मुम्बई के नायर हॉस्पिटल में डॉ. पायल तडावी की आत्महत्या को सांस्थानिक हत्या बताते हुए उच्च शिक्षा में जाति-घृणा को ऐतिहासिक संदर्भों में देख रही हैं प्रोफेसर हेमलता महिश्वर :
मैंने कहीं पढ़ा कि “व्हाटसऐप ग्रुप में उसकी जाति को लेकर मजाक उड़ाया जाने लगा, उसकी लैब में उसे काम करने से रोका जाने लगा, उसकी योग्यता पर सवाल किया जाने लगा, उसके इलाज से मरीजो के अशुद्ध हो जाने की बात की जाने लगी, उसके आदिवासी होने ने उसे जंगली की श्रेणी में रख दिया, खाने की टेबल पर उसे इन तीनों सवर्ण इलीट महिलाओं ने गॉशिप पॉइंट बना दिया।”
डॉ पायल तडावी, वी.वाई.एल. नायर हॉस्पिटल से संबद्ध टोपीवाला नेशनल मेडिकल कॉलेज, मुंबई में स्नातकोत्तर की पढ़ाई कर रही थीं। गॉयनेकोलॉजी विभाग में काम करना मतलब 48-72 घंटे लगातार काम करना। इन मेडिकोज को कंघी-चोटी की फुरसत नहीं मिलती तो किसी और बात की तो सोचना ही क्या? मेरे घर से एक बच्ची गॉयनी में पीजी कर रही है। एक बार एक ही रात में बीस सीजर और अट्ठारह नॉर्मल डिलवरी करवाई। ऐसा इन लोगों के साथ अक्सर होता है। इन मेडिकोज के लिए कोई मानवाधिकार की आवाज तो उठाए। ऐसी सघन व्यस्तता में सीनियर्स जाति का ध्यान रखे हुए हैं तो सोचिए कि कितनी बजबजाती हुई मानसिकता है जबकि वे मेडिकल कॉलेज के विद्यार्थी हैं, गॉयनी विभाग के विद्यार्थी हैं। बच्चे के पैदा होने के कारण की समूल जानकारी रखते हैं और फिर भी जाति व्यवस्था पर यकीन करते हैं। कैसा विरोधाभास है यह? यह इलीट वर्ग धर्म की जकडबंदी से खुद को मुक्त नहीं कर पाया। अस्पृश्यता तो अब तक अंत्यजों के साथ होती रही, आदिवासी को भी लपेट लिया गया, यह नया है। यह इलीट वर्ग की बौद्धिक चेतना का चमत्कार है कि वे आदिवासियों के साथ भी छुआछूत बरत सकते हैं। अस्पृश्यता का विस्तार करते जा रहे हैं। मरीज को तो इलाज से मतलब होता है, उसे चिकित्सक की जाति से क्या लेना-देना? पर ये असुरक्षित भावना से घिरे दयनीय इलीट वर्ग के लोग अपने व्यवसाय की अनिवार्य मानवता से जैसे अंजान हैं।
जब कभी भी आरक्षण को लेकर विरोध उठा है, एम्स के डॉक्टर्स ने सड़कों पर झाडू लगाई है। क्या संदेश देना चाहते हैं वे? वंचित समुदाय के लोग शिक्षा प्राप्त करेंगे तो इनके हाथों में झाड़ू ही क्यों आएगी? सड़कों पर झाड़ू लगाने का एकमात्र ठेका क्या सिर्फ वंचित समुदाय का है? काम को लेकर इतना अपमान-बोध इनके भीतर क्यों है? ये तो भाग्यवादी हैं, इनके भाग्य से भला कौन क्या छीन लेगा? ये लोग डरते हैं कि कहीं अध्ययन के पश्चात् यह वंचित वर्ग हमें ही प्रतियोगिता में न ले आए। इसलिए धूर्ततापूर्वक इन लोगों ने वंचितों से शिक्षा का अधिकार ही छीन लिया।
क्या राम कथा का शंबूक वध यह याद नहीं दिलाता हैं? जैसे ही कोई शूद्र तपस्या करेगा, वैसे ही ब्राह्मण का बेटा मरेगा। क्या है इस दृष्टांत में? ब्राह्मण स्वंय को सदा-सदा के लिए प्रतियोगिता से परे रखना चाहता है। अध्ययन-अध्यापन को सिर्फ अपने साथ ही सुरक्षित रखने का मतलब है, किसी और को इलीट कस्मि का धोखा देते रहना। शबरी पूरी श्रद्धा के साथ, अंध-श्रद्धा के साथ जूठे बेर भी खिलाए तो मंजूर है क्योंकि
