शुक्रवार, 6 अप्रैल 2018

जीएसटी : एक समग्र मूल्यांकन-2

जीएसटी भारत के संघीय ढाँचे की चूलें हिला देगा             
नोटबंदी अपने घोषित लक्ष्यों को पूरा करने में सौ फ़ीसदी विफल रही। उल्टे, उसने नगदी की कमी की जो समस्या पैदा कर दी है, वह अर्थ-व्यवस्था के लिए एक असाध्य रोग का रूप ले चुकी है। ऊपर से बैंकों की ख़त्म हो चुकी साख के बाद सरकार के कठोर नियमों के बल पर बैंक और कितने दिन अपने अस्तित्व को बनाए रखते हैं, यह देखना दिलचस्प होगा! मूलतः बैंकों के स्वास्थ्य को सुधारने के लिए उठाए गए नोटबंदी के कदम के बाद भी, बहुत जल्द ही केंद्र सरकार को उनकी मदद के लिए एकमुश्त राहत का पैकेज लेकर सामने आना होगा। यह सुनिश्चित है।
    नोटबंदी के रास्ते पर ही अब जीएसटी की भी वही दुर्गति होती दिखाई दे रही है। अभी से इसको लेकर जितनी उलझनें सामने आई हैं, वित्त मंत्रालय ने विवेक के साथ उन सबका समय से समाधान नहीं किया तो यह सिर्फ पूरी अर्थ-व्यवस्था को अस्त-व्यस्त करने का एक बड़ा कारण ही नहीं बनेगा, बल्कि यह पूरी स्कीम ही औंधे मुँह गिरने के लिए बाध्य होगी। कोई अचरज नहीं कि सरकार को अपने ही कुप्रबंधन के कारणों से इसे वापस लेने के लिए मजबूर होना पड़े!
      मोदी-जेटली ने जीएसटी के मामले में यह सोच कर हड़बड़ी की थी कि 2019 में अभी दो साल का समय बाक़ी है। तब तक वे इसे लागू करने से होने वाली प्रारंभिक कठिनाइयों से उबर जाएँगे, लेकिन उनको यह नहीं सूझा कि आधी-अधूरी जानकारियों और न्यूनतम तैयारियों से उठाए जाने वाला कोई भी कदम स्वयं में एक बड़ी परेशानी और जटिलता का कारण बन जाता है। ऐसे कदम किसी ज़ख्म की तरह बाद में हर बीतते दिन के साथ नासूर का रूप लेने लगते हैं, जिनका इलाज सिवाय आपरेशन करके उन्हें जड़ से काटकर फेंक देने के अलावा कुछ नहीं रहता है।
    जीएसटी से ज़ख्मी अर्थ-व्यवस्था में अभी से वे तमाम लक्षण दिखाई देने लगे हैं। जो करोड़ों लोग भारत में स्व-रोज़गार के जरिए जीवन यापन करते रहे हैं, उनके लिए यह व्यापार और रोजगार की सारी संभावनाएँ ही ख़त्म कर दे रहा है। इससे पैदा हो रहा विस्फोटक जन-असंतोष इस पर अमल की लुंज-पुंज सरकारी मशीनरी को पूरी तरह से ठप कर देगा। जीएसटी काग़ज़ों में रहेगा, संगठित बड़े व्यापारियों को अतिरिक्त लाभ जुटा कर देने के औज़ार के रूप में काम करेगा, अर्थात सरकार के राजस्व में सेंधमारी का साधन बनेगा, लेकिन इसके जरिए ज्यादा राजस्व जुटाने का सरकार का न्यूनतम लक्ष्य भी पूरा नहीं कर पाएगा ।
    पहले से ही चल रही जीडीपी में गिरावट और अब अन्य स्रोतों से भी राजस्व में भारी कमी के कितने प्रकार के आर्थिक  राजनैतिक परिणाम हो सकते हैं, उनकी कल्पना करना भी मुश्किल है। भारत में इस प्रकार की विफलता का सीधा सा अर्थ है राष्ट्र के संघीय ढाँचे में भारी तनाव की उत्पत्ति। राज्य सरकारें अपने नुक़सान की भरपाई के लिए केंद्र से झगड़ा करेंगी, लेकिन केंद्र किससे करेगा? वह यदि नोट छापने का रास्ता अपनाता है तो इसके घातक मुद्रा-स्फीतिकारी प्रभाव को कोई रोक नहीं सकेगा। विकास की सारी योजनाएँ ठप हो जाएँगी।
    ऐसी कठिन परिस्थिति में मोदी जी का एक देश से दूसरे देश निरुद्देश्य घूमना, नेताओं से बेबात की गलबहियाँ करना उस कहावत को पूरी तरह से चरितार्थ करता है कि ‘रोम जब जल रहा था, नीरो बंशी बजा रहा था।’
    जिस जीएसटी के शोर के जरिए मोदी-जेटली ने यह सोचा था कि वे नोटबंदी के दुष्प्रभाव को दूर कर लेंगे, वह अब क्रमशः इनके गले की फाँस का रूप लेता जा रहा है। ख़तरा इस बात का है कि इसके राजनैतिक प्रभाव से बचने के लिए मोदी जी कोई और भी बड़ा खतरनाक रास्ता न अपना लें-युद्ध का रास्ता। इसके सारे संकेत अभी से दिखाई देने लगे हैं। सेनाध्यक्ष को युद्ध के लिए तैयार रहने को कह दिया गया है, जिसकी ख़ुद उन्होंने ताईद की है-चीन के साथ, पाकिस्तान के साथ और आधा देश की जनता के साथ। कहना न होगा, यही भारत के हिटलर के उदय का भी रास्ता होगा। भारतवर्ष की तबाही का भी रास्ता।
    झूठ के धुँआधार प्रयोग से अब मोदी शासन का हर सच भी कोरा झूठ लगने लगा है। फेक न्यूज का मसला आज दुनिया का एक बड़ा सरदर्द बन गया है। उधर अमरीका में ट्रंप ने पिछले चुनाव में झूठी ख़बरों की बाढ़ ला दी थी तो इधर मोदी-शाह युगल भी इस मायने में ट्रंप से कभी उन्नीस नहीं, बल्कि इक्कीस ही रहे हैं। सचमुच, आरएसएस-भाजपा तो हमारे देश में इस संसार के बेताज बादशाह हैं। स्वाती चतुर्वेदी की किताब में सारे प्रमाणों के साथ यह बताया गया है कि मोदी-शाह युगल ने फेक न्यूज की बाक़ायदा एक विशाल फ़ैक्टरी खोल रखी है। हाल में बंगाल में सांप्रदायिक दंगे कराने में इनकी बंगाल की आईटी शाखा किस प्रकार लगी हुई थी, उसके सारे प्रमाण सामने आ चुके हैं। इस शाखा के प्रमुख तरुण सेनगुप्ता को इस अपराध के लिए गिरफ़्तार भी किया जा चुका है। उन्होंने बांग्लादेश और न जाने कहाँ-कहॉं की तस्वीरों को काट-छाँट कर बंगाल की बताने और मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैलाने का जघन्य अपराध किया था।
    बहरहाल, सारी दुनिया के विवेकवान लोगों की तरह ही भारत में भी संगठित रूप में झूठ के जरिए किसी भी प्रकार के सार्थक विमर्श के लिए कोई जगह न छोड़े जाने पर चिंता पैदा होने लगी है। अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर गूगल की तरह के बड़े संस्थान ने जहाँ फेक न्यूज के प्रवाह को रोकने के लिए अपनी ओर से एक पहल करने का निर्णय लिया है, वहीं भारत में भी ऐसी वेबसाइट्स तेज़ी से विकसित हो रही हैं जो सिर्फ ख़बरों के झूठ-सच की जाँच में ही लगी हुई हैं और यथासंभव लोगों को इस डरावनी बीमारी से अवगत कराने की कोशिश कर रही हैं।
