पाकिस्तान बनाने की माँग की अहम बुनियाद टू-नेशन थ्योरी या दो-कौमी नजरिया ही था। इस टू-नेशन थ्योरी पर अपने खयालात का इजहार करने से पहले मैं जरुरी समझता हूँ कि नेशन के कान्सैप्ट पर कुछ विचार कर लूँ।
नेशन अंग्रेजी जबान का लफ्ज हैं। यह बुनियादी तौर पर लैटिन जबान के दंजपव (नेशो) से निकला है, जिसका मतलब है, पैदाइश, लोग, कबीला वगैरह। नेशन लोगों का एक वह बड़ा समूह है, जिसमें कुछ साझा बातें हैं। इन साझा बातों में जबान, परम्परा, पहनावा, आदतें, रस्म-ओ-रिवाज, और वह इलाका, जहाँ ये लोग रहते हैं, शामिल है।
लोगों का एक बड़ा ग्रुप, जो एक ही जबान बोलता हो, लोगों के उस ग्रुप के रस्म-ओ-रिवाज एक-से हों, उनका पहनावा एक-सा हो, वह अपने आप को उस ग्रुप के तौर पर ही पहचानते हों, वह अपने ग्रुप के भले-बुरे को अपना ही भला-बुरा समझते हों, तो वह ग्रुप एक नेशन है। किसी नेशन का अपना आजाद मुल्क हो, यह भी कोई जरूरी नहीं है। किसी एक ही मुल्क में कई नेशन्स इकठ्ठा भी रह सकते हैं।
अगर पाकिस्तान की बात करें, तो पख्तून एक नेशन हैं। बलोच एक नेशन हैं। सिन्धी एक नेशन हैं। पंजाबी एक नेशन हैं।
नेशन कोई ऐसा समूह नहीं है, जो एक ही दिन में बन गया हो, या बहुत थोड़े-से वक्त में ही बन गया हो। लोगों के किसी समूह को एक नेशन बनने में लम्बा वक्त लगता है। लोगों के एक समूह को नेशन बनने में लगा वक्त ही इतिहास में लिखा जाता है। लफ्ज नेशन किसी आजाद मुल्क के लिए भी इस्तेमाल किया जाता है। किसी खास इलाके को भी नेशन कह दिया जाता है। जब यूनाइटेड नेशन्स कहा जाता है, तो वहाँ उसका मतलब अलग-अलग मुल्कों से है, जिनकी आजाद हस्ती है। भारत इसलिए एक नेशन है, क्योंकि इसकी आजाद हस्ती है। यह एक आजाद मुल्क है। इसमें अलग-अलग जबानें बोलने वाले लोग रहते हैं, जिनकी अलग-अलग संस्कृतियाँ, बनसजनतमे हैं, अलग-अलग रस्म-ओ-रिवाज हैं।
कोई भी इन्सान अगर भारत में आकर भारत की नागरिकता हासिल कर लेता है, तो वह भारत नेशन का हिस्सा बन जाता है। नेशन का ऐसा संकल्प सिविक नेशनलिज्म (Civic Nationalism) कहा जाता है।
नेशन के कान्सैप्ट को कभी-कभी जातीय राष्ट्रवाद (ethnic nationalism) के नजरिए से भी कमपिदम किया जाता है। एडोल्फ हिटलर ने ‘नेशन’ के बारे में कहा था, “What makes a people or to be more correct a race is not language but blood”. उसके नजरिए से तो नेशन असल में तंबम है, नस्ल है।
हिटलर ने कहा था, “It is almost inconceivable how such a mistake could be made as to think that a Nigger or a Chinaman will become a German because he has learned the German language and is willing to speak German for the future and even to cast his vote for a German political party-”
यह सोच से भी परे है कि ऐसी गलती कैसे की जा सकती है कि यह सोचा जाए कि एक निग्गर या एक चाइनीज जर्मन बन जाएगा, क्योंकि उसने जर्मन भाषा सीख ली है और भविष्य में जर्मन बोलने को तैयार है, और यहाँ तक कि वह जर्मन सियासी पार्टी को वोट देने को भी तैयार है। हिटलर के इस नजरिए को ही जातीय राष्ट्रवाद (Ethnic Nationalism) कहा जाता है। अगर कोई इन्सान बाहर से आकर किसी मुल्क का नागरिक बनता है, तो भी वह उस मुल्क की नस्ली नेशन का हिस्सा नहीं माना जाएगा। जातीय राष्ट्रवाद के नजरिए से जर्मन एक नेशन है। और कोई भी गैर-जर्मन आदमी जर्मनी में रहकर, जर्मन जबान बोलकर जर्मन नहीं बन सकता, क्योंकि जर्मन होना एक एथनिक मुद्दा है। जो जर्मन पैदा नहीं हुआ, वह जर्मन नहीं हो सकता, ऐसा नजरिया ही जातीय राष्ट्रवाद है।
क्या मुस्लिम होना कोई नस्ली या जातीय (ethnic) मुद्दा है? अपनी नस्ल को तो कभी भी बदला नहीं जा सकता। जो जर्मन नस्ल का है, वह जर्मन ही रहेगा। जो अरब नस्ल का है, वह अरब ही रहेगा। नस्ल का सीधा ताल्लुक जन्म से है। क्या मुसलमान होने का सीधा ताल्लुक जन्म से है? जो मुसलमान नहीं पैदा हुआ, क्या वह मुसलमान नहीं हो सकता? जो मुसलमान पैदा हुआ, क्या वह कभी गैर-मुसलमान नहीं हो सकता?
दूसरे मजहबों के कई लोग मुसलमान बन जाते हैं और कई मुसलमान इस्लाम छोड़ कर कोई और मजहब अपना लेते हैं या नास्तिक भी बन जाते हैं। इससे बिल्कुल साफ हो जाता है कि मुसलमान होना कम-अज-कम जातीय राष्ट्र या नस्ली कौम होना तो बिल्कुल नहीं है।
क्या मुसलमान होना भाषाई राष्ट्र (Linguistic nation), या एक ही जबान बोलने वाली कौम होना है?
पूरे साउथ एशिया में रहने वाले मुसलमान अलग-अलग जबानें बोलने वाले लोग हैं। कोई पश्तो बोलता है, तो कोई फारसी। कोई पंजाबी बोलता है, तो कोई सराइकी। कोई सिन्धी बोलता है, तो कोई बलोची। कोई हिन्दी बोलता है, तो कोई उर्दू। कोई गुजराती बोलता है, तो कोई मराठी। कोई तमिल भी बोलता है। कोई कन्नड़ भी बोलता है।
इससे बिल्कुल साफ हो जाता है कि साउथ एशिया में रहने वाले मुसलमान एक भाषाई राष्ट्र (Linguistic nation) भी नहीं हैं। आल इण्डिया मुस्लिम लीग हिन्दू महासभा और हिन्दुत्ववादियों ने जब हिन्दू मुस्लिम नेशन का मुद्दा उठाया, तो उन्होंने दरअसल नेशन की एक अलग परिभाषा देने की कोशिश की थी। इस परिभाषा के अनुसार रिलीजन या मजहब ही नेशन है।
इसी टू-नेशन थ्योरी की बुनियाद पर पाकिस्तान की स्थापना की माँग की गई थी। और, आखिर, इसी टू-नेशन थ्योरी या दो-कौमी नजरिया की बुनियाद पर ही पाकिस्तान बनाया गया था।
टू नेशन थ्योरी-एक जायजा
टू नेशन थ्योरी पर मेरे लेख का यह दूसरा हिस्सा है। पहले हिस्से में मैंने मुख्य 3 तरह के नेशनलिज्म की बात की थी। ये 3 तरह के नेशनलिज्म हैं, सिविक नेशनलिज्म, एथनिक नेशनलिज्म, और लिंगुइस्टिक नेशनलिज्म।
सिविक नेशनलिज्म के अनुसार किसी एक आजाद मुल्क में रहने वाले लोग एक नेशन हैं। कोई भी इन्सान उस मुल्क की शहरियत हासिल करके उस नेशन का हिस्सा बन सकता है।
