याकूब मेमन को 1993 के सीरियल बम धमाकों के आरोप में 30 जुलाई 2015 को नागपुर सेन्ट्रल जेल में फाँसी दे दी गई। लेकिन फाँसी की सजा सुनाए जाने से लेकर फाँसी के तख्ते पर चढ़ाए जाने तक कई सवालों पर अब भी बहस जारी है। क्या याकूब मेमन को जो सजा मिली वह उसका हकदार था? याकूब दिल्ली में गिरफ्तार किया गया था या उसने खुफिया एजंसियों और सीबीआई के साथ किसी डील के तहत आत्मसमर्पण किया था? क्या राष्ट्रपति ने याकूब मेमन की दया याचिका खारिज करते समय उससे जुड़े सभी पहलुओं पर विचार किया था? क्या याकूब मेमन को फाँसी दिए जाने के राजनैतिक कारण थे? क्या इस फाँसी को बाबरी विध्वंस और 92, 93 के दंगों से जोड़ कर देखा जा सकता है। महत्वपूर्ण सवाल यह कि क्या याकूब की फाँसी से भारत में आतंकवाद के खिलाफ चल रहे अभियान को मजबूती मिलेगी और सबसे बढ़कर क्या वास्तव में भारत से आतंकवाद को जड़मूल से समाप्त करने के लिए ईमानदारी से प्रयास किए जा रहे हैं या आतंकवाद भावनात्मक शोषण और वोट बैंक की राजनीति का हथियार बनता जा रहा है। याकूब मेमन को 1993 में होने वाले मुम्बई सीरियल धमाकों की साजिश के आरोप में विशेष टाडा अदालत ने 27 जुलाई 2007 को मृत्यु दंड की सजा सुनाई। 21 मार्च 2013 को सुप्रीम कोर्ट ने टाडा अदालत के फैसले को सही ठहराते हुए सजा की पुष्टि कर दी। 9 अप्रैल 2015 को सुप्रीम कोर्ट ने याकूब मेमन का रिविव पेटीशन भी खारिज कर दिया। उसी महीने की 30 तारीख को महाराष्ट्र सरकार ने मेमन की मौत का वारंट जारी कर 30 जुलाई 2015 को नागपुर सेंट्रल जेल में उसकी फाँसी का दिन तय कर दिया। इस बीच 21 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट ने मेमन की क्योरेटिव पेटीशन भी खारिज कर दिया। अब फाँसी को केवल 9 दिन बचे थे। याकूब की फाँसी के खिलाफ कई तरफ से आवाजें उठने लगीं। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायधीश एचएस बेदी, मार्कंडेय काटजू, मशहूर अधिवक्ता राम जेठमलानी, हुसैन जैदी, आर जगन्नाथन, समेत कई विशिष्ट व्यक्तियों, संगठनों और मानवाधिकार नेताओं ने फाँसी की सजा और उस पर क्रियान्यवन के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। रॉ के पाकिस्तानी डेस्क के प्रभारी अधिकारी बी0 रमन जिन्होंने याकूब मेमन को भारत वापस लाने में अहम भूमिका निभाई थी, का एक लेख रेडिफ डाट काम पर प्रकाशित हुआ जिसमें कहा गया था याकूब मेमन को फाँसी नहीं होनी चाहिए। दूसरी तरफ केंद्र सरकार और कई अन्य लोग फाँसी के पक्ष में अपने तर्क दे रहे थे। उनका कहना था कि सुप्रीम कोर्ट ने फाँसी की सजा सुनाई है, आतंकवाद देश के लिए एक बड़ा खतरा है इसलिए आतंकवादियों को कड़ा संदेश देने और धमाकों के पीडि़तों को न्याय दिलाने के लिए याकूब मेमन को फाँसी होनी ही चाहिए।
इस दौरान घटनाक्रम बहुत तेजी से बदलता रहा। 26 जुलाई को कुछ विशिष्ट नागरिकों ने जिनमें पूर्व जज, पत्रकार, सांसद, विधायक आदि शामिल थे, राष्ट्रपति को मेमन की दया याचिका पर पुनर्विचार करने का आग्रह करते हुए पत्र लिखा। सुप्रीम कोर्ट में 29 जुलाई को दिन में और फिर 30 जुलाई की सुबह 4 बजकर 55 मिनट तक सुनवाई हुई। सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति के दया याचिका खारिज करने और फाँसी दिए जाने के बीच 14 दिन का समय देने से भी इनकार कर दिया और अन्ततः उसी दिन सुबह साढ़े सात बजे याकूब मेमन के जन्म दिवस पर उसे फाँसी दे दी गई।
कई लोगों का अब भी यह मानना है कि याकूब मेमन को इंसाफ नहीं मिला। याकूब मेमन की गिरफ्तारी के दावों से लेकर राष्ट्रपति के दया याचिका खारिज करने तक कई महत्वपूर्ण बिंदु ऐसे रहे हैं जो अदालती फैसले को भी प्रभावित कर सकते थे और राष्ट्रपति द्वारा दया याचिका स्वीकार कर लेने का कारण भी बन सकते थे। दर असल याकूब मेमन को दिल्ली से 5 अगस्त 1994 को गिरफ्तार नहीं किया गया था बल्कि उसने 28 जुलाई 1994 को नेपाल में भारतीय खुफिया एवं जाँच एजेंसियों से एक डील के तहत आत्मसमर्पण किया था। नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से गिरफ्तारी दिखाए जाने के बाद उसके पास से जो कुछ बरामद हुआ था वह अपने आप में यह संदेह पैदा करने के लिए काफी था। एडवोकेट सतीश माने शिंदे ने रोजनामा इंकलाब में प्रकाशित अपने एक लेख में कहा “याकूब को सबूतों से भरे सूटकेस के साथ गिरफ्तार किया गया है। यह दस्तावेज धमाकों में आईएसआई की सक्रिय भूमिका के खुले हुए सबूत थे। याकूब के पास से जो चीजें मिली हैं उनमें पाकिस्तान में उसके परिवार के कई लोगों के भारतीय पासपोर्ट, उनके पाकिस्तान