लो क सं घ र्ष !

लोकसंघर्ष पत्रिका

गुरुवार, 30 अप्रैल 2020

एक मई- मेहनतकश लोगों का दिवस -गिरीश पंकज

 
 IMG-20181016-WA0023 (1)FB_IMG_1588262548574
 
 
 
दुनिया की कुछ साम्राज्यवादी ताकतें मनुष्य को मनुष्य न समझ कर रोबोट समझने लगी हैं। शोषण की एक मशीन। और यह फितरत हाईटेक समय की नहीं है । बहुत प्राचीन काल से चली आ रही है । शोषण की मानसिकता के विरुद्ध मजदूरों ने वर्षों तक संघर्ष किया। सन 1871  को फ्रांस के मजदूरों ने  इस माँग को लेकर पहली बार हड़ताल की कि उनके काम के घंटे तय किए जाएं, और यह अवधि 8 घंटे की हो। भारत में पहला आंदोलन सन 1877 में नागपुर की एक सूती मिल में  हुआ था और निरन्तर गतिशील रहा। यहां भी उद्देश्य वही था कि मजदूरों के काम के घंटे तय होने चाहिए ।  कारखानों में काम करने वाले मजदूर बारह घंटे तक बैल की तरह जोते जाते थे। आखिर शोषण को सहने की भी एक सीमा होती है। इसी का प्रतिरोध करने के लिए  सन 1886 में लाखों मजदूर शिकागो में एकत्र हो गए और उन्होंने अपने शोषण के विरुद्ध आवाज उठाई। नतीजा  पीटा गया। उन्हें गोलियों से छलनी किया गया। आंदोलन को नष्ट करने के लिए पुलिस का दमन चक्र चला। इसमें कुछ मजदूर मारे गए ।हालांकि  हिंसा की लपेट में कुछ पुलिसकर्मी भी आए। उनकी भी मृत्यु हुई।  उसका नतीजा यह हुआ कि चार मजदूरों को सबके सामने फांसी पर लटका दिया गया। पूरी दुनिया में इस आंदोलन की अनुगूंज रही। और उसका सुपरिणाम यह हुआ कि दो साल बाद 1888 में फ्रांस में अंतर्राष्ट्रीय महासभा में यह प्रस्ताव पारित किया गया कि मजदूरों के लिए काम के आठ घंटे तय किए जाएं और उन्हें एक दिन का अवकाश  भी प्रदान किया जाए।  यह प्रस्ताव जिस दिन पारित हुआ वह 1 मई का दिन था इसीलिए इस दिन को अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस के रूप में बनाने का सिलसिला शुरू हुआ। भारत में वर्षों बाद 1 मई 1923 को भारतीय मजदूर किसान पार्टी के नेता सिंगरावेलू चेत्यार के नेतृत्व में चेन्नई में मजदूर दिवस मनाया गया। मद्रास हाईकोर्ट के सामने जबरदस्त प्रदर्शन हुआ।  अब तो पूरी दुनिया में मजदूर दिवस मनाया जाता है। यह सत्य है कि पहले के बनस्पति मजदूरों को तरह-तरह की बेहतर सुविधाएं भी मुहैया कराई गई है । लेकिन समय समय पर इसमें कटौती का सिलसिला भी जारी रहता है। भारत सहित दुनिया के देशों में श्रम कानून में बने हैं । लेकिन त्रासदी यही है कि शोषण किसी न किसी रूप में अब तक जारी है। पूंजीवादी मानसिकता आज भी मजदूरों से अधिक से अधिक काम लेने की कोशिश करती है । इसीलिए ओवरटाइम जैसी लुभावन व्यवस्थाएं भी लागू की गई। उसके एवज में भले ही मजदूरों को अतिरिक्त पैसे दिए जाते हैं लेकिन जिसका दुष्परिणाम यह होता है कि उनके स्वास्थ्य पर विपरीत असर पड़ता है। श्रमिक पैसों के लिए काम करने से पीछे नहीं हटता और धीरे-धीरे बीमार पड़ता जाता है।  