दुनिया भर में औद्योगिक क्रान्तियों ने सर्वहारा मजदूर वर्ग को जन्म दिया। इसके साथ ही मजदूर वर्ग की मुक्ति के विचारए विचारक तथा योद्धा पैदा हुए। मजदूर वर्ग के विस्तार तथा उसके शोषण ने उस बुनियादी संघर्ष को तेज किया जिसे ष्वर्ग संघर्षष् कहा जाता है। मार्क्स और ऐंगेल्स ने व्यवस्थित रूप से दर्शनए समाजए इतिहासए विज्ञान के अध्ययन और विश्लेषण द्वारा शोषण.उत्पीड़न के औजारों को चिह्नित किया। प्रत्येक तरह के शोषण से मुक्ति का विचार ष्क्रान्तिष् की अवधारणा पेश की। अपने अध्ययन क्रम में उन्होंने अपना प्रस्थान बिन्दू तय किया कि ष्ष्अब तक दार्शनिकों ने दुनिया को समझने का प्रयास किया है सवाल इसके बदलने का है। इसी क्रम में कम्युनिस्ट घोषणापत्र दुनिया भर के मजदूरों तथा उनके साथियों के लिए मार्गदर्शक सिद्धान्त बन गया। मार्क्स ने साफ किया कि चली आ रही व्यवस्था में शोषण.उत्पीड़न का अन्त देखना गलत होगा। हमें एक नई व्यवस्था का निर्माण करना होगा। शोषण.उत्पीड़न का आधार उत्पादन के साधनों की इजारेदारी को अर्थात निजी सम्पत्ति खत्म कर एक सहकार की व्यवस्था बनायी जाएए तभी शोषण का अन्त सम्भव है। इस अवधारणा तथा विचार दर्शन को क्रान्ति का दर्शन कहा जाता है।
अपने अध्ययन विश्लेषण में मार्क्स.ऐंगेल्स ने साफ किया कि किसी भी समाज व्यवस्था का आधार उत्पादन के साधनए उस पर मालिकाना हकए उजरती श्रम और वितरण प्रणाली ही होती है। अब तक प्राचीन सामन्ती समाज से पूँजीवादी समाज में हुए रूपान्तरण में पुराने शोषण के रूप थोड़े परिवर्तन के साथ बने रहे बल्कि और निर्मम हो गये। इसलिए न्यायपूर्ण समाज निर्माण के लिए सम्पूर्ण व्यवस्था को ही बदलना होगा। इस सन्दर्भ में उन्होंने वर्गए वर्ग समाजए वर्ग संघर्ष तथा क्रान्ति की पूरी रूपरेखा प्रस्तुत किया। कम्युनिस्ट घोषणा पत्र से लेकर बहुत सारी महत्वपूर्ण कृतियाँ उनके क्रान्तिकारी कार्यक्रम का मसौदा हैं। लेकिन जहाँ दुनिया भर के मजदूर आन्दोलन से जुड़े लोगोंए पार्टियोंए संगठनों ने कम्युनिस्ट घोषणा.पत्र को अपना मार्गदर्शक सिद्धांत बनाकर कार्य किया वहीं घोषणा.पत्र की अन्तिम पंक्ति को हमेशा भुला दिया जाता रहा। वहीं पहली पंक्ति अब तक प्राप्त इतिहास वर्ग संघर्षों का हैए याद रहाए वहीं अन्तिम पंक्ति ष्ष्निःसन्देह भिन्न.भिन्न देशों में ये उपाय भिन्न.भिन्न होगेष्ष्।ए भुला दिया या भूलते रहेए जिन्होंने इसे याद रखा उन्होंने अपने देश में क्रान्तियाँ कीं और नये समाज की नींव रखी। जिन्होंने भुला दिया वे समाज परिवर्तन की लड़ाई में पिछड़ते गये।
20वीं शताब्दी के महान सर्वहारा क्रान्तियों का अध्ययन किया जाये तो यह बात बहुत ही साफ है कि प्रत्येक देश में होने वाली क्रान्तियाँ अलग.अलग तरीके से सम्पन्न हुईं। रूसए चीनए वियतनामए क्यूबा के संघर्ष और क्रान्ति बिल्कुल अलग.अलग हैं। कोई किसी की कापी नहीं है। यहाँ यह भी साफ तौर पर देखा जा सकता है कि अपने.अपने देश.समाज के ठोस आर्थिक.सामाजिक.सांस्कृतिक स्थितियों के अनुसार रणनीति तथा कार्यक्रम बनाने तथा उस पर अमल करने से ही वहाँ क्रान्तियां सम्भव हुइंर् या हो सकीं।
