मंगलवार, 12 मई 2015

भक्ति.सूफी परंपराएं मानवता को एक करती हैं


वर्तमान दौर में धार्मिक पहचान का इस्तेमाल,राजनैतिक एजेण्डे को लागू करने के लिए किया जा रहा है। चाहे मुद्दा आतंकवादी हिंसा का हो या संकीर्ण राष्ट्रवाद का, दुनिया के सभी हिस्सों में धर्म के मुखौटे के पीछे से राजनीति का चेहरा झांक रहा है। कुछ दशकों पहले तकए धर्म और राजनीति को अलग करने और रखने की आवश्यकता पर जोर दिया जाता था परंतु हुआ उसका उल्टा। धर्म और राजनीति का घालमेल बढ़ता ही गया। इस संदर्भ में दक्षिण एशिया में हालात बहुत गंभीर हैं। अप्रैल 2015 में अमरीकी राष्ट्रपति ने अजमेर स्थित गरीब नवाज़ ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर चढ़ाने के लिए चादर भेजी। गत 22 अप्रैल को अखबारों में छपी खबर के मुताबिक, सोनिया गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी और नरेन्द्र मोदी ने भी दरगाह पर चादर चढ़ाई।
अगर हम राज्य, राजनीति और धर्म के परस्पर रिश्तों को परे रखकर देखें तो यह दिलचस्प तथ्य सामने आता है कि कुछ धार्मिक परंपराएं, सभी धर्मों के लोगों को प्रभावित करती आई हैं। दक्षिण एशिया व विशेषकर पाकिस्तान और भारत की सूफी व भक्ति परंपराएं क्रमशः इस्लाम और हिंदू धर्म की ऐसी दो मानवतावादी धाराएं हैं जो धार्मिक पहचान से ऊपर उठकर संपूर्ण मानवता की एकता की बात करती हैं। इन परंपराओं के संतों के अनुयायी सभी धर्मों के थे और ये संत सत्ता से दूर रहते थे। इस मामले में वे मध्यकाल के पुरोहित वर्ग से भिन्न थे जो कि राजाओं और नवाबों के दरबारों की शोभा बढ़ाने में गर्व महसूस करता था। हिंदू धर्म में कबीर, तुकाराम, नरसी मेहता, शंकर देव व लाल देध जैसे संतों की समृद्ध परंपरा है तो इस्लामिक सूफी परंपरा के संतों में निज़ामुद्दीन औलिया, मोइनुद्दीन चिश्ती,ताजुद्दीन बाबा औलिया,अज़ान पीर व नूरूद्दीन नूरानी शामिल हैं। इनके अतिरिक्त सत्यपीर व रामदेव बाबा पीर दो ऐसे संत थे जो भक्ति और सूफी दोनों परंपराओं के वाहक थे।
संत गुरूनानक ने हिंदू धर्म और इस्लाम का मिश्रण कर एक नए धर्म की स्थापना की। इस्लाम का ज्ञान हासिल करने के लिए वे मक्का तक गए और हिंदू धर्म के आध्यात्मिक पक्ष को समझने के लिए उन्होंने काशी की यात्रा की। उनके सबसे पहले अनुयायी थे मरदान और सिक्खों के पवित्र स्वर्ण मंदिर की आधारशिला रखने के लिए मियां मीर को आमंत्रित किया गया था। गुरूग्रंथ साहब का धर्मों के प्रति समावेशी दृष्टिकोण है और उसमें कुरान की आयतें और कबीर व अन्य भक्ति संतों के दोहे शामिल हैं। आश्चर्य नहीं कि नानक के बारे में यह कहा जाता था कि 'बाबा नानक संत फकीर, हिंदू का गुरूए मुसलमान का पी'।
आज यदि पूरे विश्व में धर्म चर्चा और बहस का विषय बना हुआ है तो इसका कारण है राजनीति के क्षेत्र में उसका इस्तेमाल। इस संदर्भ में सूफी परंपरा में लोगों की रूचि का एक बार फिर से बढ़ना सुखद है। दक्षिण एशिया में सूफीवाद का इतिहास लगभग एक हजार साल पुराना है। सूफी शब्द का अर्थ होता है मोटा ऊनी कपड़ा, जिससे बने वस्त्र सूफी संत पहनते हैं। सूफीवाद, शिया मुस्लिम धर्म से उभरा परंतु आगे चलकर कुछ सुन्नियों ने भी इसे अपनाया। सूफीवाद में रहस्यवाद को बहुत महत्ता दी गई है और वह कर्मकाण्डों को सिरे से खारिज करता है। वह अल्लाह को मानवरूपी नहीं मानता बल्कि उन्हें आध्यात्मिक शक्ति के रूप में देखता है। यह भक्ति संतो की आस्थाओं से मिलता जुलता है। कई सूफी संत सर्वेश्वरवादी थे और उनके जीवनमूल्य,मानवीयता से ओतप्रोत थे।