जातीय राष्ट्रवाद या एथनिक नेशनलिज्म के मुताबिक नेशन एक एथनिक, एक नस्ली ग्रुप है। जो उस नस्ल में पैदा हुआ है, वही उस नेशन का हिस्सा है।
भाषाई राष्ट्रवाद या लिंगुइस्टिक नेशनलिज्म के मुताबिक एक खास जबान बोलने वाले, जिनके रस्म-ओ-रिवाज आदि एक-से हैं, वह एक नेशन हैं।
मुसलमान अलग-अलग जबानें बोलते हैं, इसलिए वे लिंगुइस्टिक नेशन नहीं हैं। मुसलमान अलग-अलग नस्लों से तअल्लुक रखते हैं, इसलिए वे एथनिक नेशन भी नहीं हैं।
मुस्लिम लीग ने जब यह कहा कि मुसलमान एक अलग नेशन हैं, तो उसका मतलब यही बनता था कि रिलीजन या मजहब ही नेशन हैं। जो दलीलें मैंने मुसलमानों के बारे में दीं, वही दलीलें हिंदुओं पर भी लागू होती हैं और किसी और मजहब को मानने वाले लोगों पर भी।
भारत के अन्दर रहने वाले हिन्दू ही बहुत भाषाएँ बोलते हैं। पंजाबी, हिन्दी, कश्मीरी, गुजराती, मराठी, तमिल, कन्नड़, मलयालम, तेलगू, बंगाली आदि भाषाएँ भारत में बोली जाती हैं और जिन-जिन इलाकों में यह भाषाएँ बोली जाती हैं, वहाँ के रहने वाले हिन्दू यही भाषाएँ बोलते हैं। यह भाषाएँ उनकी मातृ-भाषाएँ हैं।
भारत के बाहर भी हिन्दू अलग-अलग जबानें बोलते हैं। नेपाल में नेपाली भी बोलते हैं। यूरोप में रहने वाले हिन्दू इंग्लिश, फ्रेंच, और जर्मन आदि भाषाएँ बोलते हैं। अफ्रीकन देशों के अफ्रीकन हिन्दू अफ्रीकन भाषाएँ बोलते हैं। क्योंकि पूरे संसार में हिन्दू अलग-अलग भाषाएँ बोलने वाले लोग हैं, इसलिए सारे हिन्दू किसी एक ही भाषाई समूह या लिंगुइस्टिक नेशन से तअल्लुक नहीं रखते हैं। वे अलग-अलग लिंगुइस्टिक नेशन्स से तअल्लुक रखते हैं।
सारे हिन्दू किसी एक ही जातीय राष्ट्र या एथनिक नेशन से भी तअल्लुक नहीं रखते हैं। भारत में ही इंडो-यूरोपियन (पदकव - मनतवचमंद) नस्ल के भी हिन्दू हैं और द्रविड़ नस्ल के भी। मोंग्लोइड नस्ल के हिन्दू भी भारत में हैं। दूसरे मुल्कों में भी बहुत लोग हिन्दू बने हैं। कई अफ्रीकन मूल के हिन्दू भी हैं। साफ है कि सारे हिन्दू किसी एक ही एथनिक नेशन से भी तअल्लुक नहीं रखते हैं।
सभी हिंदुओं की संस्कृति भी एक नहीं है। कश्मीरी हिंदुओं की संस्कृति तमिल हिंदुओं की संस्कृति से बिल्कुल अलग है। उनका पहनावा बिल्कुल अलग है। उनकी भाषा बिल्कुल अलग है। उनके रस्म-ओ-रिवाज बिल्कुल अलग हैं। इसी प्रकार, दूसरे हिंदू समाजों की बात है, जिन की अपनी-अपनी अलग संस्कृति है।
हिंदू एक सिविक नेशन भी नहीं है, क्योंकि वह सिर्फ एक देश तक ही सीमित नहीं हैं। सभी के सभी हिंदू भारतीय राष्ट्र के ही हों, ऐसा बिल्कुल नहीं है। बहुत हिंदू ऐसे हैं, जो भारतीय नहीं हैं। कोई नेपाली है। कोई बांग्लादेशी है। कोई श्रीलंकन है। कोई पाकिस्तानी है। कोई ब्रिटिश है। कोई अमरीकन है। कोई कैनियन है। कोई इंडोनेशियन है। आल इण्डिया मुस्लिम लीग ने नेशन की अपनी ही परिभाषा के मुताबिक हिन्दुओं और मुसलमानों को अलग-अलग नेशन माना। बात सिर्फ इतनी ही रहती कि हिन्दू एक अलग नेशन हैं और मुसलमान एक अलग नेशन, तो भी कुछ खास न होता, बस एक जेहनी रस्साकशी चलती रहती। लेकिन, बात तो यह बना दी गई कि मुसलमान एक अलग नेशन हैं और हिन्दू एक अलग नेशन हैं, इसलिए ये दोनों इक्कठा नहीं रह सकते।
उनकी दलील थी कि हिंदुओं और मुसलमानों के मजहब, इतिहास, रस्म-ओ-रिवाज अलग-अलग हैं, इसलिए उनके मुल्क भी अलग-अलग होने चाहिए। अगर यह दलील मानी जाए कि मुसलमान हिन्दुओं से एक अलग नेशन हैं, इसलिए इकट्ठे नहीं रह सकते, तो फिर मुसलमान पश्चिमी देशों में ईसाइओं के साथ इकट्ठे कैसे रह लेते हैं? अगर मुस्लिम एक अलग मजहब होने की वजह से एक अलग नेशन हैं, तो फिर ईसाई भी तो एक अलग मजहब के लोग हैं। वे भी तो फिर एक अलग नेशन हुए। अगर यूनाइटेड इण्डिया में मुसलमान हिन्दुओं के साथ नहीं रह सकते, तो फिर बर्मा में भी मुसलमान बुद्धिस्ट लोगों के साथ नहीं रह सकते, क्योंकि बुद्धिस्ट्स भी तो अलग मजहब को मानने वाले हैं। श्रीलंका में भी बुद्धिस्ट और हिन्दू हैं। वहाँ भी मुसलमान उनके साथ कैसे रह सकते हैं? चाइना में तो कम्युनिस्ट लोग बहुत हैं। वहाँ मुसलमान कैसे रह सकते हैं?
हकीकत यह है कि मुसलमान पश्चिमी देशों में ईसाई लोगों के साथ राजी-खुशी रह रहे हैं। लंदन का तो इस बार मेयर भी पाकिस्तानी मूल का एक मुसलमान ही चुना गया है।
आज भारत में रहने वाले मुसलमानों की तादाद पाकिस्तान में रहने वालों मुसलमानों से कुछ ज्यादा ही है, कम नहीं। अगर मुसलमान हिंदुओं के साथ नहीं रह सकते होते, तो पाकिस्तान जितने ही मुसलमान भारत में कैसे रह रहे हैं? भारत में मुसलमान राष्ट्रपति के पद तक भी पहुँचे हैं। कुछ लोग कहेंगे कि भारत में मुसलमानों पर तशद्दुद हो रहा है, हिंसा हो रही है। अगर यही दलील है, तो तशद्दुद इराक में भी हो रहा है और सीरिया में भी। क्या पाकिस्तान में बम्ब धमाकों में, खुदकुश हमलों में, गोलीबारी में बेगुनाह मुसलमान नहीं मारे जा रहे? ऐसी हिंसा अमन-कानून की समस्या है, अलग नेशन होने की नहीं। अगर मुसलमान होना ही अपने-आप में एक कौमियत है, तो एक ही कौम के इतने सारे मुल्क क्यों हैं? सभी इस्लामिक मुल्क एक ही मुल्क में तब्दील क्यों नहीं हो गए?
अगर मुसलमान होना ही अपने-आप में एक कौमियत है, तो मुस्लिम पाकिस्तान में पख्तून, बलोच, सिन्धी वगैरह नस्ली मुद्दे क्यों उठे?
अगर मुसलमान होना ही अपने-आप में एक कौमियत है, तो इस्लामिक मुल्कों में शिया और सुन्नी के झगड़े क्यों हैं? क्या अब शिया एक अलग नेशन हैं और सुन्नी एक अलग नेशन हैं? क्या ईरानी लोग इसलिए अलग नेशन हैं, क्योंकि उनमें ज्यादातर शिया हैं, या इसलिए अलग नेशन हैं, क्योंकि उनका अपना एक अलग आजाद देश हैं?
अगर मुसलमान होना ही अपने-आप में एक कौमियत है, तो फिर पाकिस्तान से अलग होकर 1971 में बांग्लादेश क्यों बना?
