हिंदू राष्ट्रवाद ने हर नागरिक के मन को किसी न किसी रूप में प्रभावित किया है, यह प्रक्रिया राममंदिर आंदोलन के बाद से चल रही है, मोदी सरकार बनने के साथ इन दिनों चरम पर है। इसके पहले अटल बिहारी सरकार बनने के समय भी इसके मध्यवर्ती उभार को देख सकते हैं लेकिन आक्रामक ढ़ंग से हिंदुत्व, हिंदू राष्ट्रवाद और मोदी की महानेता की जो इमेज इसबार सामने आई है वैसा व्यापक असर पहले कभी नहीं देखा गया। चुनौती यह है कि ‘हिंदुत्व’ और ‘हिंदू राष्ट्रवाद’ की इमेज को कैसे समझें। तदर्थ उपकरणों के जरिए इसे समझना मुश्किल है, यह प्रचलित समाजविज्ञान के नजरिए से भी पकड़ में नहीं आ सकती। साथ ही प्रेस क्रांति के संदर्भ में रचे गए साम्प्रदायिकता विरोधी विचारधारा के संदर्भ में भी इसके समाधान नहीं खोजे जा सकते। इसे समझने के लिए नए युग के साइबर परिप्रेक्ष्य की जरूरत है।
‘हिंदुत्व’ और ‘हिंदूराष्ट्र’ का नया संदर्भ वर्चुअल रियलिटी रच रही है। साइबर संचार रच रहा है। इसलिए वर्चुअल रियलिटी की प्रक्रियाओं की सटीक समझ के आधार पर ही इसके समूचे वैचारिक तानेबाने को खोला जाना चाहिए। सवाल यह है सारे देश में ‘हिंदुत्व’ और ‘हिंदू राष्ट्रवाद’ की
आंधी कैसे आई उसकी प्रक्रिया क्या है उसने किस तरह के दार्शनिक मॉडल का इस्तेमाल किया इत्यादि सवालों पर गंभीरता के साथ विचार करने की जरूरत है।
‘हिंदुत्व’ और ‘हिंदू राष्ट्रवाद’ अचानक पैदा हुई विचारधारा नहीं है। यह पहले से थी और इसका सौ साल से भी पुराना इतिहास है, इस विचार के इतिहास में वे भी शामिल हैं जो आरएसएस में रहे हैं और वे भी शामिल हैं जो आरएसएस में नहीं रहे हैं। 19वीं सदी के पुनरुत्थानवाद में इस विचारधारा के बीज बोए गए थे। जिनकी ओर हमने कभी कोई विचारधारात्मक संघर्ष नहीं चलाया। हमने नवजागरण के सकारात्मक पक्षों पर ध्यान केद्रिंत किया लेकिन उसके नकारात्मक पक्ष पर ध्यान ही नहीं दिया। राजा राममोहन राय के सकारात्मक विचारों पर नजर गई लेकिन नकारात्मक विचारों को छिपाए रखा। उसी तरह दयानंद सरस्वती के आर्य समाज और उसके समाजसुधारों और खड़ी बोली हिंदी के विकास से संबंधित योगदान की भूरि-भूरि प्रशंसा की लेकिन हिंदुत्ववादी विचारों की अनदेखी की। इसी तरह बाल गंगाधर तिलक, मदनमोहन मालवीय आदि के स्वाधीनता संग्राम में योगदान को महत्व दिया लेकिन उनके हिंदुत्ववादी विचारों की अनदेखी की। कहने का आशय यह कि ‘हिंदुत्व’ ‘गोरक्षा’ और ‘हिंदूराष्ट्र’ की अवधारणा हाल-फिलहाल की तैयारशुदा विचारधाराएँ नहीं हैं। ये भारतीय समाज में पहले से मौजूद रही हैं। इससे यह मिथ टूटता है कि ‘हिंदुत्व’ और ‘हिंदूराष्ट्र’ का विचार सिर्फ आरएसएस की देन है।
आरएसएस ने पहले से मौजूद इन दोनों विचारों को अपने सांगठनिक वैचारिक ढांचे में शामिल किया और मनमाना विस्तार दिया। यह सच है वामपंथी,