    एनडीटीवी पर रवीश कुमार ने प्राइम टाइम पर लगातार चार एपीसोड अकेले इसी विषय पर किए हैं। इसमें उन्होंने झूठ के इस कारोबार को कई ऐतिहासिक संदर्भों के साथ, मसलन नई सहस्राब्दि पर सारे कम्प्यूटरों के ठप हो जाने के वाईटूके के विषय से लेकर ‘मंकी मैन’ और गणेश जी को दूध पिलाए जाने वाले वाक्यों का भी बार-बार उल्लेख किया है। इसके राजनैतिक संदर्भों में उन्होंने हिटलर के प्रचार मंत्री गोयेबल्स से लेकर डोनाल्ड ट्रंप की भी चर्चा की है।
    इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता है कि हम सत्य की अपराजेय शक्ति की जितनी भी बात क्यों न करें, मानवता का इतिहास झूठ का समान, बल्कि कहीं ज्यादा शक्ति का परिचय देने वाला इतिहास रहा है।
    हम सब जानते हैं, सच्चाई का रास्ता एक कठिन रास्ता है। सच को अपने को स्थापित करने में लंबा समय लग जाता है। इसके लिए बेहिसाब ख़ून, पसीना और आँसू बहाना पड़ता है, लेकिन झूठ भी जीवन का एक सच होने के नाते ही, उसकी शक्ति सच से कम नहीं होती है। दार्शनिक दृष्टि से सख्ती से देखने पर हम पाएँगे कि मानव जीवन में पाए जाने वाले सारे मिथ, ईश्वर से लेकर तमाम प्रकार के अंध-विश्वास झूठ नहीं तो और क्या कहलाएँगे। लेकिन मनुष्य के जन्म के साथ ये उसके अस्तित्व से किसी न किसी रूप में जुड़े रहे हैं।
    इसीलिये यहाँ सवाल किसी दार्शनिक दृष्टि का नहीं है। फेक न्यूज का मसला जीवन और इतिहास के बहुत मोटे-मोटे तथ्यों से जुड़ा हुआ है। मसलन भारत 15 अगस्त 1947 के दिन आज़ाद हुआ था। यह एक कोरा तथ्य है। इसी प्रकार के कोरे तथ्यों की शृंखला से हम इतिहास और अपने जीवन का आख्यान तैयार करते हैं। फेक न्यूज वह रोग है जो जीवन के ऐसे ठोस तथ्यों में सेंधमारी करता है। उसे तोड़-मरोड़ कर अपना उल्लू सीधा करने के लिए इस प्रकार विकृत कर देता है जैसे जातक कथा में ठगों के एक गिरोह ने बकरी ले जा रहे ब्राह्मण को बार-बार टोक कर यह मानने के लिए मजबूर कर दिया कि वह अपने कंधे पर बकरी नहीं, बल्कि कुत्ता ले जा रहा है। और इस प्रकार उन्होंने ब्राह्मण से उसकी बकरी को झपट लिया।
    इसीलिए फेक न्यूज का मुद्दा शुद्ध रूप से ठगबाजों से लड़ाई का मुद्दा है। आज जब यह पता चलता है कि भारत की राजनीति में फेक न्यूज का सबसे बड़ा और संगठित काम मोदी-शाह के नेतृत्व में भाजपा कर रही है तो इसी नतीजे पर पहुँचा जा सकता है कि हमारा आज का शासक दल ठगों का एक विशाल गिरोह है। क्योंकि इसमें कोई विचारधारात्मक या अवधारणात्मक मुद्दा शामिल नहीं है। इसमें सिर्फ ठोस तथ्यों का विकृतिकरण है, ताकि आम लोगों को भ्रमित किया जा सके। कहना न होगा, ये लोग सबसे अधिक तो अपने सदस्यों और समर्थकों के विश्वास से खेल कर रहे हैं। जनता तो जीवन के अनुभवों से बहुत कुछ समझ लेती है। भारत में शासकों की तमाम कारस्तानियों के बावजूद सरकारें बनती-बिगड़ती रही हैं। कोई अगर यह सोचता है कि झूठ के प्रचार के बल पर वह अनंतकाल तक सत्ता में रह जाएगा तो शायद इससे बड़ा दूसरा कोई भ्रम नहीं होगा।
    लेकिन इस खेल में जिन लोगों का स्थायी तौर पर नुक़सान हो जाता है, वे हैं इन झूठ के कारोबारियों के समर्थक जो इनके प्रति अंध आस्था के चलते इनकी बातों के लिये मरने-मारने को तैयार रहते हैं। जब गूगल की तरह की सूचना तकनीक के क्षेत्र की कंपनियों ने फेक ख़बरों की शिनाख्त करके उन्हें छाँट देने का एक प्रकल्प अपनाया है तब भी वह इन भक्तों के लिए किसी काम का नहीं होगा।
    बहरहाल, जीवन में झूठ के सच को स्वीकारते हुए भी हम यही कहेंगे कि झूठ भी जीवन में परिवर्तनों के सापेक्ष होता है। आज चल रहा झूठ कैसे कल पूरी तरह से अचल हो जाता है, इतिहास की गति को कुछ इस प्रकार से भी समझा जा सकता है। जिस दिन लोग समझ लेंगे कि मोदी जी के पास सिवाय झूठी बातों के कुछ नहीं है, उनकी सच्ची बातें भी सबको झूठ लगने लगेंगी और वहीं से इनके अंत का भी प्रारंभ हो जाएगा। इसीलिए राजनीति में अंततः मामला जन अवधारणा का होता है और शायद मोदी जी यह नहीं जानते कि नोटबंदी, जीएसटी और उनके विदेश-प्रेम ने अब तक उनके व्यक्तित्व की सच्चाई को खोल दिया है; उनके प्रति जनता के विश्वास में गिरावट का चक्र शुरू हो चुका है। झूठ, वह कितना ही बड़ा हो और कितने ही मुखों से क्यों न फैलाया जा रहा हो, संभवतः आगे उनके लिए मददगार साबित नहीं होगा।
यह जीएसटी चल नहीं सकता,
जैसे नोटबंदी नहीं चली
    यह कहना राज्य को चुनौती देने की तरह की धृष्टता लगती है, लेकिन जितनी गहराई में जाकर जीएसटी के विषय को देखता हूँ, उतना ही साफ तौर पर लगता है कि जिस रूप में अभी इसे लागू किया गया है, इस पर सही अर्थों में अमल हो नहीं पाएगा। आज के इसके बहु-स्तरीय और विविध दरों के स्वरूप में यह पूरी योजना भारतीय अर्थ-व्यवस्था को चरम अराजकता की सौग़ात देकर चंद सालों में ही दम तोड़ देगी। इसके अस्पष्ट और जटिल ढाँचे के कारण ही जीएसटी से जुड़े मामलों-मुक़दमों का ऐसा अंबार लगेगा कि कोई भी राज्य उन्हें संभाल नहीं पाएगा। मुकदमे जीएसटी पंचाट से लेकर हाईकोर्ट, सुप्रीम कोर्ट में भरे रहेंगे।
    इसमें लेन-देन के हर हिसाब की जाँच राज्य और केंद्र, दो स्तर पर अलग-अलग होने की बात कही गई है। इससे हमेशा इस बात का ख़तरा बना रहेगा कि केंद्र और राज्य के अधिकारियों की एक ही मामले में अलग-अलग राय हो। नौकरशाही स्वेच्छाचारी ढंग से काम करेगी लेकिन उसके स्वेच्छाचार की भी सीमा होगी! जब इस अराजकता के चलते राज्य के राजस्व पर बन आएगी तो इस पूरी व्यवस्था पर ही पुनर्विचार की ज़रूरत पैदा हो जाएगी, लेकिन तब तक अर्थ-व्यवस्था अधमरी हो गई होगी। मोदी जी भारत के आर्थिक इतिहास में तुग़लक़ के नए संस्करण के तौर पर ही याद किए जाएँगे।
प्रशासन मोदी-योगी
के वश की बात नहीं है
    हैरोल्ड लास्की ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘राजनीति का व्याकरण’ में लिखा था कि जनतंत्र में राज्य का संचालन विशेषज्ञों का काम है क्योंकि उसे उस जनता के हितों के लिए काम करना होता है जो अपने हितों के प्रति ही ज़्यादातर बेख़बर रहती है । ऐसे में सिर्फ वोट में जीतने से वास्तव में कोई प्रशासक नहीं हो जाता। ख़ास तौर पर जो लोग जनता के पिछड़ेपन का लाभ उठाने की राजनीति करते हैं, सत्ता पर आने के बाद वे जनता के जीवन में सुधार के नहीं, और ज्यादा तबाही के कारक बन जाते हैं।
