, गोबर व मूत्र का उपलब्धता सुनिश्चित करना। इस अधिनियम का असली उद्देश्य है पुलिस और कार्यपालिका को दमन करने का एक और हथियार उपलब्ध करवाना। इस अधिनियम के कुछ प्रावधानों पर नजर डालिये। धारा 5ए, 5बी और 5सी में गौवंश का वध के लिए परिवहन, गौवंश का वध के लिए खरीदना.बेचना और गाय या बैल का मांस किसी व्यक्ति के पास पाया जाना अपराध घोषित किया गया है। यह अधिनियम किसी भी पुलिस अधिकारी,जो कि उपनिरीक्षक से निचले दर्जे का नहीं होगा, या राज्य सरकार द्वारा अधिकृत किसी भी व्यक्ति को यह अधिकार देता है कि वह किसी भी ऐसे वाहन, जिसका इस्तेमाल गौवंश को ढोने के लिए किया जा रहा हो या किये जाने का अंदेशा हो, को रोक सकता है और उसमें प्रवेश कर उसकी तलाशी ले सकता है। अधिनियम इस तरह की तलाशी लेने के लिए किसी भी परिसर के द्वार या ताले को तोड़ने का अधिकार भी पुलिस को देता है। स्पष्ट है कि अभी जो गौरक्षक दल गैरकानूनी ढंग से काम कर रहे हैं उन्हें यह अधिनियम कानूनी अधिकार दे देगा। कोई भी पुलिस अधिकारी उन्हें अधिकृत कर सकेगा कि वे किसी भी वाहन को रोककर उसकी तलाशी ले सकते हैं। पुलिस अधिकारियों को ऐसी गायों, बछड़ों व बैलों को जब्त करने का अधिकार होगा जिन्हें वध के इरादे से बेचाए खरीदा या एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाया जा रहा हो। कहने की आवश्यकता नहीं कि 'इरादे' का आरोप किसी पर भी बहुत आसानी से जड़ा जा सकता है और उस व्यक्ति के लिए यह साबित करना मुश्किल होगा कि उसका 'इरादा' यह नहीं था।
इस अधिनियम के उल्लंघन के लिए निर्धारित सजा 10 गुना कर दी गई है। इस अधिनियम के तहत दोषी पाये जाने वाले को पांच साल तक का कारावास हो सकता है और उस पर दस हजार रूपये तक का जुर्माना भी लगाया जा सकता है। कारावास की न्यूनतम अवधि छः माह और जुर्माने की न्यूनतम राशि रूपये 1000 होगी। इस प्रकार,संशोधन के पहले जो अधिकतम सजा दी जा सकती थी, उसे अब न्यूनतम बना दिया गया है। अगर आपके पास से कम मात्रा में कोई नशीली दवा ;नार्कोटिक ड्रग जब्त होती है तो संभावना यह है कि आपको अदालत किसी पुनर्वास केंद्र में भेजे जाने का आदेश देगी। परंतु यदि आपके पास से गौवंश का मांस जब्त होता है तो आप एक साल तक के लिए जेल भेजे जा सकते हैं। शायद सरकार की दृष्टि में किसी व्यक्ति के पास से गौमांस मिलना, उसके पास से ड्रग्स मिलने से ज्यादा गंभीर अपराध है। हिंदू राष्ट्रवादी समूहों को हिंदुओं के ड्रग्स के आदी हो जाने से ज्यादा चिंता इस बात की है कि कहीं उनके पास गौमांस न हो।
अधिनियम का सबसे कठोर और भयावह प्रावधान यह है कि गौवंश का वध, परिवहन,राज्य से बाहर निर्यात खरीदी या बिक्री या गाय या बैल का मांस पाया जाना अधिनियम का उल्लंघन नहीं है, यह साबित करने की जिम्मेदारी आरोपी पर होगी। भारतीय विधिशास्त्र में आरोपी को तब तक निर्दोष माना जाता है जब तक कि उसका दोष सिद्ध नहीं हो जाता। इस सिद्धांत के कुछ ही अपवाद हैं। इनमें शामिल हैं अपवादात्मक परिस्थितियों में अत्यंत गंभीर अपराधों से निपटने के लिए बनाए गए विशेष कानून उदाहरणार्थ गैरकानूनी गतिविधियां निवारण अधिनियम ;यूएपीए या आतंकवाद.