रविवार, 1 अप्रैल 2018

विघटनकारी गतिविधि : धार्मिक उन्माद

‘‘साम्प्रदायिकता को सीधे सामने आने में लाज लगती है, इसलिए वह राष्ट्रवाद का चोला ओढ़कर आती है।’’             -प्रेमचंद

    ‘‘यदि हिन्दू राज बनता है तो इस बात में कोई सन्देह नहीं कि यह देश के लिए सबसे बड़ी विपत्ति होगी। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि हिन्दू क्या कहते हैं, लेकिन हिन्दूवाद स्वतंत्रता, समानता व भाईचारे के लिए बहुत बड़ा खतरा हैं। इस तरह से यह लोकतंत्र का विरोधी है। हिन्दू राज को किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए।’’       -डॉ.भीमराव अम्बेडकर
    प्रेमचन्द और डॉ. भीमराव अम्बेडकर की उपरोक्त बातें इस समय हमारे देश में चरितार्थ हो रही हैं। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ अपने राजनैतिक संगठन भाजपा के माध्यम से 2014 में केन्द्रीय सत्ता पर कब्जेदारी करके ‘‘राष्ट्रवाद’’ ‘‘धार्मिक उन्माद’’ व ‘‘हिन्दू राष्ट्र’’ के नाम पर समाज व देश में कलह व विघटनकारी गतिविधि को बढ़ावा दे रहा है। उसने उत्तर-प्रदेश जैसे महत्वपूर्ण राज्य में एक मठ के महंत को सत्ता सौंप कर अपने फॉसीवादी मंशा को जाहिर कर दिया है। गुजरात में 2000 से ऊपर मुस्लिमों के नरसंहार के मामले में संदेह के दायरे में आए नरेन्द्र मोदी का प्रधानमंत्री बनना और हमेशा मुस्लिम विरोधी उग्र-विचार रखने वाले और हिन्दू युवा वाहिनी जैसी निजी गुण्डा वाहिनी के संचालक योगी आदित्यनाथ का उत्तर-प्रदेश का मुख्य मंत्री बनना भारतीय ‘‘संवैधानिक लोकतंत्र’’ के फासीवाद में नग्न रूपान्तरण का परिचायक है।

                                                                 फासीवाद 

    जब इटली में मुसोलिनी और जर्मनी में हिटलर की सत्ता आई थी तो विश्व फॉसीवाद के सबसे चरम रूप का साक्षी बना था। उस समय विश्व मानवता के सामने  इतिहास के सबसे संकटकारी युद्ध का खतरा मंडराने लगा था। तब फॉसीवाद के खिलाफ मोर्चे बनाए गए थे। इस प्रकार अब तक फॉसीवाद की जो समझ बनी है उसके अनुसार ’’फासीवाद वित्तीय पूँजी के सबसे ज्यादा प्रतिक्रियावादी, सबसे ज्यादा अंधराष्ट्रवादी और सबसे ज्यादा साम्राज्यवादी तत्वों का खुला आतंककारी शासन होता है।’’
    ’फासीवाद‘ और ‘पूँजीवादी जनवाद’ वित्तीय पूँजी द्वारा शासन के दो रूप हैं। जब पूँजीवादी राज्य के विस्तार करने का कुछ हद तक संभावना रहती है तब वह शासन के थोड़ा उदारवादी रूप पूँजीवादी जनवाद का इस्तेमाल करता है। परंतु जब वित्तीय संकट गहरा जाता है और इसके फलस्वरूप जनता भी आन्दोलन के लिए आगे आने लगती है, तब वह नग्न आतंकी रूप फासीवाद का इस्तेमाल करता है क्योकि मजदूर वर्ग और जनवादी अधिकार आंदोलनों को कुचलने के लिए उदार पूँजीवादी-जनवादी शासन अपर्याप्त हो जाता है।
    फासीवाद जिस भी देश में आएगा उस देश की अपनी विशिष्टता को लिए होगा। परंतु उसका सामान्य चरित्र ‘‘उग्र-अंधराष्ट्रवादी’’ और ‘‘धार्मिक अल्पसंख्यक वर्ग’’ अथवा ‘‘भाषाई, आदिम समुदाय अथवा भारत जैसे देश में उत्पीड़ित जातियों’’ जैसे तबकों के खिलाफ उन्माद फैलाने का रहता है।

