मंगलवार, 12 फ़रवरी 2013

संकट में है कहने की आज़ादी और इंसान



मात्र एक माह के अर्से में कला की स्वतंत्रता तथा अभिव्यक्ति की आज़ादी पर जितने आक्रमण हुए उसे विरल ही मानना चाहिए। किसी भी देश के इतिहास में ऐसी घटनाएं कम होती हैं। जयपुर के साहित्योत्सव में सलमान रुश्दी और तस्लीमा नसरीन की संभावित शिरकत को रोकने के लिए आरंभ हुआ अभियान, आशीष नन्दी के वक्तव्य से पैदा हुई उत्तेजना से शिद्दत इखि़्तयार करता हुआ, कमल हासन की फि़ल्म ,के विरोध में सक्रियता की डरावनी सघनता प्राप्त कर गया। इसका सबसे दर्दनाक पहलू कश्मीर में कुछ उत्साही किशोरियों के पहले राकबैंड ‘‘प्रगाश’’ पर प्रतिबन्ध लगाने की माँगों के रूप में सामने आया। यह अत्यंत ख़तरनाक स्थिति है। जिसके फ़लस्वरूप लेखन, दूसरे कला व संस्कृति कर्म से जुड़े लोगों तथा बौद्धिक वर्ग का चिंतित होना स्वाभाविक ही है। विचार और संवेदना का आहत होना भी उतना ही कु़दरती है।
    कृतियों पर प्रतिबन्ध लगाने रचनाकारों के बहिष्कार तथा कतिपय फि़ल्मों के किसी गीत या दृश्य को फि़ल्म से निकालने की माँगें पहले भी होती रही हैं। कोर्ट कचहरी भी हुई और जूता लात भी। प्रेमचंद सरीखे कथाकार को यदि घ्रणा का प्रचारक कहा गया तथा उनकी एक कहानी को लेकर मुक़दमा दायर हुआ तो कुछ वर्ष पूर्व ही उनके एक उपन्यास का सार्वजनिक तौर पर दाह संस्कार किया गया। अपनी तरह के अकेले शायर यगाना चंगेज़ी को उनका मुँह काला करके, गले में जूतों की माला पहनाकर यदि गदहे पर बिठा कर जुलूस निकाला तो कहानी संग्रह ‘‘अंगारे’’ के कहानीकारों पर मुक़दमा चलाने के लिए चन्दे जमा किए गये। रशीदजहाँ को तेज़ाब से चेहरा बिगाड़ देने,नाक काट लेने की धमकियाँ दी गयीं तथा कहानी संग्रह को प्रतिबन्धित कराने के उद्देश्य से तीखा अभियान छेड़ा गया। संयोग से इस अभियान की शुरुआत रौशन ख़्यालों के शहर अलीगढ़ से हुई तो सआदत हसन मंटो की कुछ कहानियों के कथ्य को लेकर कथाकार के विरूद्ध सख़्त कार्यवाई करने तथा कहानियों के प्रचार-प्रसार को रोकने के लिए कुछ अख़बारों के सम्पादकों ने प्रशासन पर शर्मनाक दबाव बनाया। कुछ विद्वानों प्रशासनिक अधिकारियों, धर्मगुरुओं तथा रचनाकारों के समर्थन के कारण यह दबाव अधिक वज़नदार हो गया। चवालीस साल की मुख़्तसर सी जि़न्दगी में दस वर्षों पर मुहीत मुक़दमें बाज़ी की प्रताड़ना। वहीं नई आशाएं -आकांक्षाएं जगाने वाली इक्कीसवीं सदी के आरंभ ही में दीपा मेहता की फि़ल्म वाटर पर प्रतिबन्ध लगाने की मांग तो छोडि़ये, उसके निर्माण की प्रक्रिया पर ही वीभत्स, नितांत अश्लील कि़स्म का फासीवादी आक्रमण किया गया। फि़ल्म फ़ायर के विरूद्ध भी अभियान छेड़ा गया। उसके प्रदर्शन में बाधा पहुँचाई गयी।
    ख़्वाजा अहमद अब्बास को कम से कम अपनी तीन फि़ल्मों के प्रदर्शन के लिए, जिनमें शहर और सपना तथा नक्सलाइट भी शामिल हैं, कठिन संघर्ष करना पड़ा। फि़ल्म ‘‘आँधी’’ को आपातकाल के दौरान नायिका मंे इन्दिरा गाँधी की छवि दिखन के कारण प्रतिबन्धित किया गया। अमृतनाहट की फि़ल्म ‘‘कि़स्सा कुर्सी का’’ में राजनीतिक भ्रष्टाचार के एक्सपेाज़र के कारण प्रदर्शन से रोका गया, राहुल ढोलकिया की ‘‘गुजरात के दंगों पर आधारित फि़ल्म ‘‘परजानिया’’ के विरूद्ध भी उन्माद पैदा किया गया। वो गुजरात में