हकीकत यह है कि अगर सभी के साथ एक-सा इंसाफ हो, सभी को बराबरी का दर्जा मिले, तो सभी कौमें, सभी नेशन्स इकट्ठा रह सकते हैं। अगर एक ही कौम में कुछ लोगों से बे-इंसाफी हो, तो बदअमनी फैलेगी, हिंसा होगी। हमारी जद्दोजहद बे-इंसाफी के खिलाफ होनी चाहिए, न कि लोगों को मजहबों, नस्लों, जातों, जबानों, और नेशन्स के नाम पर बाँटा जाना चाहिए।
पाकिस्तान में ऐसे विचारवान हैं, जो यह कहते हैं कि 1971 में बांग्लादेश की स्थापना से टू नेशन थ्योरी गलत साबित नहीं होती। उनकी दलील है कि टू नेशन थ्योरी तभी गलत साबित होती, अगर 1971 में अलग बांग्लादेश ना बनता, बल्कि बांग्लादेश भारत में शामिल हो जाता।
इस दलील में कुछ भी वजन नहीं है। बांग्लादेश 1971 में भारत में शामिल नहीं हुआ इसकी वजह कुछ और भी हो सकती है। अंतर्राष्ट्रीय दबाव की वजह से भी हो सकता है कि भारत सरकार ने बांग्लादेश को भारत में शामिल करने की कोई भी प्लानिंग न की हो। दूसरा, जो बांग्लादेश को भारत में शामिल न होने को टू-नेशन थ्योरी का गलत साबित होना नहीं मान रहे, वे बांग्लादेश के भारत में शामिल हो जाने को भी टू-नेशन थ्योरी का गलत साबित होना नहीं मानते। तीसरा, बांग्लादेश की स्थापना इतना तो सिद्ध कर ही रही है कि बंगाली कौम एक अलग लिगुइस्टिक नेशन है, जो अपने आप में ही टू-नेशन थ्योरी को गलत साबित कर रही है। बंगाली कौम बिल्कुल वैसे ही एक अलग लिगुइस्टिक नेशन है, जैसे पख्तून कौम एक अलग एथिनिक नेशन है। यही तो नेशन का
अधिकतर मान्य संकल्प है और यह टू-नेशन थ्योरी को ही तो गलत साबित कर रहा है, जो यह कहती है कि मुसलमान एक अलग नेशन हैं।
कोई व्यक्ति जब अपना मजहब बदलता है,तो महज इसी से उसकी राष्ट्रीयता नहीं बदल जाती। भारत के ज्यादातर मुसलमान भारत के ही मूल निवासी हैं, जो भूतकाल में कभी भारतीय धर्म को छोड़कर मुसलमान बन गए थे। मुसलमान बनने के साथ उनकी राष्ट्रीयता नहीं बदल गई थी।
अगर टू-नेशन थ्योरी वाली नेशन की परिभाषा को मानें, तो फिर हमें मानना पड़ेगा कि अगर एक ही बाप के चार बेटे हों और उनमें से एक हिन्दू, एक मुसलमान, एक ईसाई, और एक सिख बन जाए, तो वह चारों चार अलग-अलग नेशन्स से ताल्लुक रखने वाले होंगे।
यह सच है कि सनातन धर्म एक अलग मजहब है और इस्लाम एक अलग मजहब है। पर अलग-अलग मजहब होने से ही एक ही मुल्क में रहने वाले लोग अलग-अलग राष्ट्र नहीं हो जाते।
ऐसा भी नहीं है कि भारत में रहने वाले सभी मुसलमान भारतवंशी ही हों। यह सच है कि दूसरी कौमों के मुसलमान भी भारत में आए। इनमें तुर्क भी थे, अरबी थे, और मुगल भी थे, लेकिन वक्त के साथ तुर्कों, अरबों और मुगलों के वारिस भारत में रहकर भारतीय ही बन गए थे। आज भी उनके वंशज भारत में ही रहते हुए भारतीय जबान बोलते हैं, भारतीय खाना खाते हैं, भारतीय पहनावा पहनते हैं, और भारतीय तहजीब ही उनकी अब अपनी तहजीब है। अब वे तुर्की नहीं बोलते, फारसी नहीं बोलते।
पंजाब में रहने वाला तुर्कों का कोई वारिस आज पंजाबी बोलता है और पंजाबी कल्चर से ही मुहब्बत करता है। अब वह तुर्क नहीं है, पंजाबी है। उसकी भाषाई राष्ट्रीयता को बदलने में जमाना लगा है। वह रात-ही-रात में तुर्क से पंजाबी नहीं हो गया है।
ऐसा नहीं था कि सभी मुसलमान पाकिस्तान की माँग के हक में थे। कई मुसलमान टू-नेशन थ्योरी के कायल नहीं थे। बल्कि पाकिस्तान की मांग के मुद्दे पर मुस्लिम लीग से कई मुसलमान अलग हो गए थे और आल इण्डिया मुस्लिम लीग दो फाड़ हो गई थी।
मैं कह चुका हूँ कि टू नेशन थ्योरी की बुनियादी बात यह थी कि हिन्दू और मुसलमान दो अलग-अलग नेशन हैं, इसलिए वे इकट्ठा नहीं रह सकते।
11 अगस्त, 1947 को पाकिस्तान की कन्स्टीचुअंट असेम्बली को मुखातिब करते हुए मुहम्मद अली जिन्ना ने कहा, You are free; you are free to go to your temples, you are free to go to your mosques or to any other place of worship in this State of Pakistan- You may belong to any religion or caste or creed & that has nothing to do with the business of the State-
आप आजाद हो। आप आजाद हो अपने मंदिरों में जाने के लिए, आप आजाद हो अपनी मस्जिदों में जाने के लिए और पूजा की किसी भी और जगह पर, इस पाकिस्तान स्टेट में। आप किसी भी मजहब या कास्ट या बतममक से ताल्लुक रखने वाले हो सकते हो, इसका स्टेट के काम-काज से कोई वास्ता नहीं है।
यहाँ मेरा एक सवाल है। अगर अखण्ड भारत में मुसलमान और हिन्दू इकट्ठे नहीं रह सकते थे, तो फिर पाकिस्तान में वे इकट्ठा कैसे रह सकते थे? अगर अखण्ड भारत में हिन्दू अलग नेशन थे और मुसलमान अलग नेशन थे, तो क्या पाकिस्तान में रहने वाले हिन्दू अलग नेशन नहीं हैं? अलग-अलग नेशन होकर अगर वे पाकिस्तान में इकट्ठा रह सकते हैं, तो वे अखण्ड भारत में इकट्ठा क्यों नहीं रह सकते थे?
हिन्दू और मुसलमान अखण्ड भारत में इकट्ठे रह सकते थे। अरे, सदियों से वे इकट्ठा रहते ही तो आए थे। अगर पहले वे इकट्ठा रह रहे थे, तो अब इकट्ठा रहने में उनको क्या दिक्कत थी?
जो मुस्लिम लीग हिन्दुओं के साथ नहीं रह सकती थी, वह सिखों के साथ रहने में कोई दिक्कत नहीं महसूस करती थी। यही वजह है कि जिन्ना ने सिखों को पाकिस्तान में शामिल होने के लिए कहा था। जिन्ना साहब की एक मीटिंग सिख रहनुमाओं के साथ रखी गई। सिखों की तरफ से इस में मास्टर तारा सिंह, पटियाला के महाराजा याद्विंदर सिंह, महाराजा याद्विंदर सिंह के प्रधानमंत्री हरिदत्त सिंह मलिक, और ज्ञानी करतार सिंह शामिल हुए थे।
जब सिखों की माँगों की बात हुई, तो जिन्ना ने कहा कि आप अपनी माँगें लिख कर दे दो, मैं बिना पढ़े ही उस पर अपने दस्तखत कर दूँगा।
मेरा सवाल यह है कि अगर मुस्लिम लीग के अनुसार हिन्दू मुसलमानों से अलग ‘नेशन’ थे, तो सिख भी तो मुसलमानों से अलग ‘नेशन’ ही थे। अगर जिन्ना की मुस्लिम लीग हिन्दुओं के साथ नहीं रह सकती थी, तो सिखों के साथ कैसे रह सकती थी?
असल बात कुछ और थी। उनको एक ऐसा मुल्क चाहिए था, जहाँ मुसलमान बहुसंख्यक हों। उनको हिन्दुओं के साथ रहने में कोई भी दिक्कत नहीं होती, अगर हिन्दू अल्पसंख्यक होते। सिखों के साथ भी उनको इसी वजह से कोई समस्या नहीं थी, क्योंकि सिख पंजाब में अल्पसंख्यक ही तो थे।
आज पाकिस्तान में जिन्ना को बाबा-ए-कौम कहा जाता है। यहाँ एक सवाल है। जब बाबा-ए-कौम कहा जाता है, तो कौम का मतलब क्या लिया जाता है? यहाँ कौम का मतलब मुस्लिम कौम है या पाकिस्तानी कौम? यकीनन यहाँ कौम का मतलब पाकिस्तानी कौम ही है, मुस्लिम कौम नहीं। टू-नेशन थ्योरी या दो-कौमी नजरिया देने वाले मुस्लिम कौम की बात करते-करते पाकिस्तानी कौम बन गए।
कितने ही मुसलमान भारत में ही रहे और पाकिस्तान नहीं गए। इसका
सीधा-सा मतलब यही है कि उन्होंने टू-नेशन थ्योरी को रद्द कर दिया था। वे मानते थे, वे जानते थे कि वे गैर-मुसलमानों के साथ रह सकते हैं। यह वे लोग थे, जिन्होंने जिन्ना को या अलगाववादी मुस्लिम लीग को रद्द कर दिया था।
