भाजपा नेताओं या प्रवक्ताओं से जब भी देश में सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं में इज़ाफे और बढ़ती असहिष्णुता के संबंध में पूछा जाता है तो वे तपाक से कहते हैं कि कांग्रेस सरकारों और विशेषकर यूपीए शासनकाल में भी देश में सांप्रदायिक हिंसा होती थी। वे 1984 में दिल्ली व अन्य राज्यों में हुए सिक्ख.विरोधी दंगों का हवाला देते हैं और उन दंगों का जिक्र करते हैं, जो कांग्रेस के राज में हुए थे। देश में सन 2014 में सांप्रदायिक हिंसा की 644 घटनाएं हुईं। सन 2015 में इन घटनाओं की संख्या 650 थी। परंतु केवल आंकड़ों के आधार पर सांप्रदायिक हिंसा की तुलना करना बचकाना होगा।
केवल सांप्रदायिक दंगों की संख्या के आधार पर इस या उस शासक दल को दोषी ठहराना बेमानी है। सांप्रदायिक हिंसा कभी स्वस्फूर्त नहीं होती। पॉल ब्रास इस लोकमान्यता का खंडन करते हैं कि दंगे, एक समुदाय के दूसरे समुदाय के विरूद्ध क्रोध का स्वस्फूर्त प्रकटीकरण होते हैं। इसके विपरीत, दंगों की योजना बनाई जाती है और उन्हें भड़काने का काम ' विशेषज्ञ' करते हैं। सांप्रदायिक हिंसा की विभिन्न घटनाओं के अपने अध्ययन से ब्रास इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि सांप्रदायिक दंगो की बाकायदा योजना तैयार की जाती है और इन्हें इस काम में माहिर लोग अंजाम देते हैं। दंगों को योजनाबद्ध ढंग से भड़काने का काम, पॉल ब्रास के शब्दों मेंए 'संस्थागत दंगा मशीनरी' ;आईआरएस द्वारा किया जाता है।
संस्थागत दंगा मशीनरी की कुछ महत्वपूर्ण विशेषताएं होती हैं। सबसे पहले किसी प्रमुख राजनेता के नेतृत्व में दंगे करवाने के लिए असामाजिक तत्वों की भर्ती की जाती है, फिर आमजनों के मन में 'दूसरे समुदाय' के प्रति भय उत्पन्न करने और उन्हें उत्तेजित करने के लिए भड़काऊ भाषणों का इस्तेमाल किया जाता है ताकि सामान्य लोगों के समूह को 'हिंसक भीड़' में परिवर्तित किया जा सके। उत्तेजित व दूसरे समुदाय से भयग्रस्त लोगए 'दूसरों' से दूरी बना लेते हैंए उनके विरूद्ध हिंसा को उचित मानने लगते हैं और ऐसी हिंसा में भागीदारी भी करने लगते हैं। भयातुर व उत्तेजित लोगए 'दूसरे समुदाय' की सांस्कृतिक व आस्थागत विभिन्नताओं को नज़रअंदाज करने लगते हैंए अपने समुदाय के अंदर के दमनकारी व शोषणकारी ढांचे से उनका ध्यान हट जाता है और 'दूसरे समुदाय' के अपनी तरह शोषित, दमित व हाशिए पर पड़े समूहों के साथ जुड़ने की बजाए वे उन लोगों के साथ हो लेते हैंए जो उनके शोषण व दमनकर्ता होते हैं। उत्तेजक भाषणों व आह्वानों से दूसरे समुदाय के साथ उनके सांझा मूल्यों और समानताओं को वे भूल जाते हैं व उनकी राजनैतिक चेतना 'हम' बनाम 'वो' तक सिमट जाती है। इस तरह की राजनैतिक चेतना, वर्चस्ववादी सांप्रदायिक श्रेष्ठि वर्ग के वर्चस्व को बनाए रखने में सहायक होती है और अपने समुदाय का शोषण व दमन करने के बाद भी वे प्रभावशाली बने रहते हैं। सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के बीज से वोटों की फसल उगती है और अन्य दूरगामी लाभ मिलते हैं।
