115 साल पूर्व सन् 1901 में, भीमराव अंबेडकर का परिवार निचले परेल की डाबक चाल में स्थानांतरित हो गया था। उस समय भीमराव अंबेडकर की आयु मात्र 13 वर्ष की थी। उन्हें एल्फिंस्टन हाईस्कूल में बुरी तरह प्रताडि़त किया गया था और अवांछित घोषित कर एकांत में सबसे अलग, अछूत बनाकर पीछे की अंतिम बेंच पर बैठने के लिए विवश कर दिया गया था। उनकी तीक्ष्ण बुद्धि को उपेक्षित-बहिष्कृत किया गया। एक दिन कक्षा में अध्यापक ने जब अंबेडकर से कहा कि वे ब्लैकबोर्ड पर आकर एक प्रश्न हल करें तो इससे पहले कि वे ब्लैकबोर्ड के सामने खड़े हों कक्षा के सवर्ण विद्यार्थियों ने हंगामा कर दिया। सवर्णवाद के उत्तराधिकारी बच्चे अपना लंच टिफिन ‘बचाने’ के लिए ब्लैकबोर्ड के पास दौड़ पड़े क्योंकि उनका लंच टिफिन बॉक्स अंबेडकर की छाया से दूषित हो जाता। बहुत सारे स्कूलों में आज भी बच्चों का लंच टिफिन बॉक्स ब्लैकबोर्ड के पीछे रखा जाता है। लेकिन भीमराव अंबेडकर अपना लंच टिफिन बॉक्स कहाँ रखते?
जातीय उत्पीड़न और भेदभाव रोजमर्रा की बात हो चुकी है। यह किस तरह से भारतीय उच्च शिक्षा संस्थानों में भी घोषित रूप से व्याप्त है? इस प्रश्न का ऐतिहासिक उत्तर हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के पास है। प्रगतिशील छात्र फोरम के दौर में सन् 1990 में जब मण्डल कमीशन आंदोलन के समय सवर्ण जातियों का युद्ध चरम पर था तब प्रत्यक्ष रूप से अत्यंत चर्चित अंबेडकर स्टूडेंट एसोसिएशन (ए.एस.ए.) का जन्म हुआ था। यह वर्ष 2002 था जब चीफवार्डन, अप्पा राव (हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के वर्तमान कुलपति) ने विश्वविद्यालय के परिवेश में सवर्णवाद को स्थापित किया था। एक दलित कर्मचारी की हॉस्टल के मेस से छुट्टी कर दी गई। हम एक ‘अछूत’ को अपना भोजन कैसे ‘प्रदूषित’ करने दे सकते हैं ? उनके ‘सवर्ण स्थान’ पर केवल सफाई करने लायक एक व्यक्ति की नियुक्ति? उस समय दस विद्यार्थियों को निलंबित किया गया था।
कैम्पस के बाहर भी जातीय उत्पीड़न घोषित रूप से सर्वव्यापी है: दलित बच्चे स्कूलों में, दलित युवक-युवतियाँ विवाहों में, दलित समाज अपने मृतकों के अंतिम संस्कार तक में, हर कदम पर इस कुख्यात प्रताड़ना का सामना करता है। देश की पूरी लंबाई और चैड़ाई तक! बचे हुए भारत के, ‘गैरदलित’ और ‘सछूत’ लोगों को यह सब एक प्रश्न के साथ छोड़ देता है, क्या इस प्रश्न के साथ हम बहुत आराम और इत्मीनान के साथ बैठे रह सकते हैं? कैंपस में यह भेदभाव हिंसक और गंभीर अपराध बन जाता है। बीते हुए दशक में, हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के पास नौ छात्रों की आत्महत्याओं का रक्तरंजित रिकॉर्ड है जिनमें से आठ दलित छात्र थे। इन्हीं दस वर्षों के समानान्तर भारत के उच्च शिक्षण संस्थानों में, जिनमें आईआईटी और आईआईएम जैसी संस्थाएँ भी शामिल हैं, 23 दलित छात्रों ने आत्महत्या की है। 2007 में सुखदेव थोराट कमेटी के गठन के बावजूद भारतीय उच्च शिक्षण संस्थानों के बाहर या भीतर इन कारणों को ढूँढने के कोई सार्थक प्रयास नहीं हुए। कुछ संस्थाओं के बारे में ऐसा सुनने को मिला कि वहाँ ‘सामान्य’ (जो दलित नहीं है), ओबीसी और एससी/एसटी उम्मीदवारों के साक्षात्कारों के लिए अलग-अलग दिन रखे गए। नियुक्तियों को बड़े पैमाने पर यह झूठ प्रचारित करके रिक्त रखा जाता है कि कोई भी योग्य मेरिटधारी उम्मीदवार नहीं मिल रहा है। छात्रों पर
