राजनीति के बारे में साधारण
प्रकार की चर्चाएं अक्सर दृष्ट की परिधि में ही सीमित होती है और इसीलिये हमेशा
दृष्ट के भ्रम के रोग से ग्रसित रहने के लिये अभिशप्त भी होती है । यह रोग
राजनीतिज्ञों के लिये उनके व्यक्तित्वों को बेहद बौना, उनके चरित्र को लोभी और
राजनीति की चालू भाषा में सामयिक लाभ के पीछे भागने वाला सबसे घृणित तुच्छ प्राणी, दलबदलू
बना देता है । जीवन के विशाल समुद्र में 'बहती गंगा में हाथ धोने' जितनी
मामूली वासना के साथ जीने वाला लालची जीव !
आम तौर पर राजनीतिज्ञों का
निजी रोग समझी जाने वाली यह बीमारी जब किसी पूरे के पूरे राजनीतिक दल को ही लग जाए
और उसकी राजनीति नाली में लोटने-पोटने वाले ऐसे नाचीज तत्वों को ही बटोर कर लाने
में लगी हुई दिखाई देने लगे तो उस पूरी राजनीति का अपना चरित्र क्या होगा, इसे यदि
बिल्कुल प्रत्यक्ष और ठोस रूप में देखना हो तो आज की मोदी-शाह जोड़ी की राजनीति को
देखा जा सकता है ।
मोदी जी के लिये तो जो
दिखाई दे, वही
राजनीति का परम सत्य है । आडवाणी ने उन्हें उस्ताद 'इवेंट मैनेजर' कहा ही
था । इसीलिये राजनीति में वे अपना सबसे प्रमुख काम यही समझते हैं कि पैसों के
जरिये या सत्ता के जरिये उन सब ठिकानों पर अपना कब्जा जमाओ, जिनसे
प्रदर्शन किये जाते हैं — आत्म-प्रदर्शन । उन्होने सिर्फ भारत के मीडिया पर ही अपनी जकड़बंदी
नहीं की, बल्कि
अपनी दनादन विदेश यात्राओं को भी कूटनीतिक लक्ष्यों को साधने के बजाय विदेशी
लोकेशन पर शूटिंग का जरिया बना लिया । दुनिया के बड़े-बड़े नेताओं से गलबहियों के
अलावा धरती के हर कोने से मोदी-मोदी की गूंज-अनुगूंज को सुनिश्चित करने वाले आयोजन
करायें । इसका भारत पर प्रभाव यह पड़ा कि यहां मोदी-मंत्र के जाप से पहले से ही भारी
हवा में इस शोर का प्रदूषण सातवें आसमान पर पहुंच गया ।
इस प्रकार तीनों लोकों में
अपनी सर्वव्यापी ईश्वरीय उपस्थिति की छंटा बिखेर कर औरों को तो छोड़िये, चंद
महीनों पहले इसी मोदी को धूल चटा कर आए नीतीश कुमार जैसे नेता को भी मोदी का भूत
सताने लगा । 'कौन है जो
इस परम पिता परमेश्वर का मुकाबला करेगा !' और भी दलों के
सत्ता-लोलुपों की भीड़ इस परमेश्वर के मंदिर द्वारा आयोजित कंगाली भोजन में जीभ
लपलपाते जुटने लगी और इस नये एकेश्वरवाद के जयकार के नारे और भी गूंजायमान हो गये
।
और, भारत में सतह पर बैठा आम
आदमी इसी चकरघिन्नी में अपने घर की स्त्रियों तक के सालों के जमा धन को बैंकों को
सौंप कर रोते-तड़पते हुए ही क्यों न हो इसी कीर्तन मंडली में शामिल हो गया — जैसे आज
भी बलात्कारी गुरमीत के भक्त कहते हैं कि हमने अपनी बेटी को उस भगवान के सुपुर्द
कर दिया था, उसने
उसके साथ जो भी किया अच्छे के लिये ही किया होगा ; बाबा जी की जय हो, बाबा जी
महान है !
किसी भी ठोस और चाक्षुस चीज
को लेकर जितना भी कोई 'अनादि-अनंत' वाली छंटा क्यों न बनाये, कुछ प्रकृति के अपने नियम के अनुसार ही, और बहुत
कुछ इस कोरी छटा के अपने छद्म और धुए की मात्रा के कारण ही बहुत तेजी के साथ, बल्कि एक
विस्फोट की शक्ल में उस चीज के अपना बिना कोई चिन्ह छोड़ो हवा में काफूर होने में
ज्यादा वक्त नहीं लगता है । इतिहास में इसे ही संयोग का बिंदु कहा जाता है । जमा
हो रहे अंतर्विरोधों के विस्फोट का बिंदु ; जितनी तेजी से ये अंतर्विरोध
पनपते हैं, उतनी ही
तेजी से उस घटना-चक्र का अंत भी हो जाता है । और यह बहुत कुछ खुद उसके अपने अंतर
के सार-तत्व की प्रकृति के कारण ही होता है ।
हेगेल के दर्शनशास्त्र में
इसे कुछ इस प्रकार निरूपित किया गया है कि किसी के भी सार-तत्व के तल को पूर्ण
प्रत्यावर्तन (total
recoil) के जरिये ही किसी विचार में निरूपित करना संभव होता है । प्राणी के
सार तत्व को उसके आत्म के प्रत्येक आंशिक स्वरूप के जरिये भी समान रूप से पाया जा
सकता है । हमारे यहां अभिनवगुप्त का प्रत्यभिज्ञादर्शन भी अन्तरजगत के अन्वेषण के
इसी पूर्ण प्रत्यावर्तन का दर्शन है, जिसमें 'यथा पिण्डे तथा ब्रह्मांडे' के तत्व
के जरिये यही बताया गया है कि जो प्रथम पुरूष है, परमार्थतः वही उत्तम पुरुष
भी है । मूल चरित्र ही उसकी सभी गतिविधियों में स्फुरित होता है ।
इसीलिये जो सिर्फ
घटना-विशेष के शोर में खोये हुए सतह में ही अटके रह जाते हैं, समय के
साथ सोचने की अपनी शक्ति को गंवा कर और बौने से बौने, गुलाम सरीखे हो जाते हैं, बाबा के
भक्तों की मानिंद । वे कभी भी अब तक प्रकट यथार्थ का रूप न ले पाने वाले लक्षणों
के संकेतों को पढ़ना तो दूर, उन पर सोच भी नहीं पाते हैं । लेकिन जो इन संकेतों को पढ़ पाते हैं
