घर वापसी, लव जिहाद, गोहत्या और इस जैसे न जाने कितने दूसरे मुद्दे अचानक भारतीय राजनीति में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की आंधी में तब्दील हो गए। धर्म और आस्था के खतरे के नारे के साथ सौ, दो सौ या पाँच सौ की भीड़ ने वह कारनामे अंजाम दिए जिसने भारतीय लोकतंत्र की चूलें हिला दीं। साम्प्रदायिकता, सामंतवाद और जातीय अस्मिताओं के पर निकल आए। इसका स्वाभाविक नतीजा हिंसा, दुराचार, कटुता और कट्टरता के रूप में जाहिर ही होना था। वह हुआ भी। इनके दुष्प्रभाव का सबसे ज्यादा शिकार हुए अल्पसंख्यक और दलित और इसके अलावा वह लोग भी जो जीवन के मूलभूत सवालों पर शासन और प्रशासन से कुछ अपेक्षाएँ रखते थे और उन सवालों के जवाब पाने को अपना अधिकार समझते थे। लेकिन साम्प्रदायिक और जातीय हिंसा के इस तांडव में वह वर्ग भी बह गया जो सामान्य परिस्थितियों में जनता के मूलभूत सवालों और अधिकारों पर सत्ता को घेरने और उससे जवाब माँगने के लिए मजबूत आवाज बनता। देश में गरीबी, किसानों की बदहाली और आत्महत्या, मजदूरों का शोषण, महिलाओं और बच्चों की दुर्गति, यौन शोषण, अभूतपूर्व महँगाई सारे सवाल पीछे रह गए। वह लोग सफल रहे जो नहीं चाहते थे कि देश में गरीब और वंचित समाज से सीधे तौर पर जुड़े इन सवालों पर बहस हो।
एखलाक की हत्या का मामला ही लेते हैं। दादरी के बिसाहड़ा गाँव में घर में गोमाँस रखने और खाने का आरोप लगा कर 50 वर्षीय एखलाक अहमद की भीड़ ने पीट-पीट कर हत्या कर दी और उसके बेटे दानिश को बुरी तरह घायल कर दिया। यह घटना 28 सितम्बर की रात दस बजे की है। अंतिम समय तक एखलाक या गाँव वालों को किसी अनहोनी की कोई आशंका तक नहीं थी। रात में दस बजे गाँव की मंदिर से लाउडस्पीकर पर एखलाक के घर गोमाँस होने का एलान होता है, मिनटों में सौ से ज्यादा लोग इकट्ठा होकर एखलाक के घर पर हमला कर देते हैं। कोई पूछताछ या बहस नहीं सीधे मारपीट शुरू हो जाती है। मंदिर के पुजारी का बयान है कि कुछ लोगों ने उसे लाउडस्पीकर से एलान करने पर मजबूर किया जिन्हें वह पहचानता नहीं है। इसके तीन कारण हो सकते हैं। पहला यह कि उन उपद्रवी तत्वों से उसे खतरा हो। वह उनके साथ खुद मिला हो या वह बाहरी लोग रहे हों जिन्हें पुजारी सचमुच नहीं पहचानता हो। इन तीनों स्थितियों में साजिश की आशंका ही प्रबल होती है। गाँव के लोगों का कहना है कि घटना के समय वह सो रहे थे। वैसे भी गाँवों में आमतौर से दस बजे तक लोग सो जाते हैं। फिर सौ के करीब वह कौन लोग थे जो न सिर्फ जाग रहे थे बल्कि इस स्थिति में थे कि किसी भी अफवाह पर मिनटों में घटना स्थल तक पहुँच जाएँ। सबसे बड़ा सवाल यह कि एखलाक के घर में गोमाँस है यह खबर किसने दी जबकि फोरेंसिक जाँच से यह साबित हो चुका है कि वह बकरे का मांस था। जब हत्या के बाद हिंदुत्वादी संगठनों और भारतीय जनता पार्टी की तरफ उंगुलियाँ उठने लगीं तो एसडीएम ने एखलाक के परिजनों को धमकी देते हुए कहा कि यदि उन्होंने भाजपा सरकार को बदनाम करने की कोशिश की तो उन्हें उसका परिणाम भुगतना पड़ेगा। नामजद हत्यारोपियों की गिरफ्तारी के समय विरोध प्रदर्शन, पुलिस से टकराव और आगजनी की घटनाएँ यह साबित करती हैं कि पूरे वातावरण में पहले से ही जहर घोलकर लोगों को गोलबंद किया गया था। भाजपा