निरोधक कानून। हत्या या राष्ट्रद्रोह के मामलों में भी आरोपी को निर्दोष माना जाता है और उसे दोषी सिद्ध करने की जिम्मेदारी अभियोजन पक्ष पर होती है। सवाल यह है कि किसी गरीब व्यक्ति को यदि इस अधिनियम के तहत आरोपी बना दिया गया तो वह स्वयं को कैसे निर्दोष साबित करेगा ? राज्य या उसके द्वारा अधिकृत कोई व्यक्ति आप के घर का दरवाजा तोड़कर अंदर घुस सकता है, आपके रसोईघर और थाली में क्या है, यह देख सकता है, आपके फ्रिज में झांक सकता है और 'अवैध' मांस जब्त कर सकता है और आपको सींखचों के पीछे डाल सकता है। अब यह आपकी जिम्मेदारी होगी कि आप जेल में रहते हुए अपने आपको निर्दोष साबित करें।
इस अधिनियम के लागू होते ही हिंदू धर्म के स्वनियुक्त रक्षक अतिसक्रिय हो उठे। वैसे भी वे न तो संविधान का सम्मान करते हैं और ना ही कानून के राज में उनकी आस्था है। उत्तरी महाराष्ट्र का मालेगांव,मुस्लिम.बहुत नगर है। वहां पर कुछ लोगों ने मुसलमानों के खिलाफ इस अधिनियम के तहत् रिपोर्ट लिखवा दी। पुलिस ने कार्यवाही की और आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया। मालेगांव पुलिस ने तबस्सुम बरनगरवाला को बताया, 'प्रतिबंध लगते ही हिंदू समूह हमारे पीछे पड़ गये कि हम मुस्लिम घरों की जांच करें। लोग आपसी दुश्मनी के कारण झूठी शिकायतें लिखवा रहे हैं। कोई भी हिंदू आकर हमसे कह सकता है कि फलां मुसलमान के घर में जो गायें हैं उनका वह वध करने का 'इरादा' रखता है। ऐसे स्थिति में हम क्या करें?'मालेगांव पुलिस ने नगर के सभी ऐसे मुसलमानों, जिनके घर गायें पली हैं, को निर्देष दिया कि वे अपने जानवरों का पंजीयन करायें और गायों के मालिक की सभी गायों के साथ फोटो भी पुलिस को उपलब्ध करवायें। मालेगांव पुलिस ने एक नया रजिस्टर बनाया जिसका नाम रखा गया 'गाय, बैल,बछड़ा रजिस्टर'। मालेगांव की पुलिस अब उन मुसलमानों को ढूँढ रही है जिनके पास गायें हैं और इस बात का हिसाब रख रही है कि किस मुसलमान के पास कितनी गायें और कितने बछड़े हैं। मवेशियों के व्यवसाय और उनके परिवहन पर भी पुलिस नजर रख रही है। जिन हिंदुओं के पास गायें हैं उनसे अपने पशुओं का पंजीकरण करवाने के लिए नहीं कहा गया है क्योंकि पुलिस यह मानकर चल रही है कि केवल मुसलमान ही गौवध करते हैं हिंदू नहीं।
महाराष्ट्र में पुलिसकर्मियों की पहले से ही बहुत कमी है। पुलिस को दलित.विरोधी हिंसा, आतंकवाद, ड्रग्स के बढ़ते व्यवसाय, भू.माफियाए महिलाओं के साथ बलात्कार व अन्य सैक्स अपराध, घरेलू हिंसा, सांप्रदायिक हिंसा व अन्य संगठित अपराधों से निपटने के अलावा अब गायों और बछड़ों का हिसाब.किताब भी रखना पड़ेगा।
इस अधिनियम का सबसे बड़ा शिकार बना है हमारा विधिशास्त्र। यह अधिनियम,पुलिस और स्वनियुक्त हिंदू रक्षकों को ऐसे अधिकारों से लैस करता है, जिनका इस्तेमाल वे मुसलमानों और दलितों का दमन करने और उन्हें परेशान करने के लिए कर सकते हैं। दलित, प्रोटीन के सस्ते स्त्रोत से तो वंचित होंगे ही उनकी जीविका भी प्रभावित होगी क्योंकि उनमें से कई चमड़े का सामान बनाने के व्यवसाय में रत हैं।