    हैरोल्ड लास्की के इस कथन के क्लासिक उदाहरण हैं-हमारे देश की मोदी सरकार और यूपी की योगी सरकार। मोदी जी को जब और कुछ नहीं सूझा तो उन्होंने नोटबंदी की तरह का तुगलकी कदम उठा कर पूरी अर्थ-व्यवस्था को ही पटरी से उतार दिया।
    जनता के हितों के लिए काम करने के लिए बनी सरकार ने एक झटके में लाखों लोगों के रोजगार छीन लिए। किसानों के उत्पादों के दाम गिरा कर पूरी कृषि अर्थव्यवस्था को चौपट कर दिया। जीडीपी का आँकड़ा 2016-17 की चौथी तिमाही में गिरते हुए सिर्फ 6.1 प्रतिशत रह गया है; औद्योगिक उत्पादन मई महीने में-0.01 प्रतिशत गिर कर इसमें वृद्धि की दर 1.7 प्रतिशत रह गई है। यहाँ तक कि बैंकों की भी, ख़ुद रिजर्व बैंक की हालत ख़राब कर दी। नोटबंदी के धक्के के कारण इस बार आरबीआई ने केंद्र सरकार को मात्र 30659 करोड़ रुपये का लाभ दिया है जो पिछले पाँच सालों में सबसे कम और पिछले साल की तुलना में आधा है। जाहिर है इससे अपने वित्तीय घाटे से निपटने में केंद्र सरकार की समस्या और बढ़ जाएगी जिसकी गाज जनहित के ही किसी न किसी प्रकल्प पर गिरेगी।
    पूरी अर्थ-व्यवस्था अभी इस क़दर बैठती जा रही है कि अब अर्थशास्त्री मुद्रास्फीति की नहीं, मुद्रा-संकुचन को आज की मुख्य समस्या बताने लगे हैं। मुद्रा संकुचन का अर्थ होता है कंपनियों के मुनाफ़े में तेज़ी से गिरावट और उनके ऋणों के वास्तविक मूल्य में वृद्धि। इसकी वजह से बैंकों का एनपीए पहले के किसी भी समय की तुलना में और तेजी से बढ़ेगा।
    इसी प्रकार, गोरखपुर अस्पताल में आक्सीजन की आपूर्ति की समस्या को जानने के बावजूद मुख्यमंत्री योगी बच्चों की मृत्यु का कारण उनकी बीमारियों को बता रहे हैं जबकि इन बीमारियों से जूझने के लिए ही उन्हें आक्सीजन दी जा रही थी। उन्होंने ख़ुद माना कि आक्सीजन के सप्लायर को उसका बक़ाया नहीं चुकाया गया था, फिर भी बच्चे और कुछ वयस्क भी, जो आक्सीजन पर थे, उनके अनुसार अपनी बीमारियों की वजह से मरे! योगी की इन बेवक़ूफ़ी की बातों को क्या कहा जाए? गनीमत है कि अभी तक उन्होंने अस्पताल पर किसी प्रेतात्मा के साये को ज़िम्मेदार नहीं बताया और यज्ञ-हवन के जरिये अस्पताल को उससे मुक्त करने का उपाय नहीं सुझाया है, लेकिन वे कल यदि ऐसे ही किसी भारी-भरकम आयोजन में बैठ जाएँ तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
    केंद्र सरकार से लेकर भाजपा की तमाम सरकारें पर्यावरण से लेकर दूसरी कई समस्याओं के समाधान के लिए आज किसी न किसी ‘नमामि’ कार्यक्रम में लगी हुई हैं। मोदी जी के पास देश की हर समस्या का समाधान प्रचार के शोर में होता है। वह भले स्वच्छ भारत का विषय हो या कोई और विषय हो। केंद्र और राज्य सरकारों के इन कार्यक्रमों में लाखों लोग शामिल होते हैं, अर्थात जनता ख़ुश होती है। लेकिन वास्तविकता यह है कि इन सारे प्रचार मूलक कामों से जनता का ही सबसे अधिक नुक़सान होता है। जन हितकारी प्रकल्पों के लिए धन में कमी करनी पड़ती है।
    मोदी सरकार पहली सरकार है जिसने उच्च शिक्षा और शोध में खर्च को पहले से आधा कर दिया है। मनरेगा का भट्टा पहले से ही बैठा दिया गया है। किसानों के कर्ज-माफी के सवाल पर भी बहुत आगे बढ़ कर कुछ करने की इनकी हिम्मत जवाब देने लगी है। ऊपर से कूटनीतिक विफलताओं के चलते सीमाओं पर युद्ध की परिस्थति पूरे परिदृश्य को चिंताजनक बना दे रही है। इसीलिए आज हैराल्ड लास्की बहुत याद आते हैं-जनतंत्र में प्रशासन खुद में एक विशेषज्ञता का काम है। यह कोरे लफ्फाजों के बस का नहीं होता है। मोदी और योगी के तमाम कदमों के पीछे की विवेकहीनता को देख कर इस बात को और भी निश्चय के साथ कहा जा सकता है।
    जनतंत्र, नागरिक समाज और आज का भारत अंतोनिओ ग्राम्शी ने अपनी ‘प्रिजन नोटबुक’ में भी नागरिक समाज पर काफी गंभीरता से चर्चा की है। जनतंत्र में नागरिक समाज उसी की एक उपज होता है तो उसकी रक्षा का एक बड़ा कवच भी, यह लोकतांत्रिक व्यवस्था की पूरी संरचना में एक ऐसे लोच को तैयार करता है जो उसे किसी भी क्रांतिकारी या प्रति-क्रांतिकारी सीधे हमले से बचाता है।
    ग्राम्शी के पहले 1925 में हेराल्ड लास्की ने ‘अ ग्रामर आफ पालिटिक्स’ लिखी थी, जिस पर हम पहले जिक्र कर चुके हैं। यह संसदीय जनतांत्रिक व्यवस्था की संरचना के व्याकरण पर लिखा गया ग्रंथ है। लास्की इसमें संसदीय व्यवस्था में राजनीति और नौकरशाही के पूरे ढाँचे को अपना विषय बनाते हैं। वे अपने विषय में इस मूलभूत प्रस्थापना के साथ प्रवेश करते हैं कि राजशाही के बजाए जनतंत्र का अर्थ है राजा के हितों की रक्षा के लिए एक शासन व्यवस्था के बजाए जनता के हितों की रक्षा के लिए शासन व्यवस्था।
    शासन की इस नई संरचना की परेशानी तब शुरू होती है जब किसी भी बड़े संघर्ष के बाद राजशाही तो ख़त्म हो जाती है, लेकिन उसकी जगह जनता के हितों को साधने वाली व्यवस्था की संरचना तैयारशुदा उपलब्ध नहीं होती है। इसे सुचिंतित ढंग से निर्मित करना होता है। हमारे आज के समय के बहुचर्चित दार्शनिक स्लावोय जिजेक जब पूरी गंभीरता और आवेग के साथ ‘डे आफ्टर’ (कल क्या) की बात करते हैं तो उनका संकेत इसी बात की ओर होता है। येन केन प्रकारेण किसी एक को हटा कर दूसरे का सत्ता में आना उतना बड़ा विषय नहीं है, जितना बड़ा प्रश्न यह है कि सत्ता में आने के बाद क्या? तुनीसिया के बाद मिस्र के काहिरा में तहरीर स्क्वायर (जनवरी 2011) पर लाखों लोगों के उतर जाने से सालों से सत्ता पर क़ब्ज़ा जमाए बैठी होस्नी मुबारक की सरकार का पतन हो गया, अफ्रीका और मध्यपूर्व की अरब दुनिया में ‘अरब वसंत’ का प्रारंभ हो गया, लेकिन इस विद्रोह की लंबी शृंखला के बाद क्या?
