रविवार, 4 मई 2014

भाजपा के कार्यक्रम में जनतंत्र या गणतंत्र के नहीं

प्रसिद्ध इतिहासकार इरफान हबीब से पंकज पाराशर की बातचीत
भारत में अनेक तरह की विविधताएं हैं। यहां अलग-अलग भाषा, धर्म और जातियां हैं। यहां का संवैधानिक ढांचा ऐसा है जो ऐसी विविधताओं को स्वीकार करता है। इन हालात में क्या ये मुमकिन है कि देश का कोई ऐसा नेता प्रधानमंत्री की कुर्सी पर काबिज हो और वह तानाशाह हो जाए?
- बिल्कुल मुमकिन है। भारत एक बहुत बड़ा देश है। यहां अलग-अलग जातियों के लोग रहते हैं। अलग-अलग भाषाएं हैं लेकिन इन विविधताओं के बीच यह भी संभव है कि किसी धर्म या जाति के पीछे किसी खास पार्टी को बहुमत मिल जाए। लोकसभा चुनाव में अगर किसी के पक्ष में २०-२५ या ३० प्रतिशत वोट पड़ जाएं तो संभव है कि उसकी सरकार बन जाए। सरकार बनाने के लिए ६० फीसदी वोट का होना कोई जरूरी नहीं है। यह बहुत मुमकिन है कि अगर फासिस्ट जियोलॉजी आपके पक्ष में हो तो यहां तानाशाही स्थापित हो सकती है।
कहा जा रहा है कि इंदिरा गांधी ने आपातकाल के दौरान यह करके देख लिया और उन्हें इसमें सफलता नहीं मिली। यह भी कहा जा रहा है कि भारत का बुनियादी ढांचा ऐसा है जहां तानशाह को सफलता नहीं मिल सकती है?
- इंदिरा गांधी ने आपातकाल के दौर में ज्यादतियां कीं लेकिन साथ ही २० सूत्री वाला कार्यक्रम भी रखा। वे कार्यक्रम तानाशाही वाले नहीं थे। अब नरेंद्र मोदी या भाजपा अपने कुछ ऐसे कार्यक्रमों के साथ सत्ता में आना चाह रही है तो यह उनका कोई नया एजेंडा नहीं है। उनके कार्यक्रम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संगठन की स्थापना काल १९२६ के एजेंडे वाले हैं। वे अपने कार्यक्रमों पर कितना भी मुलम्मा चढ़ाकर पेश करें लेकिन वे उनके स्थापना काल के ही एजेंडे हैं। जाहिर है कि भाजपा के कार्यक्रम में जनतंत्र या गणतंत्र के नहीं बल्कि तानाशाही तत्व मौजूद हैं। वे सत्ता में आ जाएं तो भी लोकतंत्र चलेगा लेकिन यह जरूर है कि आहिस्ता-आहिस्ता इसकी जड़ों को कमजोर किया जा सकता है। इंदिरा की तानाशाही में तमाम खराबियां थीं। मैं भी उनके विरोध में था लेकिन उन्होंने किसी धर्म का तो सहारा नहीं लिया था।
मोदी की कार्यशैली ऐसी है जिसमें किसी तरह के विरोध को सहन नहीं किया जा सकता है। इस मुल्क में सबको लेकर चलने वाला आदमी होना चाहिए, क्या मोदी की कार्यशैली ऐसी दिखती है?
- आप यह क्यों समझ रहे हैं कि आरएसएस सबको साथ लेकर चलने की बात करता है। आरएसएस की शैली में नेता ने जो कह दिया उसे हर हाल में मानना होता है। १९३९ तक जब लड़ाई नहीं हुई थी तब तक ये लोग हिटलर की बड़ी तारीफ किया करते थे।
आशंका जताई जा रही है कि मोदी भविष्य में हिटलर और मुसोलिनी हो सकते हैं?
- जाहिर है कि हिटलर और मुसोलिनी यूरोप के थे। वे खास जमाने में हुए हैं। अब उन्हें दोहराया तो नहीं जा सकता। इनकी तबीयत उनके जैसी ही है कि जोर लगा करके, जुल्म करके सत्ता हासिल की जाए। यह किसी से छिपा नहीं है कि जब गांधीजी की शहादत हुई तो मुल्क भर में मिठाई बांटी गई थी। ये दूसरी बात है कि जब लोग मिठाई बांटने वालों के खिलाफ उठ खड़े हुए तो उन्होंने कहा कि हम शादी की मिठाई बांट रहे थे। जो गांधी जी के मर्डर पर खुशी का इजहार करें उनसे आप क्या उम्मीद रख सकते हैं?