धर्मनिरपेक्ष आंदोलन और मानवाधिकार संगठनों ने इस अधिनियम का इस आधार पर विरोध किया है कि यह अल्पसंख्यकों, विशेषकर मुसलमानों,के अधिकारों पर अतिक्रमण है। सच यह है कि यह इससे भी ज्यादा है। हिंदुत्व की विचारधारा में विश्वास रखने वाले लोगों की सरकार अब हमें यह बताना चाहती है कि हम क्या खाएं और क्या नहीं? अब आगे क्या? शायद अब सरकार हमें यह बताएगी कि अब हम कौनसे कपड़े पहने,कौनसी फिल्म देंखे या किस संगीत की महफिल में जाएं। सरकार अब शायद यह भी तय करना चाहेगी कि हम अपनी आजीविका के लिए क्या काम करें और शहर के किस इलाके में रहें। मुसलमानों को पहले शिकार इसलिए बनाया जा रहा है ताकि इस कानून का विरोध केवल मुसलमानों की ओर से होए पूरे समाज की ओर से नहीं। परंतु सच यह है कि इस तरह के कानून हर उस व्यक्ति के लिए खतरे की घंटी हैं जो प्रजातंत्र में विश्वास रखता है। ऐसे हर व्यक्ति को इस कानून और इस तरह के अन्य कदमों का खुलकर विरोध करना चाहिए।
-इरफान इंजीनियर
सन् 1976 के पशु संरक्षण अधिनियम, जिसे सन् 1988 में संशोधित किया गया था, में केवल गाय ;व उसके नर व मादा बछड़ों का वध प्रतिबंधित किया गया था और कानून का उल्लंघन करने वालों को छः माह तक के कारावास से दंडित किए जाने का प्रावधान था। यदि अदालत चाहे तो अपराधी पर रूपये 1000 तक का जुर्माना भी लगा सकती थी।
सन् 2015 का अधिनियम,एक प्रजातांत्रिक, संवैधानिक राज्य को एकाधिकारवादी, सांस्कृतिक राज्य में परिवर्तित करता है.एक ऐसे राज्य में जो अतिशय शक्तिसंपन्न है और जिसके तंत्र को नागरिकों के रसोईघरों, रेफ्रिजिरेटरों और खाने की थाली में झांकने का अधिकार है। अधिनियम में गाय के अलावा बैलों और सांडों का वध भी प्रतिबंधित कर दिया गया है। जिस तथ्य पर अधिकांश लोगों का ध्यान नहीं गया है वह यह है कि यह अधिनियम यूएपीए ;गैरकानूनी गतिविधियां निवारण अधिनियम या टाडा ;आंतकवादी व विध्वंसकारी गतिविधियां निवारण अधिनियम या पोटा ;आतंकवादी गतिविधियां निवारण अधिनियम जितना ही भयावह है। इस अधिनियम के लागू होने से उन अतिवादी व मुख्यधारा के हिंदू राष्ट्रवादी संगठनों को प्रोत्साहन मिलेगा जो कई तरह की गैरकानूनी गतिविधियों में संलग्न हैं। ऐसी गतिविधियों में शामिल हैं ऐसे ट्रक व अन्य वाहनों को रोकना जिनमें मवेशी ढोए जा रहे हों व मवेशियों का मालिक, विक्रेता या क्रेता या वाहन का मालिक या ड्रायवर मुसलमान हो। ये समूह, जिनमें अक्सर चार से छः संडमुसंड व्यक्ति होते हैं,ड्रायवर से कागजात मांगते हैंए उन कागजातों को फाड़कर फेंक देते हैं और मवेशी लूट लेते हैं। अगर ड्रायवर मुसलमान हो तो उसकी पिटाई लगाते हैं, पुलिस को बुला लेते हैं और झूठा प्रकरण दर्ज करवाकर वाहन को जब्त करवा देते है। उसके बाद वे मीडिया को बुलाकर यह प्रचार करते हैं कि मुसलमान, गायों को काटने के लिए ले जा रहे थे और उन्होंने उन्हें रोका।
राज्य और पवित्र गाय
सरकार का कहना है कि 2015 का अधिनियम,संविधान के चौथे भाग के अनुच्छेद 48 के अनुरूप है, जो राज्य के नीति निदेशक तत्वों से संबंधित है। ये नीति निदेशक तत्व अदालतों के जरिए लागू नहीं करवाए जा सकते। अनुच्छेद 48 कहता है,'राज्य, कृषि और पशुपालन को आधुनिक और वैज्ञानिक प्रणालियों से संगठित करने का प्रयास करेगा और विशिष्टतया गायों और बछड़ों तथा अन्य दुधारू और वाहक पशुओं की नस्लों के परिरक्षण व सुधार के लिए और उनके वध का प्रतिषेध करने के लिए कदम