सोमवार, 28 सितंबर 2015

दक्षिणी एशिया का मुस्तकबिल सिर्फ पांच सौ दलालों के हाथ में –करामत अली

Karamat Ali, Fauzia Tanweer in the background

दक्षिणी एशिया में पचास फीसदी से अधिक आबादी गरीबी रेखा के नीचे जीवन व्यतीत करती है, आधी आबादी के पास सर छिपाने के लिए माकूल छत नहीं है, पीने का पानी नहीं है, स्कूल नहीं है, मूलभूत स्वास्थ्य सेवायें नहीं है लेकिन भारत पकिस्तान ने सयुंक्त रूप से हथियारों की खरीद में  ५५ अरब डालर (२०१३) खर्च किया है. हथियारों की इस खरीद में कम से कम ८ अरब डालर  कमीशन दोनों मुल्कों के कुल ४००-५०० आदमियों में तकसीम होता है. इन्ही चुनिन्दा कमीशनखोरों के हाथों में डेढ़ अरब आवाम की तकदीर लिखी जा रही है.
ये शब्द कराची (पाकिस्तान) के मशहूर ट्रेड यूनियन नेता, पाकिस्तानी पीस कोयलिशन संस्था के संस्थापक सदस्य  करामत अली  ने कल टोरंटो स्थित रोजेर्स हाल में आयोजित किये गए एक सेमिनार में कहे. उन्होंने कहा की फ़ौज के रिटायर्ड अफसर, सेवारत बड़े अधिकारी, नौकरशाह और नेताओं के इस गठजोड़ ने दक्षिणी एशिया में बसी दुनिया की तकरीबन एक तिहाई आबादी के एक बड़े हिस्से को अपने ज़ाती मुफादों के लिए गरीबी के अंधकार में धकेल दिया है. उन्होंने उपस्थित पाकिस्तानी और भारतीय मूल के कनेडियन समुदाय को खिताब करते हुए कहा कि आप लोगों को अपनी सरकार से भारत-पकिस्तान जैसे गरीब मुल्कों को हथियार बेचने की नैतिक वैधता पर सवाल पूछने चाहिए जिन्हें वह कर्ज देकर हथियार बेचते है जो एक अमानवीय कर्म है.
करामत अली ने कहा कि साम्राज्यवाद के विरुद्ध चले लम्बे संघर्ष के दौरान पूरे खित्ते में एक भारतीयता की पहचान बनी थी जिसे आज़ादी पाते वक्त मजहबी पहचान के साथ दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से तोड़ दिया गया. हुक्मरानों ने मुल्क तकसीम किये लेकिन उनके जहन में उस वक्त दुश्मनी का ऐसा खाका मौजूद नहीं था. जिन्नाह ने १९४६ में शिमला में अपने लिए ज़मीन खरीदी थी जहाँ वह गर्मियों में अपने फ़ार्म हॉउस पर रहना चाहते थे. संविधान सभा की पहली बैठक में उन्होंने खिताब करते हुए अमेरिका–कनाडा जैसे बार्डर की कल्पना भारत और पकिस्तान के लिए की थी लेकिन हुआ ठीक इसके विपरीत. आज तक भी इन दोनों देशों की सीमाओं का निर्धारण नहीं हो पाया है और दुनिया के सबसे संवेदनशील बार्डर पर दोनों देशों के फ़ौजी युद्ध की स्थिति में तैनात बैठे रहते हैं. दोनों देशों ने अपने-अपने मुल्क में आवाम को धार्मिक पहचान के साथ जोड़कर वर्किग क्लास आवाम के हितों पर आक्रमण किया है जिससे फासीवादी ताकतें मज़बूत हुई है और जनवादी अधिकारों का खात्मा हुआ है. धार्मिक पहचान के चलते वर्किग क्लास आन्दोलन की एकता को भी तोडा गया.
उन्होंने कहा कि हाल ही में १९६५ के युद्ध की पचासवी बरसी दोनों देशों में मनाई गयी. जबकि हकीकत यह है कि दोनों देशों की फौजे लड़ना नहीं चाहती. १९६५ का युद्ध दो हफ्ते भी नहीं चला था कि दोनों देशो से अपने-अपने मित्र देशों के जरिये युद्धबंदी के लिए निवेदन शुरू कर दिए थे. दोनों देशों को युद्ध में नहीं बल्कि युद्ध जैसे माहौल को बनाये रखने में दिलचस्पी है ताकि एक  दूसरे का डर दिखा कर हथियार खरीदे जा सके. अब वक्त आ चुका है कि दोनों देशो के आवाम इस साजिश को बेनकाब करके शांति, सहयोग और तिजारत के रास्ते पर चल कर अपने -अपने आवाम के जीवनस्तर को उपर उठाने की दिशा में पहलकदमी करे. उन्होंने भारतीय वित्त मंत्री पी चिदाम्बरम के उक्त कथन का हवाला देते हुए कहा जिसमे उन्होंने रक्षा बजट में कटौती की बात कही थी जिसे सुनकर निहित स्वार्थो से अभिशिप्त तत्वों ने सीमा पर नामाकूल हरकतें कर माहौल तनावग्रस्त कर दिया जो आज तक बदस्तूर जारी  है. नवाज़ शरीफ के चुनावी घोषणापत्र में भारत –पाक संबंधो को बेहतर बनाने की बात आवाम से कही गयी थी, तिजारत की बात कही गयी थी बावजूद इसके दोनों देशों के रक्षा बजट में उत्तरोत्तर वृद्धि दर्ज हुई है. पाकिस्तानी पीस कोयलिशन के एक सदस्य द्वारा सीमा पर होने वाली कशीदगी पर की गयी रिसर्च का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि भारत –पाक सीमा पर कशीदगी अक्सर अक्टूबर से दिसंबर महीने के दरम्यां रिकार्ड की गयी है. इस कशीदगी का असर मार्च के महीने में आने वाले भारतीय रक्षा बजट पर पड़ता है, उसे देख कर पाकिस्तान का रक्षा बजट जून के महीने में बनता है. भारतीय रक्षा बजट में जितना इज़ाफा होता है उससे अधिक पाकिस्तान करता है क्योकि उन्हें इसे जायज़ करार करने के लिए एक आधार मिल जाता है. 