दुनिया में फासीवाद और सांप्रदायिकता का जो इतिहास है उसके मद्देनजर भारत में फासीवाद और सांप्रदायिकता का इस नए उभार को किस तरह देखते हैं?
- ऐसा है कि जब भारत आजाद हुआ तो इत्तेफाक से १९५२ के चुनाव मैंने नजदीक से देखा-परखा था, हालांकि मेरी उम्र तब मतदान करने की नहीं थी। कम्युनिस्ट पार्टी की तरफ से मैं हाथरस गया था। उस समय कांग्रेस ये कह रही थी कि धर्मशास्त्रों को बदल देंगे, औरतों को हम पूरा हिस्सा देंगे। कांग्रेस के इस अभियान के खिलाफ आरएसएस ने राम राज्य परिषद और जनसंघ को खड़ा किया था लेकिन तब उन्हें लोगों ने पूरी तरह अस्वीकार कर दिया था। १९५५-५६ में हिंदू कोड बिल पास हुआ जिसमें महिलाओं को इन्होंने बराबरी के अधिकार दे दिए थे। एक वो भी चुनाव था जब २००० साल का धर्मशास्त्र बदल दिया गया था। आज टेलीविजन और अखबारों पर इतना इश्तिहार चलाए जा रहे हैं। इतना रुपया कहां से आया? १९५२ में तो न ही कांग्रेस के पास और न ही उनके मुखालिफों के पास इतना रुपया था। अमेरिका में यह कहावत प्रचलित है कि जिनके पास सबसे ज्यादा डॉलर होगा वही चुनाव जीतेगा। ओबामा के पास सबसे ज्यादा डॉलर इकट्ठा हो पाया इसलिए वहां ओबामा जीता। अब ऐसी ही जीत की तैयारी हिंदुस्तान में भी चल रही है।
आपको मालूम है कि भारत में पूंजीवाद पूरी तरह से आ चुका है। पंडित जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी के जमाने में पब्लिक सेक्टर के पास ज्यादा पूंजी थी। प्राइवेट सेक्टर के पास आज की तरह पूंजी नहीं थी। अब तो बाहर का भी पैसा आ रहा है। इन पैसों की भूमिका चुनाव में देखी जा सकती है। वर्तमान समय में चुनाव में पैसों की भूमिका हमें जर्मनी की याद दिला रही है। जर्मनी के मिल मालिकों ने हिटलर को पैसे देने शुरू किए थे ताकि राफेल को रोका जा सके। कहा जा रहा था कि राफेल आएगा तो ट्रेड यूनियनों को खत्म कर देगा। यह सब अब हिंदुस्तान में हो रहा है।
बतौर इतिहासकार आप चीजों को कैसे देख रहे हैं?
- चुनाव की पूरी प्रकृति बदल गई है। ये चुनाव १९५२, ५७, ६२ जैसे नहीं हैं। उस वक्त लोग सोच कर वोट किया करते थे कि मेरी बेटी को जायदाद में हिस्सा मिलेगा कि नहीं? पंडित नेहरू अगर कह रहे हैं कि यहां उद्योग-धंधे विकसित किए जाएंगे तो उसके तमाम पहलुओं पर विचार करके लोग मतदान करते थे। अब ऐसा बिल्कुल भी नहीं है।
१९४७ के विभाजन के बाद समाज में एक दरार तो पैदा हो ही गई थी लेकिन क्या आज की तरह की धु्रवीकरण भी उस जमाने में था?
