बीड :16 साल तक बेटी से रेप करने वाला पिता गिरफ्तार, दो
बार किया गर्भवती। इंदौर : बेटी के साथ सौतेले पिता ने किया कथित रेप। गोवा
: 10-वर्षीय बेटी के साथ कथित रेप, आरोपी पिता गिरफ्तार। मंदसौर: पिता ने
एक वर्ष तक किया दस वर्षीय पुत्री से दुष्कर्म। ये अखबारों में छपी खबरों
की चंद पंक्तियां हैं, जिनसे पता चलता है कि हमारे समाज का कितना नैतिक पतन
हो चुका है। यह तो एक बानगी भर है। देश का कोई कोना, कोई इलाका ऐसा नहीं
है, जहां के अखबारों और टीवी चैनलों पर दो-चार खबरें ऐसी न आती हों। अगर हम
सरकारी आंकड़ों की ही बात करें, तो इस बात से शायद ही कोई इंकार करे कि
भारत में महिलाओं की दशा अत्यंत दयनीय है। महिलाओं के खिलाफ होने वाले
अपराध घटने की बजाय बढ़ते ही जा रहे हैं।
इस बात पर शायद ही कोई
विश्वास करे कि सन 2010 में हुए एक अध्ययन के मुताबिक, एक साल में दिल्ली
की 66 फीसदी महिलाएं दो से पांच बार यौन शोषण का शिकार होती हैं। राष्ट्रीय
अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो का आंकड़ा बताता है कि पिछले एक दशक में 22,4000
मामले महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराध के दर्ज किए गए। इस आंकड़े का एक
मतलब यह भी निकलता है कि हर घंटे महिलाओं के खिलाफ अपराध के 26 मामले यानी
लगभग दो-सवा दो मिनट में एक अपराध। सबसे खास बात यह है कि महिलाओं के खिलाफ
होने वाले अपराधों में सबसे ज्यादा पति, पिता, भाई और पुत्र शामिल रहते
हैं। पिछले दस सालों में आईपीसी 498 ए के तहत पति और रिश्तेदारों द्वारा
महिलाओं को शारीरिक और मानसिक चोट पहुंचाने के 909713 मामले यानी हर घंटे
में दस मामले दर्ज किए गए। पिछले एक दशक के दौरान महिला की लज्जा भंग करने
के करीब 470,556 मामले दर्ज किए गए। इतना ही नहीं, महिलाओं को गुमराह करके
भगा ले जाने या अपहरण करने के 315074 मामले, बलात्कार के 243051, महिलाओं
के अपमान 104151 और दहेज हत्या के 80833 मामले पिछले दस सालों में दर्ज किए
जा चुके हैं। दहेज मांगने का मामला भी कम दर्ज नहीं हुआ है।
इन
दस सालों में 66 हजार मामले दर्ज किए गए, लेकिन इनमें से कितनी महिलाओं को
न्याय मिला, यह कह पाना बहुत मुश्किल है। पुलिस ने मामले तो दर्ज किए,
लेकिन कितने मामलों में पीडि़ताओं को न्याय मिला, कितने अपराधी जेल भेजे
गए, कितने मामले अदालत की चौखट तक पहुंचे, इसका कोई आंकड़ा शायद ही सरकार
के पास हो। अगर होगा भी, तो सरकार अपनी जान बचाने के लिए उसे सार्वजनिक
बहुत मजबूरी में करती होगी। यह प्रवृत्ति किसी खास प्रदेश की सरकार की नहीं
है, ऐसे मामलों में केंद्र से लेकर देश के विभिन्न प्रदेशों में शासन करने
वाले सरकारें एक जैसी ही मानसिकता से ओतप्रोत दिखाई देती हैं। अगर हम बात
करें कि किस राज्य में महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामले सबसे ज्यादा दर्ज
किए गए, तो उसमें आंध्र प्रदेश अव्वल दिखाई देता है।
पिछले दस
सालों में आंध्र प्रदेश में महिलाओं के खिलाफ अपराध के 263839 मामले दर्ज
किए गए, वहीं पश्चिम बंगाल में 239760, उत्तर प्रदेश में 236456, राजस्थान