भारत में जब भी कोई कुदरती आफत आई, हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख और ईसाई हमेशा एक दूसरे के कंधे से कंधा मिलाकर जरूरतमंदों की मदद करते रहे हैं। चाहे दक्षिण में आया भूकंप हो, चाहे उत्तराखंड में आई भयंकर बाढ़ हो, या जम्मू और कश्मीर में आई बाढ़ हो, हिन्दू, मुसलमान, सिख हमेशा कंधे से कंधा मिलाकर राहत के कामों में लगे हुए नजर आए हैं। आज अगर पाकिस्तान, बांग्लादेश, और भारत एक होते, तो कोई वजह नहीं थी कि हिन्दू और मुसलमान एक-जुट हो कर न रहते।
कोई भी इन्सान, जिसके पास भारत की नागरिकता है, तो उसकी नेशनलिटी भारतीय है। वह किस मजहब को मानता है, ये उसका जाती मामला है। उसकी नेशनलिटी से उसके मजहब का कोई ताल्लुक नहीं है। अगर वह किसी मजहब को नहीं भी मानता, तब भी उसकी नेशनलिटी इण्डियन ही है। उसको वह सब हकूक हासिल हैं, जो किसी और भारतीय को हासिल हैं। कोई माइनॉरिटी कम्युनिटी से भी हो, तो भी वह सबसे बड़ा ओहदा हासिल कर सकता है। सबसे बड़ा ओहदा राष्ट्रपति का ही होता है। जाकिर हुसैन, फखरुद्दीन अली अहमद, और डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम मुसलमान थे। ये तीनों भारत के राष्ट्रपति बने। इसके अलावा एक और मुसलमान मुहम्मद हिदायतुल्ला भारत के एक्टिंग प्रेजिडेंट रहे। ज्ञानी जैल सिंह एक सिख थे, वह भी राष्ट्रपति रहे। यह ‘एक-कौमी नजरिया’ या ‘वन-नेशन थ्योरी’ की बुनियाद पर बना भारत है। इसके मुकाबले में, पाकिस्तान में कोई भी गैर मुसलमान राष्ट्रपति नहीं बन सकता। पाकिस्तान में रहने वाले सभी लोग पाकिस्तानी तो हैं, पर सबको बराबर के अधिकार हासिल नहीं हैं। यह ‘टू-नेशन थ्योरी’ की बुनियाद पर बना पाकिस्तान है।
आज के दौर में टू-नेशन थ्योरी की सार्थकता पर यह दलील दी जाती है कि मुस्लिम लीग ने जो मुस्लिम नेशन की बात कही थी, वह 1947 में पाकिस्तान के वजूद में आने से पहले तक सार्थक ही थी। उनका कहना है कि पाकिस्तान बनने के बाद मुस्लिम नेशन की बात ही नहीं रही, क्योंकि पाकिस्तान बनने के बाद पाकिस्तान में रहने वाले मुसलमान पाकिस्तानी नेशन के तौर पर उभरे हैं, लेकिन इस दलील ने तो कई और सवाल खड़े कर दिए हैं। अगर पाकिस्तान में मुसलमान अब पाकिस्तानी नेशन बन गए हैं, तो एक मजहब होने के बावजूद भारतीय मुसलमान पाकिस्तानी मुसलमानों से अलग नेशन ही तो हुए। इससे तो यही साबित हो रहा है कि इस्लाम या कोई भी मजहब किसी नेशन की बुनियाद नहीं होता। अगर आज पाकिस्तानी मुसलमान पाकिस्तानी नेशन हैं, तो पाकिस्तानी हिन्दू या ईसाई भी तो पाकिस्तानी नेशन ही हैं। किसी का मजहब तो पाकिस्तान में भी नेशनल्टी की बुनियाद नहीं बन रहा।
पाकिस्तान की स्थापना से पहले अखण्ड भारत के सभी मुसलमान एक ही मुल्क में रहने वाले लोग थे। पाकिस्तान की स्थापना ने तो इन मुसलमानों को पाकिस्तानी नेशन और भारतीय नेशन में बाँटकर रख दिया, और पाकिस्तानी नेशन बाद में फिर पाकिस्तानी नेशन और बांग्लादेशी नेशन में बँट गया। टू-नेशन थ्योरी ने मुसलमानों में इत्तिहाद तो क्या लाना था, उल्टा मुसलमानों को ही अलग-अलग नेशन्स में बाँटकर रख दिया। जब आल इण्डिया मुस्लिम लीग बनी थी, तब उनके रहनुमाओं ने यह महसूस नहीं किया था कि हिन्दू और मुसलमान अलग-अलग नेशन्स हैं और वे इकट्ठे नहीं रह सकते। इण्डिया को बाँटकर अलग मुस्लिम मुल्क बनाने की बात उनके जेहन में भी नहीं थी। यही वजह थी कि मुस्लिम लीग के नाम में आल इण्डिया भी था। पूरा नाम आल इण्डिया मुस्लिम लीग ही था। पाकिस्तान की माँग के बाद आल इण्डिया को नाम से हटा दिया गया।
सदियों से हिन्दू और मुसलमान भारत में इकट्ठा रहते आये थे। अब भी वे इकट्ठा रह सकते थे। यह बात अलग है कि उस मुस्लिम लीग के लोग भारत में हिन्दुओं के साथ इकट्ठा नहीं रह सके।
हमें भी टू-नेशन थ्योरी का जायजा लेने की जरूरत महसूस न होती, अगर पाकिस्तान में ही सभी मुसलमान इकट्ठा रह लेते। बंगाली मुसलमानों का एक बड़ा हिस्सा पाकिस्तान में दूसरे मुसलमानों के साथ इकट्ठा नहीं रह सका और 1971 में बांग्लादेश के नाम से एक और नेशन वजूद में आया।
यह जरूरी नहीं कि अलग-अलग मजहबों के लोग इकट्ठा नहीं रह सकते। यह भी जरूरी नहीं कि एक ही मजहब को मानने वाले सभी लोग एक ही मुल्क में इकट्ठा रह सकें। अगर पाकिस्तान वजूद में न आता, तो अखण्ड भारत में रहने वाले सभी मुसलमानों का एक ही नेशन होता। आज ये सभी मुसलमान तीन अलग-अलग नेशन्स में बँटे हुए हैं। पाकिस्तान में कितने ही सिंधी मुसलमान, कितने ही बलोच मुसलमान भी अपने लिए अलग मुल्क का ख्बाब बुने बैठे हैं। यह टू-नेशन थ्योरी का हासिल है। मुस्लिम लीग का यह खयाल बहुत खोखला था कि मुसलमान अलग नेशन होने की वजह से हिन्दुओं के साथ नहीं रह सकते। असल बात तो सिर्फ यह थी कि उनको एक ऐसा मुल्क चाहिए था, जहाँ मुसलमान बहुसंख्यक हों। उनको लगता था कि मुस्लिम बहुसंख्यक मुल्क में उन्हीं की सरकार बनेगी। हालाँकि इस बात की भी कुछ गारण्टी नहीं थी कि मुस्लिम बहुसंख्यक मुल्क में भी मुस्लिम लीग की ही सरकार बनती। लेकिन उन्हें जल्दी थी, अपनी हुकूमत लाने की, फिर चाहे वह हुकूमत एक छोटे-से मुल्क पर ही हो। इसीलिए उन्होंने मजहब के नाम पर सियासत की, और ऐसी दलील पेश की, जो न सिर्फ हमारे यहाँ के मुसलमानों का, बल्कि पश्चिमी देशों में बसे हुए मुसलमानों तक का भी पीछा आज तक कर रही है।
पश्चिमी देशों के लोग आज मुसलमानों की इमीग्रेशन से खौफजदा हैं। अगर मुसलमान हिन्दुओं के साथ नहीं रह सकते, तो वे गोरे ईसाइयों के साथ भी कैसे रह सकते हैं? जैसे भारत को तोड़कर मुस्लिम लीग ने अलग मुस्लिम मुल्क बना डाला, क्या ऐसा ही पश्चिमी देशों में नहीं होगा? यही डर पश्चिमी देशों के कई लोगों को सता रहा है। इसी वजह से वे मुसलमान इमीग्रेशन का विरोध कर रहे हैं और मुस्लिम लोगों को उन देशों की सिटीजनशिप देने के खिलाफ हैं। अमरीका में तो डोनाल्ड ट्रम्प के राष्ट्रपति बनने के बाद वहाँ की सरकार ने मुसलमानों को अमरीका में आ कर बसने से रोकने के लिए कदम उठाने भी शुरू कर दिए हैं। अगर मुस्लिम लीग की टू नेशन थ्योरी सही है, तो फिर यह भी मानना पड़ेगा कि पश्चिमी देशों के उन लोगों के डर की वजह भी सही है और आज की अमरीकन सरकार का फैसला भी सही है। अगर यह खयाल सही है कि मुसलमान अलग कल्चर वाले गैर-मुसलमानों के साथ नहीं रह सकते, तो यकीनन ही मुसलमान अमरीका वगैरह मुल्कों में नहीं रह सकते। अमरीका के राष्ट्रपति ट्रम्प का यह कथित मुस्लिम बैन एक तरह से टू नेशन थ्योरी की सोच का ही तो नतीजा है। पहले कुछ लोग टू नेशन थ्योरी के पीछे लग कर चल रहे थे, आज टू नेशन थ्योरी कुछ लोगों के पीछे लगी हुई उन्हें भगा रही है। मैं समझता हूँ कि ऑल इंडिया मुस्लिम लीग की जो दलील थी कि हिन्दू और मुसलमान इकट्ठा नहीं रह सकते, वह बिल्कुल गलत थी। अगर मुस्लिम लीग के मुसलमान भारत में इकट्ठा नहीं रह सकते थे, तो भारत से अलग होकर भी पाकिस्तान के अन्दर ही अमन क्यों नहीं हो पाया, शान्ति क्यों नहीं हो पाई? अलग-अलग मुल्क होकर भी भारत और पाकिस्तान में अब तक दोस्ताना ताल्लुक क्यों नहीं बन पाये? भारत और पाकिस्तान अब तक