- उस वक्त भी धु्रवीकरण तो हुआ ही था। मुस्लिमों ने मुस्लिम लीग को ज्यादा वोट दिया था लेकिन कांग्रेस एक सांप्रदायिक पार्टी नहीं थी। कांग्रेस को हिंदुओं को पार्टी नहीं कहा जा सकता था। मुस्लिम लीग को पाकिस्तान के नाम पर इतने वोट पड़े थे कि बंटवारा जरूरी हो गया था लेकिन उस वक्त किसी ने नहीं कहा कि हिंदू भारत होना चाहिए जैसे कि पाकिस्तान एक मुस्लिम राष्ट्र हो गया है। सरदार पटेल ने भी ये कहा था कि अगर हिंदू भारत होता तो मैं फिर जेल जाता। मैं इसलिए जेल गया था क्योंकि भारत चाहता था, इसलिए नहीं कि भारत एक हिंदू देश। उस समय देश की फिजां अलग तरह की थी। १९५२ का चुनाव इतने बड़े मुद्दे पर हुए कि धर्मशास्त्र चले गए। लोगों ने महिलाओं को अधिकार मिलेंगे, इस मुद्दे पर इकट्ठा होकर वोट किया था। महिलाओं को अधिकार मिलने की बात आम आदमी कर रहा था।
हर्ष मंदर, सामाजिक कार्यकर्ता से मधुकर मिश्र की बातचीत संघ परिवार भारत को बनाना चाहता है - ‘हिंदू पाकिस्तान’
नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व में तानाशाही होने का जो पहलू बताया जा रहा है, उसके बारे में आपकी क्या राय है?
- कई बार हमें लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के पालन होने में देरी नजर आती है और हम महसूस करते हैं कि देश को कठोर और मजबूत इरादों के फैसले लेने वाले व्यक्ति की जरूरत है लेकिन इसके बीच में और लोकतंत्र के कमजोर पड़ने में एक बहुत हल्की सी लकीर है जो चिंता का विषय है। मेरा मानना है कि लोकतंत्र में मतभेद व्यक्त करने की जगह होनी चाहिए और इन मतभेदों को सुनकर सरकार को फैसला करना चाहिए। उदाहरण के लिए टाटा कंपनी को पश्चिम बंगाल में जमीन को लेकर तीन-चार साल तक बहुत परेशानियां हुर्इं। इसके बाद गुजरात में उन्हें बगैर किसी अवरोध के जगह मिली। लेकिन हिंदुस्तान कोशिश कर रहा है कि हम आर्थिक विकास हासिल करें लेकिन उसकी कीमत यह नहीं होनी चाहिए कि हमारे जो भी लोकतांत्रिक अधिकार हैं, वे किसी तरह से सीमित कर दिये जाएं या फिर उनका हनन हो। यदि श्रम कानून का उल्लंघन हो रहा हो तो उसके लिए लड़ने की जगह होनी चाहिए। गुजरात में सबसे ज्यादा श्रम संघर्ष के मामले देखने को मिले हैं। वहां सरकार की तरफ से उनके ऊपर दबाव डालने की कोशिश की गई है। क्या हम उस सरकार को अच्छी सरकार मानते हैं जिसके राज में गरीब और कमजोर तबके के हकों के लिए कोई जगह नहीं हो और उद्योगपति जो भी चाहें उन्हें बड़ी आसानी से सुलभ करवा दे?
अकेले ही सब कुछ कर दिखाने में विश्वास करने वाला व्यक्तित्व भारत की राजनीति के लिए कितना बुरा या बेहतर साबित हो सकता है?
- भारत में विभिन्न प्रकार की जातियां, मजहब, लिंग और बोली वाली लोग रहते हैं। इस विविधता को ध्यान में रखते हुए, सभी को सुनने के बाद, सबको संतुलन में लाने के बाद फैसला लेना मेरे ख्याल से ज्यादा न्यायपूर्ण होगा। अकेले अपनी मर्जी के मुताबिक फैसला लेने पर कमजोर वर्ग प्रभावित होता है।
विविधताओं वाले देश में क्या कभी कोई व्यक्ति तानाशाह होकर राज कर सकता है?
- मुझे लगता है कि आपातकाल के दौरान जो कुछ घटा उसे कोई भी स्वीकार नहीं कर पाया है। वैसे आपातकाल सिर्फ घोषित करने से आपातकाल नहीं होगा। मसलन आप गरीब की बात कर रहे हैं तो आपको लोग माओवादी कह देंगे। आप अल्पसंख्यक की बात कर रहे हैं तो आपको लोग जेहादी कह देंगे।
पड़ोसी मुल्कों में तानाशाही के दुष्परिणाम देखने के बाद भी क्या कोई व्यक्ति ऐसी गलती करने की कोशिश कर सकता है?