अंध-श्रद्धा सत्ता के लिए चुनौती कभी नहीं बनती। पर शंबूक का तपस्या करना मतलब ज्ञान प्राप्त करते हुए योग्यता अर्जित करना तो सत्ता के लिए चुनौती होगा ही न! एक सेवक यदि ज्ञान प्राप्त कर लेगा तो वह सदियों से थोपे जा रहे शास्त्रों को सवाल के घेरे में ले आएगा। इसलिए इनकी भाषा में शंबूक का वध होता है, हत्या नहीं, गांधी-वध होता है, हत्या नहीं। शंबूक केवल सेवा के लिए है, ज्ञान प्राप्तकर सवाल करने के लिए नहीं। इसलिए क्षत्रीय राम ब्राहमण नामक नीति निदेशक की रक्षा के लिए शंबूक वध करते हैं। ब्राह्मण सत्ता को नियंत्रित करता है और क्षत्रीय उसके निर्देशन में सत्ता को संभालता है। यह सदियों से चला आ रहा है और आज औद्योगिक समाज भी इसे तोड़ नहीं पा रहा है।
भारत में जिस तरह का विरोध अंग्रेजों का हुआ, मुगल या अन्य बाहर से आए हुए शासक का नहीं हुआ, क्यों? मुगलों ने हिंदू व्यवस्था पर चोट नहीं की थी। अंग्रेजों ने हिंदू व्यवस्था को चरमरा दिया था। स्त्री शिक्षा, दलित वर्ग की शिक्षा ने हिंदू धर्म शास्त्रों की धज्जियाँ उड़ा दी। सती-प्रथा पर कानूनी रोक लग गई, लड़कियों के लिए पाठशालाएँ आरंभ हुईं, ज्योतिबा फुले का सामाजिक संघर्ष अंग्रेजी शिक्षा की बदौलत परवान चढ़ा। डॉ अम्बेडकर ने हिंदू धर्म की पहेलियों को समझने का प्रयास करते हुए उसका त्याग किया। यहीं से शक्ति प्राप्त करते हुए स्वतंत्र भारत के वंचित समुदाय ने नागरिक होने की हैसियत प्राप्त करते हुए अपने सतत हो रहे अपमान के बदले सम्मान प्राप्त करने के लिए संघर्ष करना आरंभ किया। अभी तो प्रथम वर्ग में पहली दूसरी पीढ़ी ने कदम रखा ही है कि ये सदियों से सम्मान पर कुंडली मारे बैठे लोग इस संघर्ष को धूल धूसरित करने में लग गए हैं।
डॉ पायल रोहित वेमुला की तरह ही सांस्थानिक हत्या का शिकार हुई हैं। हम सब यह जानते हैं कि मेडिकल कॉलेज की पढ़ाई कितनी कठिन है? फिर मेडिकल पीजी की प्रवेश परीक्षा कठिनतम है। ऐसे में मुंबई जैसे महानगर के मेडिकल कॉलेज में पढने का मतलब है विद्यार्थी बहुत मेहनती रहा है। डॉ पायल तडावी तो आदिवासी बताई जाती हैं। वहॉं से तो तथाकथित सभ्य समाज तक की यात्रा और भी कठिन, दुरुह रही होगी। मेडिकल कॉलेज में सामान्य कॉलेज की तरह आपके पास अपनी जाति को छुपाने का कोई रास्ता नहीं होता। यहाँ जातियां जग जाहिर होती हैं और इलीट वर्ग के हाथों में जैसे हथियार आ जाता है। इनकी जुबान फोरसिप (एक तरह का चाकू जिससे मांसपेशी की पतली से पतली परत काटी जा सकती है) की तरह हो जाती हैं। मन को बहुत महीनता के साथ परत-दर-परत छीलने लगती हैं। लहू-लुहान होता हुआ मन पीड़ित के चेहरे पर जैसे-जैसे दिखाई देता है, वैसे-वैसे इनका प्रहार बढ़ता चला जाता है। अंत में इनकी फोरसिपी जबान पीड़ित की हत्या कर देती है और ये पीड़क उसे आत्म हत्या का नाम देते हैं। डॉ पायल तडावी भविष्य में क्या कुछ नहीं कर सकती थी, सारी संभावनाएँ समाप्त हो गईं।
रोहित वेमुला तो आम्बेडकरी चेतना से लैस था फिर भी सांस्थिनक हत्या का शिकार हुआ। यह जानने के बावजूद मैं समस्त समाज से अपील करना चाहती हूँ कि वे अपने बच्चों को डॉ आम्बेडकर, ज्योतिबा फुले की जीवनी और विचार से अनिवार्यत परिचित करवाएँ। यही अपील मैं वंचित वर्ग के अध्यापकों से भी करती हूँ कि वे अपने प्रत्येक विद्यार्थी, चाहे वे दलित हों या गैर दलित, आदिवासी, स्त्री, पुरुष सबको इनके कामों से परिचित करवाएँ और सभ्य समाज बनाने की दिशा में अपना अमूल्य योगदान दें ताकि हेमा आहूजा, भक्ति महर और अंकिता खंडेलवाल जैसी सिनिक सीनियर्स पैदा ही न हों।
सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि समाज में ऐसी नफरतों को रोकने के लिए ऐसे जातिवादियों को कड़ी से कड़ी सजा दे ताकि कोई और रोहित वेमुला, डॉ पायल तड़वी सांस्थानिक हत्या का शिकार न हो।
-हेमलता महिश्वर
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