    आज का सच यह है कि अफ्रीका और पश्चिमी एशिया का यह पूरा क्षेत्र चरम अराजकता, तबाही और साम्राज्यवादियों के हथियारों के परीक्षण का क्षेत्र बन गया है।
    अर्थात, एक विद्रोह मात्र से, सत्ता में परिवर्तन मात्र से सामाजिक जीवन में कोई सुनिश्चित परिवर्तन तय नहीं होता है। सामाजिक परिवर्तन उस शासकीय संरचना के बीच से मूर्त होते हैं, जो विद्रोह के दिन के बाद की एक लंबी रचनात्मक राजनैतिक संस्थागत प्रक्रिया के बीच से तैयार की जाती है।
    भारत से अंग्रेज़ों का चला जाना मात्र हमारी आजादी की रक्षा का कारक नहीं बन सकता था। सन् 47 के बाद तीन साल में हमने अपने गणतंत्र के संविधान को अपनाया और तिल-तिल कर अनेक सांस्थानिक परिवर्तनों के बीच से एक जन-कल्याणकारी राज्य की दिशा में काम शुरू किया। इसके रास्ते में तमाम बाधाएँ आती रही हैं और उनके संदर्भ में हम आज तक अपनी इस शासकीय संरचना को जनता के हितों की सेवा के लक्ष्य को मद्देनज़र रखते हुए उन्नत करने की लड़ाई में लगे हुए हैं।
    हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने निजता के अधिकार के बारे में 9 जजों की बेंच का जो सर्व-सम्मत फैसला सुनाया, उसे इस लगातार जारी प्रक्रिया में हाल के दिनों के एक अत्यंत महत्वपूर्ण मील के पत्थर के रूप में हम देख सकते हैं।
    यहाँ इस चर्चा का मूल विषय है- ‘डे आफ्टर’ ! लास्की ने जब संसदीय लोकतंत्र की संरचना पर विचार शुरू किया तो इसकी पहली सबसे बड़ी विशेषता या कमज़ोरी, जो भी कहें, यह बताया कि यह एक ऐसे प्रकल्प के प्रारंभ की तरह है जिसमें राजसत्ता को उस जनता के हितों को साधना होता है जो आम तौर पर अपने हितों के प्रति जागरूक नहीं होती, प्रायः अचेत होती है। उसके जीवन की कठिन परिस्थितियाँ ही उसके विवेक-सम्मत मानसिक विकास में बाधक बनती हैं।
    इसलिए इन परिस्थितियों में शासन के उस नौकरशाही ताने-बाने का का असीम महत्व हो जाता है जो जन-हितकारी बुद्धिजीवियों और चिंतकों के जरिए प्रशिक्षित और चालित होते हैं और जनता के हितों को परिभाषित करते हैं। राजनीति और समाज में बौद्धिकों और जागरूक लोगों के इन अक्सर अल्पमत तबक़ों को ही जनतंत्र का नागरिक समाज (सिविल सोसाइटी) कहते हैं।
   
    ग्राम्शी जब फासीवाद के खिलाफ लड़ाई की पृष्ठभूमि में ही इन समाजों में समाजवादी क्रांति की समस्याओं पर मनन कर रहे थे, उन्होंने जनतंत्र में इस बढ़ते हुए नागरिक समाज की उपस्थिति के सच को बहुत गहराई से समझा था और इसीलिए, पश्चिमी समाजों में एक झटके में, किसी क्रांतिकारी प्रहार के जरिए राजसत्ता पर क़ब्ज़ा करने की रूस की तरह की क्रांति को संभव नहीं पाया था। सचाई के उनके इसी अवबोध पर उनके प्रभुत्व के पूरे सिद्धांत की इमारत खड़ी है जिसमें झटके से होने वाली क्रांति और राजसत्ता पर क़ब्ज़े के बजाए वैचारिक संघर्ष की एक लंबी, नागरिक समाज पर विचारधारात्मक प्रभुत्व कायम करने की लड़ाई पर बल दिया गया था।
    संसदीय जनतंत्र और नागरिक समाज के संबंधों की इस चर्चा की पृष्ठभूमि में जब हम अपने भारतीय जनतंत्र के यथार्थ को देखते हैं, यहाँ की स्थिति बेहद जटिल और पेचीदा दिखाई देने लगती है। सत्तर साल की आजादी के बीच से यहाँ भी समाज के ऐसे प्रायः सभी हिस्सों में, जिनमें हज़ारों सालों के बीच भी कभी शिक्षा और अधिकार चेतना की रोशनी का प्रवेश नहीं हुआ था, शिक्षा का किंचित प्रवेश हुआ है और सभी समाजों का अपना एक बौद्धिक समुदाय भी पैदा हुआ है। कुल मिला कर देखने पर भारतीय समाज में ऐसे पढ़े-लिखे मध्यवर्गीय तबके की एक बड़ी जमात को पाया जा सकता है, जो शायद संख्या की दृष्टि से दूसरे किसी भी देश के नागरिक समाज से बड़ी हो सकती है, लेकिन फिर भी, आबादी के अनुपात में, इसका विस्तार इतना कम है कि हम अपने समाज को पश्चिमी समाजों की तरह पूरी तरह से अधिकार चेतना से संपन्न नागरिक समाज नहीं कह सकते हैंं । इसीलिए सरकार और नौकरशाही पर अपना निर्णायक दबाव बनाने की दृष्टि से यह अब भी जनतंत्र के बिल्कुल आदिम स्तर पर ही बना हुआ है जिसमें व्यापक जनता, जिसके मतों से सरकारें बना करती हैं, अपने ख़ुद के हितों के प्रति ही पूरी तरह से अचेत बनी हुई है।
    इसीलिए हमारे यहाँ आज भी 30-40 के ज़माने तक के यूरोप की वे सारी परिस्थितियाँ मौजूद हैं जिसमें किसी भी प्रकार से राज सत्ता पर क़ब्ज़ा करके कोई भी शासक गिरोह समाज को मनमाने ढंग से चला सकता है। चुनावों में सांप्रदायिकता और जातिवाद की तरह की भीड़ की आदिम-चेतना की प्रमुखता का मायने यही है कि नये जनतांत्रिक नागरिक समाज में आदिम ग़ैर-जनतांत्रिक समाज के वृत्त का प्रत्यावर्त्तन नहीं हो पा रहा है और इसीलिए हमारे यहाँ दुनिया में जातीय नफरत से किए जाने वाले जन-संहारों के इतने भयानक अनुभवों के बावजूद फासीवाद, नाज़ीवाद का ख़तरा एक सबसे ज्वलंत सचाई के तौर पर बना हुआ है।
    यहीं पर हम फिर एक बार ‘डे आफ्टर’ के विषय को विचार के दायरे में लाना चाहते हैं। हमारी आजादी के बाद भारत का शासन जिन ताकतों ने सँभाला उनके सामने पश्चिम के पूँजीवादी विकास और संसदीय राजनीति और जनतांत्रिक समाज का एक साफ ख़ाका था। सांप्रदायिकता के आधार पर बँटवारे के बावजूद चूँकि यह नेतृत्व सारी दुनिया में जातीय हिंसा के जघन्यतम रूपों के प्रति जागरूक था, इसने धर्म-निरपेक्षता, भाईचारा और सामाजिक न्याय के रास्ते पर तमाम स्तर पर सांस्थानिक विकास का एक सिलसिला शुरू किया। लेकिन इस नवोदित राष्ट्र के साथ जन्म से सांप्रदायिक और जातिवादी हिंसा का जो रोग लग गया था, उससे मुक़ाबले के लिए शिक्षा और चेतना के विस्तार से जिस तेज़ी से नागरिक समाज का विकास करना चाहिए था, वह नहीं हो पाया। वोट और भीड़ की राजनीति में यह एक सबसे जरूरी काम उपेक्षित रह गया।
    आज तमाम राजनैतिक दलों में, जिनमें दक्षिणपंथियों के साथ ही वामपंथी और मध्यपंथी भी शामिल हैं, बौद्धिकता का महत्व दिन प्रतिदिन घटता चला गया है। भारत का नागरिक समाज आज राजनैतिक समर्थन से पूरी तरह से वंचित होने के कारण किसी भी समय से कहीं ज्यादा कमज़ोर और लुंजपुंज दिखाई देता है, और यही वजह है कि भारतीय मध्यवर्ग की सूरत पशुवत उपभोक्ता की तरह की ज्यादा दिखाई देने लगती है। शिक्षा और समृद्धि से इनकी मानसिक चेतना का विकास न होने के कारण इनका एक हिस्सा सीधे तौर पर जनता के प्रति एक प्रकार की शत्रुता का भाव रखता है। वह फासीवादी ताकतों की अग्रिम पंक्ति में खड़ा दिखाई देता है।
    आज मोदी के नेतृत्व में जो लोग सत्ता में आए हैं, उनके पास कोई प्रगतिशील भविष्य दृष्टि नहीं है। जनता के एक बड़े हिस्से का पिछड़ापन ही विरासत में मिली इनकी राजनैतिक पूँजी है। इसीलिए केंद्र और अनेक राज्यों की सत्ता पर आ जाने के बावजूद जब भी ये ‘आगे क्या?’ की तरह के प्रश्न के सम्मुखीन होते हैं, ये पूरी तरह से ठिठक कर खड़े हो जाते हैं। इन्हें आगे भी गाय, गोबर, गो मूत्र आदि से अधिक और कुछ नहीं दिखाई देता। ये सांप्रदायिक दंगों और पड़ोसियों से शत्रुता के आधार पर थोथे राष्ट्रवाद से आगे कुछ नहीं सोच पाते हैं। ‘डे आफ्टर’ के सवाल का कोई भी सकारात्मक समाधान जनतांत्रिक संस्थाओं और नागरिक समाज के विस्तार से पूरे समाज के आधुनिकीकरण में निहित है, लेकिन दुर्भाग्य है कि इसी में वे अपने ख़ुद के तात्विक विकास के अंत को देखते हैं।
    यही वजह है कि मोदी-शाह आरएसएस सिर्फ ये पाँच साल नहीं, वोट की तिकड़मों के जरिए भले आगे और भी कुछ सालों तक शासन में रह जाएँ , ये इस समाज को गाय, गोबर, गोमूत्र और सांप्रदायिक नफरत से अधिक और कुछ भी देने में असमर्थ हैं। सच्चे अर्थों में हमारे समाज के आधुनिकीकरण के लिए ये अपनी आत्माहुति के जरिए ही आगे का कोई रास्ता खोज पाएँगे। क्या गालियाँ बकने वाले ट्विटर हैंडलर्स के ज्ञान संदेश पर कान लगाये रखने वाले प्रधानमंत्री के लिए यह कभी भी संभव हो पाएगा?