Karamat Ali, Shamshad and Baldev Padam
करामत अली ने यूरोप का उदहारण देते हुए कहा कि दो विश्वयुद्धो में उन्होंने ६ करोड़ लोगों की हत्याएं करने के बावजूद अपने दुखदायी अतीत को ख़ारिज करने का साहस दिखाया. भारत पाक विभाजन में मरे 15 लाख एवं उनके मध्य हुई चार छोटी बड़ी लडाइयों में मरे लोगों की कुल संख्या भी जोड़े तो यह अपेक्षाकृत बहुत कम है, लेकिन दोनों देशों के मध्य नफरत का सरकारी माहौल बेहद भयावह है. दूसरे विश्व युद्ध के बाद जर्मनी ने साहस दिखाया और अपने क्रूर फासीवादी अतीत को ठुकराया, फ़्रांस के साथ नफरत ख़त्म करने के लिए दोनों मुल्को ने अपने-अपने सांसदों को एक दूसरे की संसदों के विशेष सत्र में बैठाने, जनता के स्तर पर दोनों देशों के बच्चो को एक दूसरे के देशों में परिवारों के साथ रह कर समय बिताने जैसी तरकीबे इजाद की. आज दक्षिणी एशिया में यही सब काम करने की जरुरत है. जनता के स्तर पर एक दूसरे के लिए बोर्डर खोले जाएँ, तिजारत बढ़ने दी जाये, हमें एक दूसरे की जान माल की हिफाज़त, एक दूसरी की माली हालत में सुधार, एक दूसरे की संस्कृति और धर्म की इज्ज़त करना सीखना होगा, इसी अमन के रास्ते पर चल कर पूरे दक्षिणी एशिया में दूसरी सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति बनने का सपना पूरा किया जा सकता है. इस आन्दोलन की प्राण वायु दोनों देशो के मजदूर आन्दोलन में है, क्योकि युद्ध और युद्ध जैसे हालात से यही वह तबका है जो सबसे ज्यादा कष्ट  सहता है. मजदूर आंदोलनों को खासकर भारत की ट्रेड यूनियन मूवमेंट को अब अपनी जिम्मेदारी भारत की सरहदों के पार ले जानी होगी. उन्होंने सार्क अवधारणा का स्वागत करते हुए इस संस्था को मजबूती से काम करने का आह्वान किया. हाल ही में दिल्ली स्थित सार्क विश्वविद्यालय की स्थापना की प्रशंसा करते हुए करामत अली ने कहा कि भारत पाक सरकारों को आपसी मतभेद भुलाकर सार्क को पुनर्जीवित करना चाहिए, यही भविष्य है.
दो साल पहले बांग्लादेश में विफल सैन्य तख्ता पलट का हवाला देते हुए उन्होंने बताया कि यह अपने आप में अजीब परिघटना है जहाँ सिपाही ने फ़ौजी तख्ता पलट में हिस्सा लेने के लिए अपने अफसरों के हुक्म को नहीं माना. इसका कारण बताते हुए उन्होंने कहा कि सयुंक्त राष्ट्र संघ के तत्वावधान में भारत पाक श्रीलंका और बंगलादेश के सैनिको को एक दूसरे की कमांड में काम करने का तजुर्बा हुआ है. शांति सैनिक के रूप में गए फ़ौजी को डालर में वेतन मिलता है, एक दो साल के अन्दर वह अपना मकान बना लेता है. बंगाली सैनिको को लगा यदि देश में फ़ौजी तख्ता पलट हो गया तब सयुंक्त राष्ट्र के जरिये पीस कीपिंग फ़ोर्स में जाने के द्वार बंद हो जायेंगे. लिहाजा उन्होंने तख्ता पलट में हिस्सा न लेकर पूरे बांग्लादेश को एक भयानक त्रासदी से बचा लिया. इस चेतना को पूरे एशिया में फैलना चाहिए.
मौजूदा भारतीय राजनीतिक परिस्थितियों का मूल्यांकन करते हुए करामत अली ने कहा निसंदेह भारत में मौजूदा हकुमत जनतांत्रिक अधिकारों पर आघात है, ऐसे में तमाम वामपंथियों दलों को अपनी  ऐतिहासिक भूमिका अदा करनी है, इन दलों को न केवल भारतीय श्रमिक वर्ग को पूंजी के हमलो से बचाना है वरन पूरे दक्षिणी एशिया की कामगार शक्ति की आवाज़ बुलंद करनी है. उन्होंने कहा कि नेपाल ही दक्षिणी एशिया में पहला देश है जिसने अपने संविधान में मजदूर को सोशल सिक्योरिटी से लैस किया है, जाहिर है नेपाल में शक्तिशाली कम्युनिस्ट आन्दोलन के चलते ही यह संभव हुआ, पूरे दक्षिणी एशिया के मजदूर आन्दोलन को नेपाल से सबक लेना चाहिए.

सेमिनार का आयोजन कमेटी आफ़ प्रोग्रेसिव पाकिस्तानी कनेडियन ने किया जिसका संचालन फौजिय तनवीर ने किया. इस मौके पर दोनों मुल्कों के चुनिन्दा शख्सियते मौजूद थी. 

http://aalishz.blogspot.in/2015/09/blog-post_27.html 

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