धर्मनिरपेक्ष विचारकों ने बड़े पैमाने पर आरएसएस का मूल्यांकन किया, हिंदुत्व, राष्ट्रवाद आदि की परंपरा का विवेचन भी किया लेकिन वे यह बताने में असमर्थ रहे कि हिंदुत्व और राष्ट्रवाद का विचार आम जनता के दिलो-दिमाग में कैसे घुसता चला गया धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र, संविधान, सरकारें आदि इसे रोकने में असफल क्यों रहीं। ‘हिंदुत्व’ और ‘हिंदूराष्ट्र’ के विचारों की आम जनता में आज जो गहराई तक मौजूदगी नजर आती है उसकी प्रक्रियाओं को दार्शनिक तौर पर खोले बिना यह समझ में नहीं आएगा कि आखिरकार ये विचार जनता में इतनी गहराई तक कैसे पहुँचे, कहने का आशय यह कि विचार की आलोचना से विचार का सतही रूप समझ में आता है लेकिन उसकी जनता में पैंठ को देखकर उसका असली रूप समझ में आता है।
‘हिंदुत्व’ और ‘हिंदू राष्ट्रवाद’ के खिलाफ धर्मनिरपेक्ष ताकतें तदर्थ भाव से वैचारिक संघर्ष करती रहीं, लेकिन उसका सफाया नहीं कर पाईं, जबकि हर स्थान और संरचना में उनका दखल था। इसका अर्थ यह है संरचना पर कब्जा कर लेने या कानून बनाने से कोई भी प्रचलित विचार मरता नहीं है। धर्मनिरपेक्षतावादी इस संघर्ष के जरिए अपनी जगह बनाने की कोशिश कर रहे थे, हर बार के चुनावों में जनसंघ-भाजपा की हार पर खुश हो रहे थे, धर्मनिरपेक्ष ताकतों की विजय पर जश्न मना रहे थे, लेकिन विगत 70 सालों में धर्मनिरपेक्ष प्रचार अभियान अंत में वहीं आकर पहुँचा जहाँ पर वह 1947 में था, सन् 1947 में जो घृणा हमारे मन में थी वही घृणा आज भी हमारे मन में है, मुसलमानों, पाक के निर्माण आदि के खिलाफ जो घृणा 1947 में थी, वह आज भी है, इससे यह पता चलता है कि हम नौ दिन चले अढाई कोस।
कहने का आशय यह कि देश की धर्मनिरपेक्ष आत्मा तो हमने बना ली लेकिन उसके अनुरूप शरीर नहीं बना पाए, शरीर के अंग नहीं बना पाए। शरीर और अंगों के बिना आत्मा का चरित्र वायवीय बन जाता है। उल्लेखनीय विगत 70 सालों में साम्प्रदायिक ताकतों ने अपने प्रयोगों के जरिए एक ही चीज पैदा की है वह है अशांति! अशांति के बिना वे अपना विकास नहीं कर सकतीं। उनके सारे एक्शन अ-शांति पैदा करने वाले होते हैं। संघियों के प्रयोग सिर्फ प्रचार तक ही सीमित नहीं रहे हैं बल्कि शरीर, राजनीति, सेंसरशिप, दंगे और दमन तक इनका क्षितिज फैला हुआ है। इन सबके कारण वे समाज को शांति से रहने नहीं देते। इन सबका असर यह हुआ कि धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक भारत का तानाबाना और ढाँचा लगातार क्षतिग्रस्त हुआ है। मसलन् जब कभी दंगा होता है तो हम उसे संपत्ति, जानो-माल के नुकसान या कानून-व्यवस्था की समस्या से ज्यादा देखते ही नहीं हैं, हम यह नहीं देखते कि इससे भारत का धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक शरीर क्षतिग्रस्त हुआ है। हमने भारत की आत्मा को एकदम वायवीय बना दिया है। दिलचस्प बात यह है कि भारत की बातें सब करते हैं, लेकिन भारत के लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष शरीर के अंगों की बात कोई नहीं करता। अंगों के बिना शरीर का कोई अर्थ नहीं है।