उपर्युक्त बातें कोई नई नहीं हैं लेकिन आज बहुत ही जरूरी हैं। क्योंकि दुनिया भर में तथा अपने देश में हम सर्वाधिक कठिन समय.दौर से गुजर रहे हैं। इस सचाई से मुँह मोड़ना बेहत आत्मघाती होगा कि आज हम इतिहास में सबसे कमजोर स्थिति में हैं या पहुँच गए हैं। वामपंथ की सभी तरह की धाराएँ आज धीमी व बचाव मुद्रा में हैं। लेकिन इसके उलट भारी संख्या में जनान्दोलन खासकर किसान.मजदूर.दलित.छात्र आन्दोलन के बाढ़ का भी यह समय है। अमरीका से लेकर भारत तक छात्र.नौजवान सड़कों पर हैं और संकट ग्रस्त पूँजीवाद के विरुद्ध लड़ रहे हैं। या इसे इस रूप में कहें कि वित्तीय पूँजी तथा कारपोरेट लूट से पैदा होने वाले संकटों के विरुद्ध संघर्षरत हैं। ऐसे में कमजोर आत्मगत शक्तियों और विस्फोटक वस्तुगत परिस्थितियों के बीच एक फॉक सी दिखलाई पड़ रही है। ऐसे में विस्फोटक वस्तुगत परिस्थितियों का विश्लेषण तथा आत्मगत शक्तियों की वैचारिक तैयारी का यह जरूरी समय है। इसे व्यापक स्तर पर वामपंथ की प्रत्येक धारा तक जमीनी स्तर के बहस में बदलना आज की आवश्यकता है। यह भी यहाँ साफ होना चाहिए कि कोई एक सूत्र.एक बिन्दु.एक रणनीति.कार्यक्रम नहीं है जो दुनियाभर के लिए बन जाय और हम उस रास्ते क्रान्ति तक पहुँच जाएँ। बल्कि प्रत्येक देश.क्षेत्र आदि के लिए वस्तुगत परिस्थितियों के अनुसार सृजनात्मक संघर्षों और नये सिरे से पार्टी बिल्डिंग का लाभ हाथ में लेकर ही हम महान सर्वहारा की सेवा कर सकते हैं जो हमारा ऐतिहासिक कार्यभार है। जरूरी नहीं और कत्तई जरूरी नहीं कि हमारा रास्ता रूसए चीनए क्यूबा का रास्ता होगा या है। हमें अपने लिए नये औजारों की तलाश करनी होगी और उसे सृजनात्मक तरीके से लागू करना होगा। कई सारी पुरानी अवस्थितियों का निर्मम मूल्यांकन करना होगा। आत्मावलोकन के पीड़ादायी दौर से गुजरना होगा।ष्ष् निचली कतारों तक मार्क्सवाद और क्रान्ति के दर्शन को पहुँचाना होगा। ऊपर से नीचे नहीं बल्कि नीचे से ऊपर की तरफ अनुभव संगत ज्ञान का अलग.अलग क्षेत्रों के अनुसार सूत्रीकरण करना होगा जिससे नये नेतृत्व का विकास.अवकाश सम्भ्व हो सकेगा।
सबसे पहले वस्तुगत परिस्थितियों का विश्लेषण जरूरी है। अपने पुराने सूत्रीकरण पर विचार करने की जरूरत है। जरूरत तो विचारधारा स्तर पर स्टालिन.माओ के वैचारिकी को भी समझने की हैए खासकर खुश्चेव.माओं त्सेतुंग के बीच की बहस को। लेकिन वह ऐसा क्षेत्र है जहाँ भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन के बहुत सारे विभाजक.विवाद मौजूद हैं जबकि आज जरूरत एकता तथा संयुक्त मोर्चा बनाने की है। ऐसे में इन वैचारिक अवस्थितियों को थोड़ा विराम देकर बात की जानी चाहिए। मेरा आशय.