गांधी जी ऐसे लोगों ने उद्योगपतियों से आग्रह किया था कि वह ट्रस्टीशिप का सिद्धांत अपनाएं और मजदूरों को भी कारोबार में भागीदार करें । बहुत पहले कार्ल मार्क्स  और ऐंगल्स भी इसी दिशा में सोच रहे थे। 1848 में जब कम्युनिस्ट घोषणापत्र तैयार हुआ, तो उसमें मजदूरों  के काम के घंटों का भी जिक्र था, बाल श्रम के निषेध की बात भी थी । बच्चों को निशुल्क शिक्षा देने का भी उल्लेख था।  कार्ल मार्क्स ने अपने समय में न केवल अंतरराष्ट्रीय मजदूर संघ की स्थापना की वरन समय-समय पर मजदूरों के साथ हड़ताल भी की । उन्होंने सरकार और मालिक के बीच सांठगांठ का विरोध भी किया।दुर्भाग्य है के मालिक और सत्ता की सांठगांठ आज भी  अलग अलग रुपों में अब भी बदस्तूर जारी है
मार्क्स का कहना था कि "हमारा काम सबसे पहले यह होगा कि व्यक्तिगत उत्पादन और व्यक्तिगत स्वामित्व को सहयोगी उत्पादन और सहयोगी स्वामित्व में बदलती है यह काम जोर जबस्ती जबरदस्ती से नहीं बल्कि मिसाल पेश करके और इस उद्देश्य के लिए सामाजिक सहायता पहुंचा कर ही होगा ।"  मतलब यह  कि वे चाहते थे कि उत्पादन में मालिक और मजदूरों की भागीदारी हो। लेकिन यह चिंतन एक यूटोपिया बनकर रह गया। जो कभी साकार नहीं हो सका। और शायद  साकार हो भी न ।  हमने महसूस किया है कि मालिक और मजदूर के संबंध कभी भी वैसे मधुर नहीं रहे,जैसे मधुर रहने चाहिए। मालिक आपकी अकड़ में रहता है कि वह मजदूरों का भाग्य विधाता है। जबकि यह उसकी बहुत बड़ी भूल है। मालिकों का भाग्य विधाता तो असल मे मजदूर है। अगर मजदूर काम न करें तो मालिक मालिक ने रहकर बदहाली की स्थिति में पहुंच सकता है। मजदूरों का पसीना और खून जब गिरता है तो पूंजीवाद की फसल  लहलहाती है। मजदूर  का पसीना ही पूंजी के विकास के सहायक होता है। इस सत्य को पूंजीपति अगर समझ जाए तो वह संता समतावादी आचरण करने लगे । बहुत कम ऐसे मिल मालिक हैं, जो मजदूरों से गहरा आत्मीय व्यवहार करते हैं । ज्यादातर तो पर्याप्त दूरी बनाकर अपने आप को अलग श्रेणी का जीव समझने की गलती कर बैठते हैं। सच्चाई तो यह है कि मजदूर और मालिक दोनों एक दूसरे के पूरक है और दोनों जब मिलकर काम करेंगे तभी राष्ट्र की प्रगति हो सकेगी।  मालिक अपनी पूंजी लगाता है तो मजदूर भी अपनी पूंजी लगाता है। वह पूंजी पैसे की नहीं होती, उसके श्रम की होती है। मेहनत की होती है। पसीने की होती है। और कभी-कभी काम करते हुए जब उसका खून गिरता है, तो वह भी एक तरह की पूंजी है। तो देखा जाए, मजदूर राष्ट्र के निर्माण में मजदूरों की भूमिका अहम है। इसलिए मुझे लगता है कि मजदूरों का केवल एक  दिन नहीं होता, 365 दिन उन्हीं के होते हैं।  उनको एक दिन का अवकाश मिलता है । उस अवकाश के कारण उनके भीतर जो अतिरिक्त ऊर्जा बनती हैं, वह ऊर्जा पूरे छहों दिन लगातार आठ  घंटे काम में वह लगा देता है। उसकी यही मेहनत देश के नवनिर्माण में अपनी भागीदारी दर्ज कराती है। फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की ये पंक्तियाँ मजदूरों के महत्त्व को बहुत सुंदर तरीके से रूपायित करती है कि