वे द्वंद्ववाद के पहले नियम के अनुसार ही इतना तो अच्छी तरह से जानते हैं कि कोई
भी पक्ष बिना विपक्ष की मौजूदगी के खुद अपनी मौजूदगी के लिये भी वैद्यता हासिल
नहीं कर सकता है । इसीलिये, 'मोदी का विकल्प कहां है' की तरह के सवाल उठाने वाला व्यक्ति राजनीति का कोई
अधम प्राणी ही हो सकता है, एक सत्ता-लोलुप बौना चरित्र, जैसे बिहार का नीतीश कुमार
या राम रहीम के सेवादार । यह इनके चरित्र के तल का उन्मोचन है ।
अब एक इसी अगस्त महीने के
अंतिम एक हफ्ते का घटना-क्रम देखिये, यह समझते देर नहीं लगेगी कि जो थोड़ी से सत्ता
पाकर अपने को त्रिलोकीनाथ मान अनादि-अनंत काल तक का राजा समझ लेने का घमंड दिखाने
लगते हैं, वे
वास्तव में अपने घमंड के अनुपात में ही कितनी कमजोर बालूई जमीन पर खड़े होते हैं ।
मोदी शासन का अब तक का रंग-ढंग अपने सारे छल-छद्म के बीच से ही, कुछ ऐसा
रहा है जैसे ये दुनिया की इस एक प्राचीनतम सभ्यता के देश, भारतवर्ष
के लोगों की अब तक की यात्रा के सारे निशानों को ही मिटा डालेंगे । ये यहां के
लोगों के जीने के अधिकार को ही अपनी मुट्ठी में ले लेने पर आमादा दिखाई देता हैं ।
और जैसा कि हमने पहले ही चर्चा की है, इसे इनकी कोरी तात्कालिक सनक नहीं मानना चाहिए, यह इनके
समग्र चरित्र का और अब इनके अंत का भी एक दिग्दर्शन है । हम यहां किंचित विस्तार
से अकेले इस एक हफ्ते की घटनाओं के संकेतों को पढ़ने की कोशिश करेंगे, इनकी
सारी सीमाएं और संभावनाएं स्वतः सबके सामने आ जायेगी ।
इस एक हफ्ते के सारे
घटनाक्रम से ही ऐसा लगता है जैसे अब भारतीय राजनीति का यह 'गाय, गोबर, गोमूत्र, बीफ, बाबावाद, लव जेहाद, लींचिग
और 'देशभक्ति' के शोर
के युग के सारे लक्षण बिल्कुल प्रकट रोग के रूप में सामने आने लगे हैं और राष्ट्र
के अस्तित्व के लिये ही इनका यथाशीघ्र इलाज करना जरूरी ही नहीं, शुरू भी
हो चुका है ।
इस हफ्ते सुप्रीम कोर्ट का
पहला फैसला आया मुस्लिम धार्मिक कट्टरपंथ पर एक तमाचा जड़ने वाला तीन तलाक का
फैसला । मुस्लिम कट्टरपंथ उसी दकियानूसी सोच के सिक्के का दूसरा पहलू है जो राजनीति
में अभी के उपरोक्त 'गोबरवाद' के रूप
में छाया हुआ दिखाई देता है — कह सकते हैं देश भर को कांग्रेस-विहीन बनाने के नाम पर गोबर और मूत्र
से लीप देने का वाद । मुस्लिम कट्टरपंथ इसी के लिये खाद का काम करता रहा है ।
सुप्रीम कोर्ट ने उनकी इस औरत-विरोधी सामाजिक प्रथा को अतार्किक स्वेच्छाचार घोषित
करके गैर-कानूनी करार दिया है ; इस प्रथा का पालन अब कानूनन अपराध होगा ।
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले
पर प्रधानमंत्री मोदी ने तो खुशी जताई । पिछले दिनों यूपी चुनाव के मौके पर वे इसे
जिस प्रकार जोर-शोर से उछाल रहे थे, उस पर लगी वैद्यता की मोहर के जरिये उन्होंने अपनी राजनीति का झंडा
भी लहराने की कोशिश की । लेकिन आम तौर पर भाजपा और आरएसएस के नेता इस पर लगभग चुप
ही रहे । उनके लिये यह मसला मुसलमानों को लगातार लांक्षित और अपमानित करने का
मुद्दा था, और
इसीलिये वे इसे पूरी ताकत से पीट रहे थे । वे यह कल्पना ही नहीं कर पा रहे थे कि
अपनी पीनक में 'हिंदुत्व
को जीने का एक तरीका'
बता देने वाला सुप्रीम कोर्ट इस विषय में भारतीय संविधान के मूलभूत
विवेक, मनुष्यों
की मर्यादा की रक्षा के पक्ष में खड़ा हो जायेगा ।
भारतीय संविधान में नागरिक संहिताओं
के बारे में यह मूलभूत समझ है कि यह किसी न किसी प्रकार से इस समाज के धर्मीय
वैविध्य से जुड़ी हुई है और इसलिये इसमें चली आ रहे रीति-रिवाजों, अलग-अलग
प्रथाओं से जल्दबाजी में अनावश्यक छेड़-छाड़ करने की जरूरत नहीं है । लेकिन तीन
तलाक का मसला अपने एक अजीब से बेहूदा आदिमपन के चलते देखते-देखते मुस्लिम महिलाओं
की अस्मिता से जुड़ा उनके सम्मान-बोध का मसला बन गया था । खुद मुस्लिम पर्सनल लॉ
बोर्ड के पास इसके खिलाफ इतने आवेदन थे कि उन्होंने ही इसे जल्द बदल डालने की
कसमें खानी शुरू कर दी थी । कहना न होगा, सुप्रीम कोर्ट का फैसला मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड
को इस सही दिशा में बढ़ने में सहायक होगा ।
और इसी आधार पर कहा जा सकता
है कि समाज के सभी स्तरों पर पोंगापंथ के अग्रदूत आरएसएस की तरह के धार्मिक
कट्टरपंथियों के लिये यह फैसला किसी बड़े धक्के से कम नहीं है । इसीलिये
कट्टरपंथियों के इस पूरे परिवार को तीन तलाक पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने काफी
चिंतित कर दिया है क्योंकि कोई भी आंखों वाला आदमी इतना तो देख ही सकता है कि इससे
अभी की 'गाय, गोबर, गोमूत्र...' को भी
न्यायपालिका की ऐसी अनेक चपतें लग सकती है !
