सोमवार, 5 मई 2014

इस बार भी हारेगा लोकतंत्र?

  भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में यह पहला ऐसा अवसर है जब जनता द्वारा अपनी सरकार चुनने की महान प्रक्रिया को अब तक के सबसे गंभीर खतरों का सामना है। अपने पक्ष में अपने हित के लिए इस्तेमाल करने की आकांक्षी शक्तियाँ उसे हड़प कर जाने के लिए इस निर्लजता और उग्रता से कभी सक्रिय नहीं हुईं। नरभक्षी कारपोरेट सेक्टर की मुनाफाखोर लूटवादी शक्तियाँ, भूपति व धन्नासेठों के देश के साधनों व सम्पत्ति की निर्मम लूट के लिए आकुल सियासी दलों के बीच ऐसी लामबंदी पहले कभी नहीं देखी गई, यही कारण है कि आगामी चुनावों में जो निश्चय ही पूरी अनुशासनात्मक प्रक्रिया के तहत भारतीय लोकतंत्र के पहले की अपेक्षा विकरालता से पराजित होने की आशंकाएँ प्रबल होती दिख रही हैं। 
                                लोकतंत्र के हारने का मतलब कई-कई तरह से छली जा रही देश की शोषित, दलित, दमित, गरीब जनता का परास्त होना है। आकांक्षाओं स्वप्नों के क्रूर ध्वंस का मारकदंश झेलने को एक बार फिर वह विवश होगी। कठिन परिश्रम भी संचित पूँजी से जीवन की न्यूनतम आवश्यकताएँ पूरी करने में उसकी असमर्थता अधिक नुकीला त्रास बनने जा रही है। जिन्दगी की बुनियादी जरूरतों तक की पहुँच दुरूह होगी ही। चमकीली वस्तुओं पर उनकी खुरदरी उँगलियाँ बार-बार फिसलेंगी या कर्जदार व्यक्ति के हाथों का कम्पन्न बनेंगी, लुटेरे कारपोरेट सेक्टर तथा देशी रईसजादों की मंशा पूरी करते हुए पूँजीवादी लूट परस्त राजनैतिक पार्टियों ने समूचे चुनाव को मुद्दाविहीन बनाने में ऐतिहासिक सफलता प्राप्त की है। इस विडम्बनात्मकता की भी अपनी तकलीफ है कि चुनने के जनविवेक को ही कुंठित करने के भरसक प्रयास हो रहे हैं। 2002 में गुजरात में नरसंहार था, देश के विभिन्न हिस्सों में पिछले सालों में दलितों, ईसाइयों की जघन्य हत्याएँ खास समुदायों पर ही नहीं, उनके जनविवेक पर भी संगठित आक्रमण था। इन आक्रमणों से उत्पन्न हुई घृणा ने तथा असुरक्षित होने के मनोविज्ञान ने फैसले देने की क्षमता को ही छितरा दिया।
                                               त्रासद यह है कि इन आक्रमणों के बाद विनाश के उठते धुएँ के उच्च नफरत का विस्तार भी व्यापक होता गया, साम्प्रदायिक संगठनों, व्यक्तियों, कारपोरेट सेक्टर तथा मुनाफाखोरों ने नफरत के इस धुएँ को ही अपने लिए भविष्य का च्यवनप्राश समझा। एक ही समय में मुजफ्फरनगर में वीभत्स दंगों को संगठित करने वालों का समर्थन और संरक्षण, इसी समय चुनाव सभाओं में सबको साथ ले चलने, सबको समान समझने का लाॅलीपाॅप, ऐसे में वोटर का सही या तटस्थ भाव से फैसला लेना लगातार कठिन होता ही जाएगा। यू.पी.ए.-2 की भयानक नाकामी, सामान्य नागरिकों के निरन्तर जीवन कठिन होते जाने तथा संकट की बेला में प्रमुख विपक्षी दल भाजपा की शर्मनाक निष्क्रियता याद कीजिए और याद कीजिए समाजवादी, बसपा तथा ऐसे दूसरे दलों कमी हो, कभी पर्दे के पीछे हो, पर्दे के बाहर न की अदा भी, अपने ही आप फैसला लेने की सामथ्र्य कैसे झीना बना देते हैं, यह स्थिति उसी का दर्दनाक उदाहरण है। यही कारण है कि जनता के सबसे भयानक संकट भ्रष्टाचार केन्द्रीय मुद्दा होने की अकड़ दिखाते हुए पाले से बाहर होने की अवस्था में