साहित्य हमें संस्कारित करता है। मानवीय बनाता है, मानव विरोधी विचारों के विरुद्ध संघर्ष के लिए तैयार करता है। गैर बराबरी, शोषण और उत्पीड़न के पीछे तर्कशास्त्र समझने में सहयोग करता है। आज कारपोरेट की लूट (जल, जंगल, जमीन) तथा सत्ता के साथ उसके गठबंधन ने देश के किसानों, मजदूरों, छोटे व्यापारियों, दलितों, आदिवासियों के जीवन को त्रस्त कर दिया है। बहुलतावादी हमारी संस्कृति, सहभाव, साझापन को रौंद दिया है। झूठ फरेब, लूट की संस्कृति को ऐसे अर्ध सत्य बनाकर पेश किया जा रहा है जहाँ महान मानवीय मूल्यों का स्पेश कम हो। साहित्य को भी प्रश्नांकित कर उसे फालतू और बाजारू बनाकर सत्ता के हित साधक के रूप में बदला जा रहा है। यह एक बेहद खौफनाक समय है मनुष्यता विरोधी और जन विरोधी। लेकिन ऐसे ही समय में सबसे ज्यादा साहित्य की जरूरत होती है या है। फर्दाफाश करने वाले, लूट के तर्क को खोलने वाले। बढ़ती निराशा से मुक्त होकर मानवता के पक्ष में खड़ा करने में सहयोग देने वाले। ऐसे साहित्य की जरूरत जो बकौल प्रेमचन्द्र ‘राजनीति के आगे चलने वाले मशाल’ की तरह हो।
अगर भारत के इतिहास को देखें तो ऐसा साहित्य राष्ट्रीय मुक्ति संग्राम के दौर में खूब लिखा गया, जन-जन तक पहुँचा। काव्य पंक्तियाँ जन संग्रामों का कण्ठ हार बन गइंर्। कई-कई कविताएँ तो आन्दोलनों का केन्द्रीय नारा बन गईं। कहने का तात्पर्य यह है कि जन संघर्ष को पर्याप्त ऊष्मा, ऊर्जा और दिशा साहित्य इस दौर में प्रदान करती रही। शीत युद्ध के दौर में यह क्रम बदला लेकिन आजाद भारत में भी जन संघर्षों के साथ जो साहित्य रचा गया वह अत्यन्त सारवान रहा और जन उपयोगी तथा जनपक्षधर भी।
इस तरह के आन्दोलनधर्मी तथा जन संघर्षों के गीत-कविताओं के दो रूप हैं। पहला जनता के लिए दूसरा जनता के संघर्ष को संचालित करने वाले हिरावल लोगों के लिए। पहले को हम जनगीत नाम से जानते हैं तथा दूसरे को गंभीर विमर्श वाले सौन्दर्य बोधीय तराने के रूप में। आज बड़े पैमाने पर आन्दोलन चलाए जा रहे हैं छात्रों, नौजवानों, किसानों, मजदूरों, व्यवसायियों के। फिर से एक बार नये जनगीतों की जरूरत है जो जनता के बीच नये समाज का स्वप्न तथा भरोसा बाँट सकें। जन संघर्षों को उद्दीप्त कर सकें। ऊर्जा प्रदान करें, सत्ता के शोषण कारी चरित्र को उजागर कर सकें।
जन गीतों की बुनावट जहाँ एक तरफ लोकधर्मी (धुन, लय, भाव) के स्वर पर हो तो दूसरी तरफ जनता के गहरे बिखराव और निराशा के भावों को दर किनार कर नया सौन्दर्य भाव सृजित कर सकें। इस सन्दर्भ में हमें अपने पूर्ववर्ती जनगीतों को याद करना चाहिए। ऐसे जनगीत आज भी हमारे बैठकों, धरनों, गोष्ठियों, मार्चों में गाये जाते हैं।
