मंगलवार, 28 जुलाई 2015

मोदी, आतंकवाद और भारतीय मुसलमान

अपनी अमरीका यात्रा के ठीक पहले, अन्तर्राष्ट्रीय समाचार चैनल सीएनएन के फरीद ज़कारिया को दिए अपने एक साक्षात्कार में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा था कि भारत के मुसलमान, भारत के लिए जियेगें और मरेंगे और वे भारत का कुछ भी बुरा नहीं करेंगे। इसके बाद, गत 8 जुलाई को, कजाकिस्तान में एक सभा को संबोधित करते हुए उन्होंने मध्य एशिया और भारत की साँझा इस्लामिक विरासत की चर्चा की और कहा कि यह विरासत, अतिवादी ताकतों और विचारों को हमेशा खारिज करेगी। प्रधानमंत्री ने फरमाया कि भारत और मध्य एशिया, दोनों की इस्लामिक विरासत प्रेम और समर्पण के सिद्धांतों पर आधारित और इस्लाम के उच्चतम आदर्शों  ज्ञान, पवित्रता, करुणा और कल्याण से प्रेरित है। गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने भी यह दावा किया कि भारतीय मुसलमान देशभक्त हैं और इस्लामिक स्टेट (आईएस) उन्हें आकर्षित नहीं कर सका है।
इन्हीं मोदी ने सन 2001 में दावा किया था कि ‘‘सभी मुसलमान आतंकवादी नहीं होते परन्तु सभी आतंकवादी मुसलमान होते हैं’’। गुजरात के मुख्यमंत्री बतौर अपने चुनाव अभियानों में उन्होंने इस जुमले का जमकर इस्तेमाल किया था। सन 2002 के मुसलमानों के कत्लेआम के बाद, गुजरात का मीडिया मुस्लिम और इस्लाम विरोधी उन्माद भड़काने में लगा था। मोदी ने इस उन्माद को कम करने की कोई कोशिश नहीं की। उन्होंने काफी बाद में ‘‘सद्भावना उपवास’’ रखे परन्तु यह कहना मुश्किल है कि वे कितनी ईमानदारी और निष्ठा से उपवास कर रहे थे। मोदी ने दंगाईयों की वहशियाना हिंसा को औचित्यपूर्ण ठहराया था। उनके अनुसार, दंगे, साबरमती एक्सप्रेस के एस-6 कोच में आगजनी की घटना - जिसे उन्होंने किसी भी जांच के पहले ही मुसलमानों का षड़यंत्र निरुपित कर दिया था - की प्रतिक्रिया थे।
गुजरात में मुसलमानों के नरसंहार के बाद, मोदी ने ‘गुजरात के गौरव’ को पुनस्र्थापित करने के लिए ‘गौरव यात्रा’ निकाली थी। उनका कहना था कि धर्मनिरपेक्षतावादियों द्वारा 2002 के दंगों के लिए सभी गुजरातियों को दोषी ठहराने से गुजरात के गौरव को चोट पहुँची है। मोदी के मुख्यमंत्रित्वकाल में, गुजरात की पुलिस ने अनेक मुसलमानों को सीमा के उस पार के आतंकी संगठनों से जुड़े आतंकवादी बताकर गोलियों से भून डाला था। सोहराबुद्दीन और इशरत जहां की हत्या की जांच हुई और इस मामले में गुजरात के तत्कालीन गृहमंत्री अमित शाह सहित कई पुलिस अधिकारी आरोपी बनाये गए।
प्रधानमंत्री मोदी यह स्पष्ट नहीं कर रहे हैं कि भारतीय मुसलमानों के उनके अलग-अलग, बल्कि
विरोधाभासी आंकलनों में से किसे वे सही मानते हैं। उनकी मुसलमानों के बारे में असली, ईमानदार राय क्या है? या, क्या उनकी सोच बदल गयी है? यदि हाँ, तो उन्हें ऐसी कौनसी नई जानकारी प्राप्त हुई है, जिसके चलते उनकी सोच में परिवर्तन आया है?
केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने पुलिस महानिदेशकों, महानिरीक्षकों और केंद्रीय पुलिस संगठनों के मुखियाओं के सम्मेलन को संबोधित करते हुए नवंबर 2014 में कहा था कि आईएस, भारतीय उपमहाद्वीप में पैर जमाने की कोशिश  कर रही है और अलकायदा ने गुजरात, असम, बिहार, जम्मू कश्मीर व बांग्लादेश  की बड़ी मुस्लिम आबादी को देखते हुए, भारतीय उपमहाद्वीप में अपनी शाखा स्थापित कर दी है।
भारतीय मुसलमान और आतंकवाद
उपरलिखित प्रश्नों के उत्तर चाहे जों हों, इसमें कोई संदेह नहीं कि वैष्विक आतंकी नेटवर्कों में भारतीय मुसलमानों की उपस्थिति और भागीदारी बहुत कम है। भारत में 14 करोड़ मुसलमान रहते हैं। दुनिया में इंडोनेशिया को छोड़कर इतनी संख्या में मुसलमान किसी अन्य देश में नहीं रहते। इसके बावजूद, भारतीय सुरक्षाबल और गुप्तचर एजेंसियां अब तक केवल चार ऐसे भारतीय मुस्लिम युवाओं की पहचान कर सकी हैं, जिन्होंने आईएस के स्वनियुक्त इस्लामिक खलीफा अबुबकर बगदादी द्वारा शुरू किए गए युद्ध में हिस्सा लिया है। ये चार युवक हैं अरीब मज़ीद, शाहीन तनकी, फरहाद शेख और अमन टण्डेल।
इन चार युवकों के अतिरिक्त, समाचारपत्रों की खबरों के अनुसार, बैंगलुरू में रहने वाले, भारतीय बहुराष्ट्रीय कंपनी के एक 24 वर्षीय कर्मचारी मेंहदी मसरूर बिस्वास पर आरोप है कि वह अपने ट्विटर हैंडल के जरिए, आईएस के आतंकी मिशन का प्रचार कर रहा था और बगदादी के नेतृत्व वाली सेना में भर्ती होने के लिए युवकों को प्रेरित कर रहा था। मंेहदी को चैनल 4 को दिए गए उसके एक साक्षात्कार केे आधार पर पकड़ा गया।
अब इसकी तुलना 90 देशों के 20,000 विदेशियों से कीजिए, जो बगदादी की सेना में भर्ती हुए हैं। नेषनल काउंटर टेरोरिज्म सेंटर के निदेशक निकोलस रासम्यूसेन के अनुसार, इनमें से 3,400पश्चिमी  राष्ट्रों से हैं। अमेरिका की नेशनल इंटेलिजेंस के निदेशक जेम्स क्लेपर के अनुसार, इनमें 180 अमेरिकी, 130 केनेडियन, 1200 फ्रांसीसी, 600 ब्रिटिश, 50 आस्ट्रेलियाई और 600 जर्मन शामिल हैं। इसके मुकाबले, भारत से मात्र चार और बांग्लादेश से मात्र 6 लोगों को आईएस का युद्ध लड़ने का दोषी पाया गया है। 
वैष्विक आतंकी संगठनोें में क्यों शामिल नहीं होते भारतीय?
हिन्दू राष्ट्रवादी संगठनों ने कभी इस प्रश्न  पर विचार नहीं किया कि आखिर क्या कारण है कि भारत के 14 करोड़ मुसलमानों में से आईएस में केवल चार भर्ती हुए। इस प्रश्न पर विचार करने की बजाए, वे यह आरोप लगाने में जुटे रहते हैं कि सभी मुसलमान आतंकवादी हैं। भारतीय मुसलमान देषभक्त हैं और भारत के हितों के खिलाफ नहीं जाएंगे, ये बातें मूलतः मुस्लिम-बहुल देशों की यात्राओं के दौरान कहीं गईं या विदेशी मीडिया से बातचीत में। और इनका उद्धेष्य अपनी ेउदारवादी छवि प्रस्तुत करना था।
जो भी हो, मूल प्रश्न यह है कि भारतीय मुसलमान, वैष्विक आतंकी संगठनों की ओर आकर्षित क्यों नहीं हुए? आईए, हम कुछ संभावित कारणों की चर्चा करें।
