चन्द्र सिंह का जन्म एक साधारण किसान परिवार में 25 सिंबर 1891 को आजकल के उत्तराखंड में हुआ
था। उनका जन्म गढ़वाल में श्री जाधली सिंह भंडारी के परिवार में ग्राम सैणी मेरा मासा, पट्टी चौथान तहसील
थालीसैण, जिला गढ़वाल में हुआ था। गढ़वाल में पढ़ाई की कोई व्यवस्था न होने के कारण चंद्र सिंह को सामान्य
शिक्षा ही मिल पाई। अपनी मां के बारे में चंद्र सिंह ने लिखा है कि वह अनपढ़ होने के बावजूद गुणों से भरपूर थी।
चंद्र सिंह के अंदर जो कुछ भी गुण थे, ने उनकी माता की ही देन थे।
जहां बालक चंद्र सिंह का जन्म हुआ वहां प्रकृति भरपूर और सुंदर थी, बुरांज और पांगर ;चेस्टनटद्ध तथा अन्य
पेड़, फल-फूल और पास की हरी चादर चारों ओर मनोरम दृश्य बिखरेती थीं।
चंद्र सिंह की पढ़ाई ज्यादा आगे नहीं हो पाई। उनकी पहली शादी बचपन में ही हो गई। च्रद्र सिंह ने बचपन में
ही सामंती दुरूह प्रथाओं को देखा तथा राजाओं और उनके गुर्गों के अत्याचारों के दर्शन किए। उसने स्वयं ‘वारदास्त’ प्रथा के तहत अंग्रेजों का अत्याचार कई बार सहा। इस प्रथा के तहत जब कोई राजकर्मचारी, यहां तक कि चपरासी भी गांव में आता तो उसकी हर तरह से आवभगत करना गांववालों का कर्तव्य हो जाता, रहने-खाने का
इंतजाम, अलग कमरा बनाना, बर्तन साफ करना, अच्छे से अच्छे पकवान और खाना बनाना एवं खिलाना आदि.।
यदि इन सबमें थोड़ी भी चूक हुई तो फिर मत पूछिए क्या-क्या भूगतना पड़े।
सचं चंद्र सिंह को रास्तों पर काफी दूर तक जाना पड़ा था।
प्रथम विश्वयुद्ध और फौज में
1914 में प्रथम विश्वयुद्ध छिड़ गया। इसमें बड़ी संख्या में गढ़वालियों को भर्ती किया जा रहा था। अंग्रेज उन्हें तथा अन्य भारतीयों को बड़ी संख्या में फौज में भर्ती करके मोर्चो पर भेज रहे थे। फौजियों का बड़ा सम्मान था और ‘वारदास्त’ प्रथा के अनुसार उनका बड़ा सम्मान किया जाता। चंद्र सिंह को भी फौजी वर्दी में अन्य गढ़वालियों
के समान घूमने का मन हुआ। उनके गांव के भी दो-तीन फौज में थे जो टेढ़ी टोपी लगाकर घूमा करते। उन्होंने
चंद्र सिंह से कहा कि तुम भी फौज में भर्ती हो जाओ, यहां कहां फंसे हुए हो। अच्छा खाना-कपड़ा मिलेगा और मुफ्त
में देश-विदेश की सैर करोगो! 1 सितंबर 1914 को भर्ती करने वाला हवलदार चंद्र सिंह के गांव आया।
चंद्र सिंह का घर पहला ही था। पिता के हुक्म पर चंद्र सिंह ने चूल्हा-चौका, बर्तन का इंतजाम कर दिया ताकि
हवलदार अपनी रसोई खुद बनाए क्योंकि उसने कहा था कि वह खुद ही बनाएगा। बात-बात में हवलदार चंद्र
सिंह को फौज में भर्ती करने के लिए राजी हो गया। चंद्र सिंह चुपचाप बिना माता-पिता को बताए 3 सितंबर की
तड़के सुबह पहले कनियार गांव और दूसरे दिन ढाईजोली पहुंच गया। 11 सितंबर को चंद्रसिंह हवलदार तथा अन्य