- मुझे हिंदुस्तान के आम लोगों की इंसानियत, बुद्धि और विवेक पर पूरा यकीन है। किसी भी अतिवादी विचार का इस देश के बहुसंख्यक लोगों ने कभी समर्थन नहीं किया है। यही कारण है कि भाजपा-आरएसएस अपने पैरों पर खड़े होने की संभावना से खुद इनकार करते रहे हैं। समस्या तब आती है जब अन्य अवसरवादी पार्टियां भाजपा से जुड़कर आरएसएस की विचारधारा का समर्थन करती हैं। इस तरह की सरकार पहले भी बन चुकी है, इसलिए यदि एक बार फिर ऐसा होता है तो देश को मुश्किल दौर से गुजरना पड़ सकता है।
गुजरात दंगों का दाग दामन लगे होने के बावजूद नरेंद्र मोदी द्वारा एक प्रशासक के तौर पर माफी न मांगना क्या उनकी तानाशाही को दर्शाता है?
- देखिए, वे यह मानते ही नहीं कि वहां कोई ऐसी घटना है जिससे उन्हें अपने आप पर कोई शर्म आए। यही कारण है कि २००२ के दंगों के बाद उन्होंने ‘गौरव यात्रा’ भी निकाली थी। एक तरह से वह यह बताना चाहते थे कि देश के अंदर जो मुसलमान देश-हित में नहीं सोचता है, उन्हें दबाने की हिम्मत मुझ जैसे नेता में है। उन्होंने कभी इसे अपनी कमजोरी नहीं मानी है बल्कि इसे सफलता करार दिया है। यही कारण है कि उन्होंने कभी भी इसके लिए माफी नहीं मांगी। कांग्रेस सरकार भी कई बार सांप्रदायिक कृत्यों में रही है लेकिन उनकी विचारधारा सांप्रदायिक नहीं है। कांग्रेस और भाजपा में इतना फर्क है कि भाजपा के न सिर्फ कृत्य बल्कि विचारधारा भी सांप्रदायिक है।
क्या आपको भी विपक्षी दलों की तरह उनकी भाषा में भी तानाशाही नजर आती हैै?
- बीते दस-बारह साल में जो गुजरात की सरकार मैंने देखी है, मुझे नहीं लगता है कि वहां के गरीब और अल्पसंख्यक लोगों को या फिर विरोध या फिर वैकल्पिक सोच रखने वाले लोगों को खुली हवा में सांस लेकर जीने का मौका मिला है। मैं वहां बहुत साल से काम कर रहा हूं और मुझे लगता है कि देश में एक कोशिश रहेगी कि उस तरह का वातावरण बनाने की, जहां पर लोग खुलकर उस वक्त की सत्ता की राजनीतिक या सामाजिक सोच के खिलाफ बोलने का खुलापन महसूस करेंगे लेकिन इसके लिए बहुत जरूरी है कि इस देश के लोकतांत्रिक और विविधता पर आधारित संस्कृति को हम सुरक्षित रखें।
समाज का एक वर्ग आरएसएस को भी हमेशा से संदेहास्पद दृष्टि से देखता रहा है। क्या मोदी के सत्ता में आने पर वह भी एक खतरा बन सकता है?
- आरएसएस-भाजपा के बारे मैं मानता हूं कि उनकी कोशिश या परिकल्पना हिंदुस्तान को एक हिंदू पाकिस्तान बनाने की है। हिंदू संस्कृति जो रही है, उसमें असमानता की समस्या ज्यादा रही है, जबकि उसमें विविधता के लिए जगह होनी चाहिए। हिंदू विचार क्या है, आप हरेक अलग प्रांत से जाएंगे तो दूसरे प्रांत में एक सोच रहेगी। यह विविधता हमेशा से हिंदू मजहब के मूल में रही है। आप इस विविधता को हटाकर कहते हैं कि हिंदू वही है, जिसे आप परिभाषित करते हैं। आप उसी को देश की संस्कृति बताते हैं। यह सोच मुझे लगता है कि देश के विविध वर्ग, भाषा, महजब, सोच, संस्कृति के लोग कभी स्वीकार नहीं करेंगे।
किसी की हिटलरशाही यहां नहीं चलेगी