इसने फिर एक बार इतना तो
बता ही दिया है कि केंद्र में किसी प्रकार सत्ता पा लेने के बावजूद भारतीय राज्य
का संवैधानिक ढांचा ऐसा है कि इसके किसी भी एक अंग के लिये पूरी राजसत्ता को अपनी
जकड़बंदी में लेना उतना आसान नहीं है । इसके पहले दो साल पहले ही, अक्तूबर
महीने में 'नेशनल
ज्यूडिशियल ऐपोयंटमेंट्स कमीशन' (एनजेएसी) के जरिये जजों की नियुक्ति में कार्यपालिका, अर्थात
सरकार की प्रमुख भूमिका को तय करने के लिये कॉलेजियम के मामले में मोदी-जेटली की
तख्ता-पलट की कोशिशों को सुप्रीम कोर्ट ने सही भाप कर उसे एक सिरे से खारिज करके
अपनी दूरदर्शिता का परिचय दिया था । उस समय लेखकों द्वारा पुरस्कारों को लौटाने का
दौर चल रहा था । तभी हमें याद है कि सुप्रीम कोर्ट के एनजेएसी के बारे में फैसले
पर हमने लिखा था कि “भारत के
सभी जनतंत्रप्रिय नागरिकों को सुप्रीम कोर्ट के प्रति हमेशा के लिये आभारी होना
चाहिए कि उसने पूरी स्पष्टता और दृढ़ता के साथ एनजेएसी के प्रस्ताव को यमलोक
पहुँचा कर भारत को संविधान के ज़रिये हिटलरी तानाशाही की जकड़ से बचा लिया है । यह
अकेला उदाहरण इस बात का प्रमाण है कि भारत का राजनीतिक नेतृत्व इस प्रकार के भयानक
ख़तरे की संभावना को समझने में पूरी तरह से विफल रहा है, वह भले दक्षिणपंथी हो या
वामपंथी या मध्यपंथी । इनमें से कोई भी भारत में हिटलर के उदय के इस क़ानूनी
रास्ते को नहीं देख पाया और सभी संसद की तथाकथित सार्वभौमिकता का राग अलापते रहें
। भारत के सुप्रीम कोर्ट ने एनजेएसी के ज़रिये सारी सत्ता को हड़प कर निरंकुश शासक
बनने की वर्तमान सरकार की आतुरता को बिल्कुल सही पकड़ा और उस पर हमेशा के लिये
विराम लगा दिया ।“
अब, तीन तलाक पर फैसले के दूसरे
दिन ही, 24 अगस्त 2017 को सचमुच
सुप्रीम कोर्ट ने फिर वह कर दिखाया, जो आरएसएस और मोदी के लिये किसी कहर से कम नहीं था । इसे कह सकते हैं
— भारत में
एक नई संवैधानिक क्रांति । भारतीय संविधान के इतिहास में लगता है अब तक का एक सबसे
महत्वपूर्ण मील का पत्थर ; निजता के अधिकार पर सर्वसम्मत (9-0) फैसला ।
ऐसा निर्णय जिसे वैश्विक परिप्रेक्ष्य में देखें तो कहना होगा कि अगर राजशाही के
ज़माने में 1804 की
नेपोलियन संहिता ने दुनिया में राज्य और नागरिक के अधिकारों के रूप को बदल डाला था
तो आज भारत के सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला डिजिटल युग में सारी दुनिया में इन
अधिकारों के पुनर्विन्यास का हेतु बनेगा ।
जाहिर है, हम जब यह
कह रहे हैं, तब हमारे
परिप्रेक्ष्य में परिस्थिति में किसी अन्य सामाजिक क्रांति-प्रतिक्रांति के प्रभाव
शामिल नहीं है । वह एक नई परिस्थिति होगी, जब ढांचागत समायोजन की किसी
चर्चा का ही कोई अर्थ ही नहीं होगा । लेकिन सभ्यता के वर्तमान चरण में अभी वह एक
दूरस्थ बात है । भारत में मोदी की आक्रमकता में प्रतिक्रांति के सारे खतरे मौजूद
है, और
संभवतः इसीलिये यहां की जमीन से इस संवैधानिक क्रांति की फसल भी तैयार हुई है ।
बहरहाल, इधर मोदी
सरकार ने आधार कार्ड से लेकर अपनी नाना योजनाओँ से भारत के नागरिकों को पूरी तरह
से राज्य का गुलाम बना देने का जो जाल बुनना शुरू किया था, सुप्रीम कोर्ट ने एक झटके
में उसे छिन्न-भिन्न कर दिया । येन केन प्रकारेण चुनाव जीत कर आई सरकार नागरिक के
अधिकारों से ऊपर नहीं है, संविधान की रक्षा के लिये ज़िम्मेदार न्यायपालिका के लिये जनतंत्र और
नागरिक की रक्षा जरूरी है — इस बात की सुप्रीम कोर्ट ने मकान की छत पर खड़े हो कर घोषणा की है।
जिस सुप्रीम कोर्ट ने चंद महीनों पहले ही बहुत साफ सबूतों के होते मोदी पर जांच की
मांग को संज्ञान लेने से इंकार कर दिया था, उसी ने उसके सारी सत्ता को
हड़प लेने के और पूरे समाज को अपने इशारों पर नचाने के इरादों पर एक प्रकार की
स्थायी बाधा पैदा कर दी । इसने एक बहुमतवादी समाज, कि कोई क्या पहनेगा, कोई क्या
खायेगा इसे बहुमत के स्वघोषित प्रतिनिधि तय करेंगे की तरह की जघन्य और जंगली
अवधारणा को भारत से दूर रखने का एक निर्णायक काम किया है ।
सच कहा जाए तो नाजुक स्थिति
सिर्फ नागरिकों के अधिकारों के लिये ही नही हैं । आज सारी संवैधानिक संस्थाओं के
लिये अस्तित्व का खतरा है । खुद न्यायपालिका के अस्तित्व पर सीधे प्रहार की कोशिश
को वह कॉलेजियम के मामले में प्रत्यक्ष देख चुकी थी । इधर, नोटबंदी को मामले में मोदी
ने रिजर्व बैंक की और भारत की मुद्रा नीति की जो दुर्गति कर रखी है, इसे भी
सारी दुनिया देख रही है । सत्ता के शीर्ष पर बैठा एक तानाशाह, और बाकी
सब कुछ, गले में
पट्टा बांधे स्वामिभक्तों की भीड़ — हिटलर के अनुयायियों का यही सबसे बड़ा सपना होता है । निजता के
अधिकार के मामले में मोदी की दलील थी कि चूंकि संविधान के मूलभूत अधिकार में निजता
का अधिकार शामिल नहीं है, इसीलिये इसे संवैधानिक अधिकार नहीं माना जा सकता है । भारत सरकार के
पूर्व एटर्नी जनरल रोहतगी ने सुप्रीम कोर्ट के सामने पूरी बेशर्मी से कहा था कि
किसी भी नागरिक का अपने खुद के शरीर पर भी अधिकार नही है । और अभी के एटर्नी जनरल
वेणुगोपाल ने और दो कदम आगे बढ़ते हुए कहा कि 'जो लोग सरकारी खैरातों पर
पलते है, उनकी
निजता का कोई अधिकार नही हो सकता हैं । यह सिर्फ संपत्तिवानों की चोचलेबाजी है ।'
इस पर न्यायमूर्ति जे
चेलमाश्वर ने अपनी राय में लिखा है कि संविधान के बारे में यह समझ बिल्कुल 'बचकानी और
संवैधानिक व्याख्याओं के स्थापित मानदंडों के विपरीत है' ।...“नागरिकों
के अधिकारों और उनकी स्वतंत्रताओं के प्रति यह दृष्टिकोण हमारी जनता की सामूहिक
बुद्धिमत्ता और संविधान सभा के सदस्यों के विवेक का अपमान है ।“
न्यायमूर्ति संजय किशन कौल
ने कहा कि नागरिकों को उनके बारे में न सिर्फ झूठी बातों से नहीं, बल्कि
उनके बारे में 'कुछ
सच्ची बातों' से भी
अपने सम्मान की रक्षा करने का अधिकार है । “यह नहीं कहा जा सकता है कि
किसी के भी बारे में ज्यादा सही राय तभी कायम की जा सकती है जब उसके जीवन की निजी
बातों जान लिया जाता है — लोग हमें गलत ढंग से समझते हैं, वे हमें हड़बड़ी में समझते
हैं, संदर्भ
से हट कर समझते हैं,
वे बिना पूरी कहानी सुने राय बनाते हैं और उनकी समझ में मिथ्याचार
होता है ।... निजता लोगों को अपने बारे में इन परेशान करने वाली रायों से सुरक्षा
देती है । इस बात का कोई तुक नहीं है कि सारी सच्ची सूचनाओं को सार्वजनिक किया जाए