तुलना की भ्रांति
आईआरएस का निर्माण धीरे.धीरे किया जाता है और उसे सुप्तावस्था में रखा जाता है। जब निहित स्वार्थों को ऐसा लगता है कि दंगे भड़काए जाने चाहिए, तब इस मशीनरी को सक्रिय किया जाता है। ऐसा करने का एक उद्देश्य होता है साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण कर चुनावों में लाभ पाना। इसलिएए पॉल ब्रास के अनुसार, दंगे 'चुनावों के आसपास करवाए जाते हैं' ताकि राजनैतिक संतुलन को बदला जा सके। आईआरएस इतनी शक्तिशाली होती है कि वह दो समुदायों के बीच सौहार्दपूर्ण रिश्तों को कटुता में बदल देती है और दोनों समुदायों के समझदार व परिपक्व लोगों की आवाज को दबा देती है। जब दंगे चुनावों के आसपास नहीं होतेए तब वे अक्सर भविष्य में की जाने वाली हिंसा की रिहर्सल होते हैं।
हिन्दू राष्ट्रवादी, योजनाबद्ध तरीके से भारत में दंगे करवाते रहे हैं और उनसे चुनावों में लाभान्वित होते रहे हैं। 1984 के सिक्ख.विरोधी दंगों और कंधमाल में 2008 की ईसाई.विरोधी हिंसा को छोड़कर, सन् 1970 के दशक के अंत तक जनसंघ और उसके बाद से भाजपा, साम्प्रदायिक हिंसा से चुनावों में लाभ उठाते रहे हैं। सिक्ख.विरोधी दंगों से भाजपा इसलिए लाभ नहीं उठा सकी क्योंकि ये दंगे कांग्रेस नेताओं के नेतृत्व में हुए थे और ओडिसा में भाजपा को इसलिए लाभ नहीं हुआ क्योंकि वहां के सबसे प्रभावशाली राजनैतिक दल, बीजू जनता दल से उसका गठबंधन समाप्त हो गया था। हिन्दू राष्ट्रवादी, साम्प्रदायिक हिंसा का इस्तेमाल अपने आधार को भौगोलिक व सामाजिक विस्तार देने के लिए करते आए हैं। वरना क्या कारण है कि दलितों के एक तबके ने हिन्दू राष्ट्रवादियों से हाथ मिला लिया है, जबकि हिन्दू राष्ट्रवादी कभी भी दलितों की बेहतरी व सामाजिक न्याय के लिए उठाए गए कदमों, जिनमें आरक्षण शामिल है, के कभी समर्थक नहीं रहे और वे दबे.छुपे ढंग से जातिप्रथा को भी औचित्यपूर्ण ठहराते रहे हैं।
कांग्रेस शासनकाल में हुए साम्प्रदायिक दंगों से जो साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण हुआ, उसका फायदा भी हिन्दू राष्ट्रवादियों को ही मिला। कांग्रेस सरकारों की गलती यह रही कि वे दंगों को रोकने व नियंत्रित करने में असफल रहीं और वह भी तब, जब प्रशासनिक मशीनरी ऐसा करने में पूर्णतः सक्षम थी। दंगों के बाद, कांग्रेस सरकारों ने दंगों की योजना बनाने वालों, उन्हें भड़काने वालों व हिंसा में भागीदारी करने वालों को सजा दिलवाने की कोशिश नहीं की। इससे हिन्दू राष्ट्रवादियों का हौसला बढ़ा और उन्होंने और बड़े पैमाने पर दंगे करवाने शुरू कर दिए। अगर हिन्दू राष्ट्रवादी दंगे करवाने के दोषी थे, तो कांग्रेस सरकारें उन्हें नियंत्रित न कर पाने के लिए जिम्मेदार थीं। कम से कम दो मौकों पर देश में सड़कों पर खुलेआम खूनखराबा हुआ और वह इसलिए संभव हो सका क्योंकि दंगाई और शासक एक ही पार्टी के थे। ये दो मौके थे सन् 1984 के सिक्ख.विरोधी दंगे और सन् 2002 का गुजरात कत्लेआम।