उठाएगा।' राज्य सरकार ने बंबई हाईकोर्ट को बताया कि यह अधिनियम इसलिए लागू किया गया है ताकि गौवंश की रक्षा हो सके। सरकार का यह भी कहना था कि गाय के दूध, गोबर और मूत्र का इस्तेमाल कीटनाशक और अन्य औषधीय उत्पादों में किया जाता है। राज्य सरकार के इस दावे की किसी वैज्ञानिक शोध से पुष्टि नहीं हुई है और ना ही सरकार,अदालत के समक्ष ऐसे किसी भी शोध का हवाला दे सकी। जहां तक बैल के भारवाही पशु के रूप में इस्तेमाल का सवाल है, इस आधार पर तो फिर भैंसों, ऊँटों और घोड़ों के वध को भी प्रतिबंधित किया जाना चाहिए। सरकार ने प्राचीन वैदिक ग्रंथों का हवाला देकर भी अपने नये कानून को उचित ठहराया। यहां तक कि 'नेशनल कमीशन ऑन केटल' की रपट में भी वैदिक ग्रंथों और 'स्मृतियों' के आधार पर यह 'साबित' किया गया है कि गाय एक उपयोगी पशु है! सच यह है कि ऊँची जातियों की धार्मिक परंपराओं का सहारा लिए बिना, गौवध पर प्रतिबंध को औचित्यपूर्ण सिद्ध करना असंभव नहीं तो बहुत कठिन अवश्य है।
अगर सन् 2015 के अधिनियम का उद्देश्य महाराष्ट्र के पशुधन का उसके दूध, गोबर और मूत्र के उत्पादों की खातिर संरक्षण करना और भारवाही पशु के रूप में बैल की उपयोगिता की दृष्टि से उसे वध से बचाना है तो फिर अधिनियम की धारा 5डी के अंतर्गत, किसी व्यक्ति के पास अन्य राज्यों से आयात किए गए गौमांस का पाया जाना अपराध घोषित क्यों किया गया है। निश्चित तौर पर अगर महाराष्ट्र के बाहर से गौमांस आयात किया जाता है तो उससे राज्य के पशुधन में कमी नहीं आएगी और ना ही राज्य में उपलब्ध गायों के दूध,गोबर या मूत्र की मात्रा घटेगी! दूसरी ओरए गौवंश के राज्य से बाहर निर्यात ;सिवा वध के लिए करने की अनुमति क्यों दी गई है ? गौवंश को चाहे वध के लिए निर्यात किया जाए या किसी अन्य उद्देश्य के लिएए महाराष्ट्र तो अपना पशुधन खोएगा ही और साथ ही दूध, गोबर और मूत्र भी खोएगा।
दरअसल, इस अधिनियम का उद्देश्य ना तो गौवंश का संरक्षण है और ना ही उसके दूध, गोबर व मूत्र का उपलब्धता सुनिश्चित करना। इस अधिनियम का असली उद्देश्य है पुलिस और कार्यपालिका को दमन करने का एक और हथियार उपलब्ध करवाना। इस अधिनियम के कुछ प्रावधानों पर नजर डालिये। धारा 5ए, 5बी और 5सी में गौवंश का वध के लिए परिवहन, गौवंश का वध के लिए खरीदना.बेचना और गाय या बैल का मांस किसी व्यक्ति के पास पाया जाना अपराध घोषित किया गया है। यह अधिनियम किसी भी पुलिस अधिकारी,जो कि उपनिरीक्षक से निचले दर्जे का नहीं होगा, या राज्य सरकार द्वारा अधिकृत किसी भी व्यक्ति को यह अधिकार देता है कि वह किसी भी ऐसे वाहन, जिसका इस्तेमाल गौवंश को ढोने के लिए किया जा रहा हो या किये जाने का अंदेशा हो, को रोक सकता है और उसमें प्रवेश कर उसकी तलाशी ले सकता है। अधिनियम इस तरह की तलाशी लेने के लिए किसी भी परिसर के द्वार या ताले को तोड़ने का अधिकार भी पुलिस को देता है। स्पष्ट है कि अभी जो गौरक्षक दल गैरकानूनी ढंग से काम कर रहे हैं उन्हें यह अधिनियम कानूनी अधिकार दे देगा। कोई भी पुलिस अधिकारी उन्हें अधिकृत कर सकेगा कि वे किसी भी वाहन को रोककर उसकी तलाशी ले सकते हैं। पुलिस अधिकारियों को ऐसी गायों, बछड़ों व बैलों को जब्त करने का अधिकार होगा जिन्हें वध के इरादे से बेचाए खरीदा या एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाया जा रहा हो। कहने की आवश्यकता नहीं कि 'इरादे' का आरोप किसी पर भी बहुत आसानी से जड़ा जा सकता है और उस व्यक्ति के लिए यह साबित करना मुश्किल होगा कि उसका 'इरादा' यह नहीं था।