हम मेहनतकश जग वालों से जब अपना हिस्‍सा मांगेंगे,
इक खेत नहीं, इक देश नहीं, हम सारी दुनिया मांगेंगे।
यां पर्वत-पर्वत हीरे हैं, यां सागर-सागर मोती हैं,

ये सारा माल हमारा है, हम सारा खजाना मांगेंगे।

वे सेठ, व्यापारी रजवाड़े दस लाख  तो हम हैं दस करोड़
ये कब तक अमेरिका से जीने का सहारा मांगेंगे?

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की वह महान रचना भी हम कैसे भूल सकते हैं, जो उन्होंने पत्थर तोड़ती महिलाओं को देखकर लिखा था,
वह तोड़ती पत्थर।
देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर।
मजदूरों की वेदना को स्वर देने के लिए मैंने भी कभी लिखा था,
जिसकी ढपली उसका राग
चीख रहे हैं काले काग
मुफ्त खोर तो मस्ती में  हैं
श्रमवीरों के फूटे भाग।
बदलो बदलो यह मंज़र
उठो चलो अब फूँको आग।

मजदूर अपने-अपने देशों में काम कर रहे होते हैं लेकिन अंततः आवेश पूरी दुनिया को महक आने का काम करते हैं इसीलिए यह नारा दिया गया कि दुनिया के मजदूरों  एक हों। मजदूर चाहे भारत का हो,  फ्रांस का हो, चीन का हो या अमेरिका का, उस देश के निर्माण में अपना खून पसीना बहाता है, तब कहीं जाकर वह राष्ट्र तरक्की करता है। लेकिन जब कभी निर्मम व्यवस्था मजदूरों का शोषण करने पर आमादा होती है,तब बगावत होती है और इंकलाब के नारे लगते हैं, "दुनिया के मजदूरों एक हो" का स्वर बुलंद होता है । तब दमनकारी सत्ताएँ मजदूरों को तोड़ने के लिए उन पर कभी-कभी लाठियां और कभी-कभी गोलियों का प्रहार भी करती है ।आजादी के बाद न जाने कितने दुखद हादसे हम सब ने देखे है।