इस तरहए दंगों के लिए भाजपा व कांग्रेस की अभियोज्यता की तुलना इस आधार पर नहीं की जा सकती कि उनके शासनकालों में कितने दंगे हुए और उनमें कितने लोग मारे गए। कांग्रेस शासनकाल में हुए दंगों के लिए भी हिन्दू राष्ट्रवादी ही जिम्मेदार थे क्योंकि वे ही आईआरएस का निर्माण और संचालन करते थे। विभिन्न दंगा जांच आयोगों की रपटों से यह जाहिर होता है कि हिंदू राष्ट्रवादियों के आईआरएस ने दंगे भड़काने में कितनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। हिन्दू राष्ट्रवादियों के आईआरएस, विभिन्न स्थानों पर दंगाईयों की भर्ती करते हैं, उनके मन में जहर घोलते हैं और उत्तेजक भाषणों के जरिए लोगों को 'दूसरे' के विरूद्ध हिंसा करने के लिए उकसाते हैं।
जांच आयोगों के निष्कर्ष
देश में अब तक 31 बड़े साम्प्रदायिक दंगों की जांच न्यायिक जांच आयोगों द्वारा की गई है। इन आयोगों की रपटेंए विभिन्न राजनेताओं, विचारधाराओं और पुलिस की दंगों में भूमिका पर प्रकाश डालती हैं। कुछ जांच आयोगों ने स्पष्ट शब्दों में दंगों की योजना बनाने वालों व उन्हें अंजाम देने वालों को चिन्हित किया। जस्टिस श्रीकृष्ण आयोग, जिसने मुंबई में 1992.93 में हुए दंगों की जांच की थी, ने अपनी रपट में कहा कि दंगे, बाबरी मस्जिद के ढहाए जाने और उसका जश्न मनाकर मुसलमानों को भड़काने का नतीजा थे। आयोग ने अपनी रपट में कहा कि इसमें कोई संदेह नहीं कि आठ जनवरी 1993 के बाद से, शिवसेना और शिवसैनिकों ने दंगों का नेतृत्व संभाल लिया था। शाखा प्रमुख से लेकर शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे तक शिवसेना के संपूर्ण नेतृत्व ने लोगों को मुसलमानों पर हमला करने और उनकी संपत्ति को नुकसान पहुंचाने के लिए भड़काया। बाल ठाकरे ने एक दक्ष जनरल की तरह, अपने वफादार शिवसैनिकों के जरिए मुसलमानों पर सुनियोजित व संगठित हमले करवाए। गैर.आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, मुंबई दंगों में कम से कम दो हजार लोग मारे गए थे।
शिवसेना को 1969 में भिवंडी में भड़के दंगों के लिए भी जिम्मेदार ठहराया गया। जांच आयोग ने यह पाया कि शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे ने भिवंडी और उसके मुसलमान रहवासियों के बारे में ठाणे में 30 मई,1969 को आयोजित शिवसेना की एक आमसभा में अत्यंत भड़काऊ बातें कहीं। ठाकरे ने भिवंडी को दूसरा पाकिस्तान बताया और कहा कि वहां जिस तरह की घटनाएं हो रही हैं, वे इतनी शर्मनाक हैं कि उनकी चर्चा वे महिलाओं के सामने नहीं कर सकते। मादोन आयोग ने भिवंडी में 1969 में दंगे भड़काने के लिए निम्न संगठनों को दोषी ठहराया .आल इंडिया मजलिस तामीर.ए.मिल्लत की भिवंडी शाखा, 2. शिवसेना की भिवंडी शाखा, 3. भारतीय जनसंघ की भिवंडी शाखा, 4. भिवंडी सेवा समिति, 5. शिवसेना और भारतीय जनसंघ से जुड़ा राष्ट्रीय उत्सव मंडल व 6. हिन्दू महासभा। जलगांव में हुए साम्प्रदायिक दंगों के लिए मादोन आयोग ने अन्य कारणों के अतिरिक्त, जनसंघ और जनसंघ की जलगांव शाखा द्वारा नियंत्रित श्रीराम तरूण मंडल की साम्प्रदायिक गतिविधियों को दोषी ठहराया। जनसंघ की जलगांव शाखा और श्रीराम तरूण मंडल ने पूरे शहर में भड़काऊ होर्डिंग और पोस्टर लगवाए।