विधायक संगीत सोम पीडि़त परिवार से न मिल कर हत्यारोपियों के परिजनों से मिलने गए और यह तर्क दिया कि उनसे मिलने कोई नहीं जा रहा है। क्या इससे यह संकेत नहीं मिलता कि उनकी हमदर्दी हत्यारोपियों के साथ थी। जब इस मामले पर बहस तेज हो गई तो भाजपा के नेताओं और मंत्रियों ने घटना की गम्भीरता पर ही सवाल खड़े करना शुरू कर दिया। स्थानीय सांसद और केंद्र सरकार में मंत्री महेश शर्मा ने उसी मंदिर में जाकर सभा किया जहाँ से गोहत्या की अफवाह फैलाई गई थी। इस साम्प्रदायिक हिंसा को जायज ठहराने के सारे पैंतरे असफल होते देख आर0एस0एस0 के छात्र संगठन ए0बी0वी0पी0 ने इसको एक नया मोड़ देने की कोशिश की और कहा कि मामला गोमाँस का नहीं बल्कि एखलाक के एक बेटे का हिंदू लड़की से प्रेम का था। राजनेताओं ने अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण के लिए इसे गोमाँस का की अफवाह का रंग दे दिया। शायद एबीवीपी को भरोसा था कि इस नई चाल से वह माहौल को अपने पक्ष में कर सकती है। बड़े पैमाने पर होने वाली आलोचनाओं और विरोध के कारण यह गिरोह एक के बाद दूसरा झूठ बोलने पर बाध्य था। प्रधानमंत्री और भाजपा सरकार के अन्य नेताओं और मंत्रियों का शुरू से यह रवैया रहा है कि उनके कार्यकर्ता या आरएसएस से जुडे़ अन्य संगठन जब भी गैरकानूनी और अमानवीय आपराधिक घटनाओं को अंजाम देते हैं तो पहले वह उसे हिंदुओं की सुरक्षा से जोड़ कर राजनैतिक ध्रुवीकरण का प्रयास करते हैं लेकिन जब बात बिगड़ती हुई महसूस होती है तो उस पर इस तरह से दुख व्यक्त करते हैं कि कहीं से भी निंदा का भाव न निकले। एखलाक की हत्या के बाद प्रधानमंत्री का घटना को दुखद बताने वाला वक्तव्य भी इसी की अक्कासी करता है।
गोहत्या या गोतस्करी ही मात्र ऐसा मुद्दा नही है, एखलाक अकेला व्यक्ति नहीं है जिसकी हत्या इन तत्वों ने की है और न ही यह सब कुछ मात्र अल्पसंख्यकों तक सीमित है। कश्मीर के अनंतनाग निवासी ट्रक ड्राइवर शौकत अली और कंडक्टर जाहिद बट पर 9-10 अक्तूबर की रात में उसके ट्रक का विंडस्क्रीन तोड़ कर साम्प्रदायिक चरमपंथियों ने पेट्रोल बम से हमला कर दिया। पहले उन्हें जम्मू कश्मीर मेडिकल कालेज फिर दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में इलाज के लिए लाया गया लेकिन जाहिद बट की जल जाने के कारण मृत्यु हो गई। हुआ यह था कि उधमपुर के शिवनगर क्षेत्र में जहरखुरानी के चलते तीन गायें मर गई थीं। साम्प्रदायिक संगठनों के कार्यकर्ताओं ने उसका आरोप मुसलमानों पर लगाया और देर रात कश्मीर से आने वाले ट्रक पर पेट्रोल बमों से हमला कर दिया।
9 अक्तूबर को ही उत्तर प्रदेश के मैनपुरी के करबल गाँव में एक गाय के बीमारी से मर जाने के बाद गोहत्या की अफवाह फैला कर लल्ला और शफीक पर हमला कर दिया। बुरी तरह पिट रहे बेकसूरों को वहाँ पर पहुँची पुलिस ने बचा तो लिया लेकिन भीड़ ने पुलिस पर हमला कर दिया और पुलिस की हवाई फायरिंग के जवाब में खुद भी फायरिंग की। इसी तरह शिमला के पास सरहाना गाँव में गाय की तस्करी का आरोप लगाते हुए जनपद सहारनपुर के मिर्जापुर निवासी नोमान और उसके पाँच साथियों को बजरंग दल के गुंडों ने बुरी तरह पीटा जिससे नोमान की मौत हो गई। नोमान के परिजनों ने बताया कि वह कोई तस्कर नहीं बल्कि दूध देने वाली गाय और खेती के काम आने वाले बैलों का व्यापार करता था। उस समय भी उसके ट्रक में दूध देने वाली पाँच गायें और कुछ बैल थे। शिमला पुलिस नोमान के हत्यारों का कोई सुराग तो नहीं लगा पाई लेकिन नोमान के साथियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज कर उनकों प्रताडि़त किया।