में 188,928 और मध्य प्रदेश में 175,593 दर्ज किए गए हैं। अगर हम पिछले दस
सालों में महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराध के आंकड़ों पर गौर करें, तो
पता चलता है कि पूरे देश में महिलाओं के खिलाफ जितने अपराध हुए हैं, उसका
आधा तो इन्हीं पांच राज्यों में दर्ज किया गया है। सबसे ज्यादा असंवेदनशील
सरकारें भी इन्हीं राज्यों की कही जा सकती हैं क्योंकि इतने अपराधों के
बावजूद महिलाओं की दशा सुधारने के कोई सकारात्मक प्रयास इन राज्यों में किए
गए हों, ऐसा भी दिखाई नहीं दिया है।
पिछले तीन सालों में
महिलाओं के अपहरण के मामले में 264 फीसदी (करीब तीन गुना) की वृद्धि हुई
है। वर्ष 2005 में जहां महिलाओं के अपहरण के 15,750 मामले दर्ज किए गए थे,
वहीं वर्ष 2014 में 57,311 मामले दर्ज किए गए। 58,953 मामलों के साथ इस
मामले में उत्तर प्रदेश सबसे पहले स्थान पर है। पिछले एक दशक में मध्य
प्रदेश में सर्वाधिक बलात्कार का मामले (34,143) दर्ज किए गए हैं। 19,993
मामलों के साथ पश्चिम बंगाल दूसरे, 19,894 मामलों के साथ उत्तर प्रदेश
तीसरे एवं 18,654 आंकड़ों के साथ राजस्थान चौथे स्थान पर है। संयुक्त
राष्ट्र महिला द्वारा 2013 में की गई वैश्विक समीक्षा के आधार पर बात करें,
तो दुनिया भर की महिलाओं की दयनीय स्थिति साफ हो जाती है। संयुक्त राष्ट्र
महिला की रिपोर्ट बताती है कि करीब 35 फीसदी महिलाओं को अपने जीवन में कभी
न कभी अपने पति या गैर मर्दों द्वारा यौन हिंसा का शिकार होना पड़ता है।
भारत
में महिलाओं की स्थिति गांवों में ही नहीं, शहरों में भी काफी दयनीय है।
सरकारें आंकड़ों की बाजीगरी चाहे जितनी करें, लेकिन जमीनी हकीकत तो यह है
कि वे अपनी मर्जी से सब्जी तक खरीदकर नहीं खा सकती हैं। इसके लिए भी उन्हें
किसी न किसी रूप में पति, पिता, पुत्र या भाई की सहमति लेनी पड़ती है।
सिर्फ महिला सशक्तिकरण के दावों और नारों से बात बनने वाली नहीं है। जब तक
महिलाओं को निजी संपत्ति यानी उत्पादन के समस्त साधनों पर बराबर का हक नहीं
दिया जाएगा, तब तक उनकी स्थिति में कोई फर्क आने वाला नहीं है। आर्थिक
स्वतंत्रता के अभाव में राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक स्वतंत्रता का कोई
मूल्य नहीं होता है। जब मातृसत्ताक व्यवस्था पर बलात कब्जा करके पुरुषों
ने पितृसत्ताक व्यवस्था की स्थापना की, तो उन्होंने सबसे पहले महिलाओं को
निजी संपत्ति के अधिकार से वंचित किया यानी उनके निजी संपत्ति के अधिकारों
का हरण तो किया ही, उन्हें भी अपनी निजी संपत्ति बना लिया। अब यदि महिलाओं
को बराबरी का दर्जा पाना है, तो उन्हें संपूर्ण समाज में निजी संपत्ति के
अधिकार का ठीक वैसा ही अधिकार पाना होगा, जैसा पुराने समय में था। और यह
पुरुष प्रधान समाज को शायद ही मंजूर हो।
-जगजीत शर्मा
1 टिप्पणी:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (21-09-2015) को "जीना ही होगा" (चर्चा अंक-2105) पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
एक टिप्पणी भेजें