अहमदाबाद में सन् 1969 में हुए दंगों की जांच करने वाले जस्टिस पीजे रेड्डी आयोग ने अपनी रपट में कहा कि जगन्नाथ मंदिर में हुई घटना के पहलेए साम्प्रदायिक तनाव फैलाने के लिए जनसंघ, हिन्दू महासभा व साम्प्रदायिक हिन्दुओं द्वारा संचालित आंदोलन की महत्वपूर्ण भूमिका थी। आयोग ने कहा कि जनसंघ के कार्यकर्ताओं और साम्प्रदायिक मानसिकता वाले व्यक्तियों ने अफवाहें फैलाईं और प्रशासन इन अफवाहों का प्रभावी ढंग से खंडन करने में असफल रहा। अहमदाबाद के पुलिस आयुक्त ने आयोग के समक्ष अपने बयान में कहा कि भारतीय जनसंघ और अन्य साम्प्रदायिक संगठनों ने शहर में हिंसा की व अराजकता फैलाई। इस दंगे में 500 से अधिक व्यक्ति मारे गए थे।
उसी तरहए रघुवर दयाल आयोग, जिसने शोलापुर में 17 सितंबरए 1967 और अहमदनगर में 18 सितंबर, 1967 को हुए दंगों के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जनसंघ,हिन्दू महासभा, मजलिस.ए.मुशव्वरात, जमायते इस्लामी और मुस्लिम लीग को जिम्मेदार ठहराया। आयोग ने कहा कि इन संगठनों ने अपने राजनैतिक हितों की पूर्ति के लिए दंगे भड़काए।
जमशेदपुर में 1979 में हुए दंगों की जांच के लिए गठित जस्टिस नारायण आयोग ने पाया कि आरएसएस ने साम्प्रदायिक भावनाएं भड़काईं और गड़े मुर्दे उखाड़े। आयोग ने यह भी पाया कि आरएसएस की दंगे करवाने में भी भूमिका थी और उसका उद्धेश्यए उसकी राजनैतिक शाखाए जनसंघए को भविष्य में राजनैतिक लाभ पहुंचाना था।
आयोग ने पुलिस और प्रशासन को भी दंगों को नियंत्रित करने के प्रभावी कदम न उठाने का दोषी पाया। किसी भी आयोग ने कांग्रेस को साम्प्रदायिक घृणा फैलाने, साम्प्रदायिक भावनाएं भड़काने या दंगे करवाने का दोषी नहीं पाया। दंगों पर नियंत्रण के लिए प्रभावी कदम न उठाने से हिन्दू राष्ट्रवादियों को और बड़े पैमाने पर अधिकाधिक दंगे करवाने का मौका मिला। उसकी आईआरएस की क्षमता बढ़ी और वह अधिकाधिक कातिल होती गई।
कांग्रेस सरकारों को दंगों की योजना बनाने वालों और उन्हें करवाने वालों को सजा न दिलवाने की गलती के लिए माफ नहीं किया जा सकता। यदि दंगों के बाद प्रभावी अभियोजन होता तो आईआरएस समाप्त हो जाता। आईआरएस की मदद से हिन्दू राष्ट्रवादियों का भौगोलिक विस्तार हुआ और उनका प्रभाव दक्षिण भारत और आदिवासी व दलितों के एक हिस्से तक फैल गया। सन् 2002 के साम्प्रदायिक दंगों ने न केवल गुजरात में कांग्रेस को कमजोर किया वरन् अंततः इसका नतीजा यह हुआ कि सन् 2014 में भाजपा अपने बूते पर केन्द्र की सत्ता पर काबिज हो गई। आईआरएस अभी भी जीवंत और कार्यरत है और असहिष्णुता फैला रही है। हालांकि इस बारए नागरिक समाज, इस दैत्य का मुकाबला कर रहा है।
-इरफान इंजीनियर
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