।... कौन से प्रसिद्ध व्यक्ति का किसके साथ यौन संबंध है इसमें लोगों की दिलचस्पी
हो सकती है, लेकिन
इसका जन-हित से कोई मतलब नहीं है और इसीलिये वह बात निजता का हनन हो सकती है ।
इसीलिये वह सच्ची बात जो निजता का हनन करती है, उससे भी सुरक्षा की जरूरत
है ।...प्रत्येक नागरिक को अपने खुद के जीवन पर नियंत्रण और दुनिया के सामने अपनी
छवि को बनाने के लिये काम करने का अधिकार है और अपनी पहचान के व्यवसायिक प्रयोग का
भी।“
न्यायमूर्ति कौल ने आगे और
कहा कि “निजता का
अधिकार एक मूलभूत अधिकार है ; यह वह अधिकार है जो व्यक्ति के अंतरजगत में राज्य के और राज्य के
बाहर के लोगों के हस्तक्षेप से उसे बचाता है और व्यक्ति को स्वायत्त हो कर जीवन
में चयन की अनुमति देता है ।
“घर के अंदर की निजता में परिवार, शादी, प्रजनन, और यौनिक
रुझान की सुरक्षा ये सब गरिमा के महत्वपूर्ण पहलू हैं ।“
सर्वोपरि, अपने
अलावा अन्य चार जजों की ओर से भी लिखे गये न्यायमूर्ती डी वाई चंद्रचूड़ के फैसले
ने इस विषय से जुड़े सभी अहम मुद्दों को समेटते हुए लिखा कि “ निजता का
अधिकार मनुष्य के सम्मान-बोध का एक तत्व है । निजता की पवित्रता सम्मान के साथ
जीवन से इसके कारगर संबंध में निहित है । निजता इस बात को सुनिश्चित करती है कि एक
मनुष्य अपने मानवीय व्यक्तित्व के एकांत में बिना अवांछित हस्तक्षेप के सम्मान के
साथ जी सकता है ।“
ट्रौल उद्योग के जरिये
राजनीतिक लक्ष्यों को साधने की रणनीति बनाने वाले मोदी-शाह की तरह के राजनीतिज्ञों
के मंसूबों पर सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले से पानी फेरने का काम किया है । नागरिक
की गरिमा को केंद्रीय महत्व की बात घोषित करके यह फैसला गोस्वामी की तरह के
चरित्र-हननकारी पत्रकारों-ऐंकरों पर आगे अंकुश लगाने का रास्ता आसान करेगा । जो
ट्रौल बेझिझक गंदी गालियाँ देते थे और बेधड़क घूमते थे, आने वाले समय में सोशल
मीडिया या अख़बारों में इन गाली-गलौज करने वालों पर एफआईआर की तलवार लटकती रहेगी । स्वाती
चतुर्वेदी ने अपनी किताब ‘I am a Troll’ में जिन ट्रौल उद्योगों की
सिनाख्त की थी उनके ठिकानों पर क़ानूनी कार्रवाई की संभावना बनेगी ।
पश्चिमी देशों के कानून में
चरित्र-हनन को हत्या से कम बड़ा अपराध नहीं माना जाता । आगे यहां भी ट्रौलिंग एक
बड़ा फ़ौजदारी अपराध होगा । इस प्रकार, सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला ट्रौल उद्योग और उस पर
टिकी राजनीति की जड़ों में मट्ठा डालने का काम करेगा ।
इस महान फैसले पर
प्रधानमंत्री की चट्टान की तरह की चुप्पी पर आज कोई भी सवाल करेगा कि निजता के
अधिकार पर सुप्रीम के इस ऐतिहासिक फैसले पर बात-बात में ट्वीटर-प्रेमी
प्रधानमंत्री ख़ामोश क्यों हैं ? और, भाजपा की
चुप्पी क्या यह बताने के लिये काफी नहीं है कि वह पूरी नग्नता के साथ नागरिकों की
निजता के हनन के पक्ष में है !
इस नये घटना-क्रम की बहुत
सी कमियों और पूरा कर दिया गुरमीत राम रहीम मामले में 'तोता' मान ली
गई सीबीआई की अदालत ने । जिस शैतान के सामने 'हर विरोधी का पत्ता साफ कर
दो' की तरह
की माफियाई तर्ज पर काम करने वाले अमित शाह अपने नेतृत्व में हरियाणा के
मुख्यमंत्री खट्टर सहित पूरे मंत्रिमंडल को दंडवत करा आए थे, उस शैतान
को सीबीआई की अदालत ने (शायद जीवन भर के लिये) जेल भेज दिया । आज सिर्फ डेरा वाले
ही नहीं, आरएसएस
की आत्मा के प्रवक्ता साक्षी महाराज जैसे भी यह मानते हैं कि उनके साथ धोखा हुआ है
। सौदा यह हुआ था कि मुकदमे को हटा लिया जायेगा, क्योंकि ये सभी माने हुए थे
कि मोदी की धौंस अब जिस जगह पहुंच गई है उससे पहले से ही सारे तोतों की सांसे फूली
हुई है । एक मामूली स्वत्त्र उड़ान की भी उनमे ताकत नहीं है, इसीलिये
उनको कुछ कहने की जरूरत नहीं है — 'बुद्धिमान को इशारा ही काफी होता है' ।
लेकिन नियति का तर्क देखिये
कि डेरे के गुंडों की हिंसा के चरम रूप आने तक मौन बने रहे मोदी जी भी अब कह रहे
हैं कि 'हिंसा को
बर्दाश्त नहीं किया जायेगा' । व्यवस्था इसी प्रकार अपने विरोधियों की भी नकेल कस देती है ।
इधर राजनीति के मोर्चे पर
जब अमित शाह कांग्रेस के सारे कूड़े से भाजपा को कांग्रेस का कूड़ाघर बना कर अपनी
अपराजेयता का ढिंढोरा पीट रहे थे, उसी समय एड़ी-चोटी का पसीना एक कर देने, खुले आम विधायकों का
भाव-तोल करके कुछ को खरीद लेने पर भी वे गुजरात से राज्य सभा में कांग्रेस के
प्रत्याशी को जाने से रोक नहीं सके । और इस मामले में भी उनकी योजना को विफल बनाया
उन्हीं के लाये हुए चुनाव आयुक्त ने, लेकिन वास्तव में एक और संवैधानिक संस्था ने !
कांग्रेस के दो दल-बदलू विधायकों के भ्रष्ट आचरण का संज्ञान ले कर उनके वोट को
रद्द करने में उसने जरा भी संकोच नहीं किया ।
ये चाहते हैं बाबाओं के
जरिये, गोरक्षक
गुंडों के जरिये, तुगलकी
आर्थिक नीतियों से जन-जीवन को अस्त-व्यस्त करके समाज के निकृष्टतम लोगों से
व्यवस्था का एक पवित्र व्यूह तैयार करें और उसमें किसी सूरमा की तरह तानाशाह मोदी 2019 के चुनाव
में सत्ता के शीर्ष पर बैठ जाए । इजारेदाराना पूंजीवाद में समाज के 'उद्धार' की सचमुच
यह एक अनोखी प्रक्रिया है जिसमें सत्ता पर आसीन लोग जितने संकीर्ण और स्वार्थी
होते जाते हैं, उसी
अनुपात में समाज का 'उद्धार' होता
जाता है । हमारे यहां जितनी नग्नता से खुद प्रधानमंत्री अंबानी, अडानी
मात्र के हितों को जिस प्रकार साधते हैं, माना जाता है कि उसी अनुपात में समाज का उपकार हो
रहा है ! इसमें स्वस्थ और जनतांत्रिक मूल्यों की छोटी से छोटी आवाज को देशद्रोह
बता कर लांक्षित किया जाता है । और इसी उपक्रम में यह भी बार-बार देखने को मिलता
है कि जिन बाबाओं, योगियों, धर्म के
पंडों को, गली के
लुच्चे-लफंगों को एक समग्र अराजकता पैदा करने के काम में नियोजित किया जाता है, एक समय
के बाद उन्हें ही न सिर्फ लात मार कर धकियाया जाता है, बल्कि रात के अंधेरे में
चारपाइयों से उठा कर जेल की काल कोठरियों में ठूस दिया जाता है । तब एक बार के
लिये नौकरशाही, पुलिस और
बाकी प्रशासन भी चंगा हो जाता है । डेरा सच्चा सौदा के अपराधियों को इस सचाई का
स्वाद मिलने का समय आ गया था । उन्होंने जिस अमित शाह और उनके गुर्गे खट्टर को
अपने शैतान गुरू का चेला मान रखा था, ऐसे चेले ही अब कभी उनकी गली में झांक कर भी नहीं
देखेंगे । अपने पैदा किये गये ऐसे सभी तत्वों की पिसाई से ही तो आगे उनके चेहरे को
चमकाने वाला लेप बनने वाला होता है !