एक तरफ पूरे देश में गोतस्करी के नाम पर व्यापारियों का साम्प्रदायिक आधार पर उत्पीड़न, पशुओं को लूटना, धन उगाही आदि की घटनाओं में काफी तेजी से वृद्धि हुई है तो दूसरी तरफ दलितों की हत्या, उत्पीड़न और उन्हें सरेआम नंगा करने की घटनाओं में भी बेतहाशा वृद्धि दर्ज की गई है। एखलाक की हत्या की चर्चा अभी थमी भी नहीं थी कि दादरी से कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर हरियाणा के फरीदाबाद में सवर्ण राजपूतों ने एक दलित परिवार के घर में 20 अक्तूबर की रात करीब 2 बजे खिड़की के रास्ते पेट्रोल छिड़क कर आग लगा दी। इस घटना में 2 वर्ष का वैभव और 9 महीने की दूध पीती बच्ची दिव्या की जल जाने से मौत हो गई। अपने मासूमों को आग से बचाने के प्रयास में पिता जीतेंद्र कुमार और माता रेखा भी बुरी तरह झुलस गए। अभियुक्तों ने इससे पहले ही रेखा का सार्वजनिक रूप से बलात्कार करने की धमकी दी थी जिसकी रिपोर्ट भी पीडि़ता ने दर्ज करवाई थी। सत्ताधारी दल के साथ अभियुक्तों के मजबूत राजनैतिक सम्बंध हैं जिसकी वजह से हरियाणा की खट्टर सरकार के सभी खोखले आश्वासनों के बावजूद पीडि़तों के पास अब गाँव से पलायन के अलावा कोई विकल्प नहीं है।
लव जिहाद के नाम पर अल्पसंख्यकों के खिलाफ जहर उगलने और दलितों को अपनी इस साजिश का हिस्सा बनाने के लिए उन्हें उकसाने वालों के वास्तविक एजेंडे की पोल खोलने के लिए गोकुलराज की हत्याकांड और इस जैसी अनेक घटनाएँ काफी हैं। 24, जून 2015 को तमिलनाडु के जनपद नमक्कल में 21 वर्षीय दलित इंजीनियर गोकुलराज की लाश रेलवे लाइन पर पड़ी हुई मिली। लेकिन सीसीटीवी की तस्वीरों से पता चला कि रेलवे स्टेशन से गोकुलराज का कुछ लोग अपहरण करके ले गए थे और उसकी हत्या कर के शव रेलवे लाइन पर डाल दिया था। उसका अपराध यह था कि उसने स्वर्ण जाति की एक लड़की से बात की थी जिससे कुछ लोगों की जातीय अस्मिता जाग उठी। उन्हें इस बात का संदेह था कि दोनों का आपस में प्रेम सम्बंध है। दो वर्ष पूर्व इसी जनपद के इलावरासन को भी एक सवर्ण लड़की से विवाह करने के अपराध में मार कर रेलवे लाइन पर फेक दिया गया था। बड़ी धूमधाम से अम्बेडकर जयंती मनाने का पाखंड करने वालों का अम्बेडकर के प्रति कितना स्नेह और सम्मान है उसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 16 मई को महाराष्ट्र के शिरडी में दिन में दो बजे सागर शेजवाल नामक दलित युवक की कुछ सवर्ण और पिछड़ी जाति के लोगों ने मिलकर इसलिए हत्या कर दी क्योंकि उसने डाॅ० भीमराव अम्बेडकर की प्रशंसा में लिखे गए एक गीत “करा कितही हल्ला, मजबूत भीमाचा किल्ला” (कितना भी शोर मचाओ, भीम का किला बहुत मजबूत है) को अपने मोबाइल का रिंगटोन बनाया था। उसे शिरडी से अगवा करके शिंगवी गाँव के पास ले जाया गया जहाँ बियर की बोतलों और पत्थरों से मार-मार कर उसकी हत्या कर दी गई और फिर बाइक से उसके शव को बार-बार कुचला गया।
उत्तर प्रदेश के नोएडा में सुनील गौतम उसके भाई और उनकी पत्नियों को पूरी भीड़ के सामने पुलिस ने नंगा करके अपमानित किया और यह अफवाह फैलाने की कोशिश किया कि दलित परिवार ने विरोध जताने के लिए खुद अपने कपड़े उतारे थे। इस परिवार की गलती यह थी कि उसने जाति सूचक गाली दिए जाने के खिलाफ थाने में रपट लिखवाने की हिम्मत की थी। इस घटना का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो गया था। इसी तरह की एक घटना में मध्यप्रदेश के छतरपुर जनपद में एक 45 वर्षीय दलित महिला को नंगा किया गया और फिर उसे पेशाब पीने पर मजबूर किया गया। घटना 24 अगस्त को उस समय पेश आई जब महिला अपने खेत में पशुओं के चरने की शिकायत करने के लिए पशु मालिक एक यादव जी के घर गई थी। मनबढ़ों के हौसले इतने बुलंद हैं कि इस घटना के बाद दलित महिला को उन्होंने यह धमकी भी दी कि अगर उनके खिलाफ कोई रपट लिखवाने का दुस्साहस किया तो जान से हाथ धोना पड़ेगा।