सीधी-सीधी चार लड़ाइयाँ लड़ चुके हैं, जिसमें दोनों तरफ के हजारों फौजी और शहरी मारे जा चुके हैं और अरबों रुपए हथियारों पर खर्च किए जा चुके हैं।
हकीकत यही है कि सियासी मुफाद के लिए कुछ लोगों ने इस्लाम का नाम इस्तेमाल किया। यूनाइटेड इण्डिया में उनके राजनैतिक हित पूरे नहीं हो पा रहे थे, जिस वजह से टू नेशन थ्योरी को ईजाद किया गया। इसने न सिर्फ मुसलमानों को हिन्दुओं से अलग कर दिया, बल्कि मुसलमानों को भी दो मुल्कों में बाँटकर रख दिया, जो बाद में फिर तीन मुल्कों में बँट गए।
अपने अन्दर के इन्सान को अगर हम जिन्दा रखें, तो हम सब इकट्ठा रह सकते हैं। नहीं तो इन्सानियत को बाँटने की कोशिशों का कहीं भी अन्त नहीं है। फिर मुसलमान हिन्दुओं के साथ नहीं रह पाएँगे। शिया सुन्नियों के साथ नहीं रह पाएँगे। कथित ऊँची जातियों के लोग दलितों के साथ नहीं रह पाएँगे। सिन्धी पंजाबियों के साथ नहीं रह पाएँगे। कोई भी एक ग्रुप किसी दूसरे ग्रुप के साथ नहीं रह पाएगा।
मेरी ओर से सभी लोगों और राष्ट्रों को शुभकामनाएँ। सबके लिए नेक तमन्नाएँ।
अपनी बात मैं गुरु गोबिन्द सिंह साहब के कहे हुए इन अल्फाज के साथ खत्म करता हूँ-
नेशन अंग्रेजी जबान का लफ्ज हैं। यह बुनियादी तौर पर लैटिन जबान के दंजपव (नेशो) से निकला है, जिसका मतलब है, पैदाइश, लोग, कबीला वगैरह। नेशन लोगों का एक वह बड़ा समूह है, जिसमें कुछ साझा बातें हैं। इन साझा बातों में जबान, परम्परा, पहनावा, आदतें, रस्म-ओ-रिवाज, और वह इलाका, जहाँ ये लोग रहते हैं, शामिल है।
लोगों का एक बड़ा ग्रुप, जो एक ही जबान बोलता हो, लोगों के उस ग्रुप के रस्म-ओ-रिवाज एक-से हों, उनका पहनावा एक-सा हो, वह अपने आप को उस ग्रुप के तौर पर ही पहचानते हों, वह अपने ग्रुप के भले-बुरे को अपना ही भला-बुरा समझते हों, तो वह ग्रुप एक नेशन है। किसी नेशन का अपना आजाद मुल्क हो, यह भी कोई जरूरी नहीं है। किसी एक ही मुल्क में कई नेशन्स इकठ्ठा भी रह सकते हैं।
अगर पाकिस्तान की बात करें, तो पख्तून एक नेशन हैं। बलोच एक नेशन हैं। सिन्धी एक नेशन हैं। पंजाबी एक नेशन हैं।
नेशन कोई ऐसा समूह नहीं है, जो एक ही दिन में बन गया हो, या बहुत थोड़े-से वक्त में ही बन गया हो। लोगों के किसी समूह को एक नेशन बनने में लम्बा वक्त लगता है। लोगों के एक समूह को नेशन बनने में लगा वक्त ही इतिहास में लिखा जाता है। लफ्ज नेशन किसी आजाद मुल्क के लिए भी इस्तेमाल किया जाता है। किसी खास इलाके को भी नेशन कह दिया जाता है। जब यूनाइटेड नेशन्स कहा जाता है, तो वहाँ उसका मतलब अलग-अलग मुल्कों से है, जिनकी आजाद हस्ती है। भारत इसलिए एक नेशन है, क्योंकि इसकी आजाद हस्ती है। यह एक आजाद मुल्क है। इसमें अलग-अलग जबानें बोलने वाले लोग रहते हैं, जिनकी अलग-अलग संस्कृतियाँ, बनसजनतमे हैं, अलग-अलग रस्म-ओ-रिवाज हैं।
कोई भी इन्सान अगर भारत में आकर भारत की नागरिकता हासिल कर लेता है, तो वह भारत नेशन का हिस्सा बन जाता है। नेशन का ऐसा संकल्प सिविक नेशनलिज्म (Civic Nationalism) कहा जाता है।
नेशन के कान्सैप्ट को कभी-कभी जातीय राष्ट्रवाद (ethnic nationalism) के नजरिए से भी कमपिदम किया जाता है। एडोल्फ हिटलर ने ‘नेशन’ के बारे में कहा था, “What makes a people or to be more correct a race is not language but blood”. उसके नजरिए से तो नेशन असल में तंबम है, नस्ल है।
हिटलर ने कहा था, “It is almost inconceivable how such a mistake could be made as to think that a Nigger or a Chinaman will become a German because he has learned the German language and is willing to speak German for the future and even to cast his vote for a German political party-”
यह सोच से भी परे है कि ऐसी गलती कैसे की जा सकती है कि यह सोचा जाए कि एक निग्गर या एक चाइनीज जर्मन बन जाएगा, क्योंकि उसने जर्मन भाषा सीख ली है और भविष्य में जर्मन बोलने को तैयार है, और यहाँ तक कि वह जर्मन सियासी पार्टी को वोट देने को भी तैयार है। हिटलर के इस नजरिए को ही जातीय राष्ट्रवाद (Ethnic Nationalism) कहा जाता है। अगर कोई इन्सान बाहर से आकर किसी मुल्क का नागरिक बनता है, तो भी वह उस मुल्क की नस्ली नेशन का हिस्सा नहीं माना जाएगा। जातीय राष्ट्रवाद के नजरिए से जर्मन एक नेशन है। और कोई भी गैर-जर्मन आदमी जर्मनी में रहकर, जर्मन जबान बोलकर जर्मन नहीं बन सकता, क्योंकि जर्मन होना एक एथनिक मुद्दा है। जो जर्मन पैदा नहीं हुआ, वह जर्मन नहीं हो सकता, ऐसा नजरिया ही जातीय राष्ट्रवाद है।
क्या मुस्लिम होना कोई नस्ली या जातीय (ethnic) मुद्दा है? अपनी नस्ल को तो कभी भी बदला नहीं जा सकता। जो जर्मन नस्ल का है, वह जर्मन ही रहेगा। जो अरब नस्ल का है, वह अरब ही रहेगा। नस्ल का सीधा ताल्लुक जन्म से है। क्या मुसलमान होने का सीधा ताल्लुक जन्म से है? जो मुसलमान नहीं पैदा हुआ, क्या वह मुसलमान नहीं हो सकता? जो मुसलमान पैदा हुआ, क्या वह कभी गैर-मुसलमान नहीं हो सकता?
दूसरे मजहबों के कई लोग मुसलमान बन जाते हैं और कई मुसलमान इस्लाम छोड़ कर कोई और मजहब अपना लेते हैं या नास्तिक भी बन जाते हैं। इससे बिल्कुल साफ हो जाता है कि मुसलमान होना कम-अज-कम जातीय राष्ट्र या नस्ली कौम होना तो बिल्कुल नहीं है।
क्या मुसलमान होना भाषाई राष्ट्र (Linguistic nation), या एक ही जबान बोलने वाली कौम होना है?
पूरे साउथ एशिया में रहने वाले मुसलमान अलग-अलग जबानें बोलने वाले लोग हैं। कोई पश्तो बोलता है, तो कोई फारसी। कोई पंजाबी बोलता है, तो कोई सराइकी। कोई सिन्धी बोलता है, तो कोई बलोची। कोई हिन्दी बोलता है, तो कोई उर्दू। कोई गुजराती बोलता है, तो कोई मराठी। कोई तमिल भी बोलता है। कोई कन्नड़ भी बोलता है।
इससे बिल्कुल साफ हो जाता है कि साउथ एशिया में रहने वाले मुसलमान एक भाषाई राष्ट्र (Linguistic nation) भी नहीं हैं। आल इण्डिया मुस्लिम लीग हिन्दू महासभा और हिन्दुत्ववादियों ने जब हिन्दू मुस्लिम नेशन का मुद्दा उठाया, तो उन्होंने दरअसल नेशन की एक अलग परिभाषा देने की कोशिश की थी। इस परिभाषा के अनुसार रिलीजन या मजहब ही नेशन है।
इसी टू-नेशन थ्योरी की बुनियाद पर पाकिस्तान की स्थापना की माँग की गई थी। और, आखिर, इसी टू-नेशन थ्योरी या दो-कौमी नजरिया की बुनियाद पर ही पाकिस्तान बनाया गया था।
टू नेशन थ्योरी-एक जायजा
टू नेशन थ्योरी पर मेरे लेख का यह दूसरा हिस्सा है। पहले हिस्से में मैंने मुख्य 3 तरह के नेशनलिज्म की बात की थी। ये 3 तरह के नेशनलिज्म हैं, सिविक नेशनलिज्म, एथनिक नेशनलिज्म, और लिंगुइस्टिक नेशनलिज्म।
सिविक नेशनलिज्म के अनुसार किसी एक आजाद मुल्क में रहने वाले लोग एक नेशन हैं। कोई भी इन्सान उस मुल्क की शहरियत हासिल करके उस नेशन का हिस्सा बन सकता है।
जातीय राष्ट्रवाद या एथनिक नेशनलिज्म के मुताबिक नेशन एक एथनिक, एक नस्ली ग्रुप है। जो उस नस्ल में पैदा हुआ है, वही उस नेशन का हिस्सा है।
भाषाई राष्ट्रवाद या लिंगुइस्टिक नेशनलिज्म के मुताबिक एक खास जबान बोलने वाले, जिनके रस्म-ओ-रिवाज आदि एक-से हैं, वह एक नेशन हैं।