की नागरिकता के दस्तावेज, कराची में उन्हें रहने के लिए दिए गए शानदार बंगलों की वीडियो कैसेट और दाऊद इब्राहिम व टाइगर मेमन समेत भारत से फरार आरोपियों को आईएसआई द्वारा पनाह दिए जाने के सबूत मौजूद थे। फौजदारी का वकील होने की हैसियत से मैं यह मानने को तैयार नहीं था कि याकूब को वास्तव में उसी समय, उसी जगह और उन्हीं परिस्थितियों में “हिरासत” में लिया गया है जिनका दावा किया जा रहा है। मुझे यकीन था कि यह गिरफ्तारी किसी डील (समझौते) का नतीजा है”। उन्होंने यह भी दावा किया कि याकूब मेमन से एक दिन टाडा कोर्ट में लंच ब्रेक के समय उन्हें बात करने का अवसर मिला। बातचीत के दौरान याकूब ने बताया कि कराची में भारतीय खुफिया एजेंसियों के कुछ अधिकारी उसके सम्पर्क में आए फिर कराची और दुबई में उनकी मुलाकातें हुईं। एक समझौता हुआ जिसके तहत उसे ऐसे सबूत अपने साथ लाने थे जिन से बम
धमाकों के हर चरण में आईएसआई और पाकिस्तान का लिप्त होना साबित हो जाए। यह भी तय हुआ था कि वह पाकिस्तान से काठमांडू आएगा जहाँ उसे हिरासत में लेकर भारत लाया जाएगा। सतीश माने शिंदे के अनुसार याकूब ने अपनी बेटी और मां-बाप की कसम खा कर कहा था कि उसने कोई अपराध नहीं किया है। उसने उन्हें बताया था कि वह या उसके परिवार के लोगों ने अगर वास्तव में कोई अपराध किया होता तो वह कराची छोड़ने की कल्पना भी नहीं करता जहाँ उसका और उसके परिवार का पूरी तरह खयाल रखा जाता था। उसने यह भी बताया कि सब कुछ योजना के अनुसार ही हुआ लेकिन भारतीय एजेंसियाँ अपना वादा पूरा करने में नाकाम रहीं। जाहिर सी बात है किसी आरोपी और एजेंसियों के बीच कोई लिखित समझौता नहीं हो सकता जिसे किसी अदालत में पेश किया जा सके। शायद यही कारण था कि रॉ के पाकिस्तान डेस्क के प्रभारी बी रमन याकूब मेमन की फाँसी की खबर से परेशान हो गए थे। याकूब मेमन की फाँसी से कुछ दिनों पहले रेडिफ डाट काम पर प्रकाशित अपने एक लेख में उन्होंने कहा “जब से मैंने अदालत द्वारा याकूब मेमन को मृत्यु दंड दिए जाने की खबर मीडिया में पढ़ी तब से मैं अपने दिमाग में एक नैतिक असमंजस की स्थिति से गुजर रहा था, मैं यह जान कर परेशान था कि इस मुकदमे में याकूब मेमन और उसके परिवार के कुछ सदस्यों के बारे में परिस्थितियों की गम्भीरता को कम कर देने वाले तथ्य शायद अभियोजन द्वारा न्यायालय की जानकारी में नहीं लाए गए। अपनी (अभियोजन की) मृत्यु दंड प्राप्त करने की इच्छा में (इस केस) गम्भीरता को कम कर देने वाली परिस्थितियाँ कभी भी प्रकाश में आती हुई प्रतीत नहीं हुईं”। इसी लेख में उन्होंने यह स्वीकार किया कि उनके सेवामुक्त होने से कुछ दिनों पहले याकूब को काठमांडू से उठाया गया, नेपाली पुलिस की मदद से उसे भारतीय क्षेत्र (बिहार) में लाकर रिसर्च एविएशन सेंटर के जहाज से दिल्ली लाया गया। मुकदमे की गम्भीरता को कम कर देने वाली वह परिस्थितियाँ उस समझौते के अलावा और क्या हो सकती थीं जिसके तहत उसे भारत आना था, अपने परिवार के अन्य सदस्यों का आत्मसमर्पण करवाना था और धमाकों में आईएसआई और पाकिस्तान की भूमिका के सबूत लाना था। उसके इस सहयोग के बदले उसके साथ मुकदमे में अदालत से किसी कड़ी सजा की माँग न करना निश्चित रूप से शामिल रहा होगा। किसी डील की पुष्टि सीबीआई के पूर्व प्रमुख शान्तनों सेन के मीडिया में आए इस बयान से भी हो जाती है जिसमें उन्होंने कहा है कि रॉ और आईबी समेत भारत की कई खुफिया एजेंसियां मेमन को भारत लाने के लिए राजी करने हेतु उसके सम्पर्क में थीं। वह कहते हैं “हमने उन्हें भारत के उत्कृष्ट न्याय का प्रस्ताव दिया था। सीबीआई ने मेमन को इस बात का यकीन दिलाने के लिए कि उसकी सुरक्षा भारत में रहने में है, पाकिस्तान में अपने तमाम सम्पर्कों का इस्तेमाल किया था”। इस महान न्याय और भारत में उसकी सुरक्षा का मतलब साफ है कि उससे वादा किया गया था कि उसे कड़ी सजा या कम से कम मृत्यु दंड नहीं दिया जाएगा।