प्राध्यापकों का बड़ा दबाव रहता है कि वह उनसे अपना ‘पूरा’ नाम (जो कि जाति है) बताएँ।
रोहिथ वेमुला हमें कठिन सवालों के साथ छोड़ गया है। उसने उस छात्र संगठन (ए.एस.ए.) के झंडे से फाँसी लगाकर आत्महत्या की है जिसका वह प्रतिनिधित्व करता था। जिस पर अंबेडकर की एक तस्वीर थी। पुलिस ने रोहिथ की माँ और भाई के साथ उसके 500 साथियों और चाहने वालों को भी उसके अंतिम दर्शन करने और विदाई देने की भी आज्ञा नहीं दी कि वे रोहिथ के अंतिम संस्कार से पूर्व उसे अलविदा कह सकें। रोहिथ की मौत के लिए किसको जिम्मेदार ठहराया जाय? सांस्थानिक और सामाजिक दोनों छोरों को फौरी तौर पर कोंचने और उन्हें स्वीकार कराने की जरूरत है कि यह एक वृहद समाज की सामाजिक और राजनैतिक जिम्मेदारी है। रोहिथ ने आत्महत्या करने के एक माह पूर्व कथित तौर पर हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति को “प्रत्येक दलित छात्र के प्रवेश के समय उसके लिए 10 मिलीग्राम ‘सोडियम अजाइड’ (एक घातक रासायनिक विष)” और सभी दलित छात्रों के कमरे में “एक सुंदर मजबूत रस्सी” उपलब्ध कराने के लिए लिखा था। इस हस्तलिखित पत्र को एक प्रारम्भिक चिह्न के रूप में पढ़ना चाहिए कि क्या घटित होने वाला था। इस पत्र में कथित तौर पर रोहिथ (विश्वविद्यालय के कुलपति को) लिखता है कि “महामहिम मैं आपसे निवेदन करता हूँ कि मेरे जैसे छात्रों के लिए ‘इच्छामृत्यु’ की सुविधा प्रदान करने की तैयारी की जाय तथा मैं कामना करता हूँ कि आप और आपका कैंपस सदैव के लिए शांतिपूर्ण हो जाए।” यह सम्प्रेषण विश्वविद्यालय के
आधिकारिक प्रशासन तथा प्रत्यक्ष और प्रमुख रूप से कुलपति को चैतरफा घेरने वाला है। यह पत्र विश्वविद्यालय के अधिकारियों द्वारा दलित छात्रों के सामाजिक बहिष्कार की स्वीकृति को ढूँढ निकालता है जिसका कारण अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के एक छात्र नेता की उस बात पर दलित छात्रों द्वारा आपत्ति दर्ज करना था जो दलितों के विरुद्ध और उन्हें अपमानित करने वाली थी। “डोनाल्ड ट्रम्प भी तुम्हारे सामने कुछ नहीं है”, रोहिथ ने अप्पा राव से कहा जब उसने सभी दलित छात्रों को सोडियम अजाइड और रस्सी वितरित किए जाने की बात लिखी।
वैधानिक रूप से निलंबित छात्र की छात्रवृत्ति नहीं रोकी जा सकती जबकि रोहिथ की छात्रवृत्ति रोक दी गई थी। पाँच निलंबित दलित शोधार्थियों के मामले में हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय प्रशासन ने निश्चित रूप से छल-छद्म से काम लिया है और कागजी कार्यवाहियों में उन्हें उलझाया है। यह जुलाई 2015 से ही चालू था। इन्हीं पाँच दलित छात्रों को 4 जनवरी से इनके छात्रावास-कमरों से निकाल कर बाहर कर दिया गया और इन्हें खुले में रहकर आंदोलन करने पर मजबूर कर दिया गया था। आखिर ऐसा कौन सा पेंच कसा गया जिसने हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय प्रशासन, कुलपति, रजिस्ट्रार आदि को इन दलित छात्रों को प्रताडि़त करने की प्रेरणा दी?