मुसलमान अलग-अलग जबानें बोलते हैं, इसलिए वे लिंगुइस्टिक नेशन नहीं हैं। मुसलमान अलग-अलग नस्लों से तअल्लुक रखते हैं, इसलिए वे एथनिक नेशन भी नहीं हैं।
मुस्लिम लीग ने जब यह कहा कि मुसलमान एक अलग नेशन हैं, तो उसका मतलब यही बनता था कि रिलीजन या मजहब ही नेशन हैं। जो दलीलें मैंने मुसलमानों के बारे में दीं, वही दलीलें हिंदुओं पर भी लागू होती हैं और किसी और मजहब को मानने वाले लोगों पर भी।
भारत के अन्दर रहने वाले हिन्दू ही बहुत भाषाएँ बोलते हैं। पंजाबी, हिन्दी, कश्मीरी, गुजराती, मराठी, तमिल, कन्नड़, मलयालम, तेलगू, बंगाली आदि भाषाएँ भारत में बोली जाती हैं और जिन-जिन इलाकों में यह भाषाएँ बोली जाती हैं, वहाँ के रहने वाले हिन्दू यही भाषाएँ बोलते हैं। यह भाषाएँ उनकी मातृ-भाषाएँ हैं।
भारत के बाहर भी हिन्दू अलग-अलग जबानें बोलते हैं। नेपाल में नेपाली भी बोलते हैं। यूरोप में रहने वाले हिन्दू इंग्लिश, फ्रेंच, और जर्मन आदि भाषाएँ बोलते हैं। अफ्रीकन देशों के अफ्रीकन हिन्दू अफ्रीकन भाषाएँ बोलते हैं। क्योंकि पूरे संसार में हिन्दू अलग-अलग भाषाएँ बोलने वाले लोग हैं, इसलिए सारे हिन्दू किसी एक ही भाषाई समूह या लिंगुइस्टिक नेशन से तअल्लुक नहीं रखते हैं। वे अलग-अलग लिंगुइस्टिक नेशन्स से तअल्लुक रखते हैं।
सारे हिन्दू किसी एक ही जातीय राष्ट्र या एथनिक नेशन से भी तअल्लुक नहीं रखते हैं। भारत में ही इंडो-यूरोपियन (पदकव - मनतवचमंद) नस्ल के भी हिन्दू हैं और द्रविड़ नस्ल के भी। मोंग्लोइड नस्ल के हिन्दू भी भारत में हैं। दूसरे मुल्कों में भी बहुत लोग हिन्दू बने हैं। कई अफ्रीकन मूल के हिन्दू भी हैं। साफ है कि सारे हिन्दू किसी एक ही एथनिक नेशन से भी तअल्लुक नहीं रखते हैं।
सभी हिंदुओं की संस्कृति भी एक नहीं है। कश्मीरी हिंदुओं की संस्कृति तमिल हिंदुओं की संस्कृति से बिल्कुल अलग है। उनका पहनावा बिल्कुल अलग है। उनकी भाषा बिल्कुल अलग है। उनके रस्म-ओ-रिवाज बिल्कुल अलग हैं। इसी प्रकार, दूसरे हिंदू समाजों की बात है, जिन की अपनी-अपनी अलग संस्कृति है।
हिंदू एक सिविक नेशन भी नहीं है, क्योंकि वह सिर्फ एक देश तक ही सीमित नहीं हैं। सभी के सभी हिंदू भारतीय राष्ट्र के ही हों, ऐसा बिल्कुल नहीं है। बहुत हिंदू ऐसे हैं, जो भारतीय नहीं हैं। कोई नेपाली है। कोई बांग्लादेशी है। कोई श्रीलंकन है। कोई पाकिस्तानी है। कोई ब्रिटिश है। कोई अमरीकन है। कोई कैनियन है। कोई इंडोनेशियन है। आल इण्डिया मुस्लिम लीग ने नेशन की अपनी ही परिभाषा के मुताबिक हिन्दुओं और मुसलमानों को अलग-अलग नेशन माना। बात सिर्फ इतनी ही रहती कि हिन्दू एक अलग नेशन हैं और मुसलमान एक अलग नेशन, तो भी कुछ खास न होता, बस एक जेहनी रस्साकशी चलती रहती। लेकिन, बात तो यह बना दी गई कि मुसलमान एक अलग नेशन हैं और हिन्दू एक अलग नेशन हैं, इसलिए ये दोनों इक्कठा नहीं रह सकते।
उनकी दलील थी कि हिंदुओं और मुसलमानों के मजहब, इतिहास, रस्म-ओ-रिवाज अलग-अलग हैं, इसलिए उनके मुल्क भी अलग-अलग होने चाहिए। अगर यह दलील मानी जाए कि मुसलमान हिन्दुओं से एक अलग नेशन हैं, इसलिए इकट्ठे नहीं रह सकते, तो फिर मुसलमान पश्चिमी देशों में ईसाइओं के साथ इकट्ठे कैसे रह लेते हैं? अगर मुस्लिम एक अलग मजहब होने की वजह से एक अलग नेशन हैं, तो फिर ईसाई भी तो एक अलग मजहब के लोग हैं। वे भी तो फिर एक अलग नेशन हुए। अगर यूनाइटेड इण्डिया में मुसलमान हिन्दुओं के साथ नहीं रह सकते, तो फिर बर्मा में भी मुसलमान बुद्धिस्ट लोगों के साथ नहीं रह सकते, क्योंकि बुद्धिस्ट्स भी तो अलग मजहब को मानने वाले हैं। श्रीलंका में भी बुद्धिस्ट और हिन्दू हैं। वहाँ भी मुसलमान उनके साथ कैसे रह सकते हैं? चाइना में तो कम्युनिस्ट लोग बहुत हैं। वहाँ मुसलमान कैसे रह सकते हैं?
हकीकत यह है कि मुसलमान पश्चिमी देशों में ईसाई लोगों के साथ राजी-खुशी रह रहे हैं। लंदन का तो इस बार मेयर भी पाकिस्तानी मूल का एक मुसलमान ही चुना गया है।
आज भारत में रहने वाले मुसलमानों की तादाद पाकिस्तान में रहने वालों मुसलमानों से कुछ ज्यादा ही है, कम नहीं। अगर मुसलमान हिंदुओं के साथ नहीं रह सकते होते, तो पाकिस्तान जितने ही मुसलमान भारत में कैसे रह रहे हैं? भारत में मुसलमान राष्ट्रपति के पद तक भी पहुँचे हैं। कुछ लोग कहेंगे कि भारत में मुसलमानों पर तशद्दुद हो रहा है, हिंसा हो रही है। अगर यही दलील है, तो तशद्दुद इराक में भी हो रहा है और सीरिया में भी। क्या पाकिस्तान में बम्ब धमाकों में, खुदकुश हमलों में, गोलीबारी में बेगुनाह मुसलमान नहीं मारे जा रहे? ऐसी हिंसा अमन-कानून की समस्या है, अलग नेशन होने की नहीं। अगर मुसलमान होना ही अपने-आप में एक कौमियत है, तो एक ही कौम के इतने सारे मुल्क क्यों हैं? सभी इस्लामिक मुल्क एक ही मुल्क में तब्दील क्यों नहीं हो गए?
अगर मुसलमान होना ही अपने-आप में एक कौमियत है, तो मुस्लिम पाकिस्तान में पख्तून, बलोच, सिन्धी वगैरह नस्ली मुद्दे क्यों उठे?
अगर मुसलमान होना ही अपने-आप में एक कौमियत है, तो इस्लामिक मुल्कों में शिया और सुन्नी के झगड़े क्यों हैं? क्या अब शिया एक अलग नेशन हैं और सुन्नी एक अलग नेशन हैं? क्या ईरानी लोग इसलिए अलग नेशन हैं, क्योंकि उनमें ज्यादातर शिया हैं, या इसलिए अलग नेशन हैं, क्योंकि उनका अपना एक अलग आजाद देश हैं?
अगर मुसलमान होना ही अपने-आप में एक कौमियत है, तो फिर पाकिस्तान से अलग होकर 1971 में बांग्लादेश क्यों बना?
हकीकत यह है कि अगर सभी के साथ एक-सा इंसाफ हो, सभी को बराबरी का दर्जा मिले, तो सभी कौमें, सभी नेशन्स इकट्ठा रह सकते हैं। अगर एक ही कौम में कुछ लोगों से बे-इंसाफी हो, तो बदअमनी फैलेगी, हिंसा होगी। हमारी जद्दोजहद बे-इंसाफी के खिलाफ होनी चाहिए, न कि लोगों को मजहबों, नस्लों, जातों, जबानों, और नेशन्स के नाम पर बाँटा जाना चाहिए।
पाकिस्तान में ऐसे विचारवान हैं, जो यह कहते हैं कि 1971 में बांग्लादेश की स्थापना से टू नेशन थ्योरी गलत साबित नहीं होती। उनकी दलील है कि टू नेशन थ्योरी तभी गलत साबित होती, अगर 1971 में अलग बांग्लादेश ना बनता, बल्कि बांग्लादेश भारत में शामिल हो जाता।
इस दलील में कुछ भी वजन नहीं है। बांग्लादेश 1971 में भारत में शामिल नहीं हुआ इसकी वजह कुछ और भी हो सकती है। अंतर्राष्ट्रीय दबाव की वजह से भी हो सकता है कि भारत सरकार ने बांग्लादेश को भारत में शामिल करने की कोई भी प्लानिंग न की हो। दूसरा, जो बांग्लादेश को भारत में शामिल न होने को टू-नेशन थ्योरी का गलत साबित होना नहीं मान रहे, वे बांग्लादेश के भारत में शामिल हो जाने को भी टू-नेशन थ्योरी का गलत साबित होना नहीं मानते। तीसरा, बांग्लादेश की स्थापना इतना तो सिद्ध कर ही रही है कि बंगाली कौम एक अलग लिगुइस्टिक नेशन है, जो अपने आप में ही टू-नेशन थ्योरी को गलत साबित कर रही है। बंगाली कौम बिल्कुल वैसे ही एक अलग लिगुइस्टिक नेशन है, जैसे पख्तून कौम एक अलग एथिनिक नेशन है। यही तो नेशन का