सबसे लोकप्रिय गीतों में कोई विभेद तो नहीं किया जा सकता लेकिन फैज के तराने का कोई सानी नहीं है। लाजिम है कि हम देखेंगे, आज भी हमारे बैठकों का सबसे जरूरी गीत है। गीत की बुनावट कयामत की अवधारणा के रूपक को स्टेप बाई स्टेप फैज ने क्रांति के संभव होने के वक्त में बारीकी से बदल दिया है जो आज भी हमारे लिये मानीखेज है। कयामत के दिन ‘पहाड़ रुई की तरह उड़ने लगेंगे, काबे से बुत उठाये जाएँगे, धरती धड़धड़ धड़केगी, ऐसा पवित्र ग्रंथों में लिखा है वह संभव होगा। लेकिन इसी रूपक में फैज ने तख्त-ताज के गिराने, उछाले जाने, मजलूमों के पाँव तले और अहले हकम के सर ऊपर उपेक्षित हरम के लोगों को मसनद पर बैठने को जोड़कर क्रांति के दिन में बदल दिया है। गीत पढ़ें और कयामत के रूपक को ध्यान में रखें तो इसका आनन्द और बढ़ जाता है। अपने अंतिम बन्द तक रूपक को नया आयाम देते हुए फैज घोषणा करते हैं कि-
अगर भारत के इतिहास को देखें तो ऐसा साहित्य राष्ट्रीय मुक्ति संग्राम के दौर में खूब लिखा गया, जन-जन तक पहुँचा। काव्य पंक्तियाँ जन संग्रामों का कण्ठ हार बन गइंर्। कई-कई कविताएँ तो आन्दोलनों का केन्द्रीय नारा बन गईं। कहने का तात्पर्य यह है कि जन संघर्ष को पर्याप्त ऊष्मा, ऊर्जा और दिशा साहित्य इस दौर में प्रदान करती रही। शीत युद्ध के दौर में यह क्रम बदला लेकिन आजाद भारत में भी जन संघर्षों के साथ जो साहित्य रचा गया वह अत्यन्त सारवान रहा और जन उपयोगी तथा जनपक्षधर भी।
इस तरह के आन्दोलनधर्मी तथा जन संघर्षों के गीत-कविताओं के दो रूप हैं। पहला जनता के लिए दूसरा जनता के संघर्ष को संचालित करने वाले हिरावल लोगों के लिए। पहले को हम जनगीत नाम से जानते हैं तथा दूसरे को गंभीर विमर्श वाले सौन्दर्य बोधीय तराने के रूप में। आज बड़े पैमाने पर आन्दोलन चलाए जा रहे हैं छात्रों, नौजवानों, किसानों, मजदूरों, व्यवसायियों के। फिर से एक बार नये जनगीतों की जरूरत है जो जनता के बीच नये समाज का स्वप्न तथा भरोसा बाँट सकें। जन संघर्षों को उद्दीप्त कर सकें। ऊर्जा प्रदान करें, सत्ता के शोषण कारी चरित्र को उजागर कर सकें।
जन गीतों की बुनावट जहाँ एक तरफ लोकधर्मी (धुन, लय, भाव) के स्वर पर हो तो दूसरी तरफ जनता के गहरे बिखराव और निराशा के भावों को दर किनार कर नया सौन्दर्य भाव सृजित कर सकें। इस सन्दर्भ में हमें अपने पूर्ववर्ती जनगीतों को याद करना चाहिए। ऐसे जनगीत आज भी हमारे बैठकों, धरनों, गोष्ठियों, मार्चों में गाये जाते हैं।
सबसे लोकप्रिय गीतों में कोई विभेद तो नहीं किया जा सकता लेकिन फैज के तराने का कोई सानी नहीं है। लाजिम है कि हम देखेंगे, आज भी हमारे बैठकों का सबसे जरूरी गीत है। गीत की बुनावट कयामत की अवधारणा के रूपक को स्टेप बाई स्टेप फैज ने क्रांति के संभव होने के वक्त में बारीकी से बदल दिया है जो आज भी हमारे लिये मानीखेज है। कयामत के दिन ‘पहाड़ रुई की तरह उड़ने लगेंगे, काबे से बुत उठाये जाएँगे, धरती धड़धड़ धड़केगी, ऐसा पवित्र ग्रंथों में लिखा है वह संभव होगा। लेकिन इसी रूपक में फैज ने तख्त-ताज के गिराने, उछाले जाने, मजलूमों के पाँव तले और अहले हकम के सर ऊपर उपेक्षित हरम के लोगों को मसनद पर बैठने को जोड़कर क्रांति के दिन में बदल दिया है। गीत पढ़ें और कयामत के रूपक को ध्यान में रखें तो इसका आनन्द और बढ़ जाता है। अपने अंतिम बन्द तक रूपक को नया आयाम देते हुए फैज घोषणा करते हैं कि-