नरेंद्र मोदी सरकार के एक केंद्रीय मंत्री बंडारू दत्तात्रेय ने इस पूरे मामले में खतरनाक रुचि दिखाई और मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी को अगस्त 2015 में एक पत्र लिखा, जिसमें इन दलित छात्रों को ‘चरमपंथी’, ‘जातिवादी’ और ‘राष्ट्रविरोधी’ गतिविधियों में संलिप्त बताकर इनके खिलाफ कार्रवाई करने की माँग की। यह हैदराबाद के भाजपा उपाध्यक्ष नंदानम दिवाकर द्वारा बंडारू दत्तात्रेय को लिखे जाने के सात दिन बाद हुआ। इधर जबसे सरकार के मंत्रीगण इस पूरे मामले को जातिगत आधार पर खाारिज करने के लिए मीन-मेख कर रहे हैं (20 जनवरी को हुई स्मृति ईरानी की प्रेस कॉन्फ्रेंस), दत्तात्रेय ओबीसी बन गए हैं। यह अगस्त 2015 के बाद हुआ जब मानव संसाधन विकास मंत्री के अधीनस्थ कर्मचारी पूरी तरह सक्रिय होकर हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय प्रशासन को लगातार पाँच पत्र लिखते हैं और निर्देश देते हैं कि विश्वविद्यालय प्रशासन इन पाँच दलित छात्रों पर कार्यवाही करे। मानव
संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा प्रथम पत्र (अंडरसेकेट्री द्वारा हस्ताक्षरित) 3 सितंबर को, दूसरा 24 सितंबर को (डिप्टीसेकेट्री द्वारा हस्ताक्षरित), तीसरा 6 अक्तूबर को (उसी डिप्टीसेकेट्री द्वारा हस्ताक्षरित), चैथा 20 अक्तूबर को (संयुक्तसचिव द्वारा हस्ताक्षरित) भेजा गया। अंत में निर्णायक पत्र 20 नवंबर को भेजा गया जिस पर समान सचिव के हस्ताक्षर हैं। क्या नौकरशाही के सदस्यों को ऐसे ही कार्य-प्रदर्शन करना चाहिए जो नियुक्त होने से पूर्व संविधान की रक्षा करने की शपथ लेते हैं? रोहिथ की मृत्यु की कोई भी जाँच यदि होती है तो यह सारे कारक तथ्य प्रभावी होंगे कि इन सारे महत्वपूर्ण पदों पर कौन से स्त्री-पुरुष कार्यरत हैं।
तत्काल ही चार अन्य दलित छात्रों का निलंबन वापस लिया जाना चाहिए। अब इनके खिलाफ दर्ज किए गए सारे झूठे मुकदमे भी वापस लिए जाएँ और यथोचित मुआवजा दिया जाय। रोहिथ के परिवार को रोजगार अवश्य दिया जाय। इस सारे दुरूख और आहत भावनाओं के क्षणों के परे, कैसे भी, व्यक्तिगत, सांस्थानिक और सामाजिक रूप से हमें चाहिए कि हम भारत की छुपी-ढकी स्थितियों को स्वीकार कर लें। असहज करने वाले प्रश्न पूछें। निरी अबौद्धिकता, विभाजनकारी जातिवादी संरचना पर सवाल खड़े किए जाएँ। हम किस तरह का इतिहास पढ़ाएँ? हमारे नायक-नायिका कौन हैं? मीडिया में कितने दलित हैं? प्रिंट और टेलीविजन मीडिया दोनों में? सत्ता और शक्ति की संस्थाओं में कितने दलित हैं? यह दबाव सवर्ण भारत पर है, सवर्ण भारत! जो आराम से अपनी सवर्ण जाति के साथ रह रहा है, यहाँ तक कि यदि वे इसे सक्रियता के साथ याद न भी रखें। उस दार्शनिक बोध में यह आरोप हम सब पर है।