इस तरह हम देख सकते हैं कि एडवोकेट सतीश माने शिंदे की आशंका, याकूब मेमन का भारतीय एजेंसियों पर विश्वासघात करने का आरोप, बी रमन का नैतिक अपराधबोध और शान्तनों सेन की स्वीकारोक्ति सबके तार आपस में मिल जाते हैं। शायद यही कारण था कि सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश हरिजीत सिंह बेदी ने इंडियन एक्सप्रेस को लिखे गए एक पत्र में कहा कि बी रमन के लेख को बुनियाद बनाकर “उच्चतम न्यायालय को लेख का स्वतः संज्ञान लेना चाहिए और दोनों पक्षों को सुनने के बाद सजा के सवाल पर और सबूतों को समाहित करने के लिए मामले को ट्रायल को लौटा देना चाहिए”। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने न केवल 29 जुलाई को दिन में और फिर 30 जुलाई की रात में जिस तेजी के साथ इस मामले की सुनवाई की और फाँसी पर लटकाए जाने से पहले याकूब मेमन को उसके खिलाफ दिए गए फैसले को पढ़ने तक का अवसर नहीं दिया उसके इस रवैये पर सवाल उठाते हुए कृष्ण दास राजगोपाल लिखते हैं “संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत मेमन द्वारा दायर ‘डेथ वारेंट’ रद करने की याचिका पर सुप्रीम ने 29 जुलाई की शाम सवा चार बजे फैसला सुनाया जिसे उसकी फाँसी दिए जाने के लिए निश्चित समय से कुछ घंटे पहले रात में ग्यारह बजे अपलोड किया गया। ऐसे में क्या उसके पास फाँसी के तख्ते पर जाने से पहले इस फैसले को खुद से पढ़ने के लिए उचित अवसर था, क्या यह न्याय के प्राकृतिक नियम का उल्लंघन नहीं है। इसी तरह क्या राष्ट्रपति की दया याचिका खारिज किए जाने और फाँसी दिए जाने के बीच 14 दिन की मोहलत दिए जाने से सुप्रीम कोर्ट के इनकार वाले फैसले को जो 30 जुलाई की सुबह लगभग पांच बजे दिया गया था, पढ़ने का अवसर याकूब मेमन के पास था, केवल इतना पर्याप्त नहीं है कि वकील फैसला जानता है, मुकदमा मेमन द्वारा दायर किया गया है उसे खुद पढ़ना चाहिए। फैसला वकील के लिए नहीं है, मेमन के लिए है”। याकूब के भाई सुलेमान द्वारा राष्ट्रपति को दी गई दया याचिका के खारिज किए जाने के बाद दोबारा समय न दिए जाने के सुप्रीम कोर्ट के तर्क से असहमति जताते हुए राजगोपाल कहते हैं “क्या आखिरी बार ‘नही’ कहने के बाद नियति के अनुरूप अपने को तैयार करने के लिए उचित समय नहीं दिया जाना चाहिए। क्या इतिहास में कही भी किसी संवैधानिक अदालत ने किसी व्यक्ति की केवल दो हफ्ते जिंदा रहने की विनती ठुकराई है अगर जेल में 21 साल बिताने के बाद एक छोटी से सेल में मेमन को मात्र 14 दिन और जिंदा रहने दिया जाता तो क्या हो जाता”। राजगोपाल ने 9 अगस्त को ‘द हिंदू’ में छपे अपने लेख में सुप्रीम कोर्ट में अन्तिम दो दिनों में तेजी से होने वाली सुनवाई और इस मुकदमे से जुड़े कुछ अन्य बिन्दुओं पर भी गम्भीर सवाए उठाए हैं।
उन्होंने राष्ट्रपति द्वारा दया याचिका खारिज किए जाने पर उनसे भी कई सवाल पूछे हैं। उनका कहना है कि क्या फाँसी देने से मात्र आठ घंटे पहले दया याचिका पर इससे पहले कभी निर्णय लिया गया है, क्या फाँसी पर निर्णय लेते समय बी रमन के रहस्योद्घाटन पर राष्ट्रपति द्वारा विचार किया गया, क्या निर्णय लेते समय राष्ट्रपति ने उसकी बीमारी का ध्यान रखा था क्योंकि किसी बीमार आदमी को फाँसी नहीं दी जा सकती, 21 साल जेल में बिताने के बाद उसके अंदर आए सुधार का संज्ञान लिया गया था क्योंकि सजा की परिभाषा के अनुसार किसी सुधर गए व्यक्ति को फाँसी पर लटकाया नहीं जा सकता।
इतना ही नहीं राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने जिस शीघ्रता के साथ याकूब की दया याचिका खारिज की वह भी अभूतपूर्व था। 29 जुलाई की शाम को फैसला सुनाए जाने के तुरंत बाद याकूब मेमन की दया याचिका खारिज करने के लिए भारत सरकार के गृहमंत्री राष्ट्रपति से मुलाकात के लिए राष्ट्रपति भवन पहुँच गए। हालाँकि अब तक की परम्परा यह रही है कि गृह मंत्रालय ऐसे मामलों में अपनी सिफारिश लिखित रूप में राष्ट्रपति को भेजा करता था। साफ है कि यह सारी कवायद केवल इसलिए थी कि केंद्र सरकार ने याकूब मेमन को उसके जन्म दिन पर फाँसी देने का मन पहले ही बना लिया था। सरकार याकूब को उसी दिन और उसी समय फाँसी के फंदे पर लटकाने के लिए बेचैन थी और उसने इसकी व्यवस्था कर रखी थी। शायद यही वजह थी कि अभी सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल ही रही थी कि याकूब को फाँसी के लिए जगा दिया गया और सुनवाई समाप्त होने से पहले ही उसकी मेडिकल जाँच भी करवा दी गई। इस परिपेक्ष्य में अगर हम देखें तो सुप्रीम कोर्ट के फैसले का वह वाक्य बहुत अर्थपूर्ण हो जाता है जिसमें कहा गया है “अगर फैसले को बदला जाता रहा तो यह कानून का मजाक बन जाएगा”। यह सवाल बिल्कुल वाजिब है कि आतंकवादी वारदातों के अन्य अभियुक्तों की फाँसी की सजा पर अमल करने में यह तत्परता इससे पहले कभी क्यों नहीं दिखाई पड़ी। यहाँ यह बात स्पष्ट रहनी चाहिए कि फाँसी की सजा देना अदालत का अधिकार क्षेत्र है लेकिन फाँसी की सजा पर अमल करना राजनैतिक सत्ता का काम है। फाँसी पर लटकाए जाने के हिसाब से याकूब मेमन का केस उपर्युक्त कारणों से बहुत कमजोर था लेकिन उसे तय समय पर ही फाँसी देने के लिए सभी दाँवपेच इस्तेमाल किए गए। परंतु इसके विपरीत