                                                                          पृष्ठभूमि

    प्रथम विश्व युद्ध के बाद सोवियत संघ में समाजवादी मजदूर क्रान्ति की सफलता के बाद और जर्मनी में क्रान्ति की असफलता के चलते वार्सा संधि से उपजी विश्व परिस्थिति ने फासीवाद के माहौल को तैयार किया था। विश्व में आर्थिक असमानता 1913 में अपने चरम पर पहुँच चुका था। इटली, जर्मनी, जापान में बढ़ रहे वित्त पूँजी को रियायत देने से ब्रिटिश, अमरीकी, फ्रांसीसी साम्राज्यवादियों ने इन्कार कर दिया था। नतीजतन ‘‘उग्र राष्ट्रवाद’’ की भावना भड़काकर मुसोलिनी और हिटलर के नेतृत्व में फासीवाद का दानव उत्पन्न हुआ। इसने विश्व के ऊपर मानव इतिहास के सबसे प्रलंयकारी युद्ध को थोप दिया था। इसने दमन के बर्बर रूपों को भी मात दिया और जर्मनी में यहूदियों की 60 लाख आबादी को गैस चैम्बरों में मार दिया था। इस युद्ध में लोगों ने अपने ही जैसे 5 करोड़ लोगों की हत्या कर दी थी। अमरीका ने नागासाकी-हिरोशिमा में परमाणु बम का पहली बार परीक्षण करके दो लाख लोगों को मिनटों में जला दिया था और अपने दादागीरी को दुनिया में स्थापित किया था। स्टालिन के नेतृत्व में सोवियत संघ की जनता ने अपने दो करोड़ लोगों की आहुति देकर दुनिया को इस दानव से मुक्ति दिलाई थी। उस समय विश्व भर में फासीवाद के खिलाफ कम्युनिस्टों-समाजवादियों-जनवाद पसंद लोगों और राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलनों के बीच साझा मोर्चा बना था जो सफल हुआ था।
    उसके बाद विश्व भर में सोवियत समाजवादी संघ के विकास पथ पर बढ़ते कदम ने विश्व पूँजीवादी-साम्राज्यवाद के सामने गंभीर चुनौती पेश किया था और शक्ति-संतुलन को जनता के पक्ष में मोड़ दिया था। इसी समय सोवियत संघ के खुलेआम समर्थन, कमजोर होते औपनिवेशिक शक्तियों और गुलाम देशों में मजदूर व मुक्ति आंदोलनों की मजबूती ने भी अमरीकी नीत पूँजीवादी-साम्राज्यवाद के समक्ष चुनौती पेश किया था और वर्ग-शक्ति संतुलन को जनता के पक्ष में रखा था। इसी दौर में यूरोप व जापान की विश्वयुद्ध में हुई तबाही ने भी उनके समक्ष पुनर्निर्माण का कार्यभार रखा था। इन तीनों कारकों ने मिलकर उस समय समाजवाद व ‘जनकल्याणकारी’ राज्य का विकल्प खड़ा किया। नतीजतन 1960 तक विश्व में आर्थिक असमानता कम होता रहा। परंतु 1960 के बाद विश्व में पुनः वित्तीय संकट आने लगा। सोवियत रूस सामाजिक साम्राज्यवाद में पतित होने लगा था। समाजवादी खेमे ने चीन के नेतृत्व में 70 के दशक के मध्य तक संघर्ष किया था। वियतनाम ने अमरीका को परास्त करके उसके साम्राज्यवाद को तगड़ा झटका दिया था। 1973 में डालर का स्वर्ण मानक से अलग होना संकटों के दौर का चरम था। उसके बाद विश्व पूँजीवाद संकटों के चक्र में फँसता गया। राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन अभी भी चुनौती थे। परंतु समाजवादी खेमे के खात्मे के बाद ये कमजोर होते गए थे और 1990 तक आते-आते विश्व भर में वर्ग शक्ति संतुलन जनता के पक्ष में कमजोर हो गया था। ऐसी स्थिति में विश्व व्यवस्था ने जन-विरोधी, मजदूर-विरोधी, किसान-विरोधी, राष्ट्र मुक्ति-विरोधी नीतियों को ‘‘उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण’’ के नारे के साथ आम जनता व उत्पीड़ित राष्ट्रों पर थोप दिया था। परंतु इसके बाद भी वित्त पूँजी का संकट और विश्वभर में आर्थिक असमानता बढ़ता ही गया और 2008 में अमरीका में ‘सब प्राइम’ संकट के नाम से प्रस्फुटित आर्थिक संकट ने 1929 के संकट की गहनता से भी भयावह रूप ले लिया। इस संकट ने विश्व व्यापी वित्तीय संकट को जन्म दिया है। वैश्विक स्तर पर आर्थिक असमानता पुनः 1913 के स्तर पर आ गया है। दुनिया भर की 71 प्रतिशत आबादी के पास दुनिया की संपदा का मात्र 3 प्रतिशत हिस्सा है। जबकि दुनिया की आधी संपत्ति पर ऊपरी 1 प्रतिशत लोगां का कब्जा है।                                                                                                                    