-तीस्ता सीतलवाड़
अनुवादक: संतोष अर्श
जातीय उत्पीड़न और भेदभाव रोजमर्रा की बात हो चुकी है। यह किस तरह से भारतीय उच्च शिक्षा संस्थानों में भी घोषित रूप से व्याप्त है? इस प्रश्न का ऐतिहासिक उत्तर हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के पास है। प्रगतिशील छात्र फोरम के दौर में सन् 1990 में जब मण्डल कमीशन आंदोलन के समय सवर्ण जातियों का युद्ध चरम पर था तब प्रत्यक्ष रूप से अत्यंत चर्चित अंबेडकर स्टूडेंट एसोसिएशन (ए.एस.ए.) का जन्म हुआ था। यह वर्ष 2002 था जब चीफवार्डन, अप्पा राव (हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के वर्तमान कुलपति) ने विश्वविद्यालय के परिवेश में सवर्णवाद को स्थापित किया था। एक दलित कर्मचारी की हॉस्टल के मेस से छुट्टी कर दी गई। हम एक ‘अछूत’ को अपना भोजन कैसे ‘प्रदूषित’ करने दे सकते हैं ? उनके ‘सवर्ण स्थान’ पर केवल सफाई करने लायक एक व्यक्ति की नियुक्ति? उस समय दस विद्यार्थियों को निलंबित किया गया था।
कैम्पस के बाहर भी जातीय उत्पीड़न घोषित रूप से सर्वव्यापी है: दलित बच्चे स्कूलों में, दलित युवक-युवतियाँ विवाहों में, दलित समाज अपने मृतकों के अंतिम संस्कार तक में, हर कदम पर इस कुख्यात प्रताड़ना का सामना करता है। देश की पूरी लंबाई और चैड़ाई तक! बचे हुए भारत के, ‘गैरदलित’ और ‘सछूत’ लोगों को यह सब एक प्रश्न के साथ छोड़ देता है, क्या इस प्रश्न के साथ हम बहुत आराम और इत्मीनान के साथ बैठे रह सकते हैं? कैंपस में यह भेदभाव हिंसक और गंभीर अपराध बन जाता है। बीते हुए दशक में, हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के पास नौ छात्रों की आत्महत्याओं का रक्तरंजित रिकॉर्ड है जिनमें से आठ दलित छात्र थे। इन्हीं दस वर्षों के समानान्तर भारत के उच्च शिक्षण संस्थानों में, जिनमें आईआईटी और आईआईएम जैसी संस्थाएँ भी शामिल हैं, 23 दलित छात्रों ने आत्महत्या की है। 2007 में सुखदेव थोराट कमेटी के गठन के बावजूद भारतीय उच्च शिक्षण संस्थानों के बाहर या भीतर इन कारणों को ढूँढने के कोई सार्थक प्रयास नहीं हुए। कुछ संस्थाओं के बारे में ऐसा सुनने को मिला कि वहाँ ‘सामान्य’ (जो दलित नहीं है), ओबीसी और एससी/एसटी उम्मीदवारों के साक्षात्कारों के लिए अलग-अलग दिन रखे गए। नियुक्तियों को बड़े पैमाने पर यह झूठ प्रचारित करके रिक्त रखा जाता है कि कोई भी योग्य मेरिटधारी उम्मीदवार नहीं मिल रहा है। छात्रों पर
प्राध्यापकों का बड़ा दबाव रहता है कि वह उनसे अपना ‘पूरा’ नाम (जो कि जाति है) बताएँ।
