मंगलवार, 19 जून 2018

जनगीतों का विजन : हर नारे में महाकाव्य सृजन की प्रतिश्रुति

कविता के वितान में महाकाव्य को सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। हालाँकि बदलते जीवन सन्दर्भ तथा गद्य के विकास के साथ अब महाकाव्य का स्थान उपन्यास ने ले लिया है। रैल फॉक्स ने लिखा है कि ‘‘उपन्यास आधुनिक युग का महाकाव्य  है।’’ बावजूद इसके महाकाव्य की सर्वश्रेष्ठता के भाव पर कोई खास फर्क नहीं पड़ा। अपने उदात्त भावों तथा बड़े विजन के कारण महाकाव्य की महत्ता यथार्थ रूप में न सही भावरूप में अभी भी बनी हुई है। मुक्तिबोध अपनी कविता ‘‘मुझे कदम कदम पर चौराहे मिलते हैं’’ में कहते हैं- 

मुझे भ्रम होता है कि 
प्रत्येक पत्थर में चमकता हीरा है, 
हर एक छाती में आत्मा अधीरा है, 
प्रत्येक सुस्मित में विमल सदानीरा है, 
मुझे भ्रम होता है कि 
प्रत्येक वाणी में महाकाव्य की पीड़ा है। 

     प्रतीक रूप में ही सही मुक्तिबोध महाकाव्य की सर्वश्रेष्ठता स्वीकार करते हैं हालाँकि उन्होंने स्वयं कोई महाकाव्य नहीं रचा। इसी तरह तुर्की के प्रसिद्ध कवि नाजिम हिकमत अपनी कविता में महाकाव्य का प्रतीक रूप में प्रयोग करते हैं- 

पढ़ना किसी महाकाव्य की तरह, 
सुनना किसी प्रेमगीत की तरह, 

लेकिन ठीक इसके उलट अपनी छोटी सी रचना विधान में जनगीतों ने बड़े विजन और उदात्त भावों को सृजित किया है। स्वप्न, यथार्थ, परिवर्तनकामी चेतना, पीड़ा-दुख, संघर्ष, उत्साह, उल्लास का जो सन्दर्भ जनगीतों में है वह महाकाव्यों के विस्तृत कलेवर के बावजूद कमतर दृष्टिगत होता है। माहेश्वर के चर्चित गीत की पंक्तियाँ हैं- 
‘‘सृष्टि बीज का नाश न हो हर मौसम की तैयारी है। हर नारे में महाकाव्य के सृजन कर्म को बारी है।’’ नारा वैसे भी गंभीर आचार्यों का जनगीतों के लिए आरोपित शब्द है। कविता नहीं है, यह तो नारे बाजी है। दूसरी तरफ महाकाव्य सृजित करने की प्रतिश्रुति है, न विडम्बना, लेकिन हजारों कण्ठों में रचे बसे नारे इतिहास के खास मुकाम पर जो रोल अदा करते हैं या किए हैं बड़ी से बड़ी कविता, महान कविता ईर्ष्या करे। कवि की सार्थकता जनता की जुबान पर चढ़ना और नारे बनने में है। यह अलग बात है कि आपके लिए कविता समाज बदलने का उपकरण हो। मात्र सौन्दर्य 
बोधी तराने न हों। जब भी आप साहित्य को बड़े तथा मानवीय सरोकारों से जोड़कर देखेंगे तो सहज ही आपके निष्कर्ष जनगीतों में मौजूद नारों तथा उसमें निहित महा काव्यात्मक औदात्य के पक्ष में होंगे। 
माहेश्वर के गीत को पहले देखा जाए। अपने लघु कलेवर में बड़ा विजन, शाश्वत संघर्षों के मूल्य तथा परिवर्तन कारी चेतना को अद्भुत तरीके से माहेश्वर ने पिरोया है। परत-दर परत गीत महान मानवता के पक्ष में क्रमशः नई जमीन और नये भाव विन्यासों से मेल करता है। पहली ही पंक्ति नये समाज सृजन की बुनियाद रखती है :- 
सृष्टि बीज का नाश न हो हर मौसम की तैयारी है, 
कल का गीत लिये होठों पर आज लड़ाई जारी है। 