राजीव गांधी तथा 22 अन्य को आत्मघाती विस्फोट में मार डालने वाले सनाथन, मुरूगन और पेरारीवालन को फाँसी नहीं दी गई बल्कि तमिलनाडु विधानसभा ने उनकी फाँसी के खिलाफ प्रस्ताव तक पारित किया और बाद में उनकी फाँसी उम्रकैद में बदल दी गई। पंजाब के मुख्यमंत्री बेअंत सिंह के हत्यारे बलवंत सिंह रजावना को फाँसी की सजा होने और राष्ट्रपति द्वारा दया याचिका खारिज कर दिए जाने के बावजूद उस पर अमल नहीं किया गया। जबकि उसने अपना अपराध स्वीकार ही नहीं किया था बल्कि उस पर गर्व भी करता था। भाजपा की सहयोगी अकाली दल ने उसको फाँसी पर लटकाए जाने का विरोध किया और अंत में उसकी फाँसी की सजा को उम्र कैद में बदल दिया गया। यह दोनों आतंकी वारदातें थीं। इस तरह यह तर्क अपने आप ही खारिज हो जाता है कि याकूब मेमन की फाँसी आतंकियों को कड़ा संदेश देने या आतंकी वारदात के पीडि़तों को इंसाफ दिलाने के लिए दी गई। इसी से यह भी साफ हो जाता है कि फाँसी पर लटकाए जाने का फैसला राजनैतिक था। यह उस साम्प्रदायिक चेतना को संतुष्ट करने के लिए किया गया जिसे संघ परिवार अपनी स्थापना से विकसित करने में लगा हुआ है और पिछले दो ढाई दशकों से संघ की राजनैतिक शाखा भाजपा के ताकतवर होने और कांग्रेस समेत सेक्यूलर कहे जाने वाले क्षेत्रीय दलों में मूल्यों के पतन के कारण इसमें बहुत तेजी से वृद्धि हुई है। याकूब मेमन की फाँसी से पहले होने वाली बहस में फाँसी का विरोध करने वालों को आतंकवाद समर्थक कह कर पाकिस्तान चले जाने की सलाह देने वालों में भाजपा सांसदों से लेकर संघ के कार्यकर्ता तक एक ही भाषा बोल रहे थे। लेकिन जब तमिलनाडु विधान सभा और भाजपा की सहयोगी अकाली दल द्वारा पंजाब विधान सभा में आतंकवाद के आरोप में फाँसी की सजा पाने वालों को क्षमादान देने का प्रस्ताव पारित किया जा रहा था तो संघ या भाजपा की तरफ से इसके खिलाफ कोई अभियान नहीं चलाया गया। अकाली दल आज भी उनकी सहयोगी है और राज्य सभा में अम्मां के समर्थन पाने के लिए भाजपा बेताब है। याकूब की फाँसी पर होने वाली बहस के दौरान यह सवाल भी उठा था कि बाबरी विध्वंस और उसके बाद फूट पड़ने वाले दंगों के अपराधियों के खिलाफ सरकार का रवैया लचर है जबकि याकूब को फाँसी देने के मामले में उसकी सक्रियता अभूतपूर्व है। यह इंसाफ का दोहरा मापदंड है। 92 और 93 के दंगों में ही करीब 900 लोग मारे गए थे लेकिन दंगा पीडि़तों को इंसाफ दिलाने के बजाए दंगा भड़काने वालों का महिमामंडन किया जाता रहा। इस बहस को साम्प्रदायिक रंग देते हुए सरकार और मीडिया ने बार-बार यह जताने का प्रयास किया कि इसे धमाकों की घटना से जोड़ कर नहीं देखा जा सकता। जबकि यह बिल्कुल आधारहीन बात है। श्री कृष्णा कमीशन की रिपोर्ट में साफ कहा गया है कि बम धमाके बाबरी विध्वंस और दंगों की प्रतिक्रिया थे। बाबरी विध्वंस और दंगों का आतंकी वारदातों से रिश्ता है, कई आतंकी घटनाओं की विवेचना में जाँच एजेंसियों ने यह दावा किया है। अक्षरधाम आतंकी हमला से लेकर दिल्ली, जयपुर, अहमदाबाद, मुम्बई में होने वाली आतंकी वारदातों की चार्जशीट में बाबरी विध्वंस और 2002 के गुजरात जनसंहार समेत अन्य दंगों का बदला लेने का आरोप अब दस्तावेज बन चुका है। मालेगांव, अजमेर शरीफ, मक्का मस्जिद और समझौता एक्सप्रेस समेत करीब एक दर्जन धमाकों में भगवा आतंकियों की संलिप्तता का खुलासा होने से पहले उन धमाकों में मुस्लिम युवकों की गिरफ्तारी के बाद भी इसी तरह के तर्क दिए गए थे। यह अजीब स्थिति है एक तरफ मुसलमानों और मानवधिकार एवं नागरिक संगठनों समेत देश के सभ्य समाज ने इस तर्क को हमेशा खारिज किया और वह इन आरोपों को आतंकवाद के नाम पर मुसलमानों को उत्पीडि़त करने के बहाने के तौर पर देखता रहा। दूसरी तरफ खुफिया और जांच एजेंसियाँ तथा सरकारें उसी को आधार बना कर इस्लामी आतंकवाद का हव्वा खड़ा करती रहीं। यह दोगलापन है। अगर वास्तव में बाबरी विध्वंस और दंगे आतंकी वारदातों के पीछे बड़ा कारण हैं तो सरकार दंगों को रोकने के लिए कड़े कानून क्यों नहीं बनाती, खुफिया और जाँच एजेंसियाँ आतंकवाद के खिलाफ कड़े कानून बनाने के लिए हमेशा माँग करती रहीं और एक के बाद दूसरे क्रूर और अलोकतांत्रिक कानून बनाए भी गए लेकिन दंगों पर काबू पाने के लिए उन्होंने कठोर कानून बनाने की वकालत कभी क्यों नहीं की इससे यह बात स्वतः स्पष्ट होती है कि हमारे तंत्र को दंगों को रोकने में कोई दिलचस्पी नहीं है, बाबरी विध्वंस के अपराधियों को सजा दिलाने में उसकी कोई रुचि नहीं है बल्कि इन घटनाओं के सहारे वह देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय का दानवीकरण करने में अपनी सारी ऊर्जा खर्च कर रहा है। अगर सरकारी पक्ष को सही मान लिया जाए यह कहना गलत न होगा कि आतंकवाद के मूल कारणों पर हमारी सरकारें प्रहार नहीं करना चाहतीं। वरना क्या कारण है कि जब आतंकवाद के नाम पर मुसलमानों को घेरना होता है तो बाबरी विध्वंस और दंगे आतंकवादी