 हमारे देश की परिस्थिति


    भारतीय पूँजीपति वर्ग अपने जन्म से ही साम्राज्यवाद पर निर्भर रहा है। साम्राज्यवाद की छींक से इसे बुखार आने लगता है। इसलिए समाजवाद के छलावे के नाम पर भारत के सामंतों, बड़े पूँजीपतियों और साम्राज्यवादियों के हित में खड़ी व्यवस्था ने लगातार जनता के श्रम, संपदा को उनके हितों में लगाया है। साम्राज्यवादियों व देशी बड़े पूँजीपतियों (अंबानी, अडानी, टाटा, बिड़ला जैसों) की बढ़ती पिपासु वित्तीय पंँजी की हवस के लिए निजीकरण, उदारीकरण, वैश्वीकरण के नाम पर नई आर्थिक नीति को लागू किया गया। वित्त पूँजी की हवस को ही शांत करने हेतु ‘नोटबंदी’ और ‘जीएसटी’ जैसा कदम उठाया गया ताकि पूँजी का और ज्यादा एकत्रीकरण दैत्याकार कंपनियों के हाथ में हो सके। इन कदमों ने संकट को घटाने की जगह और बढ़ा दिया है। देश में आर्थिक असमानता भयंकर रूप से बढ़ता जा रहा है। नवम्बर, 2016 में भारत दुनिया के सबसे ज्यादा असमानता वाले देशों में रूस के बाद दूसरे स्थान पर था। आबादी के सबसे धनी 1 प्रतिशत लोगों के पास देश की 58.4 प्रतिशत संपत्ति है। मात्र 57 सबसे धनी लोगों के पास आधी आबादी के बराबर संपत्ति है। इस आर्थिक गैरबराबरी, वित्तीय संकट, वित्तीय घरानों और साम्राज्यवादी देशों की पूँजी कब्जेदारी की भूख ने वर्तमान में वैश्विक व घरेलू फासीवाद के लिए उर्वर जमीन तैयार किया है। इसी पृष्ठभूमि में अमरीका में फासीवादी ट्रम्प का सत्ता में आना, आधुनिक क्रान्ति के प्रथम देश फ्रांस में ली-पेन का उभार सहित सभी पूँजीवादी व साम्राज्यवादी देशों में अंध राष्ट्रवाद का उभार आया है।