बहरहाल, गोरखपुर
में योगी की नाक तले आक्सीजन रोक कर की गई बच्चों की हत्या के बाद इनका मंत्री जब
अगस्त के महीने के ऐसे शिशु-संहारक महात्म्य का बखूबी बखान कर रहा था तब हमें लगा
कि वे शायद किसी प्राकृतिक दुर्योग का बात कर रहे हैं । लेकिन इस महीने के अंतिम
हफ्ते में गूंगी नजर आती संवैधानिक संस्थाओं का एक साथ बोल उठना आने वाले दिनों की
कुछ और ही कहानी के संकेत दे रहा है ।
भारत की संवैधानिक संस्थाएँ
किसी बहुमत की सरकार की मुखापेक्षी न होकर अगर अपने दायित्वों को बेख़ौफ़ निभायें
तो फासीवाद जरूर पराजित होगा । जीवन की परिस्थितियां कुछ भी क्यों न हो, व्यवस्था
के ढांचे का अपना तर्क भी अंदर से कई संरचनाओं को बने रहने की शक्ति देता है ।
'निजता के अधिकार' पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले
में कहा गया है कि 'मौन
निजता के एक दायरे को तैयार करता है ।' इस ऐतिहासिक फैसले पर आज तक की प्रधानमंत्री मोदी
की अटूट चुप्पी से लगता है कि सुप्रीम कोर्ट के इस कथन को उन्होंने पूरी आंतरिकता
से ग्रहण किया है । और, मोदी की इस बेतार की चुप्पी ने पूरी भाजपा को तो गूँगा बना दिया है !
हमारी कामना है कि नागरिकों के गले में पट्टा लगाने की हसरत के कारण यह उनकी
ज़ुबान पर किसी गहरी दुश्चिंता की वजह से मारा गया लकवा न हो, बल्कि
मनन की गुहा में उतरने का उपक्रम हो ! यह हार्डवर्क वनाम हार्वर्ड की थोथी
जुमलेबाजी से उनकी मुक्ति की साधना हो !
और भाजपा, जिसे
गुमान है कि यह देश भारतवासियों का नहीं, उनकी निजी संपत्ति है, उसे समझ जाना चाहिए कि
सच्चा जनतंत्र धार्मिक कट्टरपंथियों का कभी भी निजी क्षेत्र नहीं बन सकता । हर
प्रकार के आशारामों,
रामरहीमों की अंतिम और असली जगह जेल की सींखचों के पीछे ही होती है ।
आज सचमुच मोदी जी का 'मौन-मोहन
सिंह' वाला
जुमला बहुत याद आता है !
हैरोल्ड लास्की ने अपनी
प्रसिद्ध पुस्तक 'राजनीति
का व्याकरण' में लिखा
था कि जनतंत्र में राज्य का संचालन विशेषज्ञों का काम है क्योंकि उसे उस जनता के
हितों के लिये काम करना होता है जो अपने हितों के प्रति ही ज़्यादातर बेख़बर रहती
है । ऐसे में सिर्फ वोट में जीतने से वास्तव में कोई प्रशासक नहीं हो जाता । ख़ास
तौर पर जो लोग जनता के पिछड़ेपन का लाभ उठाने की राजनीति करते हैं, सत्ता पर
आने के बाद वे जनता के जीवन में सुधार के नहीं, और ज्यादा तबाही के कारक बन
जाते हैं । सचमुच, लास्की
की इस बात को नकारात्मक स्तर से समझना हो तो हमारे यहां इसक क्लासिक उदाहरण हैं
केंद्र की मोदी सरकार और यूपी की योगी सरकार ।
मोदी जी को जब और कुछ नहीं
सूझा तो उन्होंने नोटबंदी की तरह का तुगलकी कदम उठा कर पूरी अर्थ-व्यवस्था को ही
पटरी से उतार दिया । जनता के हितों के लिये काम करने के लिये बनी सरकार ने एक झटके
में लाखों लोगों के रोजगार छीन लिये; किसानों के उत्पादों के दाम गिरा कर पूरी कृषि
अर्थ-व्यवस्था को चौपट कर दिया । जीडीपी का आँकड़ा 2016-17 की चौथी
तिमाह में गिरते हुए सिर्फ 6.1 प्रतिशत रह गया है ; औद्योगिक उत्पादन मई महीने में -0.01 प्रतिशत
की गिर कर इसमें वृद्धि की दर 1.7 प्रतिशत रह गई है। यहाँ तक कि बैंकों की भी, ख़ुद रिजर्व बैंक की हालत
ख़राब कर दी । नोटबंदी के धक्के के कारण इस साल आरबीआई ने केंद्र सरकार को मात्र 30659 करोड़
रुपये का लाभ दिया है जो पिछले पाँच सालों में सबसे कम और पिछले साल की तुलना में
आधा है । जाहिर है इस प्रकार खुद की बेवकूफियों से तैयार किये जा रहे वित्तीय घाटे
से निपटने में ही आगे केंद्र सरकार डूबी रहेगी और इस समस्या की गाज जनहितकारी
प्रकल्पों पर गिरेगी ।
इन्होने अर्थ-व्यवस्था को
मुद्रा संकुचन के दौर में डाल दिया लगता है । पूंजीवादी अर्थ-व्यवस्था की जान है पूंजी
को उसके आत्म-विस्तार के लिये यथेष्ट जगह देना । यदि पूंजी का विस्तार नहीं तो वह
कोरी अस्थि होती है । मुद्रा संकुचन का व्यवहारिक अर्थ है कंपनियों के मुनाफ़े में
तेज़ी से गिरावट और उनके ऋणों के वास्तविक मूल्य में वृद्धि । इसकी वजह से पहले से
ही संकट में पड़ी बैंकों का एनपीए पहले के किसी भी समय की तुलना में और तेजी से
बढ़ेगा ।
इनके निकम्मेपन और
अव्यवस्था का आलम यह है कि गोरखपुर अस्पताल में आक्सीजन की आपूर्ति की समस्या को
जानने के बावजूद मुख्यमंत्री योगी बच्चों की मृत्यु का कारण उनकी बीमारियों को बता
रहा है, जबकि
उनकी बीमारियों का एक जरूरी इलाज ही उन्हें अलग से आक्सीजन देना था। उन्होंने ख़ुद
माना कि आक्सीजन के सप्लायर को उसका बक़ाया नहीं चुकाया गया था, फिर भी
बच्चे और कुछ वयस्क भी, जो आक्सीजन पर थे, उनके अनुसार अपनी बीमारियों की वजह से मरे !