है। बीमारी के मूल कारणों की चिकित्सा के बिना उसके लक्षणों के जड़ से उखाड़ फेंकने की बुलन्द बाग घोषणाएँ इस चुनाव की भी विशिष्टता हैं। इस महादेश का भाग्य बदल देने का स्वप्न दिखाने वाले लौहपुरूष इस मामले में सबसे आगे हैं। बिजली, पानी, भोजन, आवास, चिकित्सा और अच्छी शिक्षा महँगी होती जाए, बेरोजगारी बढ़ती जाए, किसान भूमिहीन होते जाएँ, खेती लगातार कठिन होती जाए, शिक्षित नौजवान विदेशी व निजी कम्पनियों का बंधुआ मजदूर होने जैसी स्थिति के लिए मजबूर हों तो इन हालात में जीवन को बदल देने का आश्वासन कितना छल व कपटपूर्ण है, अनुमान लगापाना कठिन नहीं है। 
                                          ये छल वंचित वर्ग में जिस पैमाने की कुण्ठा व निराशा पैदा करता है, चुनाव के प्रति उतनी ही गहरी आशंका भी निर्मित करता है। जो निश्चय ही लोकतंत्र के लिए आघातकारी है। जनता के साथ छल का ऐसा महाताण्डव पहले कभी नहीं हुआ! कारणवश किसी एक व्यक्ति के लिए ऐसा विराट अविवेकपूर्ण, चेतना शून्य, आत्म प्रवंचन से युक्त सम्मोहन पहले कभी नहीं देखा गया, राजनैतिक मर्यादा, शालीनता, अनुभव व वरिष्ठता का ऐसा निर्मम उपहास भी पहले कभी नहीं देखा गया। संगठन शक्ति व्यक्ति केन्द्रित होती गई है। 
                                             लोकतंत्र का बुनियादी सिद्धांत मृत्यु शय्या पर है, प्रश्न यह भी है कि लोटा, थाली, लालीपाप, धोती का वितरण और लोक लुभावन घोषणाएँ निष्पक्ष चुनाव की कौन सी धारा में आते हैं। विवेक को क्या इस प्रकार रही प्रभावित या कुन्द करने की कोशिशें नहीं हो लोकतांत्रिक मूल्य क्या इससे आहत नहीं होते? न किए गए गए कामों का ऐसा महिमा मंडन और उन्हें सच मान लेने का अपूर्व उन्माद इस चुनाव की प्रमुख नकारात्मक प्रवृत्ति के रूप में सामने आया है। 
                                   यकीनन वोट प्रतिशत में काफी वृद्धि हो सकती है, परन्तु इससे क्या लोकतंत्र भी मजबूत होगा, यंत्रणा की कैसी भयानक छीलन है कि देश को सच बताने का दावा करने वाला मीडिया इस अकल्पीनय लूट के महाभियान का सक्रिय हिस्सेदार है। अवश्य ही मीडिया कई पापों पर से पर्दा उठाने का उत्साह भी दिखा रहा है, साथ ही चुनने के विवेक को गुमराह भी कर रहा हैं। धार्मिक नारों एवं भावनात्मक मुद्दों के अप्रासंगिक होते जाने के समय में वाराणसी के माध्यम से धार्मिक आस्था के पुनरुत्थान और शोषणकी नई बयार बहाई जा रही है। अपने लम्बे अनुभव से क्या देश की जनता ने यह नहीं सीखा है कि उसे ठगने वाले ही धर्म का सर्वाधिक इस्तेमाल करते रहे हैं। धार्मिकता, कर्मकाण्ड और रूढ़िवाद को बढ़ावा देने के अभियान में मीडिया तथा कार्पोरेट व देशी औद्योगिक घरानों की दिलचस्पी तथा उनका संरक्षण क्या उनके अदृश्य इरादों का संकेत नहीं देता। पिछले चुनावों में ‘‘निर्णायक भूमिका’’ का सम्मान अर्जित करने वाले उलेमा के हाशिए पर चले जाना जहाँ नई आशा जगाता है, वहीं नए-नए जाति आधारित संगठनों के स्वनामधन्य नेता इस भूमिका को हथियाने की होड़ में हैं गरीब अवाम का अनिवार्य हिस्सा, हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई, दलितों के मुद्दे एक बार फिर प्रमुखता प्राप्त करने से वंचित रह गए हैं। मुस्लिम, ईसाई व दलितों के आरक्षण के प्रश्न को कांग्रेस व भाजपा दोनों दरकिनार करने में सफल रही है। 
