त्रिपुरा में ढाई दशकों के शासन के बाद मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की सत्ता के पतन को वाम विचारधारा के अंत के रूप में देखना-प्रचारित करना सरासर इतिहास विरोधी दृष्टि होगी। त्रिपुरा में हार को वाम शक्तियों की राज सत्ता के पराभव के रूप में देखा जा सकता है, न कि वामवादी वैचारिक सत्ता की पराजय।
फिर भी ठोस राजनैतिक यथार्थ को नजरंदाज करना भी इतिहास से मुँह मोड़ना होगा। यकीनन यह समय दक्षिणपंथ की आक्रमकता का है, जिसके आलम हमलावर हैं नरेन्द्र मोदी, डोनाल्ड ट्रम्प जैसे लोग अमरीका, यूरोप ,एशिया समेत विश्व के दूसरे भागों में कॉर्पोरेट-याराना पूँजीवाद के राकेट पर सवार होकर दक्षिणपंथी शक्तियाँ चारों दिशाओं में हमले कर रही हैं। इस नक्शे को दिमाग में रख कर त्रिपुरा-हार और संघ-भाजपा उभार को देखा जाना चाहिए।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने त्रिपुरा चुनाव प्रचार में हुंकार भरी थी कि राज्य में वामपंथ के गढ़ को ध्वस्त करके रहेंगे। उन्हें माणिक-सरकार से कहीं ज्यादा नफरत थी ‘वामपंथ ‘ से। अतः मोदी-सेना ने जैविक घृणा से लैस होकर त्रिपुरा पर धावा बोल दिया। कामयाबी भी मिली, लेकिन इसका श्रेय वैश्विक दक्षिण पंथी ताकतों को भी जाता है। हालाँकि, जन-फैसले का आदर किया जाना चाहिए, लेकिन, सच यह भी है कि अकूत संसाधनों से लैस संघ-परिवार ने त्रिपुरा चुनावों में अपनी पूरी शक्ति झांक दी थी। त्रिपुरा-विजय का सबब-सन्देश है निरंकुश पूँजीवाद का विस्तार, कट्टरवादी-अंधराष्ट्रवादी-युद्ध उन्मादी प्रवृतियों का फैलाव : फियर-सायकोसिस से प्रगतिशीलों-अल्पसंख्यकों की सामजिक व राजनैतिक घेराबंदी। भाजपा एक सामान्य व प्रोफेशनल राजनैतिक पार्टी नहीं है। यह पूरी तरह से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पर आश्रित है। संघ का सुदूरगामी एजेंडा है भारत को ‘धार्मिक उर्फ हिन्दू राष्ट्र‘ बनाना। इसके लिए संविधान में संशोधन अनिवार्य है। यह तभी मुमकिन है जब संसद और विधान सभाओं में अनिवार्य सस्दस्य संख्या रहे। इसलिए त्रिपुरा-जीत या उत्तर-पूर्व विजय अभियान पर वैचारिक दूरबीन से नजर रखनी होगी।
प्रधानमंत्री मोदी कहते हैं कि वास्तु शास्त्र की दृष्टि से उत्तर-पूर्व दिशा अच्छी होती है। उन्होंने इस चुनावी सफलता को तुरंत ही मध्ययुगीन मानसिकता के साथ नत्थी कर दिया। दूसरे शब्दों में इसे धार्मिक-सांस्कृतिक रंग दे डाला। एक ‘अखिल भारतीय हिन्दुत्त्व मानसिकता’ को चुनावी राजनीति के केंद्र में ले आए, यह खतरनाक संकेत है। संघ परिवार की कोशिश यही है कि पूरा देश ‘संघ मय‘ व ‘हिन्दू’ मय बन जाए। इस सन्दर्भ में संघ-सुप्रीमो मोहन भागवत के दम्भ भरे उवाच को याद रखना चाहिए। उन्होंने 25 फरवरी को मेरठ में आह्वान किया था कि ‘सारा समाज संघ बने।’ वे कहते हैं कि हिन्दुओं को एकताबद्ध होना पड़ेगा। उनके ही काँधों पर भारत की जिम्मेदारी है। इन शब्दों का सीधा अर्थ यह है कि भाजपा राजनैतिक सफलताओं तक ही सीमित नहीं रहेगी, न ही संतुष्ट होगी। यह तो उसका छद्म एजेंडा है। असली एजेंडा है देश के धर्मनिरपेक्षवादी चरित्र को ध्वस्त कर देना। उसके स्थान पर गुरु गोलवरकर जी के सपनों को साकार करना। उनके ‘बंच ऑफ थॉट्स‘ के मार्ग दर्शन में आगे बढ़ना। इसलिए उत्तर-पूर्व में संघ-परिवार के उभार को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए। इसके दूरगामी परिणामों पर नजर गड़ाए रखना होगा।