प्रदेर्शन से वंचित रही। गुजरात सरकार के आमिर ख़ान से नाराज़गी के कारण तो नंन्दिता दास की फि़ल्म ‘‘गुजरात दंगांे’’ की पृष्ठभूमि के कारण ही गुजरात में दिखाये जाने से रोक दी गयी। आमिर ख़ान का अपराध मात्र इतना था कि वह नर्मदा बचाव आन्दोलन के समर्थन में मेघा पाटकर के साथ धरने पर बैठे थे। वह दंगांे के कारण मुख्यमंत्री की आलेचना भी कर चुके थे। रोक-टोक की इंतिहा यहाँ तक कि राष्ट्रीय पुरस्कार से पुरस्कृत होने के बावजूद राकेश शर्मा की फि़ल्म ‘‘द फाइनल साल्यूशन’’ रिलीज़ होने से ही वंचित रह गयी। बहुत अर्सा नहीं बीता जब प्रोफे़सर सुमित सरकार तथा के0एन0 पाणिक्कर द्वारा संपादित ‘‘टूवडर््स फ्रीडम’’ के खण्डों का प्रकाशन रुकवाने हेतु संाप्रदायिक मानसिकात के लोगों ने हर संभव प्रयास किए।
    ‘‘राही मासूम रज़ा’’ के उपन्यास आधा गाँव, प्रेमचंद की कुछ कहानियों व उपन्यास को पाठ्यक्रम से निकालने के समान ही वैज्ञानिक दृष्टिकोण से लिखी गयी इतिहास की कुछ पुस्तकों को भी इतिहास की भोतरी समझ का शिकार होना पड़ा।
    राम के सम्बन्ध में अम्बेडकर के आलोचनात्मक आलेख के विरूद्ध ग़ैर दलितों का विक्षोभ भरा उत्ताप भी बहुत पुराना नहीं है। अंतराष्ट्रीय प्रतिष्ठा के चित्रकार एम0एफ0 हुसैन के चित्रों तथा स्वयम् उन पर फ़ासीवादी हमलों की आक्रमकता का अनुमान इससे लग सकता है कि उन्हें हमेशा के लिए देश ही छोड़ देना पड़ा। आंध्रप्रदेश, केरल, महाराष्ट्र मंे कई नाटकों को सरकारी दमन का किशार होना पड़ा तो पंजाब में बलवन्त गार्गी के नाटक मंच पर आने से वंचित रहे, देश का सांस्कृतिक, बौद्धिक इतिहास अवसाद और शर्म के हादसों अनेकानेक साक्ष्यों से आहत है। अभिव्यक्ति की आज़ादी के पक्ष मंे हुए संघर्षों का भी लम्बा इतिहास है गंभीर ख़तरों के बावजूद लोग कलाकर्म की स्वायत्ता तथा कहने लिखने की आज़ादी के पक्ष में सक्रिय होते रहे हैं। जैसे कि कश्मीरी लड़कियों के राक बैंड ‘‘प्रगाश’’ के खिलाफ़ एक मुफ़्ती द्वारा दिये गये फ़तवे के निषेध में न केवल मुख्य मंत्री उमर अब्दुल्लाह मुखर हैं बल्कि वहाँ का प्रशासन भी बैंड से सम्बद्ध लड़कियों को धमकी देने वाले युवकों के खि़लाफ़ उचित कार्यवाई भी की है। उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया है। अलगाववादी नेताओं, अनेक धार्मिक गुरूओं, महिला संगठनों तथा बौद्धिक वर्ग ने भी बैंड के, गाने बजाने के अधिकार का समर्थन किया। इस तथ्य को कैसे नज़र अन्दाज़ किया जा सकता है कि न केवल भारतीय उपमहाद्वीप का संगीत बल्कि अनेक एशिया, अफ्रीक़ी व युरोपीय देशों का संगीत भी मुस्लिम महिलाओं के बहुमूल्य योगदान के कारण नये शिखरों की ओर जाते हुए अप्रतिम माधुर्य प्राप्त कर सका है। दरअस्ल हाल की ऐसी सभी घटनाओं को राजनीति प्रेरित मानने में संकोच नहीं होना चाहिए। ऐसी घटनाओं के पीछे निहित स्वार्थ की भी भूमिका रहती ही है।