विश्लेषण भारतीय समाज के ष्अर्द्धसामन्ती.अर्द्धऔपनिवेशिकष् स्वरूप के सूत्रीकरण से है। क्या भारतीय समाज में विगत 70 वर्षों में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। यदि सन् 1990 के बाद उदारीकरण.बाजारीकरण ने पूँजी के पुराने वित्तीय लूट से अलग कारपोरेट विशाल बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के माध्यम से आरम्भ हुआ है। पूँजी का प्रभाव मात्र स्वदेशी.विदेशी के शास्त्रीय रूप में नहीं बल्कि विचलन और आवारा पूँजी के रूप में बदल जाने से हैं। उपनिवेशवाद अपना रूप.चेहरा खो चुका है और उसकी जगह पर भयावह शोषण का नंगा रूप आज नमूदार है। लूट के वितरण में नये पुराने सारे नियम और कम्पनियों का एक विशाल सहकार बना है और यह बहुत ही अमूर्त होने के बावजूद अलग.अलग क्षेत्रों में श्रम की लूट को ऐड्रेस करते समय इसे ध्यान में रखकर प्रभावशाली परिणाम निष्कर्ष हम प्राप्त कर सकते हैं।
इसी प्रकार ग्रामीण तथा खेतिहार क्षेत्र की समस्याएँ हैं जो अधिकतर पूँजी के भयानक रूपोंए कारपोरेट लूट से जुड़ी हैं। बैंकए बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँए अर्थात पूरी तरह वित्तीय और कारपोरेट लूट का हमला पुराने सामन्ती स्वरूप से भिन्न है। क्योंकि यह पूर्व स्थितियों में एक वर्गीय संरचना मौजूद थी लेकिन वर्ग शत्रु अभूत हैं और ज्यादातर शोषित हैं। जिन्हें हमें अपने पहले की भाषा में भूस्वामी और सामन्त कहते रहे हैं ज्यादातर आत्महत्या करने वालों की जमात इसी में से आती है। एक अजीब सा पसमन्जर जिसे सूत्रीकरण करना अपने पुराने रूपों में अब सम्भव नहीं है इसलिए हमें जनता को ऐड्रेस करने के लिए नये सूत्रोंए नारां की आवश्यकता होगी।
मेरा इस सन्दर्भ में निवेदन है कि वस्तुगत यथार्थ का विस्तृत निवेदन-विश्लेषण की जरूरत है। खासकर अपने पुराने सूत्रीकरण को नये सिरे से मार्क्सवाद की रौशनी में जांचने परखने की आवश्यकता है। खासकर वर्तमान पूँजीवाद की स्थितियों को जो सामन्ती-मूल्यों से गठजोड़ कर फासिज्म का रूप अख्तियार किये हैं। इतिहास के तमाम विकास क्रम को आज उसने उल्टी गति में डाल दिया है या डालने के प्रयास में संलग्न है। नये नवजागरण और नये प्रवोधन की जरूरत आज खड़ी हो गई है।
आत्मगत शक्तियों की तैयारी की सबसे बड़ी समस्या नई पीढ़ी को मार्क्सवाद-लेनिन वाद से परिचित कराना है। आज एक तरफ युवा पीढ़ी अराजकता का शिकार है तो दूसरी तरफ रोज-रोज के संघर्षों ने शोषण-उत्पीड़न से मुक्ति की वैचारिकों के प्रति आकर्षण भी पैदा किया है। धीरे.धीरे थोड़े से ही सही लेकिन युवा नेतृत्व पैदा हुआ है। उसमें चमक है और आकर्षण भी है जिसके द्वारा हम युवा पीढ़ी को अपनी विरासत अपनी कुर्बानियों संघर्षों के इतिहास से परिचित करा सकते हैं।
मीडिया के वैकल्पिक रूपों का विकास आज हमारी सर्वाधिक जरूरत है जिसमें नियमित रूप से वैचारिक तथा सृजनात्मक लेखन द्वारा हम आम जनता को तथा पार्टी कतारों को शिक्षित प्रशिक्षित कर सकते हैं।