गतिविधियों से जुड़ जाते हैं और जब मुसलमान उन्हें आतंकवाद के मामलों में कठोर सजाओं के साथ दंगों के अपराधियों को भी कड़ी सजा देने की बात करता है तो कहा जाता है कि दोनों को जोड़ कर नहीं देखा जा सकता।
अपराध को खत्म करने की पहली और सबसे बड़ी शर्त इंसाफ है। न्याय के दो पैमाने नहीं हो सकते। एक अपराध में न्याय की दुहाई देना और दूसरे मामले में
अपराधियों का पोषण करना इंसाफ का खून है। याकूब को फाँसी पर लटकाने का फैसला न्याय की उसी एकतरफा अवधारणा का प्रतीक है। इसके दूरगामी परिणाम सामने आएँगे और आतंकवाद के खिलाफ हमारे अभियान को कमजोर करेंगे। एडवोकेट सतीश माने शिंदे के शब्दों में “मैं नहीं समझता कि याकूब मेमन के साथ जो कुछ हुआ उसके बाद अब भविष्य में कभी यह एजेंसियाँ किसी आरोपी को वापसी पर ‘प्रेरित’ करने या उनका ‘सहयोग’ प्राप्त करने में कामयाब हो पाएँगी”।
-मसीहुद्दीन संजरी
मोबाइल: 09455571488
लोकसंघर्ष पत्रिका के सितम्बर 2015 अंक में प्रकाशित
इस दौरान घटनाक्रम बहुत तेजी से बदलता रहा। 26 जुलाई को कुछ विशिष्ट नागरिकों ने जिनमें पूर्व जज, पत्रकार, सांसद, विधायक आदि शामिल थे, राष्ट्रपति को मेमन की दया याचिका पर पुनर्विचार करने का आग्रह करते हुए पत्र लिखा। सुप्रीम कोर्ट में 29 जुलाई को दिन में और फिर 30 जुलाई की सुबह 4 बजकर 55 मिनट तक सुनवाई हुई। सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति के दया याचिका खारिज करने और फाँसी दिए जाने के बीच 14 दिन का समय देने से भी इनकार कर दिया और अन्ततः उसी दिन सुबह साढ़े सात बजे याकूब मेमन के जन्म दिवस पर उसे फाँसी दे दी गई।
कई लोगों का अब भी यह मानना है कि याकूब मेमन को इंसाफ नहीं मिला। याकूब मेमन की गिरफ्तारी के दावों से लेकर राष्ट्रपति के दया याचिका खारिज करने तक कई महत्वपूर्ण बिंदु ऐसे रहे हैं जो अदालती फैसले को भी प्रभावित कर सकते थे और राष्ट्रपति द्वारा दया याचिका स्वीकार कर लेने का कारण भी बन सकते थे। दर असल याकूब मेमन को दिल्ली से 5 अगस्त 1994 को गिरफ्तार नहीं किया गया था बल्कि उसने 28 जुलाई 1994 को नेपाल में भारतीय खुफिया एवं जाँच एजेंसियों से एक डील के तहत आत्मसमर्पण किया था। नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से गिरफ्तारी दिखाए जाने के बाद उसके पास से जो कुछ बरामद हुआ था वह अपने आप में यह संदेह पैदा करने के लिए काफी था। एडवोकेट सतीश माने शिंदे ने रोजनामा इंकलाब में प्रकाशित अपने एक लेख में कहा “याकूब को सबूतों से भरे सूटकेस के साथ गिरफ्तार किया गया है। यह दस्तावेज धमाकों में आईएसआई की सक्रिय भूमिका के खुले हुए सबूत थे। याकूब के पास से जो चीजें मिली हैं उनमें पाकिस्तान में उसके परिवार के कई लोगों के भारतीय पासपोर्ट, उनके पाकिस्तान की नागरिकता के दस्तावेज, कराची में उन्हें रहने के लिए दिए गए शानदार बंगलों की वीडियो कैसेट और दाऊद इब्राहिम व टाइगर मेमन समेत भारत से फरार आरोपियों को आईएसआई द्वारा पनाह दिए जाने के सबूत मौजूद थे। फौजदारी का वकील होने की हैसियत से मैं यह मानने को तैयार नहीं था कि याकूब को वास्तव में उसी समय, उसी जगह और उन्हीं परिस्थितियों में “हिरासत” में लिया गया है जिनका दावा किया जा रहा है। मुझे यकीन था कि यह गिरफ्तारी किसी डील (समझौते) का नतीजा है”। उन्होंने यह भी दावा किया कि याकूब मेमन से एक दिन टाडा कोर्ट में लंच ब्रेक के समय उन्हें बात करने का अवसर मिला। बातचीत के दौरान याकूब ने बताया कि कराची में भारतीय खुफिया एजेंसियों के कुछ अधिकारी उसके सम्पर्क में आए फिर कराची और दुबई में उनकी मुलाकातें हुईं। एक समझौता हुआ जिसके तहत उसे ऐसे सबूत अपने साथ लाने थे जिन से बम