                 हमारे देश में फासीवाद की विशिष्टता उसका आधार और उसके हमले के निशाने
 
    2014 से हमारा देश जिस फासीवाद के गिरफ्त में आया है उसका विशिष्ट चरित्र है वर्ण-वर्चस्व वाली ब्राह्मणवादी हिन्दुत्व विचारधारा। जिसका बीज लगभग एक शताब्दी पहले हिन्दू महासभा व राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के रूप में हेडगेवार व सावरकर जैसे लोगों द्वारा बोया गया था। इस विचारधारा में जाति-घृणा आधारित श्रेणीक्रम और धर्म श्रेष्ठता दोनों समाए हुए हैं। सामान्य तौर पर हमारे देश के शासक वर्ग में दलाल प्रवृत्ति वाले बड़े पूँजीपति और सामंती तत्व शामिल हैं। इनके द्वारा ही फासीवादी शासन को लागू किया जाता है। ये दोनों वर्ग मनुवादी दण्ड विधान में विश्वास करने वाले ब्राह्मणवादी जाति व्यवस्था के सवर्ण जातियों से प्रधानतः आते हैं। अतः भारतीय फासीवाद दलाल प्रवृत्ति के बड़े पूँजीपति व सामंती वर्गों के उग्र प्रतिक्रियावादी एवं अन्ध राष्ट्रवादी उच्च जातीय हिन्दू तत्वों की तानाशाही है। इसी कारण हमारे देश के अम्बानी, अडानी, बिरला, अग्रवाल जैसे बड़े पूँजीपतियों ने अपने संसाधनों से प्रतिक्रियावादी मनुवादी हिन्दुत्व के प्रतीक बन चुके मोदी के पक्ष में मीडिया को एकजुट किया है। इसलिए भारतीय फासीवाद को मनुवादी हिन्दुत्व फासीवाद कहना ज्यादा उचित होगा। परंतु हम भारत के इतिहास को 1947 से ही देखें तो पाते हैं कि हमारे देश में कभी मुकम्मल जनवाद आ ही नहीं पाया। 1947 में सत्ता हस्तान्तरण के द्वारा सत्ता में आयी कांग्रेस पार्टी हमेशा से वर्णवर्चस्ववादी तत्वों के प्रभाव में रही। वह हमेशा उदार हिन्दुत्व की पोषक रही। इसमें मालवीय जैसे कट्टर मनुवादी हिन्दुत्व समर्थक लोग भी शामिल थे जिन्होंने हिन्दू महासभा की सदस्यता भी ले रखी थी। इससे भिन्न हो भी नहीं सकता था क्योंकि जिस वर्ग का प्रतिनिधित्व कांग्रेस करती थी उसका निर्माण उच्चवर्गीय जातियों से ही हुआ था। जे.डी. बिरला का उदाहरण हमारे सामने है। जिनकी प्रशंसा आरएसएस के बी.एस. मुंजे (जो मार्च, 1931 में मुसोलिनी से मिलने इटली भी गए थे।) किया करते थे क्योंकि वे हिन्दुत्व संगठनों से रिश्ता रखते थे। धर्मनिरपेक्षता व समाजवाद के खोल में पं0 जवाहरलाल नेहरू का चरित्र भी साफ था। उन्होंने तेलंगाना में न केवल क्रान्तिकारी किसान आन्दोलन को कुचलने में पटेल का साथ दिया था, बल्कि उसी समय हैदराबाद और जम्मू में भी सुरक्षा बलों द्वारा मुसलमानों का संहार भी उन्हीं की सरकार की नाक के नीचे हुआ। भारतीय राज्य शुरू से ही कश्मीर, पूर्वात्तर एवं क्रान्तिकारी आन्दोलन के लिए फासीवादी आतंक का सहारा लेता रहा है। कांग्रेस पार्टी की भूमिका आरएसएस को केन्द्रीय सत्ता तक पहुँचाने में महत्वपूर्ण रही है। चाहे गांधी की हत्या के बाद हिन्दुत्ववादी शक्तियों पर रोक लगाने का