रविवार, 1 अप्रैल 2018

गद्दार केंचुल बदल रहे हैं

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ  ने शहीद राजगुरु को अपना संघी  बता दिया है। एक संघ प्रचारक नरेंद्र सहगल की किताब में इस बात का दावा किया गया है। नरेंद्र सहगल हरियाणा में विद्यार्थी परिषद  के संगठन मंत्री रहे हैं। दरअसल नरेंद्र सहगल की किताब ‘भारतवर्ष की सर्वांग स्वतंत्रता’ में लिखा गया है कि ‘सरदार भगत सिंह और राजगुरु ने अंग्रेज अफसर सांडर्स को लाहौर की मालरोड पर गोलियों से उड़ा दिया। फिर दोनों लाहौर से निकल गए। राजगुरु नागपुर आकर डॉ. हेडगेवार से मिले। राजगुरु संघ के स्वयंसेवक थे’।
सहगल की किताब में दावा किया गया है कि राजगुरु संघ की मोहित बोड़े शाखा के स्वयंसेवक थे। सहगल की लिखी किताब के अनुसार नागपुर के भोंसले वेदशाला के छात्र रहते हुए राजगुरु, संघ संस्थापक हेडगेवार के बेहद करीबी रहे। किताब में यह भी दावा किया गया है कि सुभाष चंद्र बोस भी संघ से काफी प्रभावित थे। एक खास बात यह भी है कि किताब ‘भारतवर्ष की सर्वांग स्वतंत्रता’ की भूमिका संघ प्रमुख मोहन भागवत ने लिखी है। भागवत ने लिखा है कि स्वतंत्रता संग्राम में संघ की भूमिका पर सवाल उठाने वाले लोगों को  यह किताब उचित जवाब देगी।
 राजगुरु को संघ का संघी  बताने के अलावा इस किताब में हेडगेवार का भी जमकर महिमामंडन किया गया है। हेडगेवार के बारे में लिखा गया है कि हेडगेवार ने 26 जनवरी 1930 को देश के हर प्रांत में स्वतंत्रता दिवस मनाने वाले नेहरु के आदेश पर खुशी जताते हुए पूरे देश में, खासकर संघ की शाखाओं में आजादी का दिन मनाने का निर्देश दिया था।किताब के मुताबिक महात्मा गांधी के सत्याग्रह में स्वयंसेवक ने बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया था और खुद हेडगेवार ने भी सत्याग्रह किया था।
वैसे यह किताब झूठ का पुलिंदा है और कोई भी तथ्य ऐतिहासिक नहीं  है क्योंकि संघियों की स्वतंत्रता आंदोलन में कोई  भूमिका नहीं रही है। अब संघ  इस किताब को इन सारे सवालों का जवाब बता रही है। हालांकि इधर शहीद राजगुरु को संघ का संघी  बताने पर लोग अब ट्विटर पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के खिलाफ मजे ले रहे हैं। एक यूजर ने लिखा कि अभी वो लोग कह रहे हैं कि राजगुरु स्वयंसेवक थे बाद में यह लोग कहेंगे कि भगत सिंह लाहौर शाखा में शाखा प्रमुख थे।
इन तथ्यों के विपरीत वाराणसी में विद्याध्ययन करते हुए राजगुरु का सम्पर्क अनेक क्रान्तिकारियों से हुआ। चन्द्रशेखर आजाद से इतने अधिक प्रभावित हुए कि उनकी पार्टी हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी से तत्काल जुड़ गये। आजाद की पार्टी के अन्दर इन्हें रघुनाथ के छद्म-नाम से जाना जाता था; राजगुरु के नाम से नहीं। पण्डित चन्द्रशेखर आज़ाद, सरदार भगत सिंह और यतीन्द्रनाथ दास आदि क्रान्तिकारी इनके अभिन्न मित्र थे। राजगुरु एक अच्छे निशानेबाज भी थे। साण्डर्स का वध करने में इन्होंने भगत सिंह तथा सुखदेव का पूरा साथ दिया था जबकि चन्द्रशेखर आज़ाद ने छाया की भाँति इन तीनों को सामरिक सुरक्षा प्रदान की थी।
23 मार्च 1931 को इन्होंने भगत सिंह तथा सुखदेव के साथ लाहौर सेण्ट्रल जेल में फाँसी के तख्ते पर झूल कर अपने नाम को हिन्दुस्तान के अमर शहीदों की सूची में अहमियत के साथ दर्ज करा दिया।
                         जबकि ऐतिहासिक तथ्य यह है कि 30 जनवरी 1930 को रावी नदी के तट पर जवाहर लाल नेहरु ने तिरंगा ध्वज फेहराया था और जिसका समर्थन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने नही किया था. 
                हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन ऐसोसिएशन का उद्देश्य व अन्तिम लक्ष्य स्वाधीनता प्राप्त करना और समाजवादी राज्य की स्थापना था। दल की ओर से बम का दर्शन नाम से प्रकाशित एक लघु पुस्तिका में क्रान्तिकारी आन्दोलन की समस्या के बारे में अपने विचार खुलकर प्रकट किये गये थे.
                संघ ऐतिहासिक तथ्यों के विपरीत कितना भी झूंठ प्रकशित करे लेकिन उसकी 'गद्दारी और मुखबिरी का इतिहास' इतिहास के पन्ने जब भी कोई खोलेगा तो वह अक्षर सबसे पहले दिखाई देंगे.  अगर राजगुरु संघ की शाखा के थे तो क्या संघ समाजवादी दर्शन के लिए काम कर रहा था. जिस तरह से सांप नई उर्जा प्राप्त करने के लिए अपनी केंचुल बदलता है उसी तरह संघी अपनी गद्दारी का इतिहास बदलने के लिए देश के महान क्रांतिकारियों को संघी बताने के लिए बेताब नजर आ रहे हैं. दूसरी तरफ अगर हेड़गेवारकर गाँधी के अनुयायी थे तो गाँधी की हत्या करने वाले नाथूराम गोडसे का प्रचार प्रसार संघी क्यूँ करते हैं.
             भविष्य में गद्दारों को अपनी गद्दारी छिपाने के लिए जरुरत पड़ी तो काल मार्क्स को महर्षि कार्ल मार्क्स लिख कर हिंदुवत्व की परंपरा का महर्षि घोषित कर सकते हैं. वैसे कार्ल मार्क्स पूरी दुनिया मजदूर और किसान, शोषित-पीड़ित जनता के लिए महर्षि हैं.

रणधीर सिंह सुमन 

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