    कश्मीर, जहाँ के जीवन में संगीत की व्यापक उपस्थिति है, गायन व नृत्य में पारंगत स्त्रियों का बड़ा समूह है, वहाँ केन्द्रीय मंत्री गु़लाम नबी आज़ाद की पत्नी भी अत्यंत लोकप्रिय गायिका है। संगीत में दक्ष पुरुषों की संख्या भी वहाँ अच्छी ख़ासी है। लोक संस्कृति की नितांत समृद्ध परम्परा वहाँ के संघर्षपूर्ण जीवन को उल्लास व मादकता देती है। हुब्बा ख़ातून को सर पर बिठाने तथा इस्लामी शुद्धतावाद का निषेध करने वाले सूफि़यों, के प्रति, जिन्होंने संगीत को आराधना की उच्चता दी, विराट भक्तिभाव से लबरेज़ समाज के लिए लड़कियों का राक बैण्ड भला असहनीय क्यों होने लगा? कट्टर धार्मिक लोगों के लिए यह स्थिति अवश्य अप्रिय हो सकती है। ध्यान देना चाहिए कि स्त्रियों केप्रति निरन्तर अधिक व्यापाक व क्रूर होती जाती हिंसा के उन्मूलन के लिए कारगर सिफ़ारिशें देने के उद्देश्य से गठित जस्टिस वर्मा समिति की वर्दीधारियों द्वारा की जाने वाली यौन हिंसा को क़ानून के दायरे में लाने की सिफ़ारिश को केन्द्र सरकार द्वारा महत्व न देने पर कश्मीर में असंतोष का वातावरण बना है। वर्दीधारियों द्वारा वीभत्स बलात्कार की अनेकानेक टीस भरी यादें लोगों को विचलित करती हैं। केन्द्र सरकार ने जस्टिस वर्मा की सिफ़ारिश को महत्व न देकर एक तरह से उमर अब्दुल्लाह के विरोधियों को राजनीति करने का आसान अवसर दे दिया है।
    यदि वह फ़तवे का विरोध या आलोचना करते तो धार्मिक हल्कों मंे पैदा हुए असंतोष व आक्रोश को व्यापक बनाने के जतन किए जा सकते थे और यदि वो फ़तवे के समर्थन में जाते तो उदार व गै़र मुस्लिम कश्मीरियांे सहित समूचे देश मंे उनकी छवि ख़राब होती  यहाँ तक कि उनकी अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा पर भी आंच आती, उमर अब्दुल्लाह ने राक बैण्ड, ‘‘प्रगाश’’ जिसका अर्थ प्रकाश होता है, के पक्ष में बयान देकर समूचे भारतीय समाज तथा राज्य व केन्द्र सरकारांे  को सकारात्मक संदेश दिया है। ठीक इसी प्रकार जयपुर साहित्योत्सव में बहुधा सलमान रुश्दी तथा तस्लीमा नसरीन को सादर आमंत्रित किए जाने के औचित्य को भी समझा जा सकता है। यह जानते हुए भी कि दोनों उल्लेखनीय लेखक तो हो सकते हैं, परन्तु महान् या एकदम कन्विन्सिंग नहीं। रचनाकार के रूप में दोनों का सम्मान व महत्व है। लेकिन उनके लेखन के कुछ अंशों से मुसलमानों की नाराज़गी एकदम निराधार भी नहीं है। संसदीय जनतंत्र में इस प्रकार की नाराज़गी के राजनैतिक इस्तेमाल की संभावनाएं सदैव बनी रहती हैं। चुनाव निकट हों तो यह संभावना पानी में भीगे चने के समान रोज़बरोज़ अधिक फूलती जाती है। मुम्बई में रूश्दी के उपन्यास पर बनी फि़ल्म के रिलीज़ के अवसर पर उन्हे बुलाएं जाने का औचित्य तो समझ में आता है, परन्तु जयपुर के साहित्योत्सव में इसकी अनिवार्यता औचित्य से परे है।
    जो लोग इस प्रकार के फैसलों से मुसलमानों के प्रचारित कट्टरपन को निरस्त करने या धुंधलाने की इच्छा पालते हैं, उन्हंे समझना चाहिए कि इससे कट्टरवादी-तत्ववादी शक्तियों ही को लाभ होता है। उन्हें अपना स्पेस व्यापक करने क मौक़ा हाथ आ जाता है। यदि कुछ हिन्दू संगठन ग़ैर भाजपाई सरकारों पर हिन्दुओं के साथ पक्षपात करने तथा उन्हें दूसरे दर्जे का नागरिक बनाने का उत्तेजक आरोप लगाकर अपना जनाधार बढ़ाने का स्वप्न देख सकते हैं तो आखि़र  कुछ मुस्लिम नेता या संगठन क्यों चुप रहने लगे? भावना का यथार्थ केन्द्रीय तत्व के रूप में उपस्थित है ही। बुख़ारी और उवैसी की राजनैतिक आकांक्षाएं अपनी जगह, उल्लेखनीय मुस्लिम आबादी वाले अधिकांश शहरों-क़स्बों मंे धार्मिक नेताओं और संगठनों की आपसी प्रतिसस्पर्धा के कारण ऐसे अवसरों की प्रतीक्षा ही रहती