मामला रहा हो, चाहे बाबरी मस्जिद में राम की मूर्ति स्थापना (1949), बाबरी मस्जिद का ताला खोलना (1986) व बाबरी मस्जिद का विध्वंस (1992) रहा हो सबमें कांग्रेस की भूमिका हिन्दुत्ववादी शक्तियों के प्रति बढ़ावा देने का ही रहा था। मुस्लिमों के खिलाफ साम्प्रदायिक दंगों में सुरक्षा बलों के हमले, दलित जातियों के ऊपर सामंती निजी सेनाओं के हमले (रणवीर सेना, सन लाइट सेना इत्यादि), आदिवासियों पर सुरक्षा बलों एवं सलवा जुडूम, सेण्ड्रा इत्यादि का हमला या नईमुद्दीन गिरोहां जैसों के हमले के मामले में भी कांग्रेस के हाथ हमेशा खून से रंगे रहे हैं। 1975 में इन्दिरा गांधी द्वारा आपातकाल लगाकर विपक्ष क्रान्तिकारी व जनान्दोलनों पर दमन और मौलिक अधिकारों का निलम्बन करना फासीवाद से कम नहीं था। भारतीय समाज का ग्रामीण हिस्सा 1947 के बाद भी मनुवादी विधान वाले जाति व्यवस्था से ही संचालित होता रहा था। डॉ. भीमराव अम्बेडकर के प्रयास के बावजूद कांग्रेस व नेहरू ने हिन्दूकोड बिल पास नहीं होने दिया जो भारत में एक समान नागरिक संहिता के लिए पृष्ठभूमि तैयार करता। इसलिए ग्रामीण क्षेत्रों, दलित/दमित जातियों, महिलाओं, आदिम जातियों, कश्मीर, पूर्वोत्तर राज्यों तथा मजदूर-किसानों के क्रान्तिकारी संघर्षों के दमन के मामले में भारतीय राज्य 1947 के बाद से ही फासीवादी बना हुआ है। शहरी आबादी, बुद्धिजीवी तबकों इत्यादि के लिए सीमित मात्रा में मिले जनवादी अधिकारों को भी विविध सरकारें मीसा, टाडा, पोटा अफ्स्पा, यूएपीए तथा जन सुरक्षा अधिनियम जैसे फासीवादी कानूनों के माध्यम से छीनती व प्रतिबंधित करती रही हैं। इनमें संसदीय वाम पार्टियों तथा मध्यमार्गी पार्टियों की सरकारें भी शामिल रहीं हैं। संसदीय कम्युनिस्ट पार्टियों ने अपनी समझौतापरस्त नीतियों के कारण हिन्दुत्व फासीवादियों के लिए जमीन उर्वर किया है। इस पृष्ठभूमि में भारतीय शासकों की सबसे वफादार राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की पार्टी भाजपा मोदी के नेतृत्व में सत्ता में आई है। यह संकटग्रस्त बड़े पूँजीपतियों व भू-स्वामियों की तीव्र गति से सेवा आम जनता की आजीविका को छीनते हुए कर रही है और जनता  का ध्यान बँटाने के लिए  ‘‘उग्र राष्ट्रवाद’’ ‘‘हिन्दू राष्ट्र’’ ‘‘गौ रक्षा’’ वन्देमातरम्’’ ‘‘राष्ट्रगीत’’ ‘‘मुस्लिम-विरोध’’ इत्यादि के रूप में जहरीले विचारों का सहारा ले रही है। 2014 में नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने और 2017 में योगी की ताजपोशी ने अल्पसंख्यकों विशेषकर मुसलमानों में असुरक्षा की भावना को बढ़ा दिया है। गोरक्षा के नाम पर व गोमांस के नाम पर अखलाक, पहलू खाँ, जुनैद और हाल ही में अलवर में एक और मुस्लिम की हत्या इस स्थिति को बताने के लिए पर्याप्त है कि फासीवादी हिन्दुत्व गैंगों को केन्द्र व राज्य सरकारों द्वारा