एक वित्त मंत्री जिसे आय-व्यय के आँकड़ों को पढ़ना भी नहीं आता!
    क्या कोई इस बात की कल्पना भी कर सकता है कि एक देश के वित्त मंत्री को अपनी आय और व्यय के आँकड़ों को सही तरह से पढ़ना नहीं आता है? लेकिन हमारे वित्तमंत्री अरुण जेटली के साथ बिल्कुल ऐसा ही है! जीएसटी कौंसिल की एक बैठक के बाद उन्होंने संवाददाता सम्मेलन में बताया कि जीएसटी लागू किए जाने के बाद जुलाई के पहले रिटर्न में कुल 95 हज़ार करोड़ रुपये का जीएसटी सरकारी ख़ज़ाने में जमा हुआ है जो उनकी दृष्टि में शुरू के महीनों को देखते हुए यथेष्ट था। लेकिन अब जो तथ्य सामने आए उनसे पता चला कि जीएसटी के खाते में जमा इन 95 हज़ार करोड़ रुपयों में आधी से भी कम राशि वास्तव में सरकार की अपनी आमदनी की राशि है। इनमें से 65 हज़ार करोड़ रुपये व्यापारियों द्वारा जमा कराई गई एक प्रकार की वह अग्रिम राशि है जिसे वे अपने पास पड़े स्टाक पर अदा किए गए पुराने करों के तौर पर वापस माँग रहे हैं। इन 95 हज़ार करोड़ रुपये में से 65 हज़ार करोड़ रुपये सरकार पर जीएसटी के जमाकर्ताओं के ऋण की तरह है।
    अब जब से ‘उत्पादन शुल्क और आबकारी के केंद्रीय बोर्ड’ (सीबीईसी) को और उसके जरिए जेटली को इस बात का पता चला है, इन्होंने इस राशि को अटका कर रखने की वे सभी पुरानी पैंतरेबाजियाँ शुरू कर दी हैं, जैसा नोटबंदी के समय देखा गया था। वित्तमंत्री ने निर्देश दिया है कि जिन लोगों ने भी अपने इस ऋण की वापसी का दावा किया है, उन्हें फ़ौरन वापस करने के बजाए किसी न किसी प्रकार से लटकाये रखो ताकि सरकार के सामने यह कोई नई तत्काल वित्तीय लागत खड़ी न हो जाए। जैसे इन्होंने नोटबंदी से सब लोगों के घरों के रुपये बैंकों में जमा करवा लिए और अभी दस महीनें बीत रहे हैं, लेकिन उन्हें विभिन्न उपायों से अपने रुपये वापस लेने से रोका जा रहा है, जीएसटी का यह मामला भी ऐसा ही है। जेटली ने सीबीईसी को कहा है कि एक करोड़ से ज्यादा के रिफंड की माँग करने वालों के खातों की कड़ी जाँच करके ही उन्हें उनका रुपया वापस किया जाना चाहिए।
    16 सितंबर 2017 के ‘टेलीग्राफ’ की रिपोर्ट से पता चलता है कि वित्तीय मामलों में एक ऐसे अज्ञ आदमी के हाथ में आज हमारा वित्त मंत्रालय है, जो जनता को और शायद प्रधानमंत्री को भी धोखे में रख कर किसी तरह अपना काम चला रहा है। आज कोई भी मंत्रालय निश्चिंत नहीं है कि उसे बजट के प्रावधान के अनुसार रुपया आवंटित होगा या नहीं! परिणाम यह है कि सरकारी राजस्व की डॉवाडोल स्थिति को पेट्रोल, डीज़ल और रसोई गैस के दामों में अंधाधुंध वृद्धि करके किसी तरह सँभाला जा रहा है। इसका जन-जीवन और पूरी अर्थ-व्यवस्था पर क्या असर पड़ रहा है, इसकी भी इन्हें कोई परवाह नहीं है। सुब्रह्मण्यम स्वामी ने बहुत सही कहा है कि भारत की अर्थ-व्यवस्था की स्थिति बिल्कुल डांवाडोल है। यह हिचकोले ले रही है और अगर फ़ौरन कुछ सही कदम नहीं उठाए गए तो इसके पुर्ज़े-पुर्ज़े बिखर सकते हैं। देखते-देखते न जाने कितने बैंकों का दिवाला पिट जाएगा, कल कारख़ाने बंद हो जाएँंगे और लाखों करोड़ों लोग नए सिरे से बेरोज़गार होकर सड़कों पर आ जाएँगे, पता नहीं है। स्वामी की इन बातों में जरा भी अतिशयोक्ति नहीं है। इनके संकेतों को सिर्फ मोदी की तरह का एक आत्म-मुग्ध और आर्थिक विषयों में शून्य नेता और जेटली की तरह का पूरी तरह से दुम हिलाऊँ वित्त मंत्री ही नहीं पकड़ सकता है। आम लोग अब बैंकों में अपना पैसा रखने से विरत होने लगे हैं।
    पीएम का अर्थ भी प्रोफेशनल मौरल कीपर (पेशेवर प्रवचक) नहीं होता है! मोदी की दशा पेशेवर प्रवचनकर्ता की हो गई है। मठार-मठार कर भाषण देना, जो मन में आए, बिल्कुल ग़ैर-ज़िम्मेदाराना ढंग से झूठ-सच कुछ भी बोलते जाना उनमें एक असाध्य रोग का रूप ले चुका है। प्रवचनकर्ता अपनी किसी बात के लिए जवाबदेह नहीं होता है। मोदी को इस बात का जरा भी अहसास नहीं है कि वे जिस पद पर हैं, उस पर किसी कोरे उपदेशक और भाषणबाज का कोई काम नहीं है। उनका पद जिम्मेदारी के साथ काम करने का पद है। दुनिया में आज तक कुछ भी थोथे नैतिक प्रवचनों से नहीं बदला है। न व्यक्ति, न समाज और न ही राष्ट्र भी। एक सजे-धजे मंच पर दूल्हे की तरह सज कर आने और कुछ उपदेश झाड़ने से कुछ नहीं बदला जा सकता है। परिवर्तनकारी कामों के लिए सामाजिक जटिलताओं के जिस प्रकार के गहन अध्ययन की जरूरत होती है, मोदी को उसी से सख्त परहेज है। मोदी ने कई बार सरकारी फाइलों और शिक्षा-दीक्षा (हार्वर्ड) के प्रति अपने तिरस्कार के भाव को खुल कर जाहिर किया है।
    जब शासक सच्चाई से कटा हुआ पूरा सनकी होता है, तुग़लक़ कहलाता है। तुग़लक़ ने मुद्रा की भूमिका को बिना जाने उसके साथ खेल किया था। मोदी जी पूरे तुग़लक़ है। वे भारत में इंटरनेट की सच्चाई जानते नहीं है, लेकिन अपनी पूरी सरकार को इसी के आधार पर चलाना चाहते हैं। उनके चरित्र की इन भारी कमियों ने आज भारत में हर क्षेत्र में अराजकता पैदा कर दी है, जिसका सबसे अधिक बोझ अंततः समाज के कमजोर तबके पर ही पड़ता है।
अधिनायकवाद की आहटें
    हिटलर ने अपने बारह साल (1933-1945) के शासन काल में सबसे पहला बीड़ा यही उठाया था कि विपक्ष के सभी दलों को नेस्तनाबूद कर दो। 30 जनवरी 1933 के दिन जब राष्ट्रपति हिंडेनबर्ग ने हिटलर को चांसलर पद की शपथ दिलाई, उस दिन को नाजीपार्टी में मास्करग्रोनसोंग अर्थात सत्ता पर क़ब्ज़े के दिन के रूप में मनाया जाता था। इसके बाद हिटलर ने सबसे पहले पूरी नाज़ी पार्टी को अपने क़ब्ज़े में लेने का अभियान चलाया जिसे ग्लेआईशैलटंग का नाम दिया गया और फिर 27 फ़रवरी 1933 के दिन जर्मनी की संसद राइखस्टाग में आग लगवा कर कम्युनिस्टों पर दोष मढ़ के कम्युनिस्ट नेताओं की गिरफ़्तारी और हिटलर के तूफ़ानी दस्तों के द्वारा उनकी हत्याओं तक का जो सिलसिला शुरू हुआ, उसने बाकी सारी विपक्षी पार्टियों और हिटलर का विरोध करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को अपने दायरे में लेने में ज्यादा समय नहीं लगाया। राइखस्टाग में आग के नाम पर एक आदेश जारी किया गया और उसी का प्रयोग करके कम्युनिस्टों और सोशल डैमोक्रेटों के संसद में प्रवेश को रोक कर मार्च 1933 में संविधान में वह संशोधन पारित किया गया जिससे सारी सत्ता अकेले हिटलर के हाथ में सिमट गई। इसके बाद के जर्मनी और दुनिया की बर्बादी का क़िस्सा यहाँ दोहराने की ज़रूरत नहीं है।