हैं। यही कारण है कि वो अधिक से अधिक उग्र होने का प्रदर्शन करते हैं, जैसा कि आजकल तोगडि़या कर रहे हैं। कारणवश सामान्य मुसलमानों के साथ ही देश की जनता के बड़े हिस्से की बुनियादी समस्याएं नेपथ्य में चली जाती है और गै़र जरूरी मुद्दे प्रमुखता प्राप्त कर लेते हैं। लखनऊ को एक बड़े उदाहरण के रूप में लिया जा सकता है। उतना त्रासद यह नहीं है कि कश्मीर में नये संकल्पों के एक राक बैंड की मधुर लहरियां असमय कालातीत हो जायेंगी, बड़ी त्रासदी यह है कि यह स्थिति बहुत सी कश्मीरी लड़कियों के आगे बढ़ने के हौसलों तथा संभव धार्मिक अस्मिता के साथ आधुनिकता को आत्मसात करने के लिए छटपटाते कश्मीरी समाज के लिए सधन कुठाराघात साबित हो सकती है।
    विश्वरूपम को प्रतिबन्धित करने अथवा उसके कुछ दृश्यों को फि़ल्म से हटाने की शुरूआती माँगें मुख्य रूप से राजनीति प्रेरित थीं। तमिलनाडु मंे दो द्रमुकों की परस्पर राजनैतिक प्रतिस्पर्धा की छवियां इन माँगों में न्यस्त थीं। इन्हें छिपा पाना कठिन है। इस कारण भी कि जिस संेसरबोर्ड ने इस फिल्म के प्रदर्शन की अनुमति दी उसमंे यू0पी0ए0 के सहयोगी, द्रमुक के एक सक्रिय मुस्लिम कार्यकर्ता मियां हसन महमूद जिन्ना महत्वपूर्ण सदस्य के रूप में मौजूद हंै। फि़ल्म के विरूद्ध आन्दोलन के उग्र होने का मतलब था कि मियाँ हसन महमूद की स्थिति का ख़राब होना, जो बहरहाल द्रमुख के लिए सुखद स्थिति नहीं होती, अन्नाद्रमुक की भी अपनी समस्याएं थीं। फि़ल्म पर प्रतिबन्ध लगाने अथवा उसके कुछ दृश्यों को हटाने की मांग करते  समय सकारात्मक सन्देशों पर आधारित कमल हासन की पूर्व फि़ल्मों, सामाजिक सरोकारों से सम्बद्ध उनकी सक्रियताओं तथा उनकी वैचारिक उदारता को भुलाते हुए जैसा कि आशीष नन्दी के साथ भी हुआ, इस तथ्य को भी नज़र अन्दाज़ कर दिया गया कि उसकी पटकथा तथा संवाद न केवल एक जुझारू दिवंगत माक्र्सवादी नेता के पुत्र अतुल तिवारी ने लिखे जो कि स्वयम् तो कम्युनिस्ट हैं ही, देश के तमाम संघर्षशील दबे कुचले वर्गों के साथ ही मुसलमानों के भी बड़े शुभचिंतक हैं। जन संचार माध्यमों के सोद्देश्य इस्तेमाल का विपुल अनुभव है उनके  पास। अवश्य ही इन उद्देश्यों की सकारात्मकता पर सन्देह नहीं किया जा सकता, फिर भी चूक या असावधानी तो किसी से भी हो सकती है। चूक की प्रमाणिकता को जांचे बिना फि़ल्म के विरूद्ध दमनात्मक आन्दोलन खड़ा करने से पहले गंभीर विचार विमर्श और संवाद को आवश्यक नहीं समझा गया। आखि़र देश के ज्यादातर हिस्सों के मुसलमानों ने फि़ल्म को मूल रूप में स्वीकार किया। धार्मिक संगठनों ने भी विशेष आपत्ति प्रकट नहीं की।
    गलत प्राथमिकताओं तथा ग़लत आन्दोलनों के कारण मुसलमानों की बहुत क्षति हुई है। उनकी छवि लगातार धुंधलाती गयी है। मुस्लिम नेता तथा धार्मिक गुरू आखिर सच्चर कमेटी की सिफ़ारिशें लागू कराने का दबाव क्यों नहीं बना पा रहे हैं? वक़्फ़ बोर्डों तथा अल्पसंख्यक कल्याण निगमों, सम्बन्धित अन्य विभागों में व्याप्त भ्रष्टाचार के विरूद्ध वह कोई ठोस पहल करने में असफ़ल क्यों हैं? व्याप्त अशिक्षा को दूर करने के लिए वह कोई सघन परिणामपरक अभियान चला पाने में असमर्थ क्यों साबित हो रहे हैं?

    -शकील सिद्दीक़ी
   
   

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