अधिकतर मान्य संकल्प है और यह टू-नेशन थ्योरी को ही तो गलत साबित कर रहा है, जो यह कहती है कि मुसलमान एक अलग नेशन हैं।
कोई व्यक्ति जब अपना मजहब बदलता है,तो महज इसी से उसकी राष्ट्रीयता नहीं बदल जाती। भारत के ज्यादातर मुसलमान भारत के ही मूल निवासी हैं, जो भूतकाल में कभी भारतीय धर्म को छोड़कर मुसलमान बन गए थे। मुसलमान बनने के साथ उनकी राष्ट्रीयता नहीं बदल गई थी।
अगर टू-नेशन थ्योरी वाली नेशन की परिभाषा को मानें, तो फिर हमें मानना पड़ेगा कि अगर एक ही बाप के चार बेटे हों और उनमें से एक हिन्दू, एक मुसलमान, एक ईसाई, और एक सिख बन जाए, तो वह चारों चार अलग-अलग नेशन्स से ताल्लुक रखने वाले होंगे।
यह सच है कि सनातन धर्म एक अलग मजहब है और इस्लाम एक अलग मजहब है। पर अलग-अलग मजहब होने से ही एक ही मुल्क में रहने वाले लोग अलग-अलग राष्ट्र नहीं हो जाते।
ऐसा भी नहीं है कि भारत में रहने वाले सभी मुसलमान भारतवंशी ही हों। यह सच है कि दूसरी कौमों के मुसलमान भी भारत में आए। इनमें तुर्क भी थे, अरबी थे, और मुगल भी थे, लेकिन वक्त के साथ तुर्कों, अरबों और मुगलों के वारिस भारत में रहकर भारतीय ही बन गए थे। आज भी उनके वंशज भारत में ही रहते हुए भारतीय जबान बोलते हैं, भारतीय खाना खाते हैं, भारतीय पहनावा पहनते हैं, और भारतीय तहजीब ही उनकी अब अपनी तहजीब है। अब वे तुर्की नहीं बोलते, फारसी नहीं बोलते।
पंजाब में रहने वाला तुर्कों का कोई वारिस आज पंजाबी बोलता है और पंजाबी कल्चर से ही मुहब्बत करता है। अब वह तुर्क नहीं है, पंजाबी है। उसकी भाषाई राष्ट्रीयता को बदलने में जमाना लगा है। वह रात-ही-रात में तुर्क से पंजाबी नहीं हो गया है।
ऐसा नहीं था कि सभी मुसलमान पाकिस्तान की माँग के हक में थे। कई मुसलमान टू-नेशन थ्योरी के कायल नहीं थे। बल्कि पाकिस्तान की मांग के मुद्दे पर मुस्लिम लीग से कई मुसलमान अलग हो गए थे और आल इण्डिया मुस्लिम लीग दो फाड़ हो गई थी।
मैं कह चुका हूँ कि टू नेशन थ्योरी की बुनियादी बात यह थी कि हिन्दू और मुसलमान दो अलग-अलग नेशन हैं, इसलिए वे इकट्ठा नहीं रह सकते।
11 अगस्त, 1947 को पाकिस्तान की कन्स्टीचुअंट असेम्बली को मुखातिब करते हुए मुहम्मद अली जिन्ना ने कहा, You are free; you are free to go to your temples, you are free to go to your mosques or to any other place of worship in this State of Pakistan- You may belong to any religion or caste or creed & that has nothing to do with the business of the State-
आप आजाद हो। आप आजाद हो अपने मंदिरों में जाने के लिए, आप आजाद हो अपनी मस्जिदों में जाने के लिए और पूजा की किसी भी और जगह पर, इस पाकिस्तान स्टेट में। आप किसी भी मजहब या कास्ट या बतममक से ताल्लुक रखने वाले हो सकते हो, इसका स्टेट के काम-काज से कोई वास्ता नहीं है।
यहाँ मेरा एक सवाल है। अगर अखण्ड भारत में मुसलमान और हिन्दू इकट्ठे नहीं रह सकते थे, तो फिर पाकिस्तान में वे इकट्ठा कैसे रह सकते थे? अगर अखण्ड भारत में हिन्दू अलग नेशन थे और मुसलमान अलग नेशन थे, तो क्या पाकिस्तान में रहने वाले हिन्दू अलग नेशन नहीं हैं? अलग-अलग नेशन होकर अगर वे पाकिस्तान में इकट्ठा रह सकते हैं, तो वे अखण्ड भारत में इकट्ठा क्यों नहीं रह सकते थे?
हिन्दू और मुसलमान अखण्ड भारत में इकट्ठे रह सकते थे। अरे, सदियों से वे इकट्ठा रहते ही तो आए थे। अगर पहले वे इकट्ठा रह रहे थे, तो अब इकट्ठा रहने में उनको क्या दिक्कत थी?
जो मुस्लिम लीग हिन्दुओं के साथ नहीं रह सकती थी, वह सिखों के साथ रहने में कोई दिक्कत नहीं महसूस करती थी। यही वजह है कि जिन्ना ने सिखों को पाकिस्तान में शामिल होने के लिए कहा था। जिन्ना साहब की एक मीटिंग सिख रहनुमाओं के साथ रखी गई। सिखों की तरफ से इस में मास्टर तारा सिंह, पटियाला के महाराजा याद्विंदर सिंह, महाराजा याद्विंदर सिंह के प्रधानमंत्री हरिदत्त सिंह मलिक, और ज्ञानी करतार सिंह शामिल हुए थे।
जब सिखों की माँगों की बात हुई, तो जिन्ना ने कहा कि आप अपनी माँगें लिख कर दे दो, मैं बिना पढ़े ही उस पर अपने दस्तखत कर दूँगा।
मेरा सवाल यह है कि अगर मुस्लिम लीग के अनुसार हिन्दू मुसलमानों से अलग ‘नेशन’ थे, तो सिख भी तो मुसलमानों से अलग ‘नेशन’ ही थे। अगर जिन्ना की मुस्लिम लीग हिन्दुओं के साथ नहीं रह सकती थी, तो सिखों के साथ कैसे रह सकती थी?
असल बात कुछ और थी। उनको एक ऐसा मुल्क चाहिए था, जहाँ मुसलमान बहुसंख्यक हों। उनको हिन्दुओं के साथ रहने में कोई भी दिक्कत नहीं होती, अगर हिन्दू अल्पसंख्यक होते। सिखों के साथ भी उनको इसी वजह से कोई समस्या नहीं थी, क्योंकि सिख पंजाब में अल्पसंख्यक ही तो थे।
आज पाकिस्तान में जिन्ना को बाबा-ए-कौम कहा जाता है। यहाँ एक सवाल है। जब बाबा-ए-कौम कहा जाता है, तो कौम का मतलब क्या लिया जाता है? यहाँ कौम का मतलब मुस्लिम कौम है या पाकिस्तानी कौम? यकीनन यहाँ कौम का मतलब पाकिस्तानी कौम ही है, मुस्लिम कौम नहीं। टू-नेशन थ्योरी या दो-कौमी नजरिया देने वाले मुस्लिम कौम की बात करते-करते पाकिस्तानी कौम बन गए।
कितने ही मुसलमान भारत में ही रहे और पाकिस्तान नहीं गए। इसका
सीधा-सा मतलब यही है कि उन्होंने टू-नेशन थ्योरी को रद्द कर दिया था। वे मानते थे, वे जानते थे कि वे गैर-मुसलमानों के साथ रह सकते हैं। यह वे लोग थे, जिन्होंने जिन्ना को या अलगाववादी मुस्लिम लीग को रद्द कर दिया था।
भारत में जब भी कोई कुदरती आफत आई, हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख और ईसाई हमेशा एक दूसरे के कंधे से कंधा मिलाकर जरूरतमंदों की मदद करते रहे हैं। चाहे दक्षिण में आया भूकंप हो, चाहे उत्तराखंड में आई भयंकर बाढ़ हो, या जम्मू और कश्मीर में आई बाढ़ हो, हिन्दू, मुसलमान, सिख हमेशा कंधे से कंधा मिलाकर राहत के कामों में लगे हुए नजर आए हैं। आज अगर पाकिस्तान, बांग्लादेश, और भारत एक होते, तो कोई वजह नहीं थी कि हिन्दू और मुसलमान एक-जुट हो कर न रहते।
कोई भी इन्सान, जिसके पास भारत की नागरिकता है, तो उसकी नेशनलिटी भारतीय है। वह किस मजहब को मानता है, ये उसका जाती मामला है। उसकी नेशनलिटी से उसके मजहब का कोई ताल्लुक नहीं है। अगर वह किसी मजहब को नहीं भी मानता, तब भी उसकी नेशनलिटी इण्डियन ही है। उसको वह सब हकूक हासिल हैं, जो किसी और भारतीय को हासिल हैं। कोई माइनॉरिटी कम्युनिटी से भी हो, तो भी वह सबसे बड़ा ओहदा हासिल कर सकता है। सबसे बड़ा ओहदा राष्ट्रपति का ही होता है। जाकिर हुसैन, फखरुद्दीन अली अहमद, और डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम मुसलमान थे। ये तीनों भारत के राष्ट्रपति बने। इसके अलावा एक और मुसलमान मुहम्मद हिदायतुल्ला भारत के एक्टिंग प्रेजिडेंट रहे। ज्ञानी जैल सिंह एक सिख थे, वह भी राष्ट्रपति रहे। यह ‘एक-कौमी नजरिया’ या ‘वन-नेशन थ्योरी’ की बुनियाद पर बना भारत है। इसके मुकाबले में, पाकिस्तान में कोई भी गैर मुसलमान राष्ट्रपति नहीं बन सकता। पाकिस्तान में रहने वाले सभी लोग पाकिस्तानी तो हैं, पर सबको बराबर के अधिकार हासिल नहीं हैं। यह ‘टू-नेशन थ्योरी’ की बुनियाद पर बना पाकिस्तान है।