भारत के लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष शारीरिक अंगों के बिना भारत की आत्मा वायवीय है, अमूर्त है, अप्रासंगिक है। साम्प्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता के संघर्ष में अनेक लोग मारे गए, अनेक किस्म के विचारों का भी अंत हुआ। बार-बार कहा गया सचेत रहो। लेकिन सचेत रहो के आह्वान ने हमें अंत में कहीं का नहीं छोड़ा, हम क्रमशः अचेत होते चले गए, जनता में सचेत रहो के आह्वान को पहुँचाने में असफल रहे, असफल क्यों रहे इसका कभी वस्तुगत मूल्यांकन नहीं किया। आज सत्तर साल बाद हकीकत यह है कि आम आदमी की जुबान, बोली, अभिव्यंजना शैली आदि में साम्प्रदायिक लहजा घुस गया है। कायदे से व्यक्ति को धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक बनना था लेकिन हुआ एकदम उलटा। आज हम सबके कॉमनसेंस में साम्प्रदायिक विचारों और नारों ने गहरी पैठ बना ली है। हम सबको योग, भगवानराम, कृष्ण, राधा, सीता, हिंदुत्व, राष्ट्रवाद आदि के निरर्थक प्रपंचों में उलझा दिया गया है। व्यक्ति को हमने लोकतंत्र धर्मनिरपेक्षता के अनुरुप पूरी तरह नए रुप में तैयार ही नहीं किया, हम ऊपर से मुखौटे लगाकर उसे धर्मनिरपेक्ष बनाते रहे, लोकतांत्रिक बनाते रहे, उसके व्यक्तित्वान्तरण के सवालों को कभी बहस के केन्द्र में नहीं लाए, सवाल यह है व्यक्ति को पूरी तरह बदले बगैर यह कैसे संभव है कि भारत लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष हो जाए, हमने रणनीति यह बनायी कि व्यक्ति जैसा है, वैसा ही रहे, थोड़ा बहुत बदल जाए तो ठीक है, जो हिदू है वह हिंदू रहे, जो मुसलमान है वह मुसलमान रहे, जो ईसाई है वह ईसाई रहे, बस इससे हमें सद्भाव का पाखंडी मार्ग मिल गया। हमने व्यक्ति के कपड़े बदले, जीवन के साजो-सामान बदले, समाज का ऊपरी ढाँचा बदला, कल-कारखाने बनाए, सड़कें बनाईं, नई-नई गगनचुम्बी इमारतें बनाईं, नए कानून बनाए, लेकिन व्यक्ति को नहीं बदला। यही वह जगह है जहाँ पर भारत हार गया, भारत वायवीय बन गया, बिना शरीर के अंगों का देश बन गया। आधुनिक भारत को
आधुनिक मनुष्य भी चाहिए, इस सामान्य किंतु महत्वपूर्ण बात को हम समझ ही नहीं पाए, लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष भारत की परिकल्पना को आधुनिक मनुष्य बनाए बगैर साकार करना संभव नहीं है, यही वह बिंदु है जहाँ से साम्प्रदायिक ताकतों ने समाज के जर्रे-जर्रे पर हमला किया और उसे अपने साँचे में ढालने में उनको सफलता मिली।
आधुनिक शरीर अंग रहित भारत वस्तुतः साम्प्रदायिक भारत है, हम लाख दावा करें कि भारत धर्मनिरपेक्ष है, उसकी जनता धर्मनिरपेक्ष है, लेकिन वास्तविकता इसके एकदम विपरीत है, आप आँकडों की रोशनी में, मतदाताओं के मतदान की प्राथमिकताओं, प्राप्त मतों के आधार पर लाख तर्क दें और कहें कि भारत धर्मनिरपेक्ष है तो यह बात गले नहीं उतरती, क्योंकि आधुनिक भारत के अनुरूप आधुनिक व्यक्ति के निर्माण के काम को हमने अपने एजेण्डे पर कभी नहीं रखा, इसका परिणाम यह निकला कि आज धर्मनिरपेक्ष सपने, प्राथमिकताएँ और मूल्य संकट में हैं, सभी धर्मनिरपेक्ष दल अपने को असहाय महसूस कर रहे हैं, उनके पास इसका कोई उत्तर नहीं है।