यह आत्मावलोकन.आत्मालोचन का भी समय है। इस दिशा में ईमानदार कोशिश हमें नया जीवन प्रदान करेगी। प्रेमचन्द्र के ष्रंग भूमि में सूरदास मि0 जॉन से हारने के बाद कहता है। जानते हो हम क्यों हारें हमें ठीक से खेलना नहीं आता। सबसे बड़ी बात कि हममें एका नहीं है। हम सीखेंगे और एका करेंगे। फिर एक दिन तुम्हें हरा देंगे।यह विश्वास कि षएका करेंगे और सीखेंगे। आज का हमारा केन्द्रीय नारा होना है।
अपने अध्ययन विश्लेषण में मार्क्स.ऐंगेल्स ने साफ किया कि किसी भी समाज व्यवस्था का आधार उत्पादन के साधनए उस पर मालिकाना हकए उजरती श्रम और वितरण प्रणाली ही होती है। अब तक प्राचीन सामन्ती समाज से पूँजीवादी समाज में हुए रूपान्तरण में पुराने शोषण के रूप थोड़े परिवर्तन के साथ बने रहे बल्कि और निर्मम हो गये। इसलिए न्यायपूर्ण समाज निर्माण के लिए सम्पूर्ण व्यवस्था को ही बदलना होगा। इस सन्दर्भ में उन्होंने वर्गए वर्ग समाजए वर्ग संघर्ष तथा क्रान्ति की पूरी रूपरेखा प्रस्तुत किया। कम्युनिस्ट घोषणा पत्र से लेकर बहुत सारी महत्वपूर्ण कृतियाँ उनके क्रान्तिकारी कार्यक्रम का मसौदा हैं। लेकिन जहाँ दुनिया भर के मजदूर आन्दोलन से जुड़े लोगोंए पार्टियोंए संगठनों ने कम्युनिस्ट घोषणा.पत्र को अपना मार्गदर्शक सिद्धांत बनाकर कार्य किया वहीं घोषणा.पत्र की अन्तिम पंक्ति को हमेशा भुला दिया जाता रहा। वहीं पहली पंक्ति अब तक प्राप्त इतिहास वर्ग संघर्षों का हैए याद रहाए वहीं अन्तिम पंक्ति ष्ष्निःसन्देह भिन्न.भिन्न देशों में ये उपाय भिन्न.भिन्न होगेष्ष्।ए भुला दिया या भूलते रहेए जिन्होंने इसे याद रखा उन्होंने अपने देश में क्रान्तियाँ कीं और नये समाज की नींव रखी। जिन्होंने भुला दिया वे समाज परिवर्तन की लड़ाई में पिछड़ते गये।
20वीं शताब्दी के महान सर्वहारा क्रान्तियों का अध्ययन किया जाये तो यह बात बहुत ही साफ है कि प्रत्येक देश में होने वाली क्रान्तियाँ अलग.अलग तरीके से सम्पन्न हुईं। रूसए चीनए वियतनामए क्यूबा के संघर्ष और क्रान्ति बिल्कुल अलग.अलग हैं। कोई किसी की कापी नहीं है। यहाँ यह भी साफ तौर पर देखा जा सकता है कि अपने.अपने देश.समाज के ठोस आर्थिक.सामाजिक.सांस्कृतिक स्थितियों के अनुसार रणनीति तथा कार्यक्रम बनाने तथा उस पर अमल करने से ही वहाँ क्रान्तियां सम्भव हुइंर् या हो सकीं।
उपर्युक्त बातें कोई नई नहीं हैं लेकिन आज बहुत ही जरूरी हैं। क्योंकि दुनिया भर में तथा अपने देश में हम सर्वाधिक कठिन समय.दौर से गुजर रहे हैं। इस सचाई से मुँह मोड़ना बेहत आत्मघाती होगा कि आज हम इतिहास में सबसे कमजोर स्थिति में हैं या पहुँच गए हैं। वामपंथ की सभी तरह की धाराएँ आज धीमी व बचाव मुद्रा में हैं। लेकिन इसके उलट भारी संख्या में जनान्दोलन खासकर किसान.मजदूर.दलित.