योगी की इन बेवक़ूफ़ी की
बातों को क्या कहा जाए ? गनीमत है कि अभी तक उन्होंने अस्पताल पर किसी प्रेतात्मा के साये को
ज़िम्मेदार नहीं बताया और यज्ञ-हवन के जरिये अस्पताल को उससे मुक्त करने का उपाय
नहीं सुझाया ! लेकिन 'गाय, गोबर और
गोमूत्र' के इस
दौर में वे यदि ऐसे ही किसी भारी-भरकम यज्ञ-आयोजन में बैठ जाते तो किसी को आश्चर्य
नहीं होता । जैसे केंद्र सरकार से लेकर भाजपा की तमाम सरकारें पर्यावरण से लेकर
दूसरी कई समस्याओं के समाधान के लिये आज किसी न किसी 'नमामि' कार्यक्रम
में लगी हुई है ।
कहना न होगा, मोदी के
पास हर समस्या का एक ही समाधान है — प्रचार,
प्रचार,
प्रचार को शोर । वह भले स्वच्छ भारत का विषय हो या कोई और विषय हो ।
इन सरकारी आयोजनों में लाखों लोग शामिल होते है, बाबाओं के आश्रमों की तरह
ही यहां भी नाचते-कूदते हैं । लेकिन यथार्थ में ऐसे सभी मनोरंजक कार्यक्रमों से
राष्ट्र के निर्माण और जन-हितकारी प्रकल्पों के लिये धन में कटौती करनी पड़ती है ।
मोदी सरकार पहली सरकार है
जिसने उच्च शिक्षा और शोध में खर्च को पहले से आधा कर दिया है । मनरेगा का भट्टा
पहले से ही बैठा दिया गया है । किसानों के कर्ज-माफी के सवाल पर भी बहुत आगे बढ़
कर कुछ करने की इनकी हिम्मत जवाब देने लगी है । ऊपर से कूटनीतिक विफलताओं के चलते
सीमाओं पर युद्ध की परिस्थति पूरे परिदृश्य को चिंताजनक बना दे रही है । इसीलिये
आज हैराल्ड लास्की बहुत याद आते हैं - जनतंत्र में प्रशासन खुद में एक विशेषज्ञता
का काम है । यह कोरे लफ्फाजों के बस का नहीं होता है ।
इस पूरे विश्लेषण को जरा
गुजरात में हाल में राज्य सभा चुनाव की सीटों के चुनाव के वक्त के नाटक की
पृष्ठभूमि में भी देखा जाए । वहां विधानसभा में कांग्रेस के सदस्यों की संख्या को
देखते हुए उसके उम्मीदवार अहमद पटेल की जीत ही लाज़िमी थी । जिस सीट को जीतने के
लिये 47 विधायकों
की ज़रूरत थी, कांग्रेस
के पास 57 विधायक
थे । फिर भी, मोदी-शाह
ने अपनी अनैतिकताओं की पूरी ताकत झोंक कर इसे लाज़िमी और ग़ैर-लाज़िमी के बीच की
सीधी टक्कर का रूप दे दिया । पूरी नंगई से विधायकों की खरीद-फ़रोख़्त में उतर गये
और जनता के बीच पूरी ताकत के साथ एक ही बात फैलायी गई कि इसे ही 'संसदीय
जनतंत्र' कहते है
।
कांग्रेस ने कैसे अहमद पटेल
की इस जीत को सुनिश्चित किया, एनसीपी और जेडीयू के एक-एक विधायक ने उसे कैसे बल दिया, इस कहानी
को सब जानते हैं । मोदी-शाह के गुंडों, पुलिस और वाघेला की तरह के घुटे हुए दलबदलू सत्ता
के दलालों की मार से बचने के लिये उनके विधायकों को गुजरात को छोड़ कर बैंगलोर तक
जाना पड़ा । यह अमित शाह का वही खेल था जो वह अन्य राज्यों में कर रहा है । दूसरे
दलों के जन-प्रतिनिधियों को दबाव में लाकर तोड़ने का काम, और इस प्रकार प्रकारांतर से
पूरी भाजपा को एक प्रकार का कूड़ाघर बनाके पूरे संसदीय जनतंत्र को ही बदबूदार
कूड़ो में बदल देने का काम । वे सचेत रूप से जनता में यह संदेश देना चाहते हैं कि
संसदीय जनतंत्र में अब जनता की कोई भूमिका नहीं बची है । जनता किसी भी दल के
प्रतिनिधि को क्यों न चुने, सबको अंबानी-अडानी की धन शक्ति और मोदी-शाह की राज-शक्ति का गुलाम बन
कर ही रहना होगा !
इस प्रकार वास्तव अर्थों
में वे राज्य में अपनी सर्वशक्तिमत्ता को स्थापित करके, जन-प्रतिनिधियों को
ग़ुलामों में बदल कर पूरी संसदीय जनतांत्रिक प्रणाली को जनता की नज़रों में
बिल्कुल लुंज-पुंज और निरर्थक बना दे रहे हैं । ढेर सारे जन-प्रतिनिधियों को
सीबीआई, आयकर
विभाग इत्यादि के दुरुपयोग से नाना मुक़दमों में फँसा कर उनकी संसदीय निरापदता को
मज़ाक़ का विषय बना कर छोड़ दे रहे हैं और दावा कर रहे हैं कि भ्रष्टाचार से लड़ाई
का मतलब यही है कि विपक्ष के जन-प्रतिनिधियों की कोई हैसियत नहीं रहनी चाहिए । हम
फिर से कहेंगे, जन-प्रतिनिधियों
की साख को इस प्रकार सुचिंतित ढंग से गिराना पूरी संसदीय प्रणाली की साख को ही
गिराने का एक ऐसा सुनियोजित काम है, जिसकी पृष्ठभूमि में मोदी-शाह-संघ की तिकड़ी अपनी हर प्रकार की
असंवैधानिक, ग़ैर-कानूनी
या माफ़ियाँ वाली हरकतों को बिना किसी रोक-टोक के धड़ल्ले से चला सके ।
अभी जिस प्रकार मोदी जी के
रुतबे को बढ़ाने का अभियान चल रहा है, उसी अनुपात में जनता के सभी व्यक्तिगत
प्रतिनिधियों के सम्मान को घटाने की भी समानान्तर प्रक्रिया चल रही है । जिस हद तक
जन प्रतिनिधि बौने होते जायेंगे, संसद की अवहेलना करने के लिये कुख्यात एक कोरे लफ़्फ़ाज़
प्रधानमंत्री का व्यक्तित्व अधिक से अधिक विराट दिखाई देने लगेगा । हिटलर के आगमन
की प्रतीक्षा में सालों से लाठियाँ भांज रहे आरएसएस के लोग अब उसी हद तक ढोल-मृदंग
बजाते उसकी आरती की तैयारियों के लिये उन्मादित दिखाई देने लगे हैं । इनकी मदद के
लिये 'सब चोर
है, सब चोर
है' का शोर
मचाने वाले 'क्रांति
वीरों' की एक
गाल बजाऊ फ़ौज भी पहले से लगी हुई है । वे 2019 की
तैयारी में ऐसे तमाम लोगों को अभी से डराने-धमकाने में लग गये हैं जिनमें
स्वाधीनता का लेश मात्र भी बचा हुआ हो ताकि 2019 के
तूफ़ान के साथ भारत में संसदीय जनतंत्र के पूरे तंबू को ही उखाड़ कर हवा में उड़ा
दिया जाए ।
2019 के चुनाव में हर स्तर पर
तमाम प्रकार की धाँधलियों के जरिये चुनाव को पूरी तरह से लूट लेने का मोदी-शाह
कंपनी ने जो सपना देखना शुरू किया है, उत्तर प्रदेश की जीत के बाद बिहार में अपनी सरकार
बनाने और भाजपा से बचे हुए बाकी सभी राज्यों में जनतंत्र के अपने यमदूतों को