डॉ. राममनोहर लोहिया की थीसिस ‘हिंदू बनाम हिंदू’ प्रधानमंत्री पद के भाजपा उम्मीदवार नरेंद्र मोदी को पढ़ने की आवश्यकता है। लोहिया ने उसमें जिक्र किया है कि एक उदारवादी हिंदू ही इस मुल्क को एकता के गठबंधन में बांधे रख सकता है। जहां तक नरेंद्र मोदी का सवाल है तो इसमें तनिक भी शक-संदेह नहीं कि वे कट्टरवादी हिंदू विचारधारा के पोषक हैं और उनके मुंह से निकले एक-एक लफ्ज में एक क्रूर शासक की छवि झलकती है। अगर ऐसी बात न होती तो उच्चतम न्यायालय ने उन्हें ‘नीरो’ लफ्ज से न नवाजा होता। सर्वोच्च अदालत ने फरवरी-मार्च गुजरात दंगों के बाद एक याचिका की सुनवाई के समय नरेंद्र मोदी को ‘नीरो’ की उपाधि प्रदान की थी। जिस भाजपा ने मोदी को सोलहवीं लोकसभा के मौजूदा चुनाव में अपना अगुआ घोषित कर रखा है, उसी शख्स के बारे में इसी दल के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने उन्हें ‘राजधर्म’ का पालन न करने पर अफसोस जताया था। जाहिर है कि राजधर्म वही नहीं निभाता, जिसमें तानाशाही प्रवृत्ति होती है। इतिहास के सफों में ऐसे तानाशाहों के नाम काले अक्षरों में दर्ज हैं। मोदी की तरह हिटलर और मुसोलिनी भी लच्छेदार भाषण दिया करते थे। अपनी तकरीरों में एक से बढ़कर एक जुमले गढ़ते थे। दुनिया गवाह है कि किस प्रकार गद्दी पर बैठते ही हिटलर ने यहूदियों को गैस-चैंबरों में फिंकवाया था। अपनी मुखालफत करने वालों पर जुल्मो-सितम ढाए थे।
बहरहाल, हमारे संविधान की बुनावट ही ऐसी है कि यहां एकतंत्र स्थापित करने की कोशिश जिसने भी की, मतदाताओं ने उसे औंधे मुंह गिराकर ही छोड़ा। जून १९७५ में इंदिरा गांधी ने संविधान के संग छेड़छाड़ कर मुल्क को आपातकाल की जंजीरों में सिर्फ अपनी कुर्सी बरकरार रखने के लिए जकड़ा था, तो जनता ने उन्हें तख्त से उतारकर सबक सिखाया था। तब राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख बालाजी देवरस को कारागार में ‘मीसा’ के तहत बंद किया गया था लेकिन देवरस ने इंदिरा गांधी से माफी मांग कर बीच इमरजेंसी में ही अपनी रिहाई करवाई थी। इसके एवज में देवरस ने इंदिरा गांधी के २० सूत्री कार्यक्रम को जबरदस्त समर्थन दिया था। यही तो है आरएसएस का असली चेहरा। मतलब कि अपने फायदे के लिए किसी भी तरह की मर्यादा तोड़ दो, लक्ष्मण रेखा लांघो।
चाल,चरित्र और चेहरे की दुहाई बात-बात में संघी देते हैं किंतु तानाशाह के समक्ष घुटने टेकने से भी नहीं हिचकते। यह साफ-साफ इशारा करता है कि अधिनायकवाद का पक्षधर वही हो सकता है, जिसे लोकतांत्रिक संस्थाओं में रत्ती भर यकीन नहीं है और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ जैसी फासीवादी ताकत ने ही मोदी को प्रधानमंत्री पद की दौड़ में शामिल करवाकर परदे के पीछे से उनकी लगाम अपने हाथों में ले रखी है। मोदी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के मुखौटा हैं। वह तारीख, वह दिन हिंदुस्तान की जम्हूरियत के लिए घातक होगा, जिस घड़ी नरेंद्र मोदी ७, रेसकोर्स रोड में दाखिल होंगे। ऐन उसी लम्हे हमारे संविधान की प्रस्तावना ‘वी द पीपुल ऑफ इंडिया...’ तार-तार हो जाएगी, उसके परखचे उड़ जाएंगे।