इसी वर्ष 16 मई को राजस्थान के नागौर जनपद में भूमि विवाद को लेकर एक दलित की तरफ से होने वाली फायरिंग में एक जाट की मौत हो गई। इससे गुस्साए जाट समुदाय के लोगों ने दलित बस्ती पर हमला कर दिया और भागते हुए दलितों को ट्रैक्टर से कुचल दिया जिसमें तीन लोगों की मौके पर ही मौत हो गई और एक दर्जन से ज्यादा लोग घायल हो गए। महिलाओं के साथ मारपीट की गई उनके कपड़े नोचे गए और अभद्र व्यवहार किया गया। भीड़ द्वारा बलपूर्वक मृतकों के अंतिम संस्कार करने में बाधा उत्पन्न की गई और अस्पताल में घायलों के इलाज करने से डाॅक्टरों को रोक दिया गया। घटना की गम्भीरता को देखते हुए बड़ी संख्या में पुलिस बल तैनात किए गए तब जाकर पीडि़तों का अंतिम संस्कार और घायलों का इलाज सम्भव हो पाया। इन सभी घटनाओं के पीछे वही हिंदुत्ववादी चरमपंथी मानसिकता काम कर रही है जिसे लगता है कि उसने केंद्र में सत्ता परिवर्तन के साथ ही भारत फतह कर लिया है। अब कानून और संविधान उनकी मुट्ठी में है वह जैसे चाहें उसकी व्याख्या कर सकते हैं। यह देखा गया है कि ऐसे तमाम मामलों में जब विरोध के स्वर मुखर होते हैं तो तुरंत कड़ी कार्रवाई का आश्वासन दिया जाता है, कुछ गिरफ्तारियाँ भी होती हैं लेकिन बाद में अपराधी किसी न किसी बहाने आसानी से छूट जाते हैं। कभी साक्ष्यों का अभाव तो कभी आरोपियों को भीड़ के नाम पर छुपाने का प्रयास होता है। लेकिन एक उल्लेखनीय बात जो पिछले कुछ समय से देखी जा सकती है वह है घटना के बाद चलने वाली बहस में पीडि़त को सही या गलत साबित करने का प्रयास। एखलाक हत्याकांड में भी यह चर्चा अगले दिन ही से शुरू हो गई थी कि उसके घर में रखा मांस गाय का था या नहीं। नागौर में दलितों पर होने वाले हमले का तर्क एक जाट की हत्या को बताने का प्रयास इसी साजिश का हिस्सा है। अगर किसी ने कोई अपराध किया भी है तो कुछ अन्य लोगों या समूह को यह अधिकार किस कानून के तहत मिल जाता है कि वह उस नाम पर हत्या, मारपीट, बलात्कार और महिलाओं को नंगा करने जैसे घृणित अपराध कर सकता है। साम्प्रदायिक या जातीय आधार पर भीड़ द्वारा हिंसा का यह चलन बहुत खतरनाक है। साम्प्रदायिक और फासीवादी ताकतें भीड़ में अपने चेहरे को छुपा कर अपने लक्ष्यों की पूर्ति के लिए संगठित रूप से इस तरह की हिंसा को बढ़ावा देने का काम कर रही हैं। बहस के इस मकड़जाल में उलझने के बजाए इस तरह की हिंसा को तुरंत खारिज किए जाने और उनकी ऐसी तमाम योजनाओं को नाकाम करने के लिए सकारात्मक प्रयास किए जाने की जरूरत है। बड़ी संख्या में साहित्यकारों, कवियों, इतिहासकारों, वैज्ञानिकों, सिने जगत से जुड़े विशिष्ट लोगों ने बढ़ती हुई असहिष्णुता और साम्प्रदयिक एवं जातीय हिंसा के खिलाफ पुरस्कार वापसी जैसे असाधारण कदम उठाए और देश की राजधानी में इसके खिलाफ सम्मेलन करके सड़कों पर उतरने का संकल्प लिया इससेे सरकार और फासीवादियों को कड़ा संदेश गया है। देश और लोकतंत्र के हित में इस प्रतिरोध को जारी रखना हम सब का दायित्व है।
-मसीहुद्दीन संजरी
मो0 09455571488
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