शुरूआत में इस्लाम के कट्टरपंथी पंथों ने सूफी संतो का दमन करने का प्रयास किया परंतु आगे चलकर उन्होंने सूफीवाद से समझौता कर लिया। सूफी संतों में से कुछ दरवेश बन गए। दरवेश का अर्थ होता है ऐसे संत जो एक स्थान पर नहीं रहते और लगातार भ्रमण करते रहते हैं। कई देशों में सभी धर्मों के लोग उनकी दरगाहों पर खिराजे अकीदत पेश करते हैं। इसी तरहए भक्ति संतो के अनुयायी भी सभी धर्मों के लोग हैं।
सूफीवाद के समानांतर भक्ति परंपरा भी भारतीय धार्मिक इतिहस की सबाल्टर्न धारा का प्रतिनिधित्व करती है। भक्ति संत, समाज के विभिन्न तबकों से थे, विशेषकर नीची जातियों से। भक्ति संतों ने धर्म को संस्थागत रूप देने का विरोध किया और उसको विकेन्द्रीकृत करने का प्रयास किया। उनका कहना था कि धर्म, व्यक्ति का निजी मसला है। वे धर्म और राज्य सत्ता को एक.दूसरे से अलग करने के हामी थे और उन्होंने ईश्वर की आराधना की अवधारणा को ज्ञानार्जन की प्रक्रिया से जोड़ा। भक्ति संतों के लेखन में गरीब वर्ग के दुःख.दर्द झलकते हैं। भक्ति परंपरा ने कई नीची जातियों को प्रतिष्ठा दिलवाई। यह परंपरा मुसलमानों के प्रति भी समावेशी दृष्टिकोण रखती थी और इसने ऊँची जातियों के वर्चस्व को चुनौती दी।
भक्ति परंपरा, कर्मकांडों की विरोधी थी। इसके संतों ने ऐसी भाषा का उपयोग किया जिसे जनसामान्य समझ सकते थे। वे एक ईश्वर की अवधारणा में विश्वास रखते थे। इस परंपरा के संतों ने हिंदू.मुस्लिम एकता पर जोर दिया।
हमें यह समझना होगा कि हर धर्म में विभिन्न धाराएं होती हैं। भक्ति और सूफी परंपराएं, धर्मों का मानवतावादी चेहरा हैं जिन्होंने मानवता को एक किया और धर्मों के नैतिक.आध्यात्मिक पक्ष पर जोर दिया। इसके विपरीत,धर्मों की असहिष्णु प्रवृत्तियों का इस्तेमाल राजनैतिक ताकतों ने अपने एजेण्डे की पूर्ति के लिए किया। भारतीय उपमहाद्वीप में स्वाधीनता आंदोलन के दौरान राजाओं, नवाबों और जमींदारों ने हिंदू व मुस्लिम सांप्रदायिकता की नींव रखी। इस धार्मिक राष्ट्रवाद का धर्मों के नैतिक पक्ष से कोई लेनादेना नहीं था। यह केवल धार्मिक पहचान का राजनैतिक लक्ष्य पाने के लिए इस्तेमाल था। भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के कई नेता जिनमें गांधीजी व मौलाना अबुल कलाम आज़ाद शामिल हैं,अत्यंत धार्मिक थे परंतु वे न तो धार्मिक राष्ट्रवाद में विश्वास रखते थे और ना ही अन्य धार्मिक परंपराओं के प्रति उनके मन में तनिक भी बैरभाव था।
सूफी और भक्ति परंपराएं हमें इस बात की याद दिलाती हैं कि वर्तमान दौर में धर्मों के आध्यात्मिक और नैतिक पक्ष को कमजोर किया जा रहा है। अगर हमें मानवता के भविष्य को संवारना है तो हमें धर्मों के समावेशी.मानवतावादी पक्ष को मजबूत करना होगा और धर्मों के समाज को बांटने के लिए इस्तेमाल को हतोत्साहित करना होगा। हमें यह समझना होगा कि सभी धर्म मूलतः नैतिकता और मानवता पर जोर देते हैं। हमें धर्मों की मूल आत्मा को अपनाना होगा न कि बाहरी आडंबरों को।
-राम पुनियानी

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