मोंदी के कारण गुजरात में हजारों-हजार घर बरबाद हो गए। उन १७ आइएएस, आइपीएस अधिकारियों की जिंदगी इस इंसान ने नेस्तनाबूद कर दी, जिन्होंने या तो इस्तीफा दे दिया था या इनके इशारे पर गैरकानूनी वारदातों में भाग लेने पर कचहरी ने उनके लिए दंड मुकर्रर किया। वे तमाम हाकिम तो हिंदू ही थे। हकीकत यही है कि सेक्युलर वही होता है जिसकी आस्था, जिसका भरोसा, जिसका विश्वास लोकतंत्र में रहता है। हिंदुस्तान का नक्शा देखने पर स्पष्ट होता है कि कश्मीर से कन्याकुमारी और कच्छ से कामरूप तक फैला यह मुल्क अपने में तरह-तरह की विविधताओं को समेटे हुए है, पचाए हुए है। सही मायने में हिंदुस्तान एक बगीचा है तथा हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई, पारसी आदि इसके फूल हैं। वही माली अच्छा माना जाता है जिसके बगीचे में गुलाब भी हो, गेंदा भी हो, चमेली भी हो, जुही भी हो, बेला भी हो, गुलमोहर भी हो, पलाश भी हो लेकिन मोदी की नीयत यह है कि सिर्फ एकाध पुष्प ही हिंदुस्तान रूपी उद्यान में दिखाई पड़ें, शेष की जड़ काट दो। मोमिनों को वे अपनी आंखों का कांटा समझते हैं। यह तयशुदा रणनीति है कि अपनी तकरीर के मार्फत वे मुसलमानों के जख्मों पर मरहम लगा रहे हैं जबकि अपने सियासी गुर्गों द्वारा अकलियतों पर शब्दबेधी बाणों की बरसात करवाने में तल्लीन हैं। उनकी फौज के सिपाही उन हिंदुओं को भी बख्शने के मूड में नहीं हैं, जो धर्मनिरपेक्ष हैं, कौमी मिल्लत के झंडाबरदार हैं। क्यों यह राग अलापा जा रहा है कि मोदी का विरोध करने वाले पाकिस्तान परस्त हैं और उनके प्रधानमंत्री बनते ही इस प्रकार के लोगों की जगह पाकिस्तान में होगी।
हिटलर ने भी सत्ता संभालने के बाद यहूदियों को जर्मनी से तड़ीपार करवाया था। हिटलर के शागिर्द तो उसे कुर्सी पर आसीन करने के वास्ते अपने भाषणों में नफरत नहीं बल्कि प्यार का संदेश देते थे। यह दीगर है कि जर्मनी में चांसलर के सिंहासन पर आरूढ़ होते ही हिटलर ने प्यार के संदेश को विष में तब्दील कर डाला था पर मोदी एवं उनके सिपहसालार तो आग, नफरत, मार-काट, दंगा, बम, गोली-बारूद के अलावा कुछ समझते ही नहीं। इस देश का मुस्लिम जहां अपने जेहन में यह खाका खींच चुका है कि वह ८५ फीसदी हिंदुओं के संरक्षण में है, वहीं मोदी सरीखे हिटलर उसे अपना दुश्मन मानते हैं। यह वतनपरस्त १५ प्रतिशत अकलियतों की देह पर जख्म के समान है। यहां का मुसलमान तो इसी मिट्टी में पैदा हुआ है, बढ़ा है, बूढ़ा हुआ है और इसी पाक सरजमीं की मिट्टी में दफन भी होगा। मोदी या किसी की भी हिटलरशाही यहां चलने वाली नहीं है। (प्रस्तुति : रतींद्रनाथ)
हमारा लोकतंत्र तानाशाही सहन नहीं कर सकता
नरेंद्र मोदी सत्तारूढ़ अगर हुए तो जल्दी ही उनकी समझ में यह आ जाएगा कि प्रधानमंत्री के रूप में वे धु्रवीकरण की राजनीति करने से सफल नहीं हो सकते और न ही किसी ऐसी प्रशासन-व्यवस्था की शुरुआत कर सकते हैं, जो मेलजोल के बजाय भेदभाव पर आधारित हो
इस मुकाम पर यह कुछ निश्चय से कहना कठिन है कि पंद्रह-बीस दिनों बाद जब आम चुनाव के नतीजे आ जाएंगे तो क्या होने जा रहा है। जो लोग लहर के साथ बह रहे हैं, वे आश्वस्त हैं कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में नई सरकार गठित होगी। हम जैसे, जो अपने संदिग्ध पूर्वग्रहों से ग्रस्त इस लहर की मुखालफत में खड़े होने की हिमाकत कर रहे हैं, मानते हैं कि अंतत: ऐसा नहीं हो पाएगा। हो सकता है यह यथार्थपरक आकलन न होकर हमारी इच्छा का ही एक संस्करण हो।