    वह सारी दुनिया में महामंदी का ज़माना था। उसमें हिटलर ने युद्ध की ज़ोरदार तैयारियाँ शुरू कर दीं, जिससे सुस्त अर्थव्यवस्था में थोड़ी जान आई। इसके साथ ही जर्मन जाति की श्रेष्ठता और अन्य सबके प्रति हीनता की भावना का प्रचार शुरू हुआ और इस प्रकार आम जनता को एक जुनूनी भीड़ में बदल दिया गया था।
    भारत में मोदी के नोटबंदी की तरह के क़दम ने अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ दी है। अब युद्ध की गर्मी भी पैदा की जा रही है। सत्ता के संपूर्ण केंद्रीकरण के लिए जरूरी आपात स्थिति। यह सब अधिनायकवाद की पैदाइश की जमीन की तैयारी है। राज्य सभा में बहुमत के प्रति इस प्रकार के अतिरिक्त शुद्ध रूप से अनैतिक आग्रह के पीछे इसके सिवाए और कोई वजह समझ में नहीं आती है। इस सरकार का एक भी बिल ऐसा नहीं है जो इस बहुमत के अभाव में लटका हुआ हो। इन्होंने वित्त बिल के रूप में सभी बिलों को राज्य सभा के अनुमोदन के बिना ही पारित करा लेने के एक और ग़ैर-वाजिब तरीक़े को भी पहले से ईजाद कर लिया है। ऐसे में राजनैतिक नैतिकता-अनैतिकता की बिना परवाह किए दूसरे दलों को सत्ता के प्रयोग के जरिए नष्ट करने की कोशिशों का और क्या तात्पर्य है!
    पूरी तरह से एक नाज़ी राज बनने की जरूरी शर्त है कि येन-केन-प्रकारेण भारत को एक बड़ी क्षेत्रीय सामरिक शक्ति का भी रूप दिया जाए। इसके लिए मोदीजी ने भारत को आज दुनिया में हथियारों का सबसे बड़ा सौदागर बना दिया है। उनकी इसी कोशिश की सबसे बड़ी कमज़ोरी है कि इसके चलते भारत अमरीकी दबावों के सामने पहले से ज्यादा कमज़ोर होता जा रहा है। हम नहीं जानते कि वे अपनी इन तमाम कोशिशों से भारत की पहले से चली आ रही विशेष क्षेत्रीय सामरिक स्थिति में कितना सुधार कर पाएँगे, लेकिन इस बदहवासी में वे भारतीय अर्थव्यवस्था के हितों को जो नुक़सान पहुँचा रहे हैं, उसके सामरिक स्तर पर भी नकारात्मक प्रभाव की आशंका से कोई इंकार नहीं कर सकता। इसके साथ ही भारत को तबाही की दिशा में ढकेल देंगे, मोदी शासन के तीन साल बाद कुछ इसी प्रकार के अशनि संकेत मिल रहे हैं।
‘सौभाग्य’ किसका? ग़रीबों का या पश्चिमी साम्राज्यवादियों का!
    मोदी ने ग़रीबों को मुफ्त बिजली देने का एक नया धोखा रचा है। सौभाग्य नाम की इस योजना को रखते वक्त उन्होंने अपनी सरकार के ग़रीब-प्रेम की लफ्फाजी में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। भारत में बिजली की अवस्था का जानकार हर व्यक्ति जानता है कि यह सरासर एक धोखा है। इसमें धोखे की इंतिहा तो तब और साफ हो गई जब मोदी ने बिजली न होने पर सबको सोलर पावर की सुविधा उपलब्ध कराने की बात कही। मोदी-जेटली के ग़रीब-प्रेम के धोखे की सच्चाई को आज अंधा आदमी भी देख सकता है। बिजली को छोड़िए, यह तो एक चुनावी शोशा है, इनकी असलियत जाननी है तो जरा गहराई से देखिए, इन्होंने जीएसटी में सबसे ज्यादा निशाना किन चीज़ों को बनाया है? रोटी, कपड़ा और मकान को। उन चीज़ों को जिनके बिना आदमी जी नहीं सकता है। भारत के इतिहास में पहली बार अनाज पर कर लगाया गया है। अंग्रेज़ों ने नमक पर कर लगाया था, उसके प्रतिवाद में पूरा देश उठ खड़ा हुआ था। गांधी जी ने दांडी मार्च और प्रतीकी तौर पर नमक का उत्पादन करके अंग्रेज़ों के उस कर को खुली चुनौती दी थी। मोदी-जेटली ने खाने-पीने की तमाम चीजों पर कर लगाकर उससे कम बड़ा अपराध नहीं किया है। इस मामले में ये अंग्रेज़ों के भी बाप निकले हैं। इसी प्रकार, कपड़े के व्यापार पर भी जीएसटी के रूप में पहली बार कोई कर लगा है। बीच में एक बार तैयार शुदा कपड़ों पर पिछली एनडीए सरकार ने उत्पाद-शुल्क लगाया था जिसे उसे बाद में वापस लेना पड़ा था। इन्हीं कारणों से जीएसटी के खिलाफ देश भर के अनाज और कपड़ा व्यापारी लगातार आवाज उठा रहे हैं। यह कर भारत के प्रत्येक आदमी से वसूला जाएगा, भले वह अमीर हो या ग़रीब। इसी प्रकार मकान का भी विषय है। रीयल इस्टेट के नाम से बदनाम इस क्षेत्र का बोझ भी हर आदमी पर पड़ेगा और सर्वापरि, तेल और रसोई गैस के दामों में मनमानी वृद्धि। इसके बारे में अलग से कुछ बताने की ज़रूरत नहीं है।
    ये वे बुनियादी कारण हैं जिनके कारण भारी मंदी में फँस चुकी अर्थव्यवस्था में महँगाई अर्थात मुद्रा-स्फीति की बीमारी भी दिखाई दे रही है। इनके विपरीत, इस सरकार ने लग्ज़री की चीज़ों पर कर कम किया है। जीवन की मूलभूत ज़रूरतों की चीज़ों से अधिकतम कर वसूली की नीति पर चलने वाली एक सरकार अपने को ग़रीब-हितैषी बताए, इससे बड़ा ढकोसला और क्या हो सकता है! इन करों से ही यह भी पता चलता है कि मोदी सरकार ने अर्थ-व्यवस्था का जो भट्टा बैठाया है, उसके सारे बोझ को वह भारत के ग़रीबों पर लाद दे रही है।
    मोदी की नोटबंदी के कारण जीडीपी में लगातार गिरावट से सामान्य आर्थिक गतिविधियों से कर वसूलने की इनकी क्षमता बुरी तरह से कम होती जा रही है। अब वे सीधे ग़रीबों पर डाका डाल कर इसकी कमी को पूरा कर रहे हैं और, सबसे मजे की बात यह है कि इनके सारे भक्त इस प्रकार ग़रीब जनता से वसूले गए राजस्व को मोदी-जेटली जुगल जोड़ी की आर्थिक नीतियों की सफलता बता रहे हैं! जिस बिबेक देबराय ने नोटबंदी के समय कहा था कि इससे 2 लाख करोड़ रुपये वापस नहीं आएँगे और कालाधन पर कर से अतिरिक्त 50 हज़ार करोड़ का आयकर वसूला जा सकेगा, ऐसा गप्पबाज अर्थशास्त्री अब प्रधानमंत्री का प्रमुख आर्थिक सलाहकार बन गया है। कोई भी अनुमान लगा सकता है, आगे और क्या-क्या होने वाला है।