कम नहीं हो रहे अत्याचार

मजदूरों के शोषण का सिलसिला कम नहीं हो रहा है ।भले ही उनके पक्ष में कानून बने हुए हैं।श्रम कानूनों की व्यवस्था है ।बाल श्रम अधिनियम भी बना है । बंधुआ मजदूर अधिनियम लागू हो चुका है लेकिन शोषण बदस्तूर जारी है। बाल श्रम आज भी हो रहा है। देश में लाखों बंधुआ मजदूर भी कार्यरत हैं ।श्रम कानूनों की कदम कदम पर धज्जियां उड़ाई जाती है।  मैं  लंबे समय तक पत्रकारिता में रहा। रायपुर श्रमजीवी पत्रकार संघ का मैं दो बार अध्यक्ष रहा और एक बार मध्य प्रदेश श्रमजीवी पत्रकार संघ का महामंत्री भी । उस दौरान मैंने पत्रकारों को बेहतर सुविधाएं और श्रम कानून का पालन करवाने के लिए अनेक आंदोलन किए। लेकिन मैंने महसूस किया कि प्रेस मालिक इतने शातिर है कि  सुधरते नहीं । समय-समय पर जो वेतनमान लागू होते हैं, उनका अनुपालन भी ठीक से नहीं होता । और अब तो दूसरी कंपनियों की तरह पत्रकारिता में भी ठेकेदारी प्रथा लागू हो गई है। कुछ पत्रकार स्थाई नौकरी पर रहते हैं। बाकी ठेके पर ही नियुक्त किए जाते हैं। वहां पर श्रम कानूनों का उल्लंघन साफ नजर आता है।  मीडिया के क्षेत्र में आठ घंटे के बजाय बारह घंटे काम लिया जाता है। अनेक प्राइवेट कंपनियों में काम करने वाले युवा असमय बीमार पड़ रहे हैं । बारह बारह घंटे उनसे काम लिया जाता है। श्रम दिवस की शुरुआत इसी उद्देश्य की गई  थी कि मजदूरों का शोषण खत्म हो और उनसे आठ घंटे से ज्यादा काम न लिया जाए।
मजदूरों पर अत्याचार के इतने अधिक मामले हैं कि उन पर आप सैकड़ों पृष्ठ रंग सकते हैं। इस महादेश कोने कोने में फैले मजदूरों के अत्याचारों की कहानी समय-समय पर सामने आती रहती है। हरियाणा में मारुति सुजुकी में कार्यरत मजदूरों के साथ जो अत्याचार 2012 में हुआ, उसे भला कौन हो सकता है। मजदूरों ने अपने शोषण के खिलाफ आंदोलन किया, तो स्थिति इतनी भयावह हुई खूनी संघर्ष की नौबत आ गई। पुलिस गोली चालन कुछ मजदूरों की हत्या हुई और कुछ मजदूरों पर हत्या का मामला भी दर्ज किया गया, क्योंकि कंपनी के एक मैनेजर की हत्या हो गई थी। ठेका प्रथा खत्म करने की मांग को लेकर 2011 से मजदूर आंदोलन कर रहे थे लेकिन प्रबंधन ने बड़ी चालाकी के साथ मजदूरों को हिंसा के लिए उकसा दिया। आज भी अनेक मजदूर जेलों में बंद हैं, उन्हें जमानत भी नहीं मिली। तमिलनाडु के त्रिपुर में छह हजार से अधिक कारखाने हैं ,जहां चार लाख से ज्यादा मजदूर काम करते हैं। वहां भी अक्सर आंदोलन होते रहते हैं क्योंकि श्रम कानूनों का ठीक से पालन नहीं होता । देश में चाय बागान, कोयला खदानें, अन्य खदानें, जूते की फैक्ट्री, ईट भट्टे, बीड़ी  कारखाने  आदि ऐसे न जाने कितने उपक्रम है, जहाँ लाखों लोग काम कर रहे हैं। लेकिन उनके काम करने की बेहतर स्थिति नहीं है । लाखों बंधुआ मजदूर देशभर में काम कर रहे हैं। दिल्ली और उसके आसपास यानी एनसीआर में भी लगभग दस लाख मजदूर निर्माण कार्यों में लगे हुए हैं।  ये मजदूर बिहार , छत्तीसगढ़ झारखंड और मध्य प्रदेश से जाकर वहां काम करते हैं । इन मजदूरों से बारह बारह घण्टे काम लिया जाता है, लेकिन उनके रहने की  समुचित व्यवस्था नहीं की जाती। उन्हें ढंग से मजदूरी भी नहीं मिलती।
समय समय पर मजदूरों के उन्नयन हेतु मजदूर संगठन एकजुट हो कर सम्मेलन करते हैं। प्रस्ताव पारित करते हैं, लेकिन सरकार उस पर गम्भीर नज़र नहीं आती। सरकार किसी भी राजनीतिक दल की हो, वह अंततः मालिकों के पक्ष में नज़र आती है। यहां तक कि न्याय व्यवस्था भी कई बार अन्याय कर देती है। मजदूर विरोधी  संहिताएं लागू हैं। आज भी शर्म कानून असंगठित मजदूरों पर लागू नहीं हो सके हैं।  ठेका प्रथा  खत्म होना चाहिए।मंदी की आड़ में छंटनी की प्रवृत्ति पर रोक लगे। असंगठित क्षेत्र में कार्यरत मज़दूरों को सामाजिक सुरक्षा मिले। मनरेगा में जो मजदूर कार्यरत रहते हैं, उनके कल्याण की दिशा में ईमानदारी से कार्य हो। फ़र्ज़ी मस्टररोल की शिकायतें भी मिलती रहती हैं।
। अब  न्यूनतम मजदूरी कम से कम ₹ पच्चीस  हजार होनी चाहिए और न्यूनतम  पेंशन पंद्रह हजार रुपये से  कम नहीं होनी चाहिए। और अभी जिस तरह से निजीकरण की मानसिकता पनप रही है, उसे बंद करना चाहिए। रेलवे और बीएसएनल को धीरे-धीरे निजी हाथों में सौंपने की सरकार की मानसिकता यह बता रही है कि सरकार भी धीरे-धीरे नवउदारवाद के चक्कर में पड़ कर एक तरह से नए  पूंजीवादी सामंत विकसित करने की दिशा में बढ़ रही है। कार्ल मार्क्स की यही पीड़ा थी कि पूंजीवादी व्यवस्था ने लोगों को जीने के लिए अपना श्रम बेचने पर मजबूर कर दिया है। 
कुल मिलाकर इतना सब कहने का मतलब यही है  कि मजदूर दिवस पर  मजदूरों की समस्याओं पर  हम विमर्श तो करते हैं, सरकार भी उनके हित में घोषणाएं करती है  लेकिन वे सब कागजों में ही सिमट कर दम तोड़ देती है।  व्यवहार में उतारने के लिए क्या मजदूर  आंदोलन करता है, तो फिर उसका दमन करने के लिए व्यवस्था पुलिस का सहारा लेती है। नतीजा कहीं लाठियां चलती है, कहीं गोलियां। और आंदोलनरत  मजदूर  टूट जाता है।फिर  मजदूर संगठन  अन्याय  के विरुद्ध न्यायिक जांच की मांग करते हैं। और देखते ही देखते हैं  मुख्य मुद्दा दूसरी ओर चला जाता है । उम्मीद की जा सकती है कि समतावादी  दुनिया में  मजदूरों को भी  सम्मान के साथ जीने का अवसर मिलेगा।  भले ही  मालिक  उसे अपना पार्टनर न बनाए, पर जो बुनियादी सुविधाएं हैं,  कम से कम वे तो उपलब्ध कराए।  आठ घण्टे से ज़्यादा काम न ले। अगर वह इतना भी नहीं करेगा  तो स्वाभाविक है  कि आंदोलन होगा  और मजदूर  नारे लगाएंगे  इंकलाब जिंदाबाद और दुनिया के मजदूरों एक हों।  





