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| इप्टा के सचिव राकेश से लोकसंघर्ष पत्रिका के प्रबंध संपादक रणधीर सिंह सुमन |
भाजपा और आरएसएस में भारतीय व राष्ट्रीय
लगा जरूर होता है लेकिन कोई भारतीय या राष्ट्रीय उनकी सोच और समझ है नहीं. देखा जाए तो इसके बहुत सारे प्रमाण हैं इसके प्रमाण चाहे गोलवलकर के हो, चाहे इटली में मुसोलिनी से मिलना हो, चाहे हिटलर का राष्ट्रवाद हो उसका टू कॉपी (उसकी प्रतिलिपि) अब तो फोटोकॉपी का ज़माना है जो हिटलर का नाजीवाद है वही इनकी हिन्दू संस्कृति है. यह कभी किसी रूप में फिर किसी अन्य रूप में परिभाषित करते हैं. हिटलर के लिए यहूदी नंबर एक के दुश्मन थे. दूसरे नंबर पर कम्युनिस्ट थे. तीसरे पढने लिखने वाले और विवेक की कैफियत रखने वाले लोग उनके दुश्मन थे. उनकी तर्ज पर यहाँ यहूदी नहीं हैं तो मुसलमान नंबर एक पर है और कम्युनिस्ट. संसदीय लोग हों, कम्युनिस्ट जीते या न जीते लेकिन यहाँ और वहां भी यह किया था कि तर्क व बड़ा विवेक मार्क्सवाद ने तैयार किया है इसलिए वह इनके स्वाभाविक रूप से विरोधी हैं.
यह उनकी सोची समझी रणनीति का हिस्सा है. वह अपने क्रियाकलापों को अंजाम देने के लिए नए-नए नारे गढ़ते रहते हैं. सबसे पहले यह 1925 से शुरुवात करते हैं राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की सोच आजादी की लड़ाई के लिए नहीं थी और वीर सावरकर आजादी की लड़ाई में फंसे और अटल 16 साल की उम्र में. इसके दस्तावेज हैं कि इन दोनों लोगों ने उस समय की अंग्रेज हुकूमत से माफ़ी मांगी थी.
उनकी कोशिश है कि अब दोनों को आजादी का महान योद्धा माना जाए. वीर सावरकर ने जो संकल्प लेकर घोषणा की थी कि ब्रिटिश सरकार का सहयोग करेंगे वह उनके नायक हैं. उनको भी स्थान दिया जा चुका है. यह उनकी एक सोची समझी नीति है. आजादी के बाद उन्होंने पहला निशाना 1948 में गाँधी को बनाया और नेहरु भी उस वक्त खुले में घूमते थे और धर्म विरोधी थे. जितना गाँधी धर्म को मानते थे हिन्दू धर्म और वर्णाश्रम को भी मानते थे लेकिन ऐसा आदमी सांप्रदायिक नहीं था इसीलिए उन्हें निशाना बनाया. दुबारा फिर करवट बदली और संघियों ने गौरक्षा और गौहत्या को मुद्दा बनाया. फिर मुद्दे की तलाश में राम जन्म भूमि का मुद्दा मिला. इसके लिए वह शुरू से काम कर रहे थे. वह लोगों के मन की नियत को पकड़ने की कोशिश की. उन्होंने सरस्वती शिशु मंदिर खोले और साम्प्रदायिक शिक्षा की शुरुवात की. यह सारा काम करते हुए समाज में राजनीतिक पैठ नहीं बन पा रही थी. 1966 के बाद कांग्रेस से मोह भंग होने के बाद भी उनको राजनीतिक मान्यता नहीं मिल पाई. 1975 आपातकाल लागू हुआ तब जेपी के साथ उन्होंने एक रिस्क लिया कि उन्होंने अस्मिता पर दांव लगा दिया. उन्होंने खुद को जनता पार्टी के रूप में अपने अस्तित्व का विलय कर दिया. जब उनकी पैठ सब जगह हो गयी तो उनका पहला राजनैतिक बड़ा अस्तित्व था और उसके बाद जनता दल और जनता पार्टी के विघटन जब तो गया तब 1989 तक आते आते उनका राजनीतिक अस्तित्व सीमित रहा.
राम जन्म भूमि को मुद्दे को एक बड़े मुद्दे के रूप में उछाला और वहां से उग्र हिन्दुवाद जो शुरू किया उसकी परिणीती 2014 के पहले मोदी गुजरात में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण किया और जो कामकाज हुआ और फिर मोदी के समर्थन में पूरा कारपोरेट जगत, मीडिया जुटा और प्रधानमंत्री बना दिया और अब नये नारों की तलाश में निकले हैं. अब धर्म के मुद्दे और राम के मुद्दे अब उनके लिए बासी हो चुके हैं और ऐसी ताकतें भी चाहे अनचाहे जुड़ जाती हैं जो उनके साथ नहीं होनी चाहिए. कट्टर सांप्रदायिक विरोधी भी उनके साथ रिश्ता बना लेते हैं.
हिटलर का फासीवाद जहाँ से पकड़ा उनको राष्ट्रवाद का नया सूत्र मिला और जो भी है उसे उग्र से उग्र कर रहे हैं. जो इसमें विरोध में तर्क करता है उसपर हमलावर होते हैं जो वर्षों वर्ष में जो तमाम संस्थाएं, विश्व विद्यालय आदि को नष्ट करने का काम कर रहे हैं जिसमें तमाम संस्थाओं में जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय एक बड़ा उदहारण है इस हमले में यद्यपि हिन्दू संस्कृति के सबसे ख़राब पक्ष वो लेते हैं जो पक्ष इस देश के दलितों आदिवासियों के विरोध में रहता है उसमें अम्बेडकर को भी सम्मिलित करने, शहीद भगत सिंह व विवेकानंद को भी समायोजित करते हैं जबकि यह सब धार्मिक कट्टरता के प्रबल विरोधी रहे हैं. यह उनकी आगे की रणनीति का हिस्सा है. अब जितने लोग तर्क और विवेक से मुकाबला करेंगे. यह बड़ी लड़ाई होगी और जहाँ ये एक राजनैतिक लड़ाई से ज्यादा सांस्कृतिक लड़ाई होगी जो एक मैदान से ज्यादा लोगों के दिमागों में लड़ी जा रही है.
-इप्टा के सचिव राकेश से लोकसंघर्ष पत्रिका के प्रबंध संपादक रणधीर सिंह सुमन व विनय कुमार सिंह की बातचीत के आधार पर

1 टिप्पणी:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (28-03-2016) को "होली तो अब होली" (चर्चा अंक - 2293) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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