रंगरूटों के साथ कालोडांडा लैन्सडाउनद्ध पहुंच गए। उसे 2/39 गढ़वाली राइफल्स की छठी कम्पनी के 12वें सेक्शन में रखा गया। पिता को बाद में मालूम हुआ और वे भागते-दौड़ते बेटे को देखने आए। 1914 में सिपाही को कुल 14 रूपए मासिक मिला करते। इस बीच छुट्टी मिलने पर चंद्र सिंह गांव भी हो आया और मां से भी मुलाकात हो गई। माता-पिता दोनों ने आर्शीवाद दिया और देश के लिए लड़ने की कामना की।
फ्रांस की लड़ाई में
6 जुलाई 1915 को दो अंग्रेज अफसरों और 75 जवानों के साथ चंद्र सिंह बम्बई के लिए ट्रेन से रवाना हो गए। रास्ते में ही सैनिकों को हैजा हो गया। 15 दिनों के ‘क्वारंटीन’ के बाद वे फिर चल पड़े। बम्बई के विक्टोरिया बंदरगाह में एक रात विश्राम करने के बाद उन्होंने दूसरे दिन दोपहर में ‘कोकनाडा’ जहाज पकड़ा। उसमें कुल 700 जवान थे जो फ्रांस जा रहे थे जिनमें वे 300 लैंसडाउन से थे।
1 अगस्त 1915 को ‘कोकनाडा’ ने भारत भूमि छोड़ी। अदन और पोर्ट सईद रूकते हुए भूमध्यसागर पार करके
जवाज 14 अगस्त को मारसेई, फ्रांस पहुंचा।
चंद्र सिंह को लगातार नए अनुभव होते जा रहे थे। सैनिकों को गंदी मालगाड़ियों में भर-भर कर लड़ाई के मोर्चो पर रवाना किया जा रहा था। कुछ ही बाद चंद्र सिंह और उनके साथियों ने जर्मनों के खिलाफ खंदकों में रहते हुए भयानक युद्ध में भाग लिया। कई गढ़वाली मारे गए।इस भयानक युद्ध का वर्णन राहुल ने अपनी पुस्तकों
में किया है। इन दो महीनों आठ दिनों में अनुभवों से चंद्र सिंह काफी परिपक्व हो गए।
देश-वापसी
अक्टूबर 1915 में चंद्र सिंह समेत बड़ी संख्या में जवान जहाज में वापस लौटे। उनमें वे दो को अंग्रेजों ने ‘विक्टोरिया क्रास’ पदक भी दिए। बीच में कुछ समय पोर्ट सईद में रहना पड़ा और खाइयां खोदनी पड़ी। वे सभी
फरवरी 1916 में बम्बई और फिर लैन्सडाउन लौटे।
मेसोपोटामिया का युद्ध1917
इस बीच चंद्र सिंह लांस-नायक और 12वीं प्लाटून के चौथे सेक्शन के कमांडर बन गए। मार्च 1917 में गढ़वाली पलअन को बसरा, ईराक लड़ने के लिए भेज दिया गया। इस बार चंद्र सिंह तथा अन्य जवानों को भयानक गर्मी में लड़ने का अनुभव हुआ। सितंबर 1917 में उन्होंने रमादी के युद्ध में भाग लिया। इस बार तुर्को के साथ लड़ाइ्र हुई जो जर्मनों के साथ थे। इन और पिछली चंद्र लडाइयों में चंद्र सिंह बाल-बाल बच गए। थोड़ी देर के लिए वे बंदी भी बना लिए गए। फिर बगदाद की लड़ाई हुई। 1917 में चंद्र सिंह तथा कई अन्य वापस भारत आ गए। उनकी पहली
पत्नी का देहान्त हो गया फिर उनकी दूसरी शादी भी हो गई।
राष्ट्रीय आंदोलन की लहर
चंद्र सिंह को सहारनपुर स्टेशन पर तीन दिनों की ड्यूटी गार्ड की लगाई गई। उनकी निगरानी में दो राजनैतिक