रोहिथ वेमुला हमें कठिन सवालों के साथ छोड़ गया है। उसने उस छात्र संगठन (ए.एस.ए.) के झंडे से फाँसी लगाकर आत्महत्या की है जिसका वह प्रतिनिधित्व करता था। जिस पर अंबेडकर की एक तस्वीर थी। पुलिस ने रोहिथ की माँ और भाई के साथ उसके 500 साथियों और चाहने वालों को भी उसके अंतिम दर्शन करने और विदाई देने की भी आज्ञा नहीं दी कि वे रोहिथ के अंतिम संस्कार से पूर्व उसे अलविदा कह सकें। रोहिथ की मौत के लिए किसको जिम्मेदार ठहराया जाय? सांस्थानिक और सामाजिक दोनों छोरों को फौरी तौर पर कोंचने और उन्हें स्वीकार कराने की जरूरत है कि यह एक वृहद समाज की सामाजिक और राजनैतिक जिम्मेदारी है। रोहिथ ने आत्महत्या करने के एक माह पूर्व कथित तौर पर हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति को “प्रत्येक दलित छात्र के प्रवेश के समय उसके लिए 10 मिलीग्राम ‘सोडियम अजाइड’ (एक घातक रासायनिक विष)” और सभी दलित छात्रों के कमरे में “एक सुंदर मजबूत रस्सी” उपलब्ध कराने के लिए लिखा था। इस हस्तलिखित पत्र को एक प्रारम्भिक चिह्न के रूप में पढ़ना चाहिए कि क्या घटित होने वाला था। इस पत्र में कथित तौर पर रोहिथ (विश्वविद्यालय के कुलपति को) लिखता है कि “महामहिम मैं आपसे निवेदन करता हूँ कि मेरे जैसे छात्रों के लिए ‘इच्छामृत्यु’ की सुविधा प्रदान करने की तैयारी की जाय तथा मैं कामना करता हूँ कि आप और आपका कैंपस सदैव के लिए शांतिपूर्ण हो जाए।” यह सम्प्रेषण विश्वविद्यालय के
आधिकारिक प्रशासन तथा प्रत्यक्ष और प्रमुख रूप से कुलपति को चैतरफा घेरने वाला है। यह पत्र विश्वविद्यालय के अधिकारियों द्वारा दलित छात्रों के सामाजिक बहिष्कार की स्वीकृति को ढूँढ निकालता है जिसका कारण अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के एक छात्र नेता की उस बात पर दलित छात्रों द्वारा आपत्ति दर्ज करना था जो दलितों के विरुद्ध और उन्हें अपमानित करने वाली थी। “डोनाल्ड ट्रम्प भी तुम्हारे सामने कुछ नहीं है”, रोहिथ ने अप्पा राव से कहा जब उसने सभी दलित छात्रों को सोडियम अजाइड और रस्सी वितरित किए जाने की बात लिखी।
वैधानिक रूप से निलंबित छात्र की छात्रवृत्ति नहीं रोकी जा सकती जबकि रोहिथ की छात्रवृत्ति रोक दी गई थी। पाँच निलंबित दलित शोधार्थियों के मामले में हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय प्रशासन ने निश्चित रूप से छल-छद्म से काम लिया है और कागजी कार्यवाहियों में उन्हें उलझाया है। यह जुलाई 2015 से ही चालू था। इन्हीं पाँच दलित छात्रों को 4 जनवरी से इनके छात्रावास-कमरों से निकाल कर बाहर कर दिया गया और इन्हें खुले में रहकर आंदोलन करने पर मजबूर कर दिया गया था। आखिर ऐसा कौन सा पेंच कसा गया जिसने हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय प्रशासन, कुलपति, रजिस्ट्रार आदि को इन दलित छात्रों को प्रताडि़त करने की प्रेरणा दी?