‘सृष्टि बीज’ एक तरह से गीत की आधार रेखा है और कल का स्वप्न तथा आज का संघर्ष परिवर्तनकारी चेतना की प्रतिश्रुति। गीत के अगले चरण पर पहुँचने से पहले सृष्टि बीज शब्द तथा भाव की अर्थ व्याप्ति पर गौर करना चाहिए। यही वह सूत्र है जो गीत को बड़े विजन के साथ जोड़ देता है। बेहतर कल के लिए आज का संघर्ष, सृष्टि बीज को बचाते हुए। हैं न अद्भुत भाव तथा सोच। गीत के अगले बंद में माहेश्वर इस संघर्ष को शाश्वत संघर्ष, बेहतर दुनिया के लिए जोड़ देते हैं। ध्वंस और निर्माण जवानी की निश्छल किलकारी। ध्वंस और निर्माण शाश्वत सत्य हैं। इसलिए यह समझ संघर्ष में उतरने की प्ररेणा भी देता है वहीं इस बात की ओर संकेत भी करता है कि सिर्फ ध्वंस ही काम्य नहीं है बल्कि ध्वंस के बाद निर्माण भी हमारा ही कार्यभार है। लेकिन जवानी, युवा, निश्छलता, किलकारी, हताशा तो एक साथ निराशा के विरुद्ध समाज परिवर्तन में लगे लोगों के लिए बेहद जरूरी उपकरण हैं। जवानी की निश्छल किलकारी और परचम, परचम चमकता बूढ़ा सूरज। एक तरफ युवा जोश तो दूसरी तरफ ज्ञान अनुभव की थाती। दोनों के समवेत संघर्ष से ही नये समाज का निर्माण संभव है। 
जंजीरों से क्षुब्ध युगों के प्रणयगीत ही रणभेरी पंक्ति तो निश्चय ही गीत को महाकाव्यात्मक औदात्य प्रदान करती है। शायद माहेश्वर इसीलिए लिखते हैं कि हर नारे में महाकाव्य के सृजनकर्म की बारी है। इस रूप में जनगीत अपनी छोटी सी रचना विधान में बड़े विजन का सृजन करते हैं। निश्चय ही यह महाकाव्य तो नहीं लेकिन महाकाव्यात्मक तो है ही। 
इसीक्रम में शंकर शैलेन्द्र की प्रसिद्ध और चर्चित रचना ‘तू जिंदा है तो जिंदगी की जीत में यकीन कर’, के विजन स्वर्ग को धरती पर उतारने की बात होनी चाहिए। हजारों लोग आज भी इस गीत को गुनगुनाते रहते हैं। स्कूलों कालेजों में चर्चित समूहगान है यह गीत। स्वर्ग एक मिथकीय परिकल्पना है। बकौल गालिब-हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन दिल को खुश रखने को ‘गालिब’ ये खयाल अच्छा है।
  जो भी हो लेकिन स्वर्ग, दुख विहीन समाज तथा जीवन का बड़ विजन है। शंकर शैलेन्द्र पहले ही साफ कर दे रहे हैं अगर कही हो स्वर्ग तो। इसलिए स्वर्ग को धरती पर उतार लाने का विजन धरती को स्वर्ग जैसा बनाने का स्वप्न मात्र है। समस्याहीन तथा दुखहीन जीवन। दरअसल जन गीतों में वर्णित चित्रित जीवन संधर्ष तथा लक्ष्य स्पष्ट रूप से आजादी समानता से लैस महान मानवीय समाज की रचना है। इस क्रम में स्वर्ग जैसा विजन  सहज भी है और शानदार भी। शंकर शैलेन्द्र इसे धरती पर उतार लाने का अह्वान करते हैं। गम और सितम के चार दिनों से पार जाने की शदियों से चली आ रही जद्दो जहद को वह स्वर देते हैं। 
बड़े स्वप्न-विजन और उसके लिए सतत् संघर्ष। नाउम्मीदी के दुश्चक्र से बाहर आना, एक जुटता उत्साह, उल्लास तथा प्रयत्न जनगीतों की महत्वपूर्ण विशेषता है। यही कारण है कि ये गीत आज भी हमारे कण्ठहार बने हुए हैं। ऐसा नहीं है कि जन गीतों में अपने समय के कटु यथार्थ का चित्रण नहीं है या गीतकार यथार्थ से मुंह चुराते हैं बल्कि अन्य कविताओं के मुकाबले यहाँ यथार्थ की तीव्रता कहीं ज्यादा ही है। श्ांकर शैलेन्द्र स्पष्ट शब्दों में लिखते हैं कि- 