छात्र आन्दोलन के बाढ़ का भी यह समय है। अमरीका से लेकर भारत तक छात्र.नौजवान सड़कों पर हैं और संकट ग्रस्त पूँजीवाद के विरुद्ध लड़ रहे हैं। या इसे इस रूप में कहें कि वित्तीय पूँजी तथा कारपोरेट लूट से पैदा होने वाले संकटों के विरुद्ध संघर्षरत हैं। ऐसे में कमजोर आत्मगत शक्तियों और विस्फोटक वस्तुगत परिस्थितियों के बीच एक फॉक सी दिखलाई पड़ रही है। ऐसे में विस्फोटक वस्तुगत परिस्थितियों का विश्लेषण तथा आत्मगत शक्तियों की वैचारिक तैयारी का यह जरूरी समय है। इसे व्यापक स्तर पर वामपंथ की प्रत्येक धारा तक जमीनी स्तर के बहस में बदलना आज की आवश्यकता है। यह भी यहाँ साफ होना चाहिए कि कोई एक सूत्र.एक बिन्दु.एक रणनीति.कार्यक्रम नहीं है जो दुनियाभर के लिए बन जाय और हम उस रास्ते क्रान्ति तक पहुँच जाएँ। बल्कि प्रत्येक देश.क्षेत्र आदि के लिए वस्तुगत परिस्थितियों के अनुसार सृजनात्मक संघर्षों और नये सिरे से पार्टी बिल्डिंग का लाभ हाथ में लेकर ही हम महान सर्वहारा की सेवा कर सकते हैं जो हमारा ऐतिहासिक कार्यभार है। जरूरी नहीं और कत्तई जरूरी नहीं कि हमारा रास्ता रूसए चीनए क्यूबा का रास्ता होगा या है। हमें अपने लिए नये औजारों की तलाश करनी होगी और उसे सृजनात्मक तरीके से लागू करना होगा। कई सारी पुरानी अवस्थितियों का निर्मम मूल्यांकन करना होगा। आत्मावलोकन के पीड़ादायी दौर से गुजरना होगा।ष्ष् निचली कतारों तक मार्क्सवाद और क्रान्ति के दर्शन को पहुँचाना होगा। ऊपर से नीचे नहीं बल्कि नीचे से ऊपर की तरफ अनुभव संगत ज्ञान का अलग.अलग क्षेत्रों के अनुसार सूत्रीकरण करना होगा जिससे नये नेतृत्व का विकास.अवकाश सम्भ्व हो सकेगा।
सबसे पहले वस्तुगत परिस्थितियों का विश्लेषण जरूरी है। अपने पुराने सूत्रीकरण पर विचार करने की जरूरत है। जरूरत तो विचारधारा स्तर पर स्टालिन.माओ के वैचारिकी को भी समझने की हैए खासकर खुश्चेव.माओं त्सेतुंग के बीच की बहस को। लेकिन वह ऐसा क्षेत्र है जहाँ भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन के बहुत सारे विभाजक.विवाद मौजूद हैं जबकि आज जरूरत एकता तथा संयुक्त मोर्चा बनाने की है। ऐसे में इन वैचारिक अवस्थितियों को थोड़ा विराम देकर बात की जानी चाहिए। मेरा आशय.विश्लेषण भारतीय समाज के ष्अर्द्धसामन्ती.अर्द्धऔपनिवेशिकष् स्वरूप के सूत्रीकरण से है। क्या भारतीय समाज में विगत 70 वर्षों में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। यदि सन् 1990 के बाद उदारीकरण.बाजारीकरण ने पूँजी के पुराने वित्तीय लूट से अलग कारपोरेट विशाल बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के माध्यम से आरम्भ हुआ है। पूँजी का प्रभाव मात्र स्वदेशी.विदेशी के शास्त्रीय रूप में नहीं बल्कि विचलन और आवारा पूँजी के रूप में बदल जाने से हैं। उपनिवेशवाद अपना रूप.चेहरा खो चुका है और उसकी जगह पर भयावह शोषण का नंगा रूप आज नमूदार है। लूट के वितरण में नये पुराने सारे नियम और कम्पनियों का एक विशाल सहकार बना है और यह बहुत ही अमूर्त होने के बावजूद अलग.अलग क्षेत्रों में श्रम की लूट को ऐड्रेस करते समय इसे ध्यान में रखकर प्रभावशाली परिणाम निष्कर्ष हम प्राप्त कर सकते हैं।