कैदी थे जिन्होंने अंग्रेजी सरकार के खिलाफ संघर्स में हिस्सा लिया था। उनमें चंद्र सिंह को बहुत सी जानकारियां मिलीं और इस प्रकार राजनीति से प्रथम परिचय हुआ। चंद्र सिंह ने अंग्रेजों द्वारा देश में कुछ अच्छा काम करने की बातम कही तो उनमें से बूढ़े बाबा ने कहा कि मेरा बेटा भी फौज में हैः ‘हो सकता था वह तुम्हारे बूढ़े बाप को इसी तरह कैद में रखता। क्या यह तुम्हें अच्छा लगता?’’ बात चंद्र सिंह को जंचने लगी।
इन तीन दिनों में चंद्र सिंह के दिमाग में उथल-पुथल मच गई। उन्हें एक नई रोशनी दिखाई दी जिसमें दुनियाकुछ और ही नजर आने लगी।
1916 में पं. गोविन्द बल्लभ पंत, पं. हरगोविन्द पंत, पं. बद्रीदत्त पांडे इने कुमाऊ परिषद का गठन किया। इस
संगठन ने बेगार प्रथा के खिलाफ जबरदस्त आंदोलन छोड़ दियां 1914 में नैनीताल की एक सभा में गांधीजी को बुलाने के लिए 25 लोगों का डेप्यूटेशन नागपुर भेजा गया। गांधीजी आ तो नहीं पाए लेकिन अपना आर्शीवाद भेजा। अल्मोड़ा में बहुत बड़ा जुलूस निकाला गया। पुलिस बंदोबस्त के बावजूद पुलिस को गोलियां चलाने
की हिम्मत नहीं हुई। ‘महात्मा गांधी’ की जय’ के नारे गूंजने लगे।
विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद फौजें तोड़े जाने लगीं और सैनिक घर लौटने लगे। फ्रांस के युद्ध में 13 हजार
गढ़वाली बलि चढ़े थे। उनके परिवार आर्थिक तथा अन्य संकटों से गुजर रहे थे। पहाड़ों में और समूचे देश में आर्थिक संकट गहरा रहा था। भूख, हैजा, प्लेग, मलेरिया, दरिद्रता फैल रही थी।
र्क हवलदारों को सिपाही बना दिया गया। उनमें चंद्र सिंह भी थे। उन्होंने तथा अन्य ने विरोध कया। चंद्र सिंह
गांधीजी से मिलने देहरादून जाने लगे लेकिन वे जा चुके थे। फिर वे जगाधरी गए। वहां बड़ा जलसा था। गांधी से
भेंट नहीं हुई लेकिन जिनसे भेट हुई, जैसा कि बाद में पता चलता, मोतीलाल नेहरू थे। चंद्र सिंह ‘गांधी जी की फौज’ में शामिल होना चाहते थे। मोतीलाल ने कहा, पहले अपनी पलटन से नाम कटाओ, फिर कांग्रेस में भर्ती कर लिया जाएगा। अन्यथा फौज में रहते हुए भर्ती होने पर फौज कड़ी सजा देगी।
सितंबर 1920 में 10/18 रायल गढ़वाली राइफल्स गठित की गई जिसमें चंद्र सिह को ड्रिल-नायक बनाया
गया। दिसंबर 1921 से 1923 तक वे वजीरिस्तान ;पश्चिमोत्तर प्रांत की लड़ाई में शामिल हुए। वे लांस-हवलदार बनाए गए। फिर कम्पनी क्वार्टर-मास्टर बनाए गए। वापस लैंसडाउन लौटने पर वे आर्यसमाज के प्रभाव में आ गए। साथ ही उन्होंने दैनिक अखबार नियमित पढ़ना शुरू किया और फौज में अंग्रेजी पढाई आगे बढ़ाई। इस बीच अखबारों से उन्हें कानपुर बोलशेविक षडयंत्र केस के बारे में काफी जानकारी मिलने लगी। इनमें एस ए डांगे तथा अन्य साथियों के बारे में तथा रूसी क्रांति एवं मजदूर-किसान राज के बारे में जानकारी मिली। वे अपने साथियों के