बुरी है आग पेट की बुरे हैं दिल के दाग ये। या ‘जुल्म के महल’, ‘भूख और रोग के स्वराज’ तो असामानता और उत्पीड़न का कटु सत्य और यथार्थ है। जिसके लिये वे स्वर्ग को जमीन पर उतारने के संघर्ष का एहसास करते हैं। इस रूप में जीवन का भयावह शोषण उत्पीड़न से भरा मंजर और इससे मुक्ति के लिए धरती को स्वर्ग में बदलने की तीव्र आकांक्षा। जनगीत का यही काव्य सौन्दर्य है। शंकर शैलेन्द्र ने अत्यन्त कुशलता से रचा है। यथार्थ और स्वप्न-विजन का द्वन्द्व। बेहतरी के लिए संघर्ष गीत का केन्द्रीय भाव है। 
राष्ट्रीय मुक्ति संग्राम के दौर में लिखे साहिर लुधियानवी के चर्चित गीत का उल्लेख इस सन्दर्भ में बेहद महत्वपूर्ण है। साहिर बड़े शायर हैं। उनकी परिकल्पना और विजन महान है। भयावह यथार्थ और परिकल्पित स्वप्न के द्वन्द्व पर रचा गया उनका गीत यह सुबह कभी तो आएगी, अपने सम्पूर्ण रचना विधान में महाकाव्यात्मक है। साहिर आश्वस्त हैं कि यह सुबह कभी तो आएगी और यह भी कि यह सुबह हमी से आयेगी हम अर्थात शोषित पीड़ित जन। वे एक तरफ अपने समय के भयावह यथार्थ तथा दुख को याद करते हैं, भयानक शोषण उत्पीड़न की रात को रखते हैं दूसरी तरफ यह विश्वास भी व्यक्त करते हैं कि सुबह आएगी कभी तो आएगी। उनको यकीन है कि जब दुख के बादल पिघलेंगे और जब एक अनोखी दुनिया की बुनियाद उठाई जाएगी और यह संघर्षों से एक दिन संभव होगा। 
साहिर अनोखी दुनिया की बुनियाद उठाने से पहले अपने समय के भयावह यथार्थ को रखते हैं। यही वह संदर्भ है जहाँ से नई दुनिया के रचना की जरूरत बनती है। यथार्थ चित्रण के क्रम में वे सारा ध्यान पीड़ित मानवता पर रखते हैं। खासकर मजदूरों, किसानों स्त्रियों की स्थिति पर। भूख गरीबी, लाचारी शोषण उत्पीड़न पर उनकी निगाह ठहरती है और वहीं से वह एक अनोखी दुनिया का विजन लेकर चलते हैं। मांग रखते हैं या उसकी बुनियाद उठाने की बात करते हैं। एक सुबह ऐसी जिसमें वर्तमान की अंधेरी रात डूब जाएगी। वे वर्तमान के भयावह यथार्थ वर्णन करते हैं। इंसानों का मोल मिट्टी से भी गया बीता है। उनकी इज्जत सिक्कों से तौली जा रही है। दौलत के लिए स्त्रियों की अस्मत बेची जा रही है। चाहत को कुचला जा रहा है। औरत को बेचा जा रहा है। भूख और बेकारी का साम्राज्य फैला है। दौलत की इजारेदारी में मानवता कैद है। एक तरफ मजबूर बुढ़ापा धूल फांक रहा है तो दूसरी तरफ बचपन गंदी गलियों में भीख मांगने पर विवश है। हक की आवाज उठाने वालों को सूली पर चढ़ाया जा रहा है। फांकों की चिंता में हैं और सीने में दोजख की आग लगी हुई है। अर्थात यह दुनिया पूरी तरह भयावह लूट और शोषण अन्याय के हजारों सन्दर्भों से पटी पड़ी है। अंधेरी रात बहुत ही भयानक है लेकिन इसी भयानक यथार्थ के बीच साहिर उम्मीद बनाये रखते हैं। शोषण विहिन समाज का महान विजन सामने रखते है। हमें आश्वस्त करते है। यह शोषण की, उत्पीड़न की, लूट की रात एक दिन खत्म होगी। सुबह तो आएगी और हमीं से आएगी। साहिर एक तरफ भयावह यथार्थ को देखते हैं तो दूसरी तरफ उससे मुक्ति के प्रति आशा व्यक्त करते हैं। यह आस्था और विश्वास आज अत्यन्त सारवान है। यथार्थ के तीखे सन्दर्भ और उससे मुक्ति के लिये संघर्ष को पूरी शक्ति के साथ साहिर ने अपने कालजयी गीत में पिरोया है। 
इसी तरह शशि प्रकाश का एक गीत है। बेहद स्वप्न दर्शी और विजनरी। नई दुनिया का ख्वाब। इस ख्वाब को हम ही पूरा करेंगे। यह हमारा ऐतिहासिक कार्यभार है। गीत के बोल है- 