धमाकों के हर चरण में आईएसआई और पाकिस्तान का लिप्त होना साबित हो जाए। यह भी तय हुआ था कि वह पाकिस्तान से काठमांडू आएगा जहाँ उसे हिरासत में लेकर भारत लाया जाएगा। सतीश माने शिंदे के अनुसार याकूब ने अपनी बेटी और मां-बाप की कसम खा कर कहा था कि उसने कोई अपराध नहीं किया है। उसने उन्हें बताया था कि वह या उसके परिवार के लोगों ने अगर वास्तव में कोई अपराध किया होता तो वह कराची छोड़ने की कल्पना भी नहीं करता जहाँ उसका और उसके परिवार का पूरी तरह खयाल रखा जाता था। उसने यह भी बताया कि सब कुछ योजना के अनुसार ही हुआ लेकिन भारतीय एजेंसियाँ अपना वादा पूरा करने में नाकाम रहीं। जाहिर सी बात है किसी आरोपी और एजेंसियों के बीच कोई लिखित समझौता नहीं हो सकता जिसे किसी अदालत में पेश किया जा सके। शायद यही कारण था कि रॉ के पाकिस्तान डेस्क के प्रभारी बी रमन याकूब मेमन की फाँसी की खबर से परेशान हो गए थे। याकूब मेमन की फाँसी से कुछ दिनों पहले रेडिफ डाट काम पर प्रकाशित अपने एक लेख में उन्होंने कहा “जब से मैंने अदालत द्वारा याकूब मेमन को मृत्यु दंड दिए जाने की खबर मीडिया में पढ़ी तब से मैं अपने दिमाग में एक नैतिक असमंजस की स्थिति से गुजर रहा था, मैं यह जान कर परेशान था कि इस मुकदमे में याकूब मेमन और उसके परिवार के कुछ सदस्यों के बारे में परिस्थितियों की गम्भीरता को कम कर देने वाले तथ्य शायद अभियोजन द्वारा न्यायालय की जानकारी में नहीं लाए गए। अपनी (अभियोजन की) मृत्यु दंड प्राप्त करने की इच्छा में (इस केस) गम्भीरता को कम कर देने वाली परिस्थितियाँ कभी भी प्रकाश में आती हुई प्रतीत नहीं हुईं”। इसी लेख में उन्होंने यह स्वीकार किया कि उनके सेवामुक्त होने से कुछ दिनों पहले याकूब को काठमांडू से उठाया गया, नेपाली पुलिस की मदद से उसे भारतीय क्षेत्र (बिहार) में लाकर रिसर्च एविएशन सेंटर के जहाज से दिल्ली लाया गया। मुकदमे की गम्भीरता को कम कर देने वाली वह परिस्थितियाँ उस समझौते के अलावा और क्या हो सकती थीं जिसके तहत उसे भारत आना था, अपने परिवार के अन्य सदस्यों का आत्मसमर्पण करवाना था और धमाकों में आईएसआई और पाकिस्तान की भूमिका के सबूत लाना था। उसके इस सहयोग के बदले उसके साथ मुकदमे में अदालत से किसी कड़ी सजा की माँग न करना निश्चित रूप से शामिल रहा होगा। किसी डील की पुष्टि सीबीआई के पूर्व प्रमुख शान्तनों सेन के मीडिया में आए इस बयान से भी हो जाती है जिसमें उन्होंने कहा है कि रॉ और आईबी समेत भारत की कई खुफिया एजेंसियां मेमन को भारत लाने के लिए राजी करने हेतु उसके सम्पर्क में थीं। वह कहते हैं “हमने उन्हें भारत के उत्कृष्ट न्याय का प्रस्ताव दिया था। सीबीआई ने मेमन को इस बात का यकीन दिलाने के लिए कि उसकी सुरक्षा भारत में रहने में है, पाकिस्तान में अपने तमाम सम्पर्कों का इस्तेमाल किया था”। इस महान न्याय और भारत में उसकी सुरक्षा का मतलब साफ है कि उससे वादा किया गया था कि उसे कड़ी सजा या कम से कम मृत्यु दंड नहीं दिया जाएगा।
इस तरह हम देख सकते हैं कि एडवोकेट सतीश माने शिंदे की आशंका, याकूब मेमन का भारतीय एजेंसियों पर विश्वासघात करने का आरोप, बी रमन का नैतिक अपराधबोध और शान्तनों सेन की स्वीकारोक्ति सबके तार आपस में मिल जाते हैं। शायद यही कारण था कि सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश हरिजीत सिंह बेदी ने इंडियन एक्सप्रेस को लिखे गए एक पत्र में कहा कि बी रमन के लेख को बुनियाद बनाकर “उच्चतम न्यायालय को लेख का स्वतः संज्ञान लेना चाहिए और दोनों पक्षों को सुनने के बाद सजा के सवाल पर और सबूतों को समाहित करने के लिए मामले को ट्रायल को लौटा देना चाहिए”। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने न केवल 29 जुलाई को दिन में और फिर 30 जुलाई की रात में जिस तेजी के साथ इस मामले की सुनवाई की और फाँसी पर लटकाए जाने से पहले याकूब मेमन को उसके खिलाफ दिए गए फैसले को पढ़ने तक का अवसर नहीं दिया उसके इस रवैये पर सवाल उठाते हुए कृष्ण दास राजगोपाल लिखते हैं “संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत मेमन द्वारा दायर ‘डेथ वारेंट’ रद करने की याचिका पर सुप्रीम ने 29 जुलाई की शाम सवा चार बजे फैसला सुनाया जिसे उसकी फाँसी दिए जाने के लिए निश्चित समय से कुछ घंटे पहले रात में ग्यारह बजे अपलोड किया गया। ऐसे में क्या उसके पास फाँसी के तख्ते पर जाने से पहले इस फैसले को खुद से पढ़ने के लिए उचित अवसर था, क्या यह न्याय के प्राकृतिक नियम का उल्लंघन नहीं है। इसी तरह क्या राष्ट्रपति की दया याचिका खारिज किए जाने और फाँसी दिए जाने के बीच 14 दिन की मोहलत दिए जाने से सुप्रीम कोर्ट के इनकार वाले फैसले को जो 30 जुलाई की सुबह लगभग पांच बजे दिया गया था, पढ़ने का अवसर याकूब मेमन के पास था, केवल इतना पर्याप्त नहीं है कि वकील फैसला जानता है, मुकदमा मेमन द्वारा दायर किया गया है उसे खुद पढ़ना चाहिए। फैसला वकील के लिए नहीं है, मेमन के लिए है”। याकूब के भाई सुलेमान द्वारा राष्ट्रपति को दी गई दया याचिका के खारिज किए जाने के बाद