साथ मिलकर फौज में गुप्त मीटिंगें करने लगे और कांग्रेस में शामिल होने की तैयारी करने लगे।
1929 में उन्हें खैबर-दश जाना पड़ा। उन्हें हवलदार-मेजर बनाया गया।
वापस लौटकर कामेश्वर में गांधीजी की सभा में लिया। गांधीजी सामने ही बैठे थे। गांधीजी ने उन्हें टोपी दी। उसे
पहनकर चंद्र सिंह ने प्रतिज्ञा की कि मैं इसकी कीमत चुकाऊंगा। खूब तालियां मिलीं। गांधीजी ने कुमाऊं में ‘स्वराज भवन’ की नींव डाली। कुमाऊ से कुली-प्रथा उठ गई थी। 12 मार्च 1930 को डांडी मार्च के साथ गांधीजी ने नमक सत्याग्रह आरम्भ कर दिया।
ऐतिहासिक पेशावर कांड-1930
2/18 रॉयल गढ़वाल राइफल्स के सैनिकों को पेशावर के हरिसंह लाइन्स में तैनात किया गया था। अन्य सैनिक
भी भारी संख्या में तैनात थे। बात यह थी पेशावर में नमक सत्याग्रह के सिलसिल में कांग्रेस की ओर से व्यापक
आंदोलन छेड़ दिया गया था और भारी सभा होने वाली थी। चंद्र सिंह की बटालियन पेशावर से 22 मील की दूरी पर डाक गांव, चरत छावनी में रखी गई थी। अप्रैल ;1930 में उसे पेशावर स्थानांतरित कर दिया गया।
12 अप्रैल की आमसभा में विदेशी सामान और शराब का बहिष्कार तथा दूकानों को शाही बाग में कांग्रेस की
मीटिंग हुई। चंद्र सिंह की दिलचस्पी और गतिविधियों की रिपोर्ट फौजी कमान को लगातार मिल रही थी।
22 अप्रैल की शाम तक स्पष्ट हो गया कि कम्पनी को 23 तारीख की आमसभा पर गोलियां चलाने का हुक्म
मिल सकता है। शाम की गिनती हो जाने के बाद चंद्र सिंह तथा अन्य ने अपने खास आदमियों की एक गुप्त
बैठक की। इसमें प्रत्येक कम्पनी का एक-एक आदमी आया। बैठक में तय किया गया कि सैनिक कांग्रेसियों पर
गोली चलाने का हुक्म मानने से इन्कार कर देंगे। वे हर तरह के नतीजे भुगतने को तैयार थे। बैठक में उपस्थित थेः शेर सिंह, नारायण सिंह, केदार सिंह, दौलत सिंह, रामकृष्ण सिंह और चंद्र सिह भंडारी। आगे अन्य जिम्मेदारियां बांटी गई।
23 अप्रैल 1930 को पेशावर के किस्साखानी बाजार में खान अब्दुल गफ्फार खान के लालकुर्ती खुदाई
खिदमतगारों तथा कांग्रेस की आमसभा हो रही थी। 23 अप्रैल ;1930द्ध को सबेरे सात ‘ए’ कम्पनी को ‘फाल-इन’ तैयारद्ध होने का हुक्म मिला। कप्तान ने कम्पनी के 72 सैनिकों को शहर चलने का हुक्म सुनाया और बाकी 36
को लाइन में ही रहने का। इन बागियों में चंद्र सिंह भी थे अब उनके सामने दुविधा यह थी कि शहर कैसे जाएं। उन्होंने कप्तान बी. पॉवेल से कहा कि सैनिक पानी ले जाना भूल गए हैं। समझाने से पॉवेल ने इजाजत दे दी और चंद्र सिंह खच्चरों पर पानी लादकर शहर चल पड़े।
वे काबुली दरवाजा पहुंचे जहां 72 जवान तैनात थे। च्रद्र सिंह ने कम्पनी कमांडर को रिपोर्ट कीः ‘‘पानी के खच्चर
कम्पनी के पीछे खड़े हैं। जब जरूरत हो तो पानी मंगवा लें।’’ फिर चंद्र सिंह कम्पनी के हेडक्वार्टर में साहब के साथ