उठ्ठेगा अन-अल, हक का नारा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो।
और राज करेगी खल्क-ए-खुदा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो।
यह इकलौता गीत नहीं है।
नफस-नफस, कदम-कदम
बस एक फिक्र दम-ब-दम
घिरे हैं हम सवारल से
हमें जवाब चाहिए
जवाब दर सवाल है
कि इन्कबाल चाहिए।
शलभ श्री राम सिंह के इस गीत के प्रत्येक बन्द नये प्रतीकों तथा उपमानों में अपने समय की सत्ता का फर्दाफाश करते हैं। जहाँ पे लफ्ज-ए-अम्न एक खौफनाक राज हो, जहाँ कबूतरों का सरपरस्त एक बाज हो, उन्हीं की सरहदों में कैद हैं हमारी बोलियाँ, वही हमारी थाल में परस रहे हैं गोलियाँ। इस तरह की पंक्तियाँ जहाँ पर्दाफाश करती हैं वहीं उत्साहित करने, संघर्ष करने की ताकत देती हैं। इनकी झूठी बात पर ना और तू यकीन कर, इस रूप में गीत मात्र नारे बाजी नहीं बल्कि गहरे जनतांत्रिक व्यवस्था को प्रश्नांकित करती हैं। राजनीति के झूठ को बेनकाब करती है। इस क्रम में नये लोगों में शशि प्रकाश ने जन गीत खिले हैं। वे परिवर्तन सृजन, संघर्ष का बखूबी एक नया लोक ही रचते हैं उनका प्रसिद्ध गीत जिन्दगी ने एक दिन कहा जिन प्रतीकों, विम्बों से रचा गया है वह हमारे भीतर कहीं गहरे एक नई ऊष्मा ऊर्जा भरता है। जनगीतों को नारा कहने वाले कला आग्रही लोगों को इस गीत को पढ़ना चाहिए। उनके सारे सौन्दर्य बोधीय कलात्मक प्रतिमान टूट जाएँगे। जिन्दगी का कहन खासकर स्वर कैसे एक नये संघर्ष के लिए प्रेरित करता है। कैसे गीत के क्रमशः अगले बन्द नये स्वर सृजन का संधान करते हैं, बेजोड़ है।
जिन्दगी ने कहा-क्या, क्या, क्या, तुम लड़ां कि चह-चहा उठे हवा के परिन्दे, आसमान चूम ले जमीन को, जिन्दगी महक उठे.....। तुम उठो- कि उठ पडं़े असंख्य हाथ, चलो कि चल पड़ें असंख्य पैर साथ मुस्करा उठे क्षितिज पर भोर की किरन। जिन्दगी ने एक दिन कहा.... क्या कि तुम बहो, रुधिर की तरह, जिन्दगी ने एक दिन कहा तुम जलो कि रौशनी के पंख झिलमिला उठें, जिन्दगी ने एक दिन कहा तुम रचो हवा पहाड़ रोशनी नई, महान आत्मा नई गीत लड़ने, उठने, जलने, कहने और रचने का आह्वान करती है। कैसे रुधिर प्रवाह की तरह नये जीवन के रचने की लड़ने की उठने की, कि दुनिया बदल जाए। भाव तथा रूप की ऐसी गहरी एकता विरल है।
यहाँ लगभग तीन जन गीतकार फैज, शलभ श्रीराम सिंह तथा शशिकांत के तीन गीतों की ओर मैंने आपका ध्यान दिलाया है। ऐसे हजारां जनगीत हैं जो लाखों करोड़ों की जुबान पर आज भी मौजूद हैं, लेकिन जैसे प्रत्येक समय अपने संघर्ष आन्दोलन पैदा करता है उसी प्रकार वह अपने गीत जन गीत पैदा करता है। विरासत को संभाले हमें आज के नये गीत रचने और गाने होंगे जो हमें इस सदी के लिये नये संघर्षों को वाणी दे सकें। लिखा तो आज भी जा रहा है, लेकिन उसे अभी जन कण्ठ तक पहुँचने में थोड़ा वक्त लगेगा।
डॉ राजेश मल्ल
मोबाइल : 9919218089
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