1.    भारतीय मुसलमानों का धार्मिक नेतृत्व मुख्यतः दारूल उलूम देवबंद और कुछ अन्य मदरसों जैसे नदवातुल उलेमा, लखनऊ से आता है। दारूल उलूम देवबंद का देश भर में फैले हजारों छोटे मदरसों और मकतबों पर नियंत्रण है। देवबंद के उलेमाओं के संगठन जमायत उलेमा-ए-हिन्द ने दिल्ली के रामलीला मैदान में हजारों मौलवियों और विद्यार्थियों की मौजूदगी में आतंकवाद के विरूद्ध फतवा जारी किया था। उन्होंने आतंकवाद को जड़मूल से उखाड़ फेंकने की शपथ भी ली थी। दारूल उलूम के रेक्टर हबीबुर रहमान के अनुसार, ‘‘इस्लाम हर तरह की अन्यायपूर्ण हिंसा, शान्ति भंग, खून खराबा, हत्या और लूटपाट का निषेध करता है और किसी भी स्वरूप में इनकी अनुमति नहीं देता।‘‘ जमायत ने लखनऊ, अहमदाबाद, हैदराबाद, कानपुर, सूरत, वाराणसी और कोलकाता में मदरसों के संचालकों की बैठकें और सम्मेलन आयोजित कर अपने आतंकवाद विरोधी संदेश  को उन तक पहुंचाया। जमायत ने एक ट्रेन बुक की, जिसमें उसके सदस्य और समर्थक देश भर में घूमे और शांति  और आतंकवाद-विरोध का संदेश फैलाया।
2.    इस्लाम, भारत में मुख्यतः शांतिपूर्ण ढंग से फैला है। भारत में इस्लाम पहली बार 7वीं सदी में केरल के तट पर अरब व्यवसायियों के साथ पहुंचा। इसका नतीजा यह है कि मुसलमान आज भी स्थानीय परंपराओें का पालन करते हैं औेर स्थानीय संस्कृति में घुलेमिले है। उनकी व गैर मुस्लिमों की सांस्कृतिक विरासत एक ही है। उदाहरणार्थ, लक्षद्वीप के मुसलमान मातृवंषी परंपरा का पालन करते हैं और केरल के मुसलमानों के लिए ओणम उतना ही बड़ा त्यौहार है, जितना कि गैर मुसलमानों के लिए। अमीर खुसरो ने होली पर रचनाएं लिखी हैं, मौलाना हसरत मोहानी नियमित रूप से मथुरा जाते थे और उन्हंे भगवान कृष्ण से बेइंतहा प्रेम था। रसखान ने भगवान कृष्ण पर कविताएं रची हैं, बिस्मिल्ला खान की शहनाई भगवान शिव को समर्पित थी और दारा शिकोह ने उपनिषदों का फारसी में अनुवाद किया था। ये हमारे देश की सांझा सांस्कृतिक परंपराओं के कुछ उदाहरण हैं, जिन्हें समाप्त करने की असफल कोशिश अंग्रेजों ने साम्प्रदायिक आधार पर देश को विभाजित कर की।
    भारत में इस्लाम के प्रभाव में वृद्धि मुख्यतः समावेशी  सूफी परंपराओं के कारण हुई, जिनकी ओर समाज के वंचित और हाशिए पर पड़े वर्ग सबसे अधिक आकर्षित हुए। सूफी (और भक्ति) संतों का मूलधर्म प्रेम था। वह्दतुलबूजूद (संसार में केवल एक ईश्वर है) और सुल्हकुल (पूर्ण शांति ) - ये सूफी परंपरा के मूल सिद्धांत थे। सूफी केवल ब्राह्यशांति की बात नहीं करते बल्कि अंतर्मन की शांति पर भी जोर देते थे। निजामुद्दीन औलिया रोज सुबह राम और कृष्ण के भजन गाया करते थे।
    कई नगरों और गांवों में ताजियों के जुलूस के दौरान हिन्दू महिलाएं आरती उतारती हैं। इस तरह की सांझा सांस्कृतिक जड़ों के चलते, भारतीय मुसलमानों के दिमागों में जेहाद का जहर भरना नामुमकिन नहीं तो बहुत मुष्किल जरूर है।  भारतीय मुस्लिम चेतना पर सूफी मूल्यों का गहरा प्रभाव है। एक आम भारतीय मुसलमान, अरब और दूसरे देषों के मुसलमानों की संस्कृति और अपनी संस्कृति में कुछ भी समानता नहीं पाता। वहाबी-सलाफी इस्लामिक परंपराओं को ‘‘सही परंपराएं‘‘ सिखाने के नाम पर फैलाने के लिए काफी संसाधन खर्च किए गए और गहन प्रयास हुए परंतु ये परंपराएं आज भी बहुत सीमित क्षेत्र में प्रभावी हैं। अलबत्ता हिन्दू राष्ट्रवादियों और उनके विमर्ष के मजबूत होते जाने से भारतीय मुसलमानों के अरबीकरण की प्रक्रिया शुरू हो सकती है।