दौड़ाने का जो सिलसिला शुरू किया गया है, उसमें गुजरात की राज्य सभा की इस एक सीट को जीतने
की कोशिश काफी तात्पर्यपूर्ण थी । वें कांग्रेस के उम्मीदवार की सौ फ़ीसदी निश्चित
जीत को हार में बदल कर आम लोगों के बीच मोदी-शाह की अपराजेयता का एक ऐसा हौवा खड़ा
करना चाहते थे ताकि आगे की उनकी और भी बड़ी-बड़ी जनतंत्र-विरोधी साज़िशों के
विरुद्ध किसी प्रकार की कोई आवाज उठाने की कल्पना भी न कर सके और जनता भी इन
षड़यंत्रकारियों को ही अपनी अंतिम नियति मान कर पूरी तरह से निस्तेज हो जाए ।
गुजरात में कांग्रेस दल की
सक्रियता और अंतिम समय तक चुनाव आयोग के सामने भी उनकी दृढ़ता ने अमित शाह के इन
मंसूबों पर काफी हद तक पानी फेरने का काम किया है । इसमें एनसीपी के एक सदस्य और
जेडीयू के एक सदस्य ने भी उनका साथ दिया है । यह प्रतिरोध के एक नये संघर्ष के
प्रारंभ का बिंदु साबित हो सकता है । जेडीयू के शरद यादव ने मोदी के दिये गये लालच
को ठुकरा कर बिहार की सरज़मीन पर ही कौड़ियों के मोल बिकने वाले नीतीश कुमार को
चुनौती देने का बीड़ा उठाया है । इधर दूसरे ग़ैर-भाजपाई प्रमुख दलों ने भी भाजपा
के खिलाफ संयुक्त अभियान में कांग्रेस के नेतृत्व में एक नये अभियान के साथ अपने को
जोड़ने की प्रतिबद्धता का ऐलान किया है ।
गुजरात की इस पराजय का चंद
महीनों बाद ही इस राज्य में होने वाले विधान सभा के चुनावों पर निश्चित तौर पर
गहरा असर पड़ेगा । वहाँ वैसे ही जनता के बीच से भाजपा की ज़मीन खिसकने के सारे
संकेत मिल रहे हैं । वे इसी जनता की चेतना को कमज़ोर करके और मोदी के चमत्कार को
बढ़ा-चढ़ा कर बता कर जीतने के फेर में हैं । कांग्रेस के 43 विधायकों ने अपनी दृढ़ता का
परिचय देकर इनके जहाज़ में इतना बड़ा सुराख़ पैदा कर दिया है कि आने वाले गुजरात
चुनाव को पार करना भी इसके लिये कठिन होगा ।
कहना न होगा, यहीं से
भाजपा के जहाज़ के डूबने का जो सिलसिला शुरू होगा, 2019 का आम
चुनाव निश्चित तौर पर मोदी-शाह का वाटरलू साबित होगा । 8 अगस्त 2017 के 'टेलिग्राफ़' में अहमद
पटेल की जीत की खबर की बहुत सही सुर्खी लगाई है - 'अमित शाह आया, देखा और
फुस्स हो गया' (Amit
Shah came, saw & flopped) ।
अगस्त के प्रथम हफ्ते और
उसके अंतिम हफ्ते तक के महीने भर के राजनितिक, संवैधानिक और प्रशासनिक
कदमों की यह समीक्षा मोदी शासन और उसकी राजनीति की एक समग्र तस्वीर पेश करती है ।
हासिल करने के नाम पर इन्होंने यह हासिल किया कि मालेगांव बम विस्फोट कांड के
आतंकवादी प्रसाद श्रीकांत पुरोहित को, जिसे आरएसएस का आदमी बताया जाता है, ज़मानत
पर छुड़वा लिया । उसकी ज़मानत के आवेदन को मंज़ूरी देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने जो
राय दी है, उसमें भी
इस बात का प्रकारांतर से बहुत ही साफ उल्लेख है । वह कहता है कि सेना के इस
आतंकवादी कर्नल पुरोहित पर सन् 2008 में जो चार्ज लगाये गये थे, उन्हें 2015 में
दूसरी केंद्रीय एजेंसी ने हल्का कर दिया है । मामले के इस पहलू की आगे जाँच की
जानी चाहिए कि क्यों 2015
में उस पर अभियोगों को हल्का किया गया ? सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि
यह अदालत पिछली दो चार्जशीट में से एक को सही और दूसरी को ग़लत नहीं मान सकती, इसीलिये
आगे की जाँच से क्या सही है, क्या ग़लत, यह तय होगा और इसमें काफी समय भी लग सकता है । फिलहाल, चूँकि यह
आतंकवादी पहले से आठ साल से जेल में है और इधर उस पर अभियोगों को हल्का कर दिया
गया है, इसीलिये
समाज की सुरक्षा और व्यक्ति की स्वतंत्रता के बीच एक संतुलन रखने के लिये उसे
ज़मानत दी जा सकती है ।
यही है इस सरकार का
वास्तविक मिशन कि आरएसएस से संबद्ध माने जाने वाले आतंकवादियों को रिहा किया जाए ।
इसकी वजह से इस मामले के सरकारी वक़ील रोहिणी सालियन पर इतना बेजा दबाव डाला गया
था कि उसने यह कह कर अपने को इस काम से अलग कर लिया कि उस पर केंद्र की एक उच्चतर
एजेंसी एनआईए) की ओर से भारी दबाव डाला जा रहा है ।
बहरहाल, यही
महीना भारत की आजादी का महीना होने के नाते भारत के प्रधानमंत्री के लाल किले की
प्राचीर से राष्ट्र को संबोधित करने का भी महीना होता है ।
'इकोनोमिस्ट' पत्रिका के 19 अगस्त 2017 के अंक
का प्रमुख लेख था—
'ट्रंप और उग्र दक्षिणपंथ बेकार है ।' ट्रंप के सत्ता में आने के
पहले उसे समर्थन देने वाले लोग कहते थे कि वह व्यापार की दुनिया का आदमी है, आयेगा तो
राज्य की ज्यादतियों पर कुछ काबू करेगा । इसके अलावा वह अपने को सदा-सर्वदा सही
मानने वाले वाम रुझान वाले कुलीन शासकों का मान-मर्दन भी करेगा । लेकिन 'इकोनोमिस्ट' अपने इस
लेख में लिखता है कि इस 15 अगस्त के दिन ट्रंप के संवाददाता सम्मेलन के बाद ये सारी बातें और
उनसे जुड़ी सारी उम्मीदें कूड़े के ढेर पर पड़ी हुई चीज दिखाई देने लगी है ।
15 अगस्त 2017 की ट्रंप की बकवास ने उसके
बारे में सारी उम्मीदों को महज कचरा बना कर छोड़ दिया ! और देखिये, क्या
संयोग है, इधर भारत
में भी यही वह दिन था जिसने नरेन्द्र मोदी की समूची छवि को ऐसी जगह ले जाकर पटका
है कि अब आगे उसे ऊपर लाना किसी असंभव काम जैसा ही होगा । सुवक्ता, सक्षम
प्रशासक, स्वच्छ
और निडर नेता की इनकी जो छवि नोटबंदी के तुगलकीपन से गिरनी शुरू हुई, वह अब
अपने चरम पतन की खाई तक पहुंच गई है ।
लाल किले पर इस बार सिर्फ
उनकी एयर इंडिया के महाराजा वाली सज-धज तो पूर्ववत थी, लेकिन पहले जादू की छड़ी
घुमा कर कोरी बातों से भारत को, इसकी अर्थ-व्यवस्था को, गंगा और पूरी व्यवस्था को स्वच्छ बना देने की वे