बुनियादी सवाल यह है कि 70 साल तक भारत धर्मनिरपेक्ष था तो फिर एकदम हिंदुत्ववादी ताकतें सत्ता पर काबिज क्यों हो गईं, क्यों जीवन के हर क्षेत्र में उनका व्यापक प्रभाव बना हुआ है यह महज मोदी सरकार के आने के साथ घटित परिघटना नहीं है, मोदी का चुनाव जीतना एक घटना मात्र है, यह संभव है कि आगामी 2019 का लोकसभा चुनाव मोदी-भाजपा हार जाएँ, सारे देश में क्रमशः उनकी राज्य सरकारें भी खत्म हो जाएँ लेकिन क्या इससे भारत को धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक मान लेंगे, क्या धर्मनिरपेक्षता लोकतंत्र का संबंध सिर्फ चुनावी हार-जीत तक ही सीमित है यह लोकतंत्र धर्मनिरपेक्षता को अति सरलीकृत रुप में देखना होगा। हमें लोकतंत्र के चुनावी गणित के दायरे के बाहर जाकर गंभीरता से साम्प्रदायिकता के चरित्र को समझने की कोशिश करनी होगी।
हमारे यहाँ संविधान सब मानते हैं, लेकिन संविधान के अनुरूप सही शारीरिक अंगों या संरचनाओं को हम निर्मित ही नहीं कर पाए, जो संरचनाएँ निर्मित की हैं वे
धर्म, धार्मिक पहचान और जनदवाब की दासी है। उन संरचनाओं के आदेशों को कोई नहीं मानता। हमें संविधान चाहिए, बिना संवैधानिक संरचनाओं के आदेशों के अनुपालन के बिना, हमें व्यक्ति चाहिए लेकिन संविधान के ढाँचे ढला व्यक्ति नहीं चाहिए, बल्कि परंपरा में ढला व्यक्ति चाहिए, धर्म में ढला व्यक्ति चाहिए, कानून चाहिए लेकिन धर्मानुकूल कानून चाहिए। संविधान के पालन का अर्थ है संवैधानिक संरचनाओं का निर्माण और उनके आदेश का पालन, कानून
विधान के अनुरूप आचरण, संविधान में वर्णित लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के अनुरूप नए व्यक्ति के रूप में नागरिक की पहचान का निर्माण करना। इन सब पर
ध्यान केन्द्रित करने के बजाय साम्प्रदायिक धर्मनिरपेक्ष ताकतों ने संविधान को तो माना, लेकिन व्यवहार में लोकतंत्र, व्यक्ति के जीवन में लोकतंत्र, परिवार में लोकतंत्र, धर्म में लोकतंत्र, राजनीति में लोकतंत्र, जाति में लोकतंत्र आदि को अस्वीकार किया। कागज पर अभिव्यक्ति की आजादी को माना लेकिन उसकी असली स्प्रिट से परहेज करते रहे।
दिलचस्प आयरनी यह है कि हमारे देश में लोकतांत्रिक संविधान है, लोकतांत्रिक संरचनाएँ हैं, लेकिन व्यक्ति के जीवन में अंदर-बाहर लोकतंत्र नहीं है। व्यक्ति के अंदर-बाहर लोकतंत्र का अभाव ही वह बिंदु है जहाँ से साम्प्रदायिक ताकतें अपनी ऊर्जा लेती हैं और अपने सामाजिक आधार को निरंतर बढ़ाती रही हैं, इसका दुष्परिणाम यह निकला है कि सभी दलों में अ-लोकतांत्रिक व्यक्ति मान्य और ताकतवर बना है। अलोकतांत्रिक व्यक्ति का आदर्श प्रतिनिधि चरित्र हैं गुंडे, दलाल, समानांतर सत्ता केन्द्र, अवैध सत्ता केन्द्र आदि।
अंगों के बिना शरीर की अवधारणा के अनुसार यदि साहित्य को देखें तो बहुत ही भयावह तस्वीर नजर आएगी, कहने को साहित्य खूब लिखा जा रहा है, लेकिन उसमें सारवान अंतर्वस्तु और सृजन के तत्व का अभाव है। रूढ़ विषयों पर स्टीरियो टाइप लेखन जमकर हो रहा है, इसलिए साहित्य प्रभावहीन होकर रह गया है। इसी तरह हिंदी में साहित्यकार है, लेकिन उनकी जीवन और उसके गंभीर सवालों में कोई दिलचस्पी नहीं है। उसने ठीक से विश्वदृष्टि का निर्माण तक नहीं किया है। वह लिखने के नाम पर लिख रहा है, बिना विश्वदृष्टि के लिख रहा है, समाज में किसी भी वर्ग या समुदाय या लिंग के साथ लगाव पैदा किए बगैर लिख रहा है, ऐसी स्थिति में साहित्यकार समाज में रहकर भी अपनी पहचान नहीं बना पाया है।