बावजूद इस असमंजस के, कुछ बातें कही जा सकती हैं। पहली तो यह कि मोदी सत्तारूढ़ अगर हुए तो जल्दी ही उनकी समझ में यह आ जाएगा कि प्रधानमंत्री के रूप में वे धु्रवीकरण की राजनीति करने से सफल नहीं हो सकते और न ही किसी ऐसी प्रशासन-व्यवस्था की शुरुआत कर सकते हैं जो मेलजोल के बजाय भेदभाव पर आधारित हो। भारतीय लोकतंत्र की कई कमियां हैं पर उसमें इतनी शक्ति, फिर भी है, कि वह अपनी लंबी परंपरा के उल्लंघन में तानाशाह और स्वेच्छाचारी वृत्ति को अधिक देर सहन नहीं कर सकता। दूसरी यह कि आर्थिकी को नवउदारवाद के चलते अगर समतामूलक लेकिन उद्योगधर्मी नहीं बनाया गया तो वह जल्दी ही चरमराने लगेगी। इतने सारे उद्योगपतियों ने खुल्लमखुल्ला मोदी को समर्थन और साधन दिए हैं। वे उसकी कीमत भी जल्दी वसूलना चाहेंगे। मोदी को ऐसा नाजुक संतुलन बनाना होगा कि वे भी खुश रहें और समावेशी विकास भी संभव हो, तेजी से। वर्तमान सरकार ने कई कल्याणकारी योजनाएं बनाई हैं पर उनका जमीनी स्तर पर कारगर अमल राज्य सरकारों के जिम्मे होने से अपेक्षित से खासा कम रहा है। अपने प्रादेशिक अनुभव का उपयोग कर और भारत के संघीय ढांचे को महत्व देते हुए नई सरकार को सक्षम और समय पर अमल का सुनिश्चय करना होगा। यह आसान भले न हो, जरूरी है।
तीसरी यह कि कुछ अर्थशास्त्रियों ने नतीजे आने के चारेक सप्ताह पहले ही यह घोषणा कर दी है कि वे कौन-से पद सहर्ष ग्रहण कर सकते हैं। इस लिप्सा को पोसने के प्रलोभन से बचना चाहिए। देश में पर्याप्त प्रतिभा है जिसका दोहन किया जा सकता है।
चौथी यह कि चुनाव प्रचार के दौरान संघ परिवार के अनेक संगठनों से, मोदी के कई वाचाल अंधभक्तों ने, स्वामी रामदेव और वफादार अमित शाह ने भड़काऊ और सांप्रदायिक, छिछोरे और अभद्र वक्तव्य तक दिए हैं। इन सबकी असहिष्णुता को संयमित करना कठिन तो होगा पर सुशासन के लिए जरूरी। करोड़ों अल्पसंख्यकों, दलितों, आदिवासियों, गरीबों आदि की अवहेलना करने या उनमें डर फैलाकर कोई सरकार ज्यादा दिन नहीं चल पाएगी- नहीं चल पाने दी जानी चाहिए। पांचवीं बात यह है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भारत, उसके इतिहास और संस्कृति तथा परंपरा की औपनिवेशिक समझ का भयावह पर दुर्भाग्य से दीर्घजीवी उत्पाद है। इक्कीसवीं शताब्दी में एक समुन्नत भारत के लिए वह पश्चातपद संगठन है।
अपनी संकीर्ण विचारधारा वह सरकारी इकाइयों, शैक्षणिक संस्थाओं, पाठ्यपुस्तकों, पाठ्यक्रमों, सांस्कृतिक अभिव्यक्ति आदि में घुसेड़ना और फैलाना चाहेगा। यह भारतीय परंपरा और सभ्यता की ऐसी क्षति होगी, जो कि अधिक गहरी और दीर्घकालीन होगी। स्वयं संघ के प्रचारक रहे मोदी उसके शिकंजे से मुक्त हो पाएंगे, ऐसी दुराशा करना मूर्खता होगी। लेकिन कितना अच्छा हो, लगभग चमत्कार कि संघ-योद्धा अपने शिविर में लौट जाएं और कुछ आत्मचिंतन और आत्मसंशोधन कर अपना पुनराविष्कार और विचार-विस्तार करें।