बैठ गए। शहर में एक गोरा मोटरसाइकल पर गश्त लगाने वाला जलकर मर गया है, नौजवानों ने पेट्रोल छिड़ककर उसे आग लगा दी थी। रिकेट ने सिपाहियों से उसे बचाने को कहा लेकिन कोई आगे नहीं आया।
उधर किस्सारवानी बाजार में लोग इकट्ठा हो रहे थे, तिरंगे फहराए जा थे, मकानों पर भीड़ जमा हो रही थी। राष्ट्रीय झंडे के चारों ओर वीर पठान खड़े थे। एक सिख नेता ने भाषण शुरू किया, नारे गूंजने लगेः ‘महात्मा गांधी की जय’, वगैरह। वे सैनिकों के बिल्कुल नजदीक थे। संगीनों की तीखी नोकें अब झंडों और पठानों की ओर झुकती जा रही थी। स्वयंसेवक सैनिकों को समझा रहे थे। कैप्टन रिकेट हट गया। उसने गोली चलाने की धमकी दी। रिकेट को गोली चलाने की इजाजत लेकर एक गोरा अर्दली आ गया।
कैप्टन रिकेट की धमकियों के बावजूद जनता टस से मस नहीं हुई। उसने गढ़वाली सैनिकों को फायर करने का हुम्म दे दिया। चंद्र सिंह ठीक रिकेट के बाई ओर खड़े थे। चंद्र सिंह ने जवाबी आदेश में चिल्लाकर कहा ‘‘गढ़वाली सीज फायर!’’ ;गढ़वालियों, गोली मत चलाओ!द्ध इसके बाद एक के बाद एक ‘सीज फायर’ के आदेश घूम गए। गढ़वालियों ने अपनी-अपनी राइफलें जमीन पर खडी कर दीं। एक गढ़वाली सैनिक उदे सिंह ने अपनी बंदूक एक पठान को देकर कहाः लो भई, अब आप हमें गोली मार दो!’
कैप्टन रिकेट ने चंद्र सिंह से कहा-क्यों यह सब क्या है? चंद्र सिंह ने उत्तर दियाः ‘‘हम निहत्थों पर गोली नहीं चलाते।’’ फिर तो रिकेट ने गोरे सैनिकों को बुला लिया। इसके बाद तो एक और ‘जलियावाला कांड’ हो गया।
30 गोरों की एक प्लाटून ने अंधाधुंध गोलियां बरसाना शुरू कर दिया। एक ट्रेंच मोटर ने चलते हुए दो मशीनगनों से फायरिंग कीं उसके नीचे छह लोग कुचल दिए गए।फिर लोगों ने उसे आग लगा दी और चार अंग्रेजो जल मरे। मैदान और गलियों मे तड़फडाती लाशें भर गईं। अंग्रेजों ने कितनी ही लाशों ट्रकों में ीरकर काबुल नदी में फेंक दी। लोग गलियों, मकानों, छतों से बोतल, कुल्हाड़ी, बक्सा जो हाथ आया वही लेकर अंग्रेजों पर टूट पड़े। कैप्टन टिकेट बुरी तरह कुल्हाडी से घायल हो गया लेकिन बच गया।
स्वयं गढ़वाली सैनिक भी घायल हुए, चंद्र सिंह भी बच निकले। लेकिन जल्द ही फौजी और सामान्य लोगों ने चंद्र
सिंह को घेर लिया और खूब शाबाशियां देने लगे। पेशावर में विद्रोह की स्थिति पैदा हो गई।
24 अप्रेल को िर गढ़वालियों को शहर कूच करने का आदेश दिया गया।
इस बार यदि कोई हुक्म न माने तो उसे वहीं तत्काल गोली मार देने का आदेश जारी किया गया। चंद्र सिंह और
उनके साथियों को निहित्या करके एक स्थान पर घेर कर रख दिया गया था। लेकिन इस बार फिर चंद्र सिंह के
नेतृत्व में गढ़वाली सैनिकों ने तय किया कि वे शहर जाएंगे ही नहीं, भले ही मार दिए जाएं। चंद्र सिंह ने याद दिलाया कि 1919 में जालियांवाला बाग कांड में नं. 6 गोरखा बटालियन ने और 1921 के मोदला विद्रोह में 1/18