जो इतनी लंबी-चौड़ी हांका करते थे कि भाषण खत्म होने का नाम ही नहीं लेता था, वहीं तीन
साल के अंदर ही अब उनके पास फर्जी आंकड़ों, झूठी हमदर्दियों और थोथे
आश्वासनों के हकलाते हुए भाषण के अलावा कुछ नहीं रह गया है ।
अपने इस भाषण में खास तौर
पर नोटबंदी को लेकर तो वे इस कदर झूठ पर झूठ बोलते चले गये कि पूरा देश सन्न रह गया
। एक ओर रिजर्व बैंक तो बैंको में जमा हुई राशि की कभी न खत्म होने वाली गिनती, पुराने
नोटों को नये नोट में बदलने और बैंकों में अचानक बरस पड़ी नगदी को संभालने, और उस पर
ब्याज गिन कर देने में अब तक तीस हजार करोड़ रुपये फूंक चुका है, लेकिन
मोदी ने अपने मन में ही सारे नोटों की गिनती करके बता दिया कि तीन लाख करोड़ रुपये
बैंकों के पास अतिरिक्त आये हैं । और तो और, सीबीडीटी वालों से बिना
जानकारी लिये उन्होंने नये आयकर रिटर्न भरने वालों की संख्या और काला धन पकड़ने के
भी झूठे आंकड़ें उगल दिये ।
रही-सही कसर एशोसियेशन फौर
डेमोक्रेटिक रिफार्म वालों ने पूरी कर दी । उन्होंने तथ्य देकर यह बताया है कि
पिछले तीन सालों में बड़े घरानों ने भाजपा को 705.81 करोड़
रु. चंदा दिया, जो सभी
दलों को चंदे का 89
प्रतिशत है । इसके अलावा, गत तीन साल में ऐसे स्रोतों से, जिनका न
अता-पता है, न पैन
कार्ड, सबसे
अधिक 159.59 करोड़ का
चंदा सिर्फ एक पार्टी भाजपा को मिला है । एनडीटीवी ने पिछले दस साल के आंकड़ों का
विश्लेषण करके यह भी साबित किया है कि आयकर विभाग ने इस साल कोई अतिरिक्त काला धन
नहीं पकड़ा है । हर साल ही अपनी सामान्य कार्रवाइयों के जरिये आयकर विभाग जितने
काले धन की सिनाख्त करता रहा है, इस साल उसमें कोई बढ़ोतरी नहीं हुई हैं ।
अर्थात पिछले तीन साल में
मोदी सरकार ने सिर्फ एक ही काम किया, वह है — भ्रष्टाचार । अपने चहेते लोगों को सरकारी धन
लुटाते रहे और बदले में उनसे बेहिसाब पैसे वसूल करते रहे । 'न खाऊंगा
न खाने दूंगा' का नारा
गया तेल लेने । आज भाजपा जितने नग्न तरीके से रुपयों का खेल खेल रही है, उसकी
पहले कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था । जैसा कि पहले ही बता चुके हैं, चुनाव
में जनता किसे भी वोट क्यों न दे, अमित शाह ने जनता की राय को अपने धन की ताकत पर बदल देने का इस बीच
एक अनोखा जादू दुनिया को दिखाया है ।
आज की सचाई यह है कि साहब
का यह प्यादा वास्तव में एक 'सुपर पीएम' की हैसियत का हो गया है । इधर देखने को मिलता है कि भाजपा के नेताओं
ने विभिन्न अखबारों में अमित शाह की भूरी- भूरी प्रशंसा में लेखों की जो झड़ी लगा
दी है, और उसे
नरेन्द्र मोदी के लगभग समकक्ष बताया है, उसके बाद उन्हें 'सुपर पीएम' न मानने
का कोई कारण नहीं रहता । 'टाइम्स आफ इंडिया' में भाजपा के महासचिव विनय सहस्त्रबुद्धे ने शाह की सिर्फ तीन साल की
उपलब्धियों को गिनाते हुए उन्हें 'इतिहास में अतुलनीय' घोषित कर दिया है, तो भाजपा का कब्ज से पीड़ित मुद्रा में रहने वाले प्रवक्ता जीवीएल
नरसिम्हा राव ने 'इंडियन
एक्सप्रेस' में
उन्हें मोदी की तरह ही अथक रूप से काम करने वाला बेचारा, एक गरीब परिवार का बेटा भी
बताया है । इसी 17 अगस्त को
अमित शाह ने कई केंद्रीय मंत्रियों और सांसदों सहित अपने कुछ नेताओं के साथ अभी से
2019 के चुनाव
की रणनीति की चर्चा की है । और सबसे मजे की बात यह है कि उस बैठक में उन्होंने
करीब सात केंद्रीय मंत्रियों को उनके इस अभियान में लग जाने का निर्देश दिया है ।
पहले से ही पूरी तरह नालायक
साबित हो रही एक सरकार के कई मंत्री जब प्रधानमंत्री के आदेश पर नहीं, अमित शाह
के आदेशों पर काम करेंगे, तो समझा जा सकता है, यह सरकार आगे और किस रसातल में जाने वाली है ! इससे यह भी पता चलता
है कि मोदी-अमित शाह कंपनी ने अब कोई भी चुनाव अपने कामों या उपलब्धियों के आधार
पर लड़ने की कल्पना भी करना बंद कर दिया है । और मोदी जी के सबसे बड़े राजदार के
अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व के निर्माण की प्रक्रिया के अपने जो बड़े खतरे हैं, वे तो
अलग है ही । दो परम महत्वाकांक्षी व्यक्तियों का दो सत्ता-केंद्रों के रूप में
उभरना आगे क्या-क्या गुल खिलायेगा, इसका अनुमान तक लगाना मुश्किल है ।
बढ़ती हुई रेल दुर्घटनाएं
भी इस सरकार की एक और खास उपलब्घि रही है, वह भी इसी महीने में रेल
दुर्धटनाओं की श्रृंखला से सबसे प्रगट रूप में जाहिर हुआ है । रेल बजट को केंद्रीय
बजट में मिला कर मोदी ने रेलवे पर अपने और जेटली के दोहरे निकम्मेपन को लाद दिया
है ।
'इकोनोमिस्ट' पत्रिका ने जिस प्रकार
ट्रंप को, और उसकी
विचारधारा को पूरी तरह से नालायक घोषित किया है, उसी तरह मोदी-शाह कंपनी को
भी क्या भारत के हितों की दृष्टि से पूरी तरह से बेकार घोषित करने का समय नहीं आ
गया है ? ये, और इनके
थोथे संघी विचार भारत के किसी काम के नहीं हैं, क्या आज इस बात को
निर्द्वंद्व भाव से कहने की जरूरत नहीं है ?
भाजपा के पत्रकार स्वप्न
दासगुप्त ने 24 अगस्त के
'टेलिग्राफ़' में साफ
लिखा है, भाजपा की
आगे की यात्रा शिष्टतापूर्ण (decorous) नहीं होगी, अशिष्ट होगी । भाजपा
प्रतिशोध के रास्ते पर चलेगी ।"The phoney war now seems over. With Banerjee choosing to
become the standard bearer of the Opposition assault on Modi, it is more likely
that BJP will retaliate...There is no reason to believe the clash will be
decorous."
देखना यही है कि इनकी यह 'अशिष्टता' आगे क्या
रूप लेती है ।
-अरुण माहेश्वरी
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