छठी बात यह है कि राजनीति में सफल होने के बाद अपने शत्रुओं से बदला लेना आम बात है। ऐसे स्वनियुक्त या बाकायदा नियुक्त लोग होंगे जो इस दौरान इन विरोधियों की गतिविधियों, वक्तव्यों आदि के बही-खाते बना रहे होंगे। मोदी सरकार बनते ही वे अपनी स्वामिभक्ति के प्रमाणस्वरूप ये दस्तावेज आगे की कार्रवाई के लिए पेश करेंगे। भले उसके कई पक्षधरों ने बदला लेने की घोषणा कर रखी है, नई सरकार को इस नीच और गैरलोकतांत्रिक भाव से अपने को मुक्त रखना चाहिए। ऐसे वफादार अकसर अनर्जित पद पा जाते हैं जिसके लिए उनके पास उपयुक्त पात्रता नहीं होती। ऐसी बंदरबांट न हो, तभी सार्वजनिक संस्थाओं का पुनराविष्कार संभव है।
सातवीं बात यह सूझती है कि हम जैसे कई यह मानते रहे हैं कि गुजरात दंगों के समय स्वयं अपने ही दल के प्रधानमंत्री की राजधर्म निभाने की सलाह मोदी ने नहीं मानी थी। अब कोई सलाह तो उस स्तर से नहीं देगा पर मोदी को अपने अंत:करण से खुद यह फैसला कर उस पर अमल करना चाहिए कि वे और उनके सहयोगी सत्तारूढ़ होकर राजधर्म, लोकतांत्रिक मूल्यों से समरस होकर, निभाएंगे। आठवीं बात यह है कि अभी तक केंद्र और कई राज्य सरकारों का, जिनमें गुजरात भी शामिल है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार की रक्षा करने का रिकॉर्ड अच्छा और उत्साहप्रद नहीं रहा है जबकि वह किसी भी लोकतंत्र के लिए एक बुनियादी और अनिवार्य मूल्य है। नई सरकार किसी-न-किसी बहाने ‘आहत भावनाओं’ के उन समूहों से मजबूती से निबटे जो साहित्य, कलाओं, विचार, विद्वता आदि के क्षेत्र में अभिव्यक्ति पर हमला बोलते रहे हैं और अब बहुत उत्साहित होकर एक तरह का आतंक फैलाने की चेष्टा करेंगे। वे किसी व्यापक वृत्ति का प्रतिनिधित्व कभी नहीं करते और उनसे बिना उनका धर्म या जाति विचार में लिये सख्ती से निबटना चाहिए।
नौवीं बात यह है कि नवउदारवाद और भूमंडलीकरण के चलते भारतीय भाषाओं की मातृभाषाओं और सृजनात्मक अभिव्यक्ति के माध्यमों के रूप में उपेक्षा हो रही है। नई सरकार को इस ओर ध्यान देना चाहिए। प्रधानमंत्री के रूप में अटल बिहारी वाजपेयी ने एक राष्ट्रीय भाषा आयोग बनाने की घोषणा हिंदी के राजभाषा बनने की स्वर्ण जयंती के अवसर पर की थी। उसे उनके मानव संसाधन विकास मंत्री ने नहीं बनने दिया। भाषाएं हमारी संस्कृति की धार्मिक, वैचारिक और आध्यात्मिक बहुलता की तरह उसके मूलाधारों में से हैं। उन्हें तथाकथित विकास की अंधी और अंग्रेजी पर केंद्रित दौड़ में क्षरित नहीं होने देना चाहिए। देश को लगातार पता चलता रहे कि हमारी भाषाओं की क्या स्थिति है और उसमें ज्ञानोत्पादन, शिक्षा, राजकाज, कानून, सूचना प्रौद्योगिकी आदि क्षेत्रों में क्या प्रगति है। इसलिए ऐसा आयोग बनना चाहिए।
आम आदमी का साबका बहुत निचले स्तर की नौकरशाही से पड़ता है जिसमें पटवारी, थानेदार, सिपाही, बाबू, शिक्षक आदि शामिल हैं। वहां हालत सभी राज्यों में खासी खराब है और पहले से बदतर, भ्रष्ट, कामचोर और सुस्त हुई है। इन लाखों को सक्रिय किए और जगाए बिना सुशासन संभव नहीं। ये सभी राज्य सरकारों के नियंत्रण में हैं। नई सरकार को इस ओर लगातार ध्यान देना होगा। 
 shukrawar se sabhar

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