रायल गढ़वाली रायफल्स ने जुल्म किए थे। इसलिए यहां कांग्रेसियों पर जुल्म करने के बजाय जान दे देंगे। फिर चंद्र सिंह ने गायत्री मंत्र पढ़कर देशभक्ति का संकल्प किया।
ज्यादातर ट्रकें खाली रहीं। जो थोड़े से चढ़े भी वे धिक्कार और नारों के दबाव से उतर आए। इस बीच 67
जवानों ने संयुक्त पत्र पर हस्ताक्षर कर फौज से इस्तीफा दे दिया। पहला नाम चंद्र सिंह भंडारी का था। ‘इंकलाब
जिंदाबाद’ के नारे लगने लगे। शाम तक गढ़वालियों की निहत्थी बटालियन गिरफ्तार की जा चुकी थी। इन सभी को ऐबराबाद ;पेशावरद्ध में नजरबंद कर दिया गया। उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया।
हवलदार चंद्र सिंह भंडारी को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। उनका तथा 38 अन्य का कोर्ट मार्शल हुआ,
16 को लम्बी सजाएं सुनाई गईं। कई कैदियों को काबुल से ले जाया गया और तार से घरकर रखा गया।
चंद्र सिंह को एक अत्यंत ही तंग कालकोठरी में रखा गया।
आखिरकार चंद्र सिंह को आजीवन कारावास के लिए 12 जून 1930 को एबटाबाद जेल भेज दिया गया। यह एक सेल ;कोठरीद्ध में रखा गया जिसमें तीन पीट चौड़ा, साढ़े छह फीट लम्बा और डेढ़ फीट ऊंचा चबूतरा का जो लगभग सारी जगह घेरता था। इसी में आटा पीसने की चक्का और टट्टी-पेशाब की जगह थी। वहां हर तरह के कीडे-मकोडे इकट्ठा थे।
दूसरे दिन उनके पैरों में बेड़ियां पहनाई गईं। ;13 जून 1930 को ये बेड़ी-डंडा पूरे छह साल लगातार रहीं और 21 जुलाई 1936 को ही बरेली सेन्ट्रल जेल में खोली गई। इस बीच चंद्र सिंह ने कई बार भूख-हड़ताल की। वे 11 साल, 3 महीने और 16 दिन लगातार जेलों में रहे।
कम्युनिस्टों से संपर्क
इसके बाद उन्होंने विभिन्न जेलों की यात्रा कीः नैनी, लखनऊ, अल्मोड़ा, देहरादून, इ.। इस बीच युक्त प्रांत में
कांग्रेस सरकार आ गई थी जिससे स्थिति में काफी सुधार आया। चंद्र सिंह का काफी सम्मान था। उनकी मुलाकात
कम्युनिस्टों समेत विभिन्न नेताओं से हुई, जैसे यशपाल, रमेश चंद्र गुप्ता, ज्वाला प्रसाद गुप्त, जवाहरलाल नेहरू,
जयबहादुर सिंह, सुभाष बोस, आचार्य नरेन्द्र देव, पं. सुंदरलाल, इत्यादि।
इस बीच मार्क्सवाद और कम्युनिज्म में रूचि बढ़ती गई और वे लगभग कम्युनिस्ट हो गए। उनका नाम भी ‘बड़े
भाई’ पड़ गया।
जेल से मुक्ति ;1941
चंद्र सिंह ‘गढ़वाली’ ;भंडारी उर्फ बड़े भाई को 20 साल ;आजन्म कारावास की सजा मिली थी। इसमें छह साल का रेमिशन मिला। इसके अलावा अन्य रेमिशन भी मिले। 26 सितंबर 1941 को उन्हें 11 वर्षों के कुछ अधिक निरंतर कारावास के बाद रिहा कर दिया गया। लेकिन उन पर गढ़वाल न जाने का प्रतिबंध लगा दिया गया।