इस अधिनियम के उल्लंघन के लिए निर्धारित सजा 10 गुना कर दी गई है। इस अधिनियम के तहत दोषी पाये जाने वाले को पांच साल तक का कारावास हो सकता है और उस पर दस हजार रूपये तक का जुर्माना भी लगाया जा सकता है। कारावास की न्यूनतम अवधि छः माह और जुर्माने की न्यूनतम राशि रूपये 1000 होगी। इस प्रकार,संशोधन के पहले जो अधिकतम सजा दी जा सकती थी, उसे अब न्यूनतम बना दिया गया है। अगर आपके पास से कम मात्रा में कोई नशीली दवा ;नार्कोटिक ड्रग जब्त होती है तो संभावना यह है कि आपको अदालत किसी पुनर्वास केंद्र में भेजे जाने का आदेश देगी। परंतु यदि आपके पास से गौवंश का मांस जब्त होता है तो आप एक साल तक के लिए जेल भेजे जा सकते हैं। शायद सरकार की दृष्टि में किसी व्यक्ति के पास से गौमांस मिलना, उसके पास से ड्रग्स मिलने से ज्यादा गंभीर अपराध है। हिंदू राष्ट्रवादी समूहों को हिंदुओं के ड्रग्स के आदी हो जाने से ज्यादा चिंता इस बात की है कि कहीं उनके पास गौमांस न हो।
अधिनियम का सबसे कठोर और भयावह प्रावधान यह है कि गौवंश का वध, परिवहन,राज्य से बाहर निर्यात खरीदी या बिक्री या गाय या बैल का मांस पाया जाना अधिनियम का उल्लंघन नहीं है, यह साबित करने की जिम्मेदारी आरोपी पर होगी। भारतीय विधिशास्त्र में आरोपी को तब तक निर्दोष माना जाता है जब तक कि उसका दोष सिद्ध नहीं हो जाता। इस सिद्धांत के कुछ ही अपवाद हैं। इनमें शामिल हैं अपवादात्मक परिस्थितियों में अत्यंत गंभीर अपराधों से निपटने के लिए बनाए गए विशेष कानून उदाहरणार्थ गैरकानूनी गतिविधियां निवारण अधिनियम ;यूएपीए या आतंकवाद.निरोधक कानून। हत्या या राष्ट्रद्रोह के मामलों में भी आरोपी को निर्दोष माना जाता है और उसे दोषी सिद्ध करने की जिम्मेदारी अभियोजन पक्ष पर होती है। सवाल यह है कि किसी गरीब व्यक्ति को यदि इस अधिनियम के तहत आरोपी बना दिया गया तो वह स्वयं को कैसे निर्दोष साबित करेगा ? राज्य या उसके द्वारा अधिकृत कोई व्यक्ति आप के घर का दरवाजा तोड़कर अंदर घुस सकता है, आपके रसोईघर और थाली में क्या है, यह देख सकता है, आपके फ्रिज में झांक सकता है और 'अवैध' मांस जब्त कर सकता है और आपको सींखचों के पीछे डाल सकता है। अब यह आपकी जिम्मेदारी होगी कि आप जेल में रहते हुए अपने आपको निर्दोष साबित करें।
इस अधिनियम के लागू होते ही हिंदू धर्म के स्वनियुक्त रक्षक अतिसक्रिय हो उठे। वैसे भी वे न तो संविधान का सम्मान करते हैं और ना ही कानून के राज में उनकी आस्था है। उत्तरी महाराष्ट्र का मालेगांव,मुस्लिम.बहुत नगर है। वहां पर कुछ लोगों ने मुसलमानों के खिलाफ इस अधिनियम के तहत् रिपोर्ट लिखवा दी। पुलिस ने कार्यवाही की और आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया। मालेगांव पुलिस ने तबस्सुम बरनगरवाला को बताया, 'प्रतिबंध लगते ही हिंदू समूह हमारे पीछे पड़ गये कि हम मुस्लिम घरों की जांच करें। लोग आपसी दुश्मनी के कारण झूठी शिकायतें लिखवा रहे हैं। कोई भी हिंदू आकर हमसे कह सकता है कि फलां मुसलमान के घर में जो गायें हैं उनका वह वध करने का 'इरादा' रखता है। ऐसे स्थिति में हम क्या करें?'