दोबारा समय न दिए जाने के सुप्रीम कोर्ट के तर्क से असहमति जताते हुए राजगोपाल कहते हैं “क्या आखिरी बार ‘नही’ कहने के बाद नियति के अनुरूप अपने को तैयार करने के लिए उचित समय नहीं दिया जाना चाहिए। क्या इतिहास में कही भी किसी संवैधानिक अदालत ने किसी व्यक्ति की केवल दो हफ्ते जिंदा रहने की विनती ठुकराई है अगर जेल में 21 साल बिताने के बाद एक छोटी से सेल में मेमन को मात्र 14 दिन और जिंदा रहने दिया जाता तो क्या हो जाता”। राजगोपाल ने 9 अगस्त को ‘द हिंदू’ में छपे अपने लेख में सुप्रीम कोर्ट में अन्तिम दो दिनों में तेजी से होने वाली सुनवाई और इस मुकदमे से जुड़े कुछ अन्य बिन्दुओं पर भी गम्भीर सवाए उठाए हैं।
उन्होंने राष्ट्रपति द्वारा दया याचिका खारिज किए जाने पर उनसे भी कई सवाल पूछे हैं। उनका कहना है कि क्या फाँसी देने से मात्र आठ घंटे पहले दया याचिका पर इससे पहले कभी निर्णय लिया गया है, क्या फाँसी पर निर्णय लेते समय बी रमन के रहस्योद्घाटन पर राष्ट्रपति द्वारा विचार किया गया, क्या निर्णय लेते समय राष्ट्रपति ने उसकी बीमारी का ध्यान रखा था क्योंकि किसी बीमार आदमी को फाँसी नहीं दी जा सकती, 21 साल जेल में बिताने के बाद उसके अंदर आए सुधार का संज्ञान लिया गया था क्योंकि सजा की परिभाषा के अनुसार किसी सुधर गए व्यक्ति को फाँसी पर लटकाया नहीं जा सकता।
इतना ही नहीं राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने जिस शीघ्रता के साथ याकूब की दया याचिका खारिज की वह भी अभूतपूर्व था। 29 जुलाई की शाम को फैसला सुनाए जाने के तुरंत बाद याकूब मेमन की दया याचिका खारिज करने के लिए भारत सरकार के गृहमंत्री राष्ट्रपति से मुलाकात के लिए राष्ट्रपति भवन पहुँच गए। हालाँकि अब तक की परम्परा यह रही है कि गृह मंत्रालय ऐसे मामलों में अपनी सिफारिश लिखित रूप में राष्ट्रपति को भेजा करता था। साफ है कि यह सारी कवायद केवल इसलिए थी कि केंद्र सरकार ने याकूब मेमन को उसके जन्म दिन पर फाँसी देने का मन पहले ही बना लिया था। सरकार याकूब को उसी दिन और उसी समय फाँसी के फंदे पर लटकाने के लिए बेचैन थी और उसने इसकी व्यवस्था कर रखी थी। शायद यही वजह थी कि अभी सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल ही रही थी कि याकूब को फाँसी के लिए जगा दिया गया और सुनवाई समाप्त होने से पहले ही उसकी मेडिकल जाँच भी करवा दी गई। इस परिपेक्ष्य में अगर हम देखें तो सुप्रीम कोर्ट के फैसले का वह वाक्य बहुत अर्थपूर्ण हो जाता है जिसमें कहा गया है “अगर फैसले को बदला जाता रहा तो यह कानून का मजाक बन जाएगा”। यह सवाल बिल्कुल वाजिब है कि आतंकवादी वारदातों के अन्य अभियुक्तों की फाँसी की सजा पर अमल करने में यह तत्परता इससे पहले कभी क्यों नहीं दिखाई पड़ी। यहाँ यह बात स्पष्ट रहनी चाहिए कि फाँसी की सजा देना अदालत का अधिकार क्षेत्र है लेकिन फाँसी की सजा पर अमल करना राजनैतिक सत्ता का काम है। फाँसी पर लटकाए जाने के हिसाब से याकूब मेमन का केस उपर्युक्त कारणों से बहुत कमजोर था लेकिन उसे तय समय पर ही फाँसी देने के लिए सभी दाँवपेच इस्तेमाल किए गए। परंतु इसके विपरीत राजीव गांधी तथा 22 अन्य को आत्मघाती विस्फोट में मार डालने वाले सनाथन, मुरूगन और पेरारीवालन को फाँसी नहीं दी गई बल्कि तमिलनाडु विधानसभा ने उनकी फाँसी के खिलाफ प्रस्ताव तक पारित किया और बाद में उनकी फाँसी उम्रकैद में बदल दी गई। पंजाब के मुख्यमंत्री बेअंत सिंह के हत्यारे बलवंत सिंह रजावना को फाँसी की सजा होने और राष्ट्रपति द्वारा दया याचिका खारिज कर दिए जाने के बावजूद उस पर अमल नहीं किया गया। जबकि उसने अपना अपराध स्वीकार ही नहीं किया था बल्कि उस पर गर्व भी करता था। भाजपा की सहयोगी अकाली दल ने उसको फाँसी पर लटकाए जाने का विरोध किया और अंत में उसकी फाँसी की सजा को उम्र कैद में बदल दिया गया। यह दोनों आतंकी वारदातें थीं। इस तरह यह तर्क अपने आप ही खारिज हो जाता है कि याकूब मेमन की फाँसी आतंकियों को कड़ा संदेश देने या आतंकी वारदात के पीडि़तों को इंसाफ दिलाने के लिए दी गई। इसी से यह भी साफ हो जाता है कि फाँसी पर लटकाए जाने का फैसला राजनैतिक था। यह उस साम्प्रदायिक चेतना को संतुष्ट करने के लिए किया गया जिसे संघ परिवार अपनी स्थापना से विकसित करने में लगा हुआ है और पिछले दो ढाई दशकों से संघ की राजनैतिक शाखा भाजपा के ताकतवर होने और कांग्रेस समेत सेक्यूलर कहे जाने वाले क्षेत्रीय दलों में मूल्यों के पतन के कारण इसमें बहुत तेजी से वृद्धि हुई है। याकूब मेमन की फाँसी से पहले होने वाली बहस