20 अक्टूबर को नेहरू जी के कहने पर वे आनन्द भवन, कांग्रेस कार्यालय, इलाहाबाद चले गए। वहीं उनका परिवार-पत्नी और बच्ची-रह रहे थे। उनकी कई सभाएं आयोजित की गईं। फिर वे गांधीजी के आमंत्रण
पर वर्धा आश्रम चले गए। उन्हें गांधीजी को नजदीक से देखने का मौका मिला। 942 की जुलाई में वे इलाहाबाद
लौट आए, फिर परिवार सहित बनारस।
बीएचयू के विद्यार्थियों ने 1942 के आंदोलन में बड़ा आगे बढ़कर भाग लिया था। विद्यार्थियों की एक सभा में
उन्हें जबर्दस्ती बिठा लिया गया। डाके एन गैरोला अध्यक्ष थे। वे बड़े भाई को पकड़कर मंच पर ले गए और उनका
परिचय पेशावर कांड के वीर नेता के रूप में दिया। विद्यार्थी इतने जोश में आ गए कि उन्होंने चंद्र सिंह को ‘कमांडर इन चीफ’ और डा. गैरोला को ‘डिक्टेटर’ नियुक्त किया। चंद्र सिंह भूल गए कि उनकी बच्ची बीमार है
और पत्नी की आर्थिक हालत अच्छी नहीं है।
बस, चंद्र सिंह विद्यार्थियों को 1942 के आंदोलन में तार काटने, पटरियां उखाड़ने, इ. की ट्रेनिंग देने में लग गए। आए दिन जुलूस, प्रदर्शन और हड़तालें होने लगीं। चंद्र सिंह को गिरफ्तार कर लिया गया। 6 अक्टूबर
1942 को उन्हें 7 ;सातद्ध साल की सजा सुनाई गई। उन्हें मिर्जापुर जेल भेज दिया गया जहां 6 सौ के करीब
राजबंदी थें चारों ओर चंद्र सिंह तथा पेशावर कांड की चर्चा होने लगी। वे कम्युनिस्ट पार्टी के बाकायदा मेम्बर नहीं बने थे लेकिन पार्टी को अपनी ही पार्टी मानते थे। इलाहाबाद में वे जेड.ए. अहमद और हाजरा बेगम से मिले भी थे।
मिर्जापुर जेल में दो नौजवान कम्युनिस्ट जिनसे उनका दृष्टिकोण ही बदल गया। नैनी जेल में कई राष्ट्रीय
नेताओं से मिले। शिव वर्मा से भी मिले। कम्युनिस्ट पार्टी में 1945 की बरसात में उन्हें रिहा कर दिया गया। जेल से छूटते ही साथी यशपाल के पास लखनऊ उनके घर चले गए। प्रदश्े के कांग्रेसियों से चंद्र सिंह का मोहभंग होने लगा। भाकपा के महासचिव पी सी जोशी से पहले से ही जान पहचान थी। उनसे सम्पर्क किया।
जोशी ने सौ रूपए भेजे और कहा कि बाल-बच्चों का इंतजाम करके आ जाओ।
बम्बई पार्टी हेडक्वार्टर में चंद्र सिंह ने पी सी जोशी से मुलाकात की और वहां रहने लगे। जोशी ने उन्हें 42
पुस्तकों का ढेर दिखाकर कहा कि ये सब तुम्हें पढ़नी पड़ेंगी। ‘पढ़ो और परीक्षा दो’’ का समय आ गया। जोशी बीच-बीच में सवाल पूछते और लेक्चर देते। यह क्रम छह महीनों तक चलता रहा। फिर उन्हें मजदूर सभाओं में भेजा
जाने लगा। कम्यून में लगभग 72 साथी थे। पार्टी शिक्षा का काम खत्म हुआ।
1945 में नेत्रकोना ;बंगाल में
अखिल भारतीय किसान सभा सम्मेलन में जोशी चंद्र सिंह को अपने साथ ले गए। वहां से वे आंध्र गएं जगह-जगह
‘‘चंद्र सिंह बाबा की जय’’ हो रही थी। विजयवाडा में सुदरैय्या से मुलाकात हुई। फिर बम्बई वापस आने पर वारली