मोदीजी कहते हैं कि मुसलमानों के एक हाथ में कुरान, दूसरे हाथ में कंप्यूटर होना चाहिए। इससे असहमति किसी की नहीं है। लेकिन वे यही बात तथाकथित लव जेहादियों, गौरक्षकों जैसों पर भी लागू करेंगे? उनके सौ खून माफ। यह कैसी आधुनिकता है, यह कैसा ‘सबका साथ-सबका विकास’ है! वास्तव में संघ परिवार उत्तर-पूर्व को अपनी नई सांस्कृतिक-धार्मिक प्रयोगशाला बनाने के उपक्रम में है जहाँ पिछली सदियों में पादरियों ने इस क्षेत्र का ईसाईकरण किया था, अब इस सदी में संघ जनजातियों का ‘हिन्दूकरण‘ करना चाहता है। जनजाति संस्कृति पर वर्चस्ववादी संस्कृति आरोपित करना चाहता है। मुख्य भारत के क्षेत्रों में इसने यही किया है। (लेखक की पुस्तक देखें-यादों का लाल गलियारा-दंतेवाड़ा) सारांश में, मोदी जी अल्पसंख्यकों का तो आधुनिकीकरण करना चाहते हैं, लेकिन अपने तथाकथित सांस्कृतिक सेना को मध्ययुगीनता के अस्तबल में ही बाँधे रखना चाहते हैं। कैसी है यह दोगली मानसिकता! क्या उत्तर-पूर्व की भी यही नियति रहेगी?
जरूरत इस बात की है कि मोदी-शाह जुगलबंदी का राग कर्णाटक और अन्य प्रदेशों में सुनायी न दे, इसके लिए सभी सच्चे लोकतान्त्रिक राष्ट्रवादियों, धर्मनिरपेक्षवादियों, संविधानवादियों और नस्ल-जात विरोधियों को गोलबंद होने का समय है।
फिर भी ठोस राजनैतिक यथार्थ को नजरंदाज करना भी इतिहास से मुँह मोड़ना होगा। यकीनन यह समय दक्षिणपंथ की आक्रमकता का है, जिसके आलम हमलावर हैं नरेन्द्र मोदी, डोनाल्ड ट्रम्प जैसे लोग अमरीका, यूरोप ,एशिया समेत विश्व के दूसरे भागों में कॉर्पोरेट-याराना पूँजीवाद के राकेट पर सवार होकर दक्षिणपंथी शक्तियाँ चारों दिशाओं में हमले कर रही हैं। इस नक्शे को दिमाग में रख कर त्रिपुरा-हार और संघ-भाजपा उभार को देखा जाना चाहिए।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने त्रिपुरा चुनाव प्रचार में हुंकार भरी थी कि राज्य में वामपंथ के गढ़ को ध्वस्त करके रहेंगे। उन्हें माणिक-सरकार से कहीं ज्यादा नफरत थी ‘वामपंथ ‘ से। अतः मोदी-सेना ने जैविक घृणा से लैस होकर त्रिपुरा पर धावा बोल दिया। कामयाबी भी मिली, लेकिन इसका श्रेय वैश्विक दक्षिण पंथी ताकतों को भी जाता है। हालाँकि, जन-फैसले का आदर किया जाना चाहिए, लेकिन, सच यह भी है कि अकूत संसाधनों से लैस संघ-परिवार ने त्रिपुरा चुनावों में अपनी पूरी शक्ति झांक दी थी। त्रिपुरा-विजय का सबब-सन्देश है निरंकुश पूँजीवाद का विस्तार, कट्टरवादी-अंधराष्ट्रवादी-युद्ध उन्मादी प्रवृतियों का फैलाव : फियर-सायकोसिस से प्रगतिशीलों-अल्पसंख्यकों की सामजिक व राजनैतिक घेराबंदी। भाजपा एक सामान्य व प्रोफेशनल राजनैतिक पार्टी नहीं है। यह पूरी तरह से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पर आश्रित है। संघ का सुदूरगामी एजेंडा है भारत को ‘धार्मिक उर्फ हिन्दू राष्ट्र‘ बनाना। इसके लिए संविधान में संशोधन अनिवार्य है। यह तभी मुमकिन है जब संसद और विधान सभाओं में अनिवार्य सस्दस्य संख्या रहे। इसलिए त्रिपुरा-जीत या उत्तर-पूर्व विजय अभियान पर वैचारिक दूरबीन से नजर रखनी होगी।