    अभी विश्व अर्थव्यवस्था का वह काल चल रहा है जब पहले अमरीका का नारा दे रहा डोनाल्ड ट्रंप हर संभव कोशिश करेगा कि वह अमरीकी अर्थव्यवस्था में निवेश को बढ़वाएँ। इसके लिए वह अपने यहाँ ब्याज की दरों को बढ़ाएगा जो वहाँ अभी लगभग शून्य के स्तर पर चल रही है। अमरीका में ब्याज की दरों में वृद्धि भारत से विदेशी पूँजी के पलायन का रास्ता खोलेगी, जिसके बल पर मोदी सरकार अभी तक किसी तरह अपना काम चला पा रही है। देबराय घोषित रूप से विदेशी पूँजी का भक्त अर्थशास्त्री होने के नाते वह मोदी को ऐसी हर सलाह देगा जिससे भारत की तमाम संपत्तियाँ, इसके कल-कारख़ाने, खदान और कच्चा माल विदेशियों के हाथों बिक जाए। भारत के तेज़ी से गिर रहे जीडीपी को अब बढ़ाना किसी के वश का नहीं रह गया है, जब तक नोटबंदी के कुप्रभावों के साथ ही जीएसटी की अराजकता और तेल पर ज्यादा से ज्यादा कर के जरिये सरकार के चालू वित्तीय घाटे को पूरा करने की परिस्थिति ख़त्म नहीं होती है। इसीलिए देबराय हो या दूसरा कोई आर्थिक सलाहकार, मोदी ने जो अराजकता पैदा कर रखी है, उसे बिना विदेशी पूँजी की सहायता के सँभालना किसी के लिए मुमकिन नहीं होगा और, सबसे अधिक दुर्भाग्य की बात यह है कि मोदी के राजनैतिक डीएनए में विदेशियों को अपना सब कुछ लुटा देने की नीति के प्रतिरोध की कोई क्षमता नहीं है। वे भले सभी पर राष्ट्र-विरोधी होने का तमगा लगाते रहें, लेकिन सचाई यही है कि आरएसएस और उनकी राजनीति का जन्म ही विदेशी शासकों की दलाली के बीच से हुआ है और, इस प्रकार आने वाला समय अर्थव्यवस्था में ऐसे असंतुलन का समय होगा जब भारत की आर्थिक सार्वभौमिकता पूरी तरह से दाँव पर लगी हुई दिखाई देगी। मोदी जी अचकन पहन कर पश्चिम के नेताओं से जितनी ज्यादा गलबहियाँ करते दिखाई देंगे, भारत पर उतनी ही ज्यादा उनकी जकड़बंदी बढ़ती जाएगी। देबराय इस काम में जरूर मोदी के सहयोगी बनेंगे। सच कहा जाए तो मोदी आज भारत में पश्चिमी साम्राज्यवादियों के दूत का काम कर रहे हैं और ये अपने को ग़रीब-हितैषी बता रहे हैं!
    प्रधानमंत्री ने इस बीच एक डींग हांकी कि जीडीपी की तुलना में नगदी का अनुपात नोटबंदी के बाद 12 प्रतिशत से घट कर 9 प्रतिशत हो गया है। उनसे हमारा सवाल है कि क्या वे इस तथ्य का असली मायने जानते हैं? बाजार में जितनी भी नगदी होती है, वह एक प्रकार से आम लोगों के प्रति सरकार की देनदारी होती है। इसके घटने और इस पर जीडीपी की तुलना में विचार करने का मतलब है कि जीडीपी अर्थात देश के सकल उत्पादन के मूल्य की तुलना में आम लोगों के प्रति सरकार की देनदारी कम हो गई। इसमें सबसे बड़ा सवाल उठता है कि यह कैसे कम हुई है? क्या उत्पादन को बढ़ा कर, अर्थात सकल घरेलू उत्पाद का मूल्य बढ़ाकर यह हासिल किया गया है?
    नहीं। इसे खुद उन्होंने स्वीकारा है कि जीडीपी में गिरावट आई है। तब जीडीपी/ नकदी अनुपात में कमी का एकमात्र कारण यह है कि सरकार ने आम लोगों के पास की नगदी को जबरदस्ती बैंकों में रखने के लिए मजबूर किया है, अर्थात जबरदस्ती उनसे छीनकर अपने पास जमा कर लिया है। नोटबंदी के ऐन समय में तो यह अनुपात 7.5 प्रतिशत से नीचे चला गया था। अब बढ़ते-बढ़ते 9 प्रतिशत हुआ है। यह तब है जब बाजार में अब भी नगदी के प्रवाह को नाना उपायों से रोका जा रहा हैं। जैसे-जैसे ये बाधाएँ कम होगी, यह अनुपात फिर पुराने स्तर, बल्कि उससे भी अधिक हो जाए तो इसमें कोई अचरज नहीं होगा। वैसे एक प्रकार से बैंकों में जमा लोगों के रुपये भी तो एक प्रकार की नगदी ही हैं। प्रधानमंत्री ने यह नहीं बताया है कि अपने आँकड़ों में उन्होंने बैंकों में जमा राशि को भी पकड़ा है या नहीं। इसीलिए जब प्रधानमंत्री आज मंदी की परिस्थिति में आम लोगों के सामने जीडीपी और नगदी के अनुपात में गिरावट के आंकड़े पर डींग हांकते हैं, तब वे सीधे तौर पर आम लोगों को अपमानित करते हुए यह कह रहे होते हैं कि देखो, हमने तुम्हें कैसा बुद्धू बनाया, हम कितनी आसानी से तुम्हारा रुपया मारकर बैठ गए हैं या कितनी आसानी से हमने तुम्हारी कमाई के एक हिस्से को जबरदस्ती मिट्टी में बदल दिया है!
    जीडीपी में वृद्धि की दर में गिरावट के अनुमान का सिलसिला जारी है। इसकी सालाना दर 7.3 से गिर कर 6.7 प्रतिशत हो जाएगी। यह अनुमान और किसी ने नहीं रिजर्व बैंक के गवर्नर ने दिया है। मजे की बात यह है कि जिस दिन गवर्नर ने यह अनुमान दिया उसी दिन मोदी जी ने रिजर्व बैंक के इस अनुमान का ग़लत आँकड़ा पेश करते हुए कहा है कि यह 7.1 प्रतिशत से बढ़कर 7.7 प्रतिशत हो जाएगा! इसके साथ ही महँगाई में वृद्धि का सिलसिला जारी है : 4.2 प्रतिशत से बढ़ कर 4.6 प्रतिशत हो गई है।
    आजादी के इन सत्तर सालों में पहली बार, मोदी के तुगलकी शासन की बदौलत, भारत में रोज़गारों में वृद्धि तो दूर की बात, उनमें कमी आई है। 2013-14 से लेकर 15-16 के बीच लाखों लोग रोजगार गँवा चुके हैं। इकोनोमिक एंड पोलिटिकल वकीलीज के 23 सितंबर के अंक में विनोज अब्राहम के इस अध्ययन को पढ़िए। यह किसी भी सरकार के लिए डूब मरने की बात है। मोदी अकेले इसी अपराध के कारण सत्ता पर रहने के नैतिक अधिकार को गँवा चुके हैं। सरकार में आकर एक भी आदमी को नौकरी देना तो दूर की बात, ये सीधे तौर पर नौकरियाँ छीन रहे हैं।
    कुल मिला कर इन तथ्यों का मतलब है कि जनता का दरिद्रीकरण तेज़ गति से जारी है और मोदी के पास इससे निपटने के लिए बड़ी-बड़ी बातों और थोथे संकल्पों के अलावा कुछ नहीं है। नगदी/जीडीपी अनुपात में गिरावट भी इसी बात का द्योतक है जिस पर हमारे प्रधानमंत्री को बेहद गर्व है! उनका छप्पन इंच का सीना गर्व से फूलकर अभी शायद साठ इंच का हो गया है! आम जनता को कंगाल बनाने के कर्तृत्व पर यह कैसा घमंड!