मालेगांव पुलिस ने नगर के सभी ऐसे मुसलमानों, जिनके घर गायें पली हैं, को निर्देष दिया कि वे अपने जानवरों का पंजीयन करायें और गायों के मालिक की सभी गायों के साथ फोटो भी पुलिस को उपलब्ध करवायें। मालेगांव पुलिस ने एक नया रजिस्टर बनाया जिसका नाम रखा गया 'गाय, बैल,बछड़ा रजिस्टर'। मालेगांव की पुलिस अब उन मुसलमानों को ढूँढ रही है जिनके पास गायें हैं और इस बात का हिसाब रख रही है कि किस मुसलमान के पास कितनी गायें और कितने बछड़े हैं। मवेशियों के व्यवसाय और उनके परिवहन पर भी पुलिस नजर रख रही है। जिन हिंदुओं के पास गायें हैं उनसे अपने पशुओं का पंजीकरण करवाने के लिए नहीं कहा गया है क्योंकि पुलिस यह मानकर चल रही है कि केवल मुसलमान ही गौवध करते हैं हिंदू नहीं।
महाराष्ट्र में पुलिसकर्मियों की पहले से ही बहुत कमी है। पुलिस को दलित.विरोधी हिंसा, आतंकवाद, ड्रग्स के बढ़ते व्यवसाय, भू.माफियाए महिलाओं के साथ बलात्कार व अन्य सैक्स अपराध, घरेलू हिंसा, सांप्रदायिक हिंसा व अन्य संगठित अपराधों से निपटने के अलावा अब गायों और बछड़ों का हिसाब.किताब भी रखना पड़ेगा।
इस अधिनियम का सबसे बड़ा शिकार बना है हमारा विधिशास्त्र। यह अधिनियम,पुलिस और स्वनियुक्त हिंदू रक्षकों को ऐसे अधिकारों से लैस करता है, जिनका इस्तेमाल वे मुसलमानों और दलितों का दमन करने और उन्हें परेशान करने के लिए कर सकते हैं। दलित, प्रोटीन के सस्ते स्त्रोत से तो वंचित होंगे ही उनकी जीविका भी प्रभावित होगी क्योंकि उनमें से कई चमड़े का सामान बनाने के व्यवसाय में रत हैं।
धर्मनिरपेक्ष आंदोलन और मानवाधिकार संगठनों ने इस अधिनियम का इस आधार पर विरोध किया है कि यह अल्पसंख्यकों, विशेषकर मुसलमानों,के अधिकारों पर अतिक्रमण है। सच यह है कि यह इससे भी ज्यादा है। हिंदुत्व की विचारधारा में विश्वास रखने वाले लोगों की सरकार अब हमें यह बताना चाहती है कि हम क्या खाएं और क्या नहीं? अब आगे क्या? शायद अब सरकार हमें यह बताएगी कि अब हम कौनसे कपड़े पहने,कौनसी फिल्म देंखे या किस संगीत की महफिल में जाएं। सरकार अब शायद यह भी तय करना चाहेगी कि हम अपनी आजीविका के लिए क्या काम करें और शहर के किस इलाके में रहें। मुसलमानों को पहले शिकार इसलिए बनाया जा रहा है ताकि इस कानून का विरोध केवल मुसलमानों की ओर से होए पूरे समाज की ओर से नहीं। परंतु सच यह है कि इस तरह के कानून हर उस व्यक्ति के लिए खतरे की घंटी हैं जो प्रजातंत्र में विश्वास रखता है। ऐसे हर व्यक्ति को इस कानून और इस तरह के अन्य कदमों का खुलकर विरोध करना चाहिए।
-इरफान इंजीनियर
1 टिप्पणी:
>> " किसी विशेष धर्म के अनुयायियों का समुदाय सम्प्रदाय कहलाता है....."
>> " किसी धर्म में संप्रदिष्ट जाति के समूह को समाज कहते है...."
विश्व में ऐसा कोई राष्ट्र नहीं है जो किन्ही दो या अधिक सम्प्रदाय द्वारा निर्मित किया गया हो.
तालिबान वाले पूर्ण इस्लामिक राष्ट्र बनने से अच्छा है भारत गौ हत्या पर प्रतिबंध लगाकर एक हिन्दू राष्ट्र बन जाए.....
एक टिप्पणी भेजें