मोदी सरकार आने के पहले कहने के लिए सामूहिकता का खूब ढोल पीटा गया, कहा गया सोनिया गांधी हरेक फैसले लेती रही हैं, मनमोहन सिंह पर थोपती रही हैं, वे तो उनके आदेशों का पालन करते रहे हैं, मोदीजी पीएम बनेंगे तो यह सब नहीं होगा, फैसले सामूहिक तौर पर मंत्रिमंडल लेगा, लेकिन व्यवहार में हुआ एकदम उलटा, प्रधानमंत्री कार्यालय में सभी मंत्रालयों की शक्ति संकेन्द्रित होकर रह गयी। यहाँ तक कि भाजपा के द्वारा राष्ट्रपति पद का चुनाव जीतने के बाद राष्ट्रपति भवन के फैसले लेने का अधिकार भी पीएम ने अपने पास रख लिया। सामूहिक फैसले न लेने का क्लासिक उदाहरण है नोटबंदी का फैसला। यह फैसला अकेले पीएम का था, उनके कॉकस के लोगों के अलावा इसके बारे में कोई पहले से नहीं जानता था। जबकि यह फैसला लेना था रिजर्व बैंक को लेकिन पीएम ने बैंक पर अपना फैसला थोप दिया। कहने का आशय यह कि मोदी के सत्ता में आने के बाद मंत्रिमंडल की सामूहिक फैसले लेने, स्वायत्त और लोकतांत्रिक विवेक के आधार पर काम करने की शक्तियाँ घटी हैं। अब मंत्रिमंडल में अलोकतंत्र सर्कुलेशन में है, पीएम निष्ठा चरम पर है, इसने लोकतंत्र को अपाहिज बना दिया है। सत्ता के सर्कुलेशन को रोक दिया है, अब सत्तातंत्र में सिर्फ वही चीज गतिशील है जिसकी पीएम ने अनुमति दी है। पीएम की अनुमति के बिना कोई चीज गतिशील नहीं हो सकती। उसने लोकतंत्र की स्पीड को रोक दिया है।
अंगों के बिना शरीर की धारणा से संचालित होने के कारण सिर्फ एक ही चीज पर बल है वह है प्रचार की सघनता और उन्माद। हम अब सब समय प्रचार की सघन अनुभूतियों में ही डूबते-उतराते रहते हैं, हम भूल गए कि लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, अभिव्यक्ति की आजादी आदि का भी जीवन में कोई महत्व है। हम सबके जेहन में संघ, मोदी, हिंदुत्व, हिंदू राष्ट्रवाद के प्रचार को सघनता के साथ उतार दिया गया है। हरेक व्यक्ति बिना जाने माने बैठा है कि मोदीजी सही कर रहे हैं, सवाल करो कि क्या सही कर रहे हैं तो उसके पास न तो कोई तथ्य होते हैं, न प्रमाण होता है, लेकिन वह माने बैठा है कि मोदीजी सही कर रहे हैं। यहाँ तक कि जघन्य हत्याकांडों की खबरों तक से व्यक्ति अब विचलित नहीं होता, उसे मोदी की चुप्पी से कोई परेशानी नहीं है बल्कि वह मोदी की चुप्पी पर भी मोदी के पक्ष में तर्कों का पुलिंदा लेकर खड़ा है। हालात की गंभीरता देखें कि
आधारकार्ड को संवैधानिक प्रावधानों, सुप्रीम कोर्ट के पहले के आदेशों की अवहेलना करके हर चीज से जोड़ दिया गया उसको भी चुपचाप स्वीकार कर लिया गया। अलोकतांत्रिक प्रक्रिया का इतना सघन प्रभाव पहले कभी महसूस नहीं किया गया।