                                             जेलों में बंद बेकूसर नवजवानों की रिहाई तथा आरक्षण, दो ऐसे संवेदशनील मुद्दे हैं, जिन्हें समय रहते यदि अपेक्षित महत्व नहीं मिला तो यह स्थिति अल्पसंख्यक समुदायों के प्रति कांग्रेस के विश्वासघात के रूप में याद की जाएगी। साथ ही इस का यह त्रासद यथार्थ दोनों समुदायों के लिए घातक साबित होगा, भारतीय लोकतंत्र को इस कठिन परीक्षा से गुजरना ही होगा कि वह कैसे सभी नागरिकों के लिए समान अवसर व अधिकार सुनिश्चित बनाता है। लैंगिक समानता के इस संकल्प में, समानता व स्त्री सुरक्षा के लिए जरूरी जगह होनी ही चाहिए। तेजी से आगे बढ़ते समय में समाज को आधुनिक बनाने की प्रक्रिया में शिक्षा वैज्ञानिक चेतना का प्रसार भी इसी लोकतंत्र से आस लगाए हुए हैं।
                                                              यह चुनाव एक बार उसे फिर निराश करेगा, चुनाव को वर्चस्व होड़ में बदल देने वाली शक्तियाँ, सरकारें, विज्ञान और वैज्ञानिकता को भी अपने लाभ तक ही सीमित रखना चाहती हैं। वह नहीं चाहतीं कि जनता वैज्ञानिक सोच से सम्पन्न हो, वह उसे बौद्धिक सामाजिक रूप से पिछड़ा रखने ही की आकांक्षी हैं, वैज्ञानिक चेतना का पर्याय नहीं है। वरना ऐसा कैसे संभव था सामाजिक अवदान के मामले में शून्य राजनैतिक दल तथा उसके शिखर पुरूष के प्रति शिक्षित युवा इस तरह उत्साह प्रकट करते, देखा जाए तो वह सामाजिक विकास पथ का रोड़ा ही साबित हुए हैं। देश की संभावना युवा पीढ़ी यह क्यों नहीं समझ पा रही है कि अति उत्साह में वह जाने-अनजाने उन्हीं लोगों के पक्ष में खड़ी है, जो कृषि, पेयजल से लेकर औद्योगिक उत्पादन या शिक्षा से लेकर संस्कृति तक के खिलाफ लगातार सक्रिय रहे हैं। अधिनायक व वर्चस्ववादी प्रवृत्तियों से मुठभेड़ करते हुए हमारा लोकतंत्र कुछ नकारात्मकताओं के बावजूद आगे बढ़ा है,                             
                                          लोकतंत्र का मतलब ही है, सामूहिक आकांक्षा व निर्णयों के सम्मान का संस्कार, संगठन की शक्ति, व्यक्ति में केन्द्रित होने के अपने निश्चित। यों व्यक्तिवादी प्रवृत्तियों का विकास तीव्रता से व्यापक प्रदेश या देश की समूची तरक्की या गतिविधि किसी एक (मुख्यमंत्री-प्रधानमंत्री) से प्रचारित होती है। कुछ-कुछ हिन्दी फिल्मों के नायको जैसी स्थिति बनती दिखाई दे रही है। भाषा लोकतंत्र की विशिष्ट शक्ति है, स्वस्थ प्रतिस्पद्र्धा में महत्वपूर्ण लक्षण है। 
                                             भाषा का अपमान तथा प्रतिस्पद्र्धा अमर्यादित  तुक्षता का प्रवेश उसके लिए गहरा आघात साबित हो सकता है। इससे आने वाले दिनों में रुग्ण साधनों से निर्मित स्थिति अधिक खराब होते जाने की आशंकाएँ भी हुई हैं। निष्पक्ष चुनाव के लिए आवश्यकता का लोप जिस वितृष्णा को जन्म दे रहा है, उसे जनतांत्रिक संस्कार के शत्रुओं के अलावा किसी सधने वाला नहीं। ये वितृष्णा सबके लिए हानिकारक है। परन्तु....फिर वही सवाल, दिन प्रतिदिन मनमानी लूट का सुलभ साधन मानने की होती जाती सोच क्या ऐसा होने देगी।                      
 -शकील सिद्दीकी
मो.09839123527

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