अलिखित सहमति दे दी गई है कि वे किसी भी मुस्लिम को गोमांस, गोरक्षा के नाम पर मार सकते हैं। उत्तर-प्रदेश में योगी ने आते ही जिस प्रकार अवैध बूचड़खानों के नाम पर गुण्डों को हिंसा करने की छूट दे दी उससे न केवल मुसलमानों पर हमले बढ़े बल्कि पशुधन के रूप में आम किसानों का पशु व्यापार बुरी तरह प्रभावित हुआ है। भारतीय इतिहास में एक समय स्वयं गोमांस भक्षण करने वाले, आज लोगों के खाने के मौलिक अधिकार पर हमले कर रहे हैं। इससे सभी अल्पसंख्यक तबकों विशेषकर मुस्लिमों का विश्वास भारतीय राज्य से उठ रहा है। उन्हें भारतीय सुरक्षा के लिए खतरे के रूप में संघी एजेन्सियाँ पेश कर रही हैं और पूरे देश में मुस्लिम युवाओं को ‘‘आतंकवाद’’ के नाम पर जेलों में डाला जा रहा है अथवा फर्जी इन्काउन्टर में मार दिया जा रहा है। इस प्रकार लगभग 20 करोड़ आबादी को संदेह के दायरे में लाकर देश के माहौल को विषैला कर दिया गया है।
    मुस्लिमों के बाद हिन्दुत्व फासीवादियों के निशाने पर दलित/दमित जातियाँ हैं। मद्रास में अम्बेडकर-पेरियार स्टडी सर्किल पर रोक, हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय में अम्बेडकर छात्रसंघ के छात्रों को निलंबित कर रोहित वेमुला जैसे मेधावी व संवेदनशील छात्र को आत्महत्या के लिए बाध्य करना, गुजरात के ऊना में गौहत्या के नाम पर दलितों पर हमला, सहारनपुर में दलित बस्ती पर राजपूत परिवारों द्वारा हमला और  अभी हाल में बलिया के श्रीनगर गाँव में अद्भुत बाबा के स्थान पर दलित नौजवानों के चढ़ने-बैठने के कारण पूरे दलित बस्ती पर तलवार, लाठी, बैटों से हमला इत्यादि तो मात्र कुछ घटनाएँ हैं जो प्रकाश में आ पाती हैं। दलित लड़कों द्वारा सवर्ण/उच्च वर्गीय लड़कियों से प्रेम के कारण कई दलित परिवारों/लड़कों की ‘‘ऑनर किलिंग’’ तो पहले से भी होती रही हैं। उत्तर-प्रदेश में एक महंत की ताजपोशी होते ही उसका राजपूत गौरव जाग गया और मीडिया द्वारा पूरे देश को बताया जाने लगा था कि वे राजपूत जाति के हैं। इससे यह समझना मुश्किल नहीं है कि संघियों के हिन्दू राष्ट्र के क्या मायने हैं। मोदी के संविधान व अम्बेडकर की दुहाई के बावजूद मोहन भागवत का संविधान को भारतीय संस्कृति के अनुकूल बनाने की बात करने के गंभीर निहितार्थ हैं। इनकी नजर में भारतीय संस्कृति के मायने जाति-भेद के
आधार पर सत्ता व गाँवों के संचालन से ही है। जहाँ एकलव्य से अँगूठा माँगा जाएगा और शम्बूक की हत्या की जाएगी। मोदी-योगी के नेतृत्व में संघी शासन के दमन से दलित समुदाय उद्वेलित है।

-राजेश
मोबाइल : 09889231937
लोकसंघर्ष पत्रिका मार्च 2018 विशेषांक में प्रकाशित 

1 टिप्पणी:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (03-04-2017) को "उड़ता गर्द-गुबार" (चर्चा अंक-2929) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

Share |