दुनिया के हर सवाल के हम ही जवाब हैं, 
आंखां में हमारी नई दुनिया के ख्वाब है। 

शशि प्रकाश मेहनतकश अवाम की महान संघर्ष गाथा को पहले चंद पंक्तियों में रखते हैं जो कुछ दुनिया में सुन्दर है, महान है, वह हम मेहनतकश श्रमिकों की रचना है। दुनिया का निर्माण श्रमजीवी वर्ग ने ही किया है। 

  इन बाजुओं ने दुनिया बनायी है, 
  काटा है जंगलों को बस्ती बसाई है, 
  जांगर खटा के खेतों में फसलें उगाई है, 
  सड़कें निकाली है, अटारी उठाई है, 
  ये बांध बनाये हैं फैक्ट्री बनाई है।  

हमने अपनी मेहनत से दुनिया को गढ़ा है लेकिन हमीं इस दुनिया में सबसे ज्यादा शोषण-उत्पीड़न के शिकार हुए हैं। दुनिया में जो भी बदसूरत हैं वह मुट्ठी भर शोषकों तथा उसकी व्यवस्था की देन है। लेकिन जो दुनिया को बना सकते हैं, वही एक जुट संघर्ष से शोषण और उत्पीड़न को समाप्त करेंगे। यही स्थायी ख्वाव हमारी आँखों में है। शोषण मुक्त समाज का स्वप्न। 
दरसल हमेशा से जनगीतों को राजनैतिक विचारों की उद्रणी, लाउड पोयट्री, भावों की गहराई का अभाव, उथलापन आदि आरोप लगाकर बड़े कलेवर की कृतियों महाकाव्य आदि तथा प्रोजियन फार्म की कविताओं के मुकाबले कम महत्व का माना जाता रहा है। जबकि जनगीतों को आन्तरिक बुनावट, कथन, यथार्थ बोध और सबसे ऊपर महान तथा बड़ा विजन तथा उसका व्यापक फलक किसी तरह से कमतर नहीं है। जनगीतों की अपार लोकप्रियता तथा सफलता और इससे भी आगे बढ़कर एक साथ बड़े जन समूह को उद्वेलित प्रेरित करने की शक्ति उसे अलग से रेखांकित करने की मांग करती है। जहाँ तक भावों विचारों की गहराई तथा कलात्मकता की बात है वह भी कविता के किसी फार्म के मुकाबले कमतर भी नहीं है। बस गंभीरता का लबादा फेंककर जन गीतों के आन्तरिक सौन्दर्य को नया पाठ रचना होगा। यदि कविता की सार्थकता महाकाव्य होने में है तो जनगीतों की सार्थकता नये समाज के विजन को हकीकत में बदलने वाले संघर्षों के प्रेरक बनने में है।     

      
-राजेश मल्ल 
लोकसंघर्ष पत्रिका जून 2018 अंक में प्रकाशित

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