में फाँसी का विरोध करने वालों को आतंकवाद समर्थक कह कर पाकिस्तान चले जाने की सलाह देने वालों में भाजपा सांसदों से लेकर संघ के कार्यकर्ता तक एक ही भाषा बोल रहे थे। लेकिन जब तमिलनाडु विधान सभा और भाजपा की सहयोगी अकाली दल द्वारा पंजाब विधान सभा में आतंकवाद के आरोप में फाँसी की सजा पाने वालों को क्षमादान देने का प्रस्ताव पारित किया जा रहा था तो संघ या भाजपा की तरफ से इसके खिलाफ कोई अभियान नहीं चलाया गया। अकाली दल आज भी उनकी सहयोगी है और राज्य सभा में अम्मां के समर्थन पाने के लिए भाजपा बेताब है। याकूब की फाँसी पर होने वाली बहस के दौरान यह सवाल भी उठा था कि बाबरी विध्वंस और उसके बाद फूट पड़ने वाले दंगों के अपराधियों के खिलाफ सरकार का रवैया लचर है जबकि याकूब को फाँसी देने के मामले में उसकी सक्रियता अभूतपूर्व है। यह इंसाफ का दोहरा मापदंड है। 92 और 93 के दंगों में ही करीब 900 लोग मारे गए थे लेकिन दंगा पीडि़तों को इंसाफ दिलाने के बजाए दंगा भड़काने वालों का महिमामंडन किया जाता रहा। इस बहस को साम्प्रदायिक रंग देते हुए सरकार और मीडिया ने बार-बार यह जताने का प्रयास किया कि इसे धमाकों की घटना से जोड़ कर नहीं देखा जा सकता। जबकि यह बिल्कुल आधारहीन बात है। श्री कृष्णा कमीशन की रिपोर्ट में साफ कहा गया है कि बम धमाके बाबरी विध्वंस और दंगों की प्रतिक्रिया थे। बाबरी विध्वंस और दंगों का आतंकी वारदातों से रिश्ता है, कई आतंकी घटनाओं की विवेचना में जाँच एजेंसियों ने यह दावा किया है। अक्षरधाम आतंकी हमला से लेकर दिल्ली, जयपुर, अहमदाबाद, मुम्बई में होने वाली आतंकी वारदातों की चार्जशीट में बाबरी विध्वंस और 2002 के गुजरात जनसंहार समेत अन्य दंगों का बदला लेने का आरोप अब दस्तावेज बन चुका है। मालेगांव, अजमेर शरीफ, मक्का मस्जिद और समझौता एक्सप्रेस समेत करीब एक दर्जन धमाकों में भगवा आतंकियों की संलिप्तता का खुलासा होने से पहले उन धमाकों में मुस्लिम युवकों की गिरफ्तारी के बाद भी इसी तरह के तर्क दिए गए थे। यह अजीब स्थिति है एक तरफ मुसलमानों और मानवधिकार एवं नागरिक संगठनों समेत देश के सभ्य समाज ने इस तर्क को हमेशा खारिज किया और वह इन आरोपों को आतंकवाद के नाम पर मुसलमानों को उत्पीडि़त करने के बहाने के तौर पर देखता रहा। दूसरी तरफ खुफिया और जांच एजेंसियाँ तथा सरकारें उसी को आधार बना कर इस्लामी आतंकवाद का हव्वा खड़ा करती रहीं। यह दोगलापन है। अगर वास्तव में बाबरी विध्वंस और दंगे आतंकी वारदातों के पीछे बड़ा कारण हैं तो सरकार दंगों को रोकने के लिए कड़े कानून क्यों नहीं बनाती, खुफिया और जाँच एजेंसियाँ आतंकवाद के खिलाफ कड़े कानून बनाने के लिए हमेशा माँग करती रहीं और एक के बाद दूसरे क्रूर और अलोकतांत्रिक कानून बनाए भी गए लेकिन दंगों पर काबू पाने के लिए उन्होंने कठोर कानून बनाने की वकालत कभी क्यों नहीं की इससे यह बात स्वतः स्पष्ट होती है कि हमारे तंत्र को दंगों को रोकने में कोई दिलचस्पी नहीं है, बाबरी विध्वंस के अपराधियों को सजा दिलाने में उसकी कोई रुचि नहीं है बल्कि इन घटनाओं के सहारे वह देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय का दानवीकरण करने में अपनी सारी ऊर्जा खर्च कर रहा है। अगर सरकारी पक्ष को सही मान लिया जाए यह कहना गलत न होगा कि आतंकवाद के मूल कारणों पर हमारी सरकारें प्रहार नहीं करना चाहतीं। वरना क्या कारण है कि जब आतंकवाद के नाम पर मुसलमानों को घेरना होता है तो बाबरी विध्वंस और दंगे आतंकवादी
गतिविधियों से जुड़ जाते हैं और जब मुसलमान उन्हें आतंकवाद के मामलों में कठोर सजाओं के साथ दंगों के अपराधियों को भी कड़ी सजा देने की बात करता है तो कहा जाता है कि दोनों को जोड़ कर नहीं देखा जा सकता।
अपराध को खत्म करने की पहली और सबसे बड़ी शर्त इंसाफ है। न्याय के दो पैमाने नहीं हो सकते। एक अपराध में न्याय की दुहाई देना और दूसरे मामले में
अपराधियों का पोषण करना इंसाफ का खून है। याकूब को फाँसी पर लटकाने का फैसला न्याय की उसी एकतरफा अवधारणा का प्रतीक है। इसके दूरगामी परिणाम सामने आएँगे और आतंकवाद के खिलाफ हमारे अभियान को कमजोर करेंगे। एडवोकेट सतीश माने शिंदे के शब्दों में “मैं नहीं समझता कि याकूब मेमन के साथ जो कुछ हुआ उसके बाद अब भविष्य में कभी यह एजेंसियाँ किसी आरोपी को वापसी पर ‘प्रेरित’ करने या उनका ‘सहयोग’ प्राप्त करने में कामयाब हो पाएँगी”।
-मसीहुद्दीन संजरी
मोबाइल: 09455571488
लोकसंघर्ष पत्रिका के सितम्बर 2015 अंक में प्रकाशित
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