प्रस्तुतकर्ता Randhir Singh Suman पर 10:47 pm
इसे ईमेल करेंइसे ब्लॉग करें! X पर शेयर करेंFacebook पर शेयर करेंPinterest पर शेयर करें

2 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

मजदूर दिवस को सार्थक करती सुन्दर प्रस्तुति।

1 मई 2020 को 12:43 pm बजे
डॉ. जेन्नी शबनम ने कहा…

बहुत सशक्त और विचारपूर्ण आलेख. यह एक बड़ा सत्य है कि मजदूरों का पसीना और खून जब गिरता है तो पूंजीवाद की फसल लहलहाती है। ढेरों आन्दोलन हुए और होते हैं परन्तु पूंजीवादी व्यवस्था और भी मज़बूत होती जा रही है.

2 मई 2020 को 7:30 pm बजे

एक टिप्पणी भेजें

नई पोस्ट पुरानी पोस्ट मुख्यपृष्ठ
सदस्यता लें टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
Share |

यह ब्लॉग खोजें

लोकसंघर्ष पत्रिका के मुख्य सलाहाकार मोहम्मद शुऐब

लोकसंघर्ष पत्रिका के मुख्य सलाहाकार मोहम्मद शुऐब

फ़ॉलोअर

Loksangharsha on

  • network blogs
  • twitter
  • wordpress

कॉपीराईट मुक्त

लोकसंघर्ष
ब्लॉग में प्रकाशित सामग्री को आप बिना किसी अनुमति के प्रकाशित कर सकतें हैं।
-मोहम्मद शुऐब एडवोकेट

लोकसंघर्ष के नए लेख अब ई- डाक पर

Enter your email address:

Delivered by FeedBurner

Subscribe

TRANSLATE

Read in your own script

Roman(Eng) Gujarati Bangla Oriya Gurmukhi Telugu Tamil Kannada Malayalam Hindi

कृपया इन्हें भी पढ़ें

फैज़ अहमद फैज़ मजाज लखनवी साहिर लुधियानवी राम विलास शर्मा राही मासूम रजा सूर्य कान्त त्रिपाठी 'निराला' नजीर अकबराबादी कैफी आज़मी अली सरदार जाफरी

लोकसंघर्ष मोबाइल पर

लोकसंघर्ष ब्लॉग की हलचल को अपने मोबाइल पर पढने के लिए यहाँ चटका लगायें

हमारे प्रचारक

रफ़्तार Best Indian websites ranking Politics blogs View blog authority Blog Directory Independent Political Blogs - Blog Catalog Blog Directory Literature Blogs jansangharsh blogarama - the blog directory


loksangharsha - Blogged Indli Hindi - India News, Cinema, Cricket, Lifestyle Hindi Blogs from BLOGKUT
we are in
Indiae.in

Politics Blog
indiae.in
we are in
Indiae.in
india's directory
www.hamarivani.com My Zimbio
Top Stories

indi blogger Rank

ISB iDiya for IndiChange - IndiChange Winner

Samwaad

Samwaad
WriteUp Cafe - Together we Write

paperblog loksangharsha

Paperblog
State Your Blog - Blog Top Sites - www.stateyourblog.com

ADDME LINK

Search Engine Submission - AddMe
BlogESfera Directorio de Blogs Hispanos - Agrega tu Blog

हिन्दी ब्लॉग डायरेक्टरी

Install Codes

ब्लॉग सेतु

Bloglovin

Follow my blog with Bloglovin

Translate

BlogVarta

www.blogvarta.com
23 मार्च:शहीदे आजम भगत सिंह
Submit your website to 20 Search Engines - FREE with ineedhits!
Politics Blogs
blog log
Blog Directory
INDIA-BLOGGER
Clicky Web Analytics
लोकसंघर्ष ब्लॉग में प्रकाशित सामग्री को आप बिना किसी अनुमति के प्रकाशित कर सकतें हैं।. वाटरमार्क थीम. Blogger द्वारा संचालित.