आदिवासियों में काम किया। अब ‘बड़े भाइ्र्र’ चंद्र सिंह गढ़वाली को पार्टी सदस्यता के योग्य समझा गया। छह पर छोटी सी बैठक में जोशी ने पार्टी कार्ड दिया। रणदिवे तथा अन्य साथी भी थे।
चंद्र सिंह को वापस लखनऊ भेजा गया।
गढ़वाल प्रवेश
1946 में चंद्र सिंह को लखनऊ से प्रादेशिक पार्टी ने काम करने रानीखेत भेजा। 1946 में सारे देश में सीमित
चुनाव हुए जिसमें अंतरिम सरकार बनी। उसी ने संविधान तैयार करने का काम आरंभ किया। कम्युनिस्ट पार्टी ने
भी अपने उम्मीदवार खड़े किए। पार्टी ने चंद्र सिंह को खड़ा करने का फैसला किया। इसके लिए नगेन्द्र सकलानी,
ब्रजेन्द्र तथा अन्य साथियों ने उन पर प्रतिबंध हटवाने की कोशिशें आरम्भ कर दी। चंद्र सिंह को कोर्ट-माश्रल के
फैसले की कापी पाने के लिए युक्त प्रांत, लखनऊ, देहरादून वगैरह में बेइन्तहा भागदौड करनी पड़ी।
22 दिसंबर 1946 को चंद्र सिंह कोटद्वार पहुंच गए, 17 वर्षों बाद अपनी मातृभूमि लौटे थे। चारों ओर उनका भारी स्वागत हुआ। चंद्र सिंह नामजदगी पत्र तभी दाखिल कर सकते थे जब गवर्नर अनुमति दे। गवर्नर का अनुमति पत्र
समय से आधा घंटा बाद आया। यह सब जानबूझकर किया गया था। पार्टी ने प्रगतिशील उम्मीदवार का समर्थन
तय किया। कांग्रेस से डा. के एन गेरोला को खड़ा किया गया था। चंद्र सिंह, सकलानी तथा अन्य साथियों ने डागैरोला का प्रचार किया।
पार्टी संगठन और टिहरी राज के
खिलाफ आंदोलन
पौड़ी पार्टी का केन्द्र बना। ब्रजेन्द्र, चंद्र सिंह, सकलानी, इ. साथियों ने खूब काम किया। अकाल की स्थिति में
पार्टी ने संघर्ष किया। बड़ी संख्या में सहकारी समितियां गठित की गईं। नगेन्द्र सकलानी ने टिहरी रियासत के
खिलाफ संघर्ष छोड़ दिया। वे 11 जनवरी 1948 को शहीद हो गए।
मोलू सिंह भी शहीद हो गए। चंद्र सिंह ने आंदोलन की बागडोर अपने हाथों में ले ली। जनाजा कई दिनों तक पहाड़ी
रास्तों पर हजारों की भीड़ में चलता रहा। दोनों की अर्थियां जुलाई गईं।
चंद्र सिंह ने घोषणा कीः ‘‘अब टिहरी स्वतंत्र है।’’
बीच में कुछ व्यक्तिगत कारणों से चंद्र सिंह गढ़वाली ने पार्टी सदस्यता छोड़ दी। 1952 में पीसी जोशी कोटद्वार आए। उनकी कोशिशों तथा अन्य परिस्थितियों के कारण चंद्र सिंह फिर पार्टी मेम्बर बन गए।
अगस्त 1979 में वे कोटद्वार में बहुत बीमार पड़ गएं लम्बी बीमारी के बाद उनकी मृत्यु 1 अक्टूबर 1979
को दिल्ली में हो गई। 1994 में उनकी याद में डाक टिकट जारी किया गया। गांधीजी ने कहा थाः ‘‘मेरे पास चंद्र सिंह गढ़वाली जैसे चार आदमी होते तो देश कभी का आजाद हो गया होता।’’
-अनिल राजिमवाले
1 टिप्पणी:
आपने बहुत अच्छी पोस्ट लिखी है. ऐसे ही आप अपनी कलम को चलाते रहे. Ankit Badigar की तरफ से धन्यवाद.
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