इसी प्रकार ग्रामीण तथा खेतिहार क्षेत्र की समस्याएँ हैं जो अधिकतर पूँजी के भयानक रूपोंए कारपोरेट लूट से जुड़ी हैं। बैंकए बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँए अर्थात पूरी तरह वित्तीय और कारपोरेट लूट का हमला पुराने सामन्ती स्वरूप से भिन्न है। क्योंकि यह पूर्व स्थितियों में एक वर्गीय संरचना मौजूद थी लेकिन वर्ग शत्रु अभूत हैं और ज्यादातर शोषित हैं। जिन्हें हमें अपने पहले की भाषा में भूस्वामी और सामन्त कहते रहे हैं ज्यादातर आत्महत्या करने वालों की जमात इसी में से आती है। एक अजीब सा पसमन्जर जिसे सूत्रीकरण करना अपने पुराने रूपों में अब सम्भव नहीं है इसलिए हमें जनता को ऐड्रेस करने के लिए नये सूत्रोंए नारां की आवश्यकता होगी।
मेरा इस सन्दर्भ में निवेदन है कि वस्तुगत यथार्थ का विस्तृत निवेदन-विश्लेषण की जरूरत है। खासकर अपने पुराने सूत्रीकरण को नये सिरे से मार्क्सवाद की रौशनी में जांचने परखने की आवश्यकता है। खासकर वर्तमान पूँजीवाद की स्थितियों को जो सामन्ती-मूल्यों से गठजोड़ कर फासिज्म का रूप अख्तियार किये हैं। इतिहास के तमाम विकास क्रम को आज उसने उल्टी गति में डाल दिया है या डालने के प्रयास में संलग्न है। नये नवजागरण और नये प्रवोधन की जरूरत आज खड़ी हो गई है।
आत्मगत शक्तियों की तैयारी की सबसे बड़ी समस्या नई पीढ़ी को मार्क्सवाद-लेनिन वाद से परिचित कराना है। आज एक तरफ युवा पीढ़ी अराजकता का शिकार है तो दूसरी तरफ रोज-रोज के संघर्षों ने शोषण-उत्पीड़न से मुक्ति की वैचारिकों के प्रति आकर्षण भी पैदा किया है। धीरे.धीरे थोड़े से ही सही लेकिन युवा नेतृत्व पैदा हुआ है। उसमें चमक है और आकर्षण भी है जिसके द्वारा हम युवा पीढ़ी को अपनी विरासत अपनी कुर्बानियों संघर्षों के इतिहास से परिचित करा सकते हैं।
मीडिया के वैकल्पिक रूपों का विकास आज हमारी सर्वाधिक जरूरत है जिसमें नियमित रूप से वैचारिक तथा सृजनात्मक लेखन द्वारा हम आम जनता को तथा पार्टी कतारों को शिक्षित प्रशिक्षित कर सकते हैं।
यह आत्मावलोकन.आत्मालोचन का भी समय है। इस दिशा में ईमानदार कोशिश हमें नया जीवन प्रदान करेगी। प्रेमचन्द्र के ष्रंग भूमि में सूरदास मि0 जॉन से हारने के बाद कहता है। जानते हो हम क्यों हारें हमें ठीक से खेलना नहीं आता। सबसे बड़ी बात कि हममें एका नहीं है। हम सीखेंगे और एका करेंगे। फिर एक दिन तुम्हें हरा देंगे।यह विश्वास कि षएका करेंगे और सीखेंगे। आज का हमारा केन्द्रीय नारा होना है।
- राजेश मल्ल
मो. 9919218089
लोकसंघर्ष पत्रिका अप्रैल 2018 विशेषांक में प्रकाशित
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