नरेंद्र मोदी सरकार के एक केंद्रीय मंत्री बंडारू दत्तात्रेय ने इस पूरे मामले में खतरनाक रुचि दिखाई और मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी को अगस्त 2015 में एक पत्र लिखा, जिसमें इन दलित छात्रों को ‘चरमपंथी’, ‘जातिवादी’ और ‘राष्ट्रविरोधी’ गतिविधियों में संलिप्त बताकर इनके खिलाफ कार्रवाई करने की माँग की। यह हैदराबाद के भाजपा उपाध्यक्ष नंदानम दिवाकर द्वारा बंडारू दत्तात्रेय को लिखे जाने के सात दिन बाद हुआ। इधर जबसे सरकार के मंत्रीगण इस पूरे मामले को जातिगत आधार पर खाारिज करने के लिए मीन-मेख कर रहे हैं (20 जनवरी को हुई स्मृति ईरानी की प्रेस कॉन्फ्रेंस), दत्तात्रेय ओबीसी बन गए हैं। यह अगस्त 2015 के बाद हुआ जब मानव संसाधन विकास मंत्री के अधीनस्थ कर्मचारी पूरी तरह सक्रिय होकर हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय प्रशासन को लगातार पाँच पत्र लिखते हैं और निर्देश देते हैं कि विश्वविद्यालय प्रशासन इन पाँच दलित छात्रों पर कार्यवाही करे। मानव
संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा प्रथम पत्र (अंडरसेकेट्री द्वारा हस्ताक्षरित) 3 सितंबर को, दूसरा 24 सितंबर को (डिप्टीसेकेट्री द्वारा हस्ताक्षरित), तीसरा 6 अक्तूबर को (उसी डिप्टीसेकेट्री द्वारा हस्ताक्षरित), चैथा 20 अक्तूबर को (संयुक्तसचिव द्वारा हस्ताक्षरित) भेजा गया। अंत में निर्णायक पत्र 20 नवंबर को भेजा गया जिस पर समान सचिव के हस्ताक्षर हैं। क्या नौकरशाही के सदस्यों को ऐसे ही कार्य-प्रदर्शन करना चाहिए जो नियुक्त होने से पूर्व संविधान की रक्षा करने की शपथ लेते हैं? रोहिथ की मृत्यु की कोई भी जाँच यदि होती है तो यह सारे कारक तथ्य प्रभावी होंगे कि इन सारे महत्वपूर्ण पदों पर कौन से स्त्री-पुरुष कार्यरत हैं।
तत्काल ही चार अन्य दलित छात्रों का निलंबन वापस लिया जाना चाहिए। अब इनके खिलाफ दर्ज किए गए सारे झूठे मुकदमे भी वापस लिए जाएँ और यथोचित मुआवजा दिया जाय। रोहिथ के परिवार को रोजगार अवश्य दिया जाय। इस सारे दुरूख और आहत भावनाओं के क्षणों के परे, कैसे भी, व्यक्तिगत, सांस्थानिक और सामाजिक रूप से हमें चाहिए कि हम भारत की छुपी-ढकी स्थितियों को स्वीकार कर लें। असहज करने वाले प्रश्न पूछें। निरी अबौद्धिकता, विभाजनकारी जातिवादी संरचना पर सवाल खड़े किए जाएँ। हम किस तरह का इतिहास पढ़ाएँ? हमारे नायक-नायिका कौन हैं? मीडिया में कितने दलित हैं? प्रिंट और टेलीविजन मीडिया दोनों में? सत्ता और शक्ति की संस्थाओं में कितने दलित हैं? यह दबाव सवर्ण भारत पर है, सवर्ण भारत! जो आराम से अपनी सवर्ण जाति के साथ रह रहा है, यहाँ तक कि यदि वे इसे सक्रियता के साथ याद न भी रखें। उस दार्शनिक बोध में यह आरोप हम सब पर है।
-तीस्ता सीतलवाड़
अनुवादक: संतोष अर्श
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