प्रधानमंत्री मोदी कहते हैं कि वास्तु शास्त्र की दृष्टि से उत्तर-पूर्व दिशा अच्छी होती है। उन्होंने इस चुनावी सफलता को तुरंत ही मध्ययुगीन मानसिकता के साथ नत्थी कर दिया। दूसरे शब्दों में इसे धार्मिक-सांस्कृतिक रंग दे डाला। एक ‘अखिल भारतीय हिन्दुत्त्व मानसिकता’ को चुनावी राजनीति के केंद्र में ले आए, यह खतरनाक संकेत है। संघ परिवार की कोशिश यही है कि पूरा देश ‘संघ मय‘ व ‘हिन्दू’ मय बन जाए। इस सन्दर्भ में संघ-सुप्रीमो मोहन भागवत के दम्भ भरे उवाच को याद रखना चाहिए। उन्होंने 25 फरवरी को मेरठ में आह्वान किया था कि ‘सारा समाज संघ बने।’ वे कहते हैं कि हिन्दुओं को एकताबद्ध होना पड़ेगा। उनके ही काँधों पर भारत की जिम्मेदारी है। इन शब्दों का सीधा अर्थ यह है कि भाजपा राजनैतिक सफलताओं तक ही सीमित नहीं रहेगी, न ही संतुष्ट होगी। यह तो उसका छद्म एजेंडा है। असली एजेंडा है देश के धर्मनिरपेक्षवादी चरित्र को ध्वस्त कर देना। उसके स्थान पर गुरु गोलवरकर जी के सपनों को साकार करना। उनके ‘बंच ऑफ थॉट्स‘ के मार्ग दर्शन में आगे बढ़ना। इसलिए उत्तर-पूर्व में संघ-परिवार के उभार को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए। इसके दूरगामी परिणामों पर नजर गड़ाए रखना होगा।
मोदीजी कहते हैं कि मुसलमानों के एक हाथ में कुरान, दूसरे हाथ में कंप्यूटर होना चाहिए। इससे असहमति किसी की नहीं है। लेकिन वे यही बात तथाकथित लव जेहादियों, गौरक्षकों जैसों पर भी लागू करेंगे? उनके सौ खून माफ। यह कैसी आधुनिकता है, यह कैसा ‘सबका साथ-सबका विकास’ है! वास्तव में संघ परिवार उत्तर-पूर्व को अपनी नई सांस्कृतिक-धार्मिक प्रयोगशाला बनाने के उपक्रम में है जहाँ पिछली सदियों में पादरियों ने इस क्षेत्र का ईसाईकरण किया था, अब इस सदी में संघ जनजातियों का ‘हिन्दूकरण‘ करना चाहता है। जनजाति संस्कृति पर वर्चस्ववादी संस्कृति आरोपित करना चाहता है। मुख्य भारत के क्षेत्रों में इसने यही किया है। (लेखक की पुस्तक देखें-यादों का लाल गलियारा-दंतेवाड़ा) सारांश में, मोदी जी अल्पसंख्यकों का तो आधुनिकीकरण करना चाहते हैं, लेकिन अपने तथाकथित सांस्कृतिक सेना को मध्ययुगीनता के अस्तबल में ही बाँधे रखना चाहते हैं। कैसी है यह दोगली मानसिकता! क्या उत्तर-पूर्व की भी यही नियति रहेगी?
जरूरत इस बात की है कि मोदी-शाह जुगलबंदी का राग कर्णाटक और अन्य प्रदेशों में सुनायी न दे, इसके लिए सभी सच्चे लोकतान्त्रिक राष्ट्रवादियों, धर्मनिरपेक्षवादियों, संविधानवादियों और नस्ल-जात विरोधियों को गोलबंद होने का समय है।
-रामशरण जोशी
मोबाइल : 09810525019
लोकसंघर्ष पत्रिका अप्रैल 2018 विशेषांक में प्रकाशित
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