    इसके विपरीत, कुछ पष्चिमी देशों में मुसलमानों में अलगाव का गहरा भाव है। उनमें से अधिकांश  एशियाई मूल के हैं और पष्चिमी संस्कृति में घुलमिल नहीं पाते। एशियाई मूल के लोग अपने समुदायों के बीच रहना पसंद करते हैं। युवाओं का सांस्कृतिक अलगाव, ‘सभ्यताओं के टकराव‘‘ के सिद्धांत के वशीभूत नस्लवादी शक्तियों द्वारा इस्लाम को निशाना बनाए जाने व ईराक और अफगानिस्तान के खिलाफ युद्ध में पष्चिमी सेनाओं की भागीदारी के कारण, इस्लामवादियों के लिए अपनी सेना में पष्चिमी देशों के युवकों को भर्ती करना अपेक्षाकृत आसान है।
3.     भारतीय मुसलमानों द्वारा की गई आतंकी गतिविधियों के लिए मुख्यतः प्रतिशोध की भावना जिम्मेदार है। 12 व 18 मार्च 1993 को मुंबई के झवेरी बाजार व अन्य स्थानों पर बम हमले, 28 जुलाई 2003 को इसी शहर के घाटकोपर में बेस्ट बस में बम धमाके और 11 जुलाई 2006 को लोकल ट्रेनों में हुए बम धमाके, वे कुछ आतंकी घटनाएं हैं जिनमें मुस्लिम युवक शामिल थे। परंतु इनमें से अधिकांश का उद्धेष्य मुंबई में 1992-93 के दंगों और सन्  2002 के गुजरात कत्लेआम का बदला लेना था। दिनांक 12 मार्च 1993 के बम धमाकों के  दोषी पाए गए कई आरोपियों ने मुकदमे के दौरान अपने बयानों में बताया कि उन्होने इस षड़यंत्र में हिस्सा इसलिए लिया था क्योंकि उन्होंने मुंबई में 1992-93 के दंगों में अपने प्रियजनों को मरते देखा था। न्यायमूर्ति श्रीकृष्ण आयोग ने अपनी रपट (1998) में साम्प्रदायिक दंगों और बम धमाकों के परस्पर संबंध को इन शब्दों में व्यक्त किया था, ‘‘सिलसिलेवार बम धमाके, अयोध्या व बंबई के दिसंबर 1992 व जनवरी 1993 के घटनाक्रम की प्रतिक्रिया थे।‘‘  मुस्लिम युवकों के गुस्से और निराशा के भाव का कुछ पाकिस्तानी एजेसिंयों ने दुरूपयोग किया।
    परंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि कई अन्य मुस्लिम देशों की तुलना में, भारतीय प्रजातंत्र बहुत बेहतर ढंग से काम कर रहा है। यद्यपि न्यायप्रणाली धीमी गति से काम करती है परंतु तीस्ता सीतलवाड जैसे मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के अथक प्रयासों से गुजरात दंगों के पीडि़तों को न्याय मिला है। कुछ अपराधियों को अदालतों ने सजा सुनाई हैं और वे अब जेल में हैं। इशरत जहां और सोहराबुद्दीन मामलों के आरोपियों पर मुकदमे चल रहे हैं। मानवाधिकार संगठनों के कड़े रूख के चलते, सुरक्षा बलों द्वारा फर्जी मुठभेड़ों में निर्दोषों को मार गिराने की घटनाओं में तेजी से कमी आई है। चूंकि भारत में पीडि़तों को न्याय मिलने की उम्मीद रहती है इसलिए वे प्रतिशोध की आग में नहीं जलते और यही कारण है कि आईएस को यहां से अपनी सेना के लिए लड़ाके नहीं मिल पा रहे हैं।
    यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारत में हाशिए पर पड़े वर्गों के लिए प्रजातांत्रिक स्पेस घटता जा रहा है। हिन्दू राष्ट्रवादी संगठनों को लग रहा है कि अब सैयां कोतवाल हो गए हैं और इसलिए वे बिना हिचक के मुसलमानों पर बेसिरपैर के आरोप लगा रहे हैं, उनका मताधिकार छीनने की मांग कर रहे हैं, उन्हें पाकिस्तान जाने को कह रहे हैं और मदरसों को आतंकवाद के अड्डे बता रहे हैं। अगर यही कुछ चलता रहा तो मुसलमानों को आईएस और अन्य आतंकवादी संगठनों के चंगुल से लंबे समय तक दूर रखना संभव नहीं होगा।
-इरफान इंजीनियर

1 टिप्पणी:

डॉ. दिलबागसिंह विर्क ने कहा…

आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 30-07-2015 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2052 में दिया जाएगा
धन्यवाद

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