मोदी की मुद्रा-ग्रंथी
    मोदी जी अक्सर मुद्रा के बारे में चर्चा करते हुए बेहद उत्साही दिखाई देते हैं। हमने रुपये का रूप बदल दिया। हजार के नोट को बंद करके दो हजार और दो सौ के नये नोट जारी कर दिए, पाँच सौ और पचास के नोटों को चमका दिया। इसके अलावा उनकी उपलब्धता में भी कमी कर दी। इस विषय पर प्रधानमंत्री के उत्साह को देख कर ऐसा लगता है जैसे मुद्रा महज मुद्रा नहीं, पूरी अर्थव्यवस्था का पर्याय हो! मुद्रा के रंग-रूप अर्थात उसकी शक्ल-सूरत में ही किसी देश की समृद्धि और गरीबी के सारे राज छिपे हुए हां! वह जितनी सुंदर होगी और जितनी विरल होगी और सर्वापरि यदि वह ईश्वर की तरह अमूर्त, अदृश्य होगी तो फिर तो कहना ही क्या! वह ईश्वरीय सत्ता की तरह सारे ब्रह्मांड पर राज करेगी।
    प्रधानमंत्री समझते हैं कि अर्थव्यवस्था को टन टनाटन करने, एकदम प्रकार आम लोगों को रोज चोर घोषित किया करते हैं, आयकर के बारे में अपनी चरम अज्ञान का परिचय देते हुए रोज चीख़ते हैं कि सवा सौ करोड़ लोगों में मात्र चंद लाख लोग ही आयकर देते हैं। यह देश के प्रत्येक जन को अंदर से डरा दे रहा है। साधारण आदमी यह जानता है कि मोदी की तरह के शासकों के शासन की मार कभी भी बड़े-बड़े पूँजीपतियों, धन्ना सेठों पर नहीं पड़ती है। उनके तो ये सबसे क़रीबी दोस्त हैं जिनके निजी हवाई जहाज़ों में मौज करने के इनके पुराने अभ्यास हैं। ऐसे शासन का डंडा सिर्फ आम मासूम लोगों के सर पर ही पड़ा करता है। इसीलिए आज किसी भी प्रकार का ख़र्च करने के पहले हर आदमी दस बार विचार कर रहा है।
    नोटबंदी ने आम लोगों की घर में नगदी को जमा रखने की प्रवृत्ति को सबसे ज्यादा बल पहुँचाया है। आम आदमी समझता है कि किसी आपद-विपद के समय खुद के पास नगदी जमा पूँजी पर ही सबसे अधिक भरोसा किया जा सकता है। बैंकों और सोना-चाँदी पर भी लोगों की आस्था कम हो गई है। हमें नहीं लगता कि इस प्रकार के एक कोरे लफ़्फ़ाज़ के शासन के रहते कभी भी भारत इस मंदी की स्थिति से निकल पाएगा। वैसे भी, भारत की अर्थ-व्यवस्था को अब अपनी पुरानी लय में लौटने में सालों-साल लग जाएँंगे।
केंद्रीय राजस्व सचिव की आत्म स्वीकृति
    भारत के राजस्व सचिव हँसमुख अधिया का आज एक बयान फिनेन्शियल एक्सप्रेस ने जारी किया है। उनके इस वक्तव्य को थोड़ी सी सावधानी से पढ़ने से ही यह साफ हो जाता है कि वे कह रहे हैं कि अब जब जीएसटी लग चुका है, तब इसमें कर की दरों को बिल्कुल नए रूप में इस प्रकार ढालना होगा ताकि छोटे और मंझोले व्यापारियों पर इसका बोझ कम हो सके। इसको पूरी तरह स्थिर होने में साल भर का समय लगेगा। इन चार महीनों में तो सिर्फ इसके अनुपालन के बारे में शुरूआती समस्याएँ सामने आई हैं, जिन पर जीएसटी कौंसिल में विचार चल रहा है। अब तक सौ चीजों पर जीएसटी की दरों को ठीक किया गया है। लेकिन इसे एकदम नए सिरे से ढालना होगा। अभी भी एक जैसी बहुत सी चीज़ों पर अलग-अलग दर से कर लगा हुआ है। इन सबको पकड़-पकड़ कर एक समान करना होगा। जब तक इसे छोटे और मंझोले व्यापारियों तथा आम लोगों के लिए सुविधाजनक नहीं बनाया जाएगा, इसका अनुपालन मुश्किल है । इसके लिए बहुत गहराई में जाकर काफी हिसाब-किताब करना होगा। तब जाकर कुछ ऐसी चीज बन पाएगी जिस पर आगे सही ढंग से अमल संभव होगा।
    गौर कीजिए, अधिया के इस पूरे वक्तव्य के हर बिंदु पर बार-बार पूरी स्कीम को नए सिरे से ढालने, करने की बात आई है। यह सबसे पहले तो खुद सरकार के एक सर्वाच्च अधिकारी की खुली स्वीकृति है कि जीएसटी को मोदी सरकार ने जिस प्रकार लागू किया, वह बहुत ही ग़ैर-ज़िम्मेदाराना और विवेकहीन ढंग था, जिसके कारण अब सभी स्तरों पर, सिर्फ चार महीने के अंदर ही इसे बिल्कुल नए रूप में ढाल कर पेश करने की ज़रूरत महसूस की जाने लगी है। दूसरा, यह अब साफ है कि जीएसटी का अभी का रूप चलने वाला नहीं है। इसे यह सरकार बदले या इसकी विदाई के बाद कोई दूसरी सरकार बदले, इसको बदलना ही होगा। ऊपर से, इसके चलते राजस्व संग्रह के पूरे ढाँचे में एक लंबे समय तक अफ़रा-तफ़री मची रहेगी। यह बात और कोई नहीं, खुद भारत सरकार का राजस्व सचिव कह रहा है। नरेंद्र मोदी ने अपने तुगलकीपन में नोटबंदी की और उसी प्रकार तत्काल राजनैतिक लाभ उठाने के लालच में देश के राजस्व संग्रह के चालू ढाँचे को हटाकर उसकी जगह जीएसटी के एक लुंज-पुंज ढाँचे को लाद दिया। इसे भारतीय अर्थ-व्यवस्था के प्रति उनके एक सरासर अपराध के सिवाय और कुछ नहीं कहा जा सकता है।
    यह वह समग्र पृष्ठभूमि है जिसके संदर्भ में भारतीय वामपंथ को जीएसटी को पूरी तरह ठुकराने की माँग करते हुए दुविधाहीन भाषा में इसका विरोध करना चाहिए। जीएसटी आज राजनीति की एक बड़ी विभाजक रेखा हो सकती है। नए राजनैतिक विकल्प को निर्द्वंद्व भाव से इसे रद्द करने की घोषणा करनी चाहिए। इस सच को एक क्षण के लिए भी नहीं भूलना चाहिए कि जीएसटी की तरह का भूत मूलतः आरएसएस के केंद्रीकृत शासन के विचारों की ही उपज है।

पश्चिमी समाजों की जैसे-जैसे समृद्धि बढ़ती गई, आम लोगों में शिक्षा और चेतना का प्रसार होता गया, उसी अनुपात में इस नागरिक समाज का भी, अर्थात अपेक्षाकृत चेतना संपन्न तबक़ों का भी लगातार विकास होता गया है। यह ग़रीबी और पिछड़ेपन के बहुमत वाले समाज के वृत्त से निकल कर समृद्ध और विकसित चेतना के समाज के नये वृत्त में प्रत्यावर्त्तन उन समाजों को पूरी तरह से भिन्न आधार पर स्थापित कर देता है, जिसकी पहले के समाज में कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। संसदीय लोकतंत्र के आंतरिक विकास के इस नए चरण में शासन की पूरी संरचना अनोखे ढंग से पूर्ण स्वतंत्र और स्वायत्त अनेक सांस्थानिक समुच्चय का नया रूप ले लेती है। आज जिस दिन अमरीका का ‘महाबली’ समझा जाने वाला राष्ट्रपति चुन कर सत्ता सँभालता है उसी दिन अमरीकी प्रेस का बड़ा तबका उसके प्रति अपनी खुली शत्रुता की घोषणा करने से परहेज़ नहीं करता और वहाँ का सुप्रीम कोर्ट उसके पहले प्रवासन संबंधी प्रशासनिक फैसले को कानून सम्मत न मान कर खारिज करने में देरी नहीं लगाता। इसी का एक परिणाम यह भी है कि नागरिक समाज और उसकी संस्थाओं के सामने सरकारी नौकरशाही अक्सर एकदम बौनी दिखाई देने लगती है।

-अरुण माहेश्वरी
लोकसंघर्ष पत्रिका मार्च 2018 में प्रकाशित 

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