आज के दौर में टू-नेशन थ्योरी की सार्थकता पर यह दलील दी जाती है कि मुस्लिम लीग ने जो मुस्लिम नेशन की बात कही थी, वह 1947 में पाकिस्तान के वजूद में आने से पहले तक सार्थक ही थी। उनका कहना है कि पाकिस्तान बनने के बाद मुस्लिम नेशन की बात ही नहीं रही, क्योंकि पाकिस्तान बनने के बाद पाकिस्तान में रहने वाले मुसलमान पाकिस्तानी नेशन के तौर पर उभरे हैं, लेकिन इस दलील ने तो कई और सवाल खड़े कर दिए हैं। अगर पाकिस्तान में मुसलमान अब पाकिस्तानी नेशन बन गए हैं, तो एक मजहब होने के बावजूद भारतीय मुसलमान पाकिस्तानी मुसलमानों से अलग नेशन ही तो हुए। इससे तो यही साबित हो रहा है कि इस्लाम या कोई भी मजहब किसी नेशन की बुनियाद नहीं होता। अगर आज पाकिस्तानी मुसलमान पाकिस्तानी नेशन हैं, तो पाकिस्तानी हिन्दू या ईसाई भी तो पाकिस्तानी नेशन ही हैं। किसी का मजहब तो पाकिस्तान में भी नेशनल्टी की बुनियाद नहीं बन रहा।
पाकिस्तान की स्थापना से पहले अखण्ड भारत के सभी मुसलमान एक ही मुल्क में रहने वाले लोग थे। पाकिस्तान की स्थापना ने तो इन मुसलमानों को पाकिस्तानी नेशन और भारतीय नेशन में बाँटकर रख दिया, और पाकिस्तानी नेशन बाद में फिर पाकिस्तानी नेशन और बांग्लादेशी नेशन में बँट गया। टू-नेशन थ्योरी ने मुसलमानों में इत्तिहाद तो क्या लाना था, उल्टा मुसलमानों को ही अलग-अलग नेशन्स में बाँटकर रख दिया। जब आल इण्डिया मुस्लिम लीग बनी थी, तब उनके रहनुमाओं ने यह महसूस नहीं किया था कि हिन्दू और मुसलमान अलग-अलग नेशन्स हैं और वे इकट्ठे नहीं रह सकते। इण्डिया को बाँटकर अलग मुस्लिम मुल्क बनाने की बात उनके जेहन में भी नहीं थी। यही वजह थी कि मुस्लिम लीग के नाम में आल इण्डिया भी था। पूरा नाम आल इण्डिया मुस्लिम लीग ही था। पाकिस्तान की माँग के बाद आल इण्डिया को नाम से हटा दिया गया।
सदियों से हिन्दू और मुसलमान भारत में इकट्ठा रहते आये थे। अब भी वे इकट्ठा रह सकते थे। यह बात अलग है कि उस मुस्लिम लीग के लोग भारत में हिन्दुओं के साथ इकट्ठा नहीं रह सके।
हमें भी टू-नेशन थ्योरी का जायजा लेने की जरूरत महसूस न होती, अगर पाकिस्तान में ही सभी मुसलमान इकट्ठा रह लेते। बंगाली मुसलमानों का एक बड़ा हिस्सा पाकिस्तान में दूसरे मुसलमानों के साथ इकट्ठा नहीं रह सका और 1971 में बांग्लादेश के नाम से एक और नेशन वजूद में आया।
यह जरूरी नहीं कि अलग-अलग मजहबों के लोग इकट्ठा नहीं रह सकते। यह भी जरूरी नहीं कि एक ही मजहब को मानने वाले सभी लोग एक ही मुल्क में इकट्ठा रह सकें। अगर पाकिस्तान वजूद में न आता, तो अखण्ड भारत में रहने वाले सभी मुसलमानों का एक ही नेशन होता। आज ये सभी मुसलमान तीन अलग-अलग नेशन्स में बँटे हुए हैं। पाकिस्तान में कितने ही सिंधी मुसलमान, कितने ही बलोच मुसलमान भी अपने लिए अलग मुल्क का ख्बाब बुने बैठे हैं। यह टू-नेशन थ्योरी का हासिल है। मुस्लिम लीग का यह खयाल बहुत खोखला था कि मुसलमान अलग नेशन होने की वजह से हिन्दुओं के साथ नहीं रह सकते। असल बात तो सिर्फ यह थी कि उनको एक ऐसा मुल्क चाहिए था, जहाँ मुसलमान बहुसंख्यक हों। उनको लगता था कि मुस्लिम बहुसंख्यक मुल्क में उन्हीं की सरकार बनेगी। हालाँकि इस बात की भी कुछ गारण्टी नहीं थी कि मुस्लिम बहुसंख्यक मुल्क में भी मुस्लिम लीग की ही सरकार बनती। लेकिन उन्हें जल्दी थी, अपनी हुकूमत लाने की, फिर चाहे वह हुकूमत एक छोटे-से मुल्क पर ही हो। इसीलिए उन्होंने मजहब के नाम पर सियासत की, और ऐसी दलील पेश की, जो न सिर्फ हमारे यहाँ के मुसलमानों का, बल्कि पश्चिमी देशों में बसे हुए मुसलमानों तक का भी पीछा आज तक कर रही है।
पश्चिमी देशों के लोग आज मुसलमानों की इमीग्रेशन से खौफजदा हैं। अगर मुसलमान हिन्दुओं के साथ नहीं रह सकते, तो वे गोरे ईसाइयों के साथ भी कैसे रह सकते हैं? जैसे भारत को तोड़कर मुस्लिम लीग ने अलग मुस्लिम मुल्क बना डाला, क्या ऐसा ही पश्चिमी देशों में नहीं होगा? यही डर पश्चिमी देशों के कई लोगों को सता रहा है। इसी वजह से वे मुसलमान इमीग्रेशन का विरोध कर रहे हैं और मुस्लिम लोगों को उन देशों की सिटीजनशिप देने के खिलाफ हैं। अमरीका में तो डोनाल्ड ट्रम्प के राष्ट्रपति बनने के बाद वहाँ की सरकार ने मुसलमानों को अमरीका में आ कर बसने से रोकने के लिए कदम उठाने भी शुरू कर दिए हैं। अगर मुस्लिम लीग की टू नेशन थ्योरी सही है, तो फिर यह भी मानना पड़ेगा कि पश्चिमी देशों के उन लोगों के डर की वजह भी सही है और आज की अमरीकन सरकार का फैसला भी सही है। अगर यह खयाल सही है कि मुसलमान अलग कल्चर वाले गैर-मुसलमानों के साथ नहीं रह सकते, तो यकीनन ही मुसलमान अमरीका वगैरह मुल्कों में नहीं रह सकते। अमरीका के राष्ट्रपति ट्रम्प का यह कथित मुस्लिम बैन एक तरह से टू नेशन थ्योरी की सोच का ही तो नतीजा है। पहले कुछ लोग टू नेशन थ्योरी के पीछे लग कर चल रहे थे, आज टू नेशन थ्योरी कुछ लोगों के पीछे लगी हुई उन्हें भगा रही है। मैं समझता हूँ कि ऑल इंडिया मुस्लिम लीग की जो दलील थी कि हिन्दू और मुसलमान इकट्ठा नहीं रह सकते, वह बिल्कुल गलत थी। अगर मुस्लिम लीग के मुसलमान भारत में इकट्ठा नहीं रह सकते थे, तो भारत से अलग होकर भी पाकिस्तान के अन्दर ही अमन क्यों नहीं हो पाया, शान्ति क्यों नहीं हो पाई? अलग-अलग मुल्क होकर भी भारत और पाकिस्तान में अब तक दोस्ताना ताल्लुक क्यों नहीं बन पाये? भारत और पाकिस्तान अब तक
सीधी-सीधी चार लड़ाइयाँ लड़ चुके हैं, जिसमें दोनों तरफ के हजारों फौजी और शहरी मारे जा चुके हैं और अरबों रुपए हथियारों पर खर्च किए जा चुके हैं।
हकीकत यही है कि सियासी मुफाद के लिए कुछ लोगों ने इस्लाम का नाम इस्तेमाल किया। यूनाइटेड इण्डिया में उनके राजनैतिक हित पूरे नहीं हो पा रहे थे, जिस वजह से टू नेशन थ्योरी को ईजाद किया गया। इसने न सिर्फ मुसलमानों को हिन्दुओं से अलग कर दिया, बल्कि मुसलमानों को भी दो मुल्कों में बाँटकर रख दिया, जो बाद में फिर तीन मुल्कों में बँट गए।
अपने अन्दर के इन्सान को अगर हम जिन्दा रखें, तो हम सब इकट्ठा रह सकते हैं। नहीं तो इन्सानियत को बाँटने की कोशिशों का कहीं भी अन्त नहीं है। फिर मुसलमान हिन्दुओं के साथ नहीं रह पाएँगे। शिया सुन्नियों के साथ नहीं रह पाएँगे। कथित ऊँची जातियों के लोग दलितों के साथ नहीं रह पाएँगे। सिन्धी पंजाबियों के साथ नहीं रह पाएँगे। कोई भी एक ग्रुप किसी दूसरे ग्रुप के साथ नहीं रह पाएगा।
मेरी ओर से सभी लोगों और राष्ट्रों को शुभकामनाएँ। सबके लिए नेक तमन्नाएँ।
अपनी बात मैं गुरु गोबिन्द सिंह साहब के कहे हुए इन अल्फाज के साथ खत्म करता हूँ-
कोऊ भइओ मुंडीआ संनिआसी
कोऊ जोगी भइओ
कोई ब्रह्मचारी कोऊ जतीअनु मानबो म
हिंदू तुरक कोऊ राफसी इमाम शाफी
मानस की जात सबै एकै पहचानबो।
-अमृत पाल सिंह ‘अमृत’
मोबाइल : 09988459759लोकसंघर्ष पत्रिका मार्च 2018 में प्रकाशित
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