सांगठनिक संरचनाएं और मॉडल का चरित्र। मोदी सरकार आने के बाद समूचे समाज का नए सिरे से वर्गीकरण किया जा रहा है, शहरों का नया वर्गीकरण हो रहा, नए सिरे से सामाजिक समुदायों के वर्गीकरण की दिशा में सरकार कदम उठाने जा रही है, आरक्षण को भी नए वर्गीकरण के नजरिए से परिभाषित करने की कोशिश हो रही है, इसी प्रकार नागरिक पहचान, ग्राहक पहचान, क्रय-विक्रय, बैंक से आदान-प्रदान आदि सब क्षेत्र में नए किस्म के वर्गीकरण या केटेगराइजेशन ने जन्म ले लिया है। कहने का आशय यह कि जीवन के हर क्षेत्र में केटेगराजेशन हो रहा है। इस क्रम में नए पदबंधों का उदय हुआ है। सवाल उठता है इस तरह के वर्गीकरण की जरूरत क्यों पड़ी। यह असल में चीजों, घटनाओं, देश, पड़ोस, निजी कार्य-व्यापार आदि को सीधे सपाट क्रम में देखने के नजरिए की दिशा में ठेलने की प्रक्रिया है। इस तरह देखने का अर्थ यह है कि चीजों, घटनाओं आदि को एपीसोड के रूप में देखना, इसमें एक एपीसोड खत्म होता है तो दूसरा शुरू हो जाता है, यही पद्धति हिंदू राष्ट्रवाद के परिप्रेक्ष्य पर भी लागू होती है, उनके सभी एक्शन एपीसोड के रूप में आते हैं, एक एपीसोड़ खत्म तो दूसरा शुरू, दूसरा खत्म तो तीसरा शुरू आदि आदि। इस तरह के एपीसोड लगातार यही संदेश देते हैं कि आप अपने घर या स्कूल में नहीं हैं बल्कि लगातार किसी एपिसोड में व्यस्त हैं। कभी समुदाय, कभी धर्म, कभी स्त्री या कभी मोदी या कभी हिंदुत्व या कभी लवजेहाद, कभी गऊ-गुंडई आदि के एपीसोड में व्यस्त रहते हैं। आप एक घटना या स्तर से बाहर निकलते हैं तो दूसरी घटना आकर घेर लेती है। ये सभी सेगमेंट कभी वायनरी, कभी चक्राकार और कभी लाइनर भाव से घटित होते रहते हैं। हम इनमें से किसी न किसी में बंधने के लिए मजबूर हैं। आप चाहें तो अपने नजरिए के अनुसार सेगमेंट या सर्किल बदल सकते हैं। मसलन आपको लवजेहाद यूपी में नापसंद है लेकिन गोवा में पसंद है।
आरएसएस जैसे साम्प्रदायिक संगठन अपने को चक्राकार रूप में संगठित करते हैं, वे आंतरिक से बाह्य की ओर उन्मुख होते हैं। इस काम को वे सिलसिलेबार स्थानीय गतिविधियों के जरिए संपन्न करते हैं। इस समूची प्रक्रिया का लक्ष्य है आदिम समूह के रुप में हिंदू समाज को संगठित करना। चीजों को नए वर्गीकरण में करके देखना, रखना और संपन्न करना स्वयं में आदिम समाज की प्रवृत्ति है, उसी की देन है। इस प्रक्रिया में कम्युनिकेशन बहुत प्रभावशाली होता है। लेकिन इस समूची प्रक्रिया का सबसे विलक्षण सच यह है कि आधुनिक राज्य के शासन में नए वर्गीकरण को समाज में बरकरार रखना असंभव है। क्योंकि सत्तातंत्र की कार्यप्रणाली को वर्गीकृत ढ़ंग से नहीं चलाया जा सकता है। क्योंकि आधुनिक राज्य और समाज की बुनियाद में वर्गीकरण का निषेध काम करता है।
वास्तविकता यह कि है भारत की व्यवस्था एकीकरण और एकीकृत भाव से चलती रही है। यह ग्लोबल सिस्टम का अंग है। इसके कारण वह सभी किस्म के विभाजनकारी वर्गीकरणों को तोड़ने के लिए प्रतिबद्ध है, वह विभाजनकारी ताकतों के बनाए लक्ष्यों को तोड़ने के लिए, उनको अपदस्थ करने के लिए भी वचनवद्ध है। यही वजह है साम्प्रदायिकता के साथ
आधुनिक राज्य का निरंतर अंतर्विरोध बना रहता है।
आरएसएस ने एक नायकत्व का जो मॉडल चुना है वह पशुचेतना और पशुदृष्टि पर आधारित है। यह मॉडल प्राचीन समाजों में सक्रिय रहा है। पशुदृष्टि का गहरा संबंध पशु स्प्रिट से है। हरेक पशु की स्प्रिट अलग होती है लेकिन कुछ चीजें साझा हैं मसलन पशु अति चौकन्ना होकर हर तरफ नजर रखता है, केन्द्र पर नजर रखता है, हर चीज को एकल सर्किल में रखकर देखता है, ठीक वैसे ही आरएसएस भी देखता है। इसके गर्भ से ही केन्द्रीकृत सत्ता, केन्द्रीकृत संगठन की अवधारणा का जन्म हुआ है। आरएसएस की प्रकृति में जो लोग लोकतंत्र और विकेन्द्रीकरण खोज रहे हैं वह गलती कर रहे हैं, आरएसएस का लोकतंत्र और विकेन्द्रीकरण से कोई संबंध नहीं है, यह उसके बुनियादी मॉडल का हिस्सा ही नहीं है। वह जब भी जहाँ पर भी काम करता है केन्द्रीकृत ढंग से काम करता है। उसके काम करने की शैली द्वैतपूर्ण और वायनरी है। मसलन् वह कहता है लोकतंत्र की, करता है अधिनायकवाद की। कहता है राममंदिर की, करता है सामाजिक विभाजन की। यह काम वह क्रमबद्ध ढंग से करता है। मसलन इसबार यदि गऊरक्षा, लवजेहाद के मसले केन्द्र में हैं तो अगली बार सत्ता में वे जब आएँगे तो नए विभाजनकारी मुद्दों के साथ आएगे, वे गऊरक्षा और लवजेहाद पर बातें नहीं करेंगे, जैसे पहले उन्होंने धारा 370 राममंदिर आदि के मसले उठाए लेकिन बाद में उनको छोड़ दिया और नए मसले चुन लिए।
कहने का आशय यह कि आरएसएस का मानना है जब भी सत्ता में आओ नए मसले के साथ आओ, पुराने को छोड़ दो। इस क्रम में वे अपने हिंदुत्व नामक वर्गीकरण को नहीं छोड़ते या मुसलमानों के बारे में अपनी धारणाओं का परित्याग नहीं करते। वर्गीकरण और वर्गीकृत सोच उनके मॉडल का अंतर्ग्रथित हिस्सा है। उनके वर्गीकरण में केन्द्रीकरण का निषेध शामिल नहीं है। यही वजह है कि आज पीएम कार्यालय में समूची सत्ता का केन्द्रीकरण करके रख दिया गया है। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि संघ के बनाए वर्गीकरण अनुदार होते हैं और स्थानीयता पर निर्भर होते हैं। पुराने समाज में जिस तरह पिता, बॉस, शिक्षक आदि का चेहरा केन्द्र में होता था, लेकिन आधुनिक समाज में यह अप्रासंगिक हो जाता है। आधुनिक समाज में हम विभिन्न किस्म के सर्किलों और वर्गीकृत समूहों में बँट जाते हैं, लेकिन इन सभी वर्गीकृत और बँटे हुए सर्किलों का एक चेहरा होता है, उस चेहरे पर सबकी नजर होती है। इसी तरह संघ का भी एक प्रधान चेहरा होता है जिस पर सबकी नजर होती है। इस समय वह चेहरा नरेन्द्र मोदी हैं। पहले अटल बिहारी वाजपेयी थे। इसलिए वर्गीकरण में बँटे लोगों की नजर शून्य या आकाश की ओर नहीं प्रधान चेहरे पर टिकी होती है। यही है पशुदृष्टि जो
प्रधान पर नजर रखती है लेकिन पशुचेतना की तरह काम करती है। कहने को समाज में विभिन्न स्तरों पर अनेक सत्ताकेद्र हैं लेकिन इन सबके ऊपर एक ही केन्द्र है, एक ही व्यक्ति है जो समूची सत्ता, सोच और आचरण का प्रतिनिधित्व करता है।
-जगदीश्वर चतुर्वेदी
लोकसंघर्ष पत्रिका जून 2018 अंक में प्रकाशित
2 टिप्पणियां:
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