कार्ल मार्क्स की 202 वीं जयंती ( 5 मई ) पर-
कोरोना काल में समूचे विश्व और भारत में मेहनतकशों पर बरपी मुसीबतों ने उन्हें सारी दुनियां के ध्यान के केन्द्र में ला दिया है। इसके साथ ही उनकी किस्मत के कायापलट के उद्देश्य से रचे गए सिध्दांत और उसके स्रजेता – कार्ल मार्क्स को भी विमर्श के सघन केन्द्र में ला दिया है। यद्यपि वे बौध्दिक और व्यावहारिक विमर्श से कभी बाहर नहीं हुये थे।
5 मई 1818 को जन्मे कार्ल हेनरिक मार्क्स का नाम इतिहास के सर्वाधिक अनुयायित महापुरुषों में विशिष्ट स्थान रखता है। उन्होने अपने मित्र और सहयोगी फ़्रेडरिक एंगेल्स के साथ मिल कर साम्यवाद की विजय के लिये, सर्वहारा के वर्ग- संघर्ष के सिध्दांत की विजय के लिये सर्वहारा वर्ग- संघर्ष के सिध्दांत तथा कार्यनीति की रचना की थी। यह दोनों ही व्यक्ति इतिहास में विश्व के मेहनतकश वर्ग के विलक्षण शिक्षकों, उनके हितों के महान पक्षधरों, मजदूर वर्ग के क्रांतिकारी आंदोलन के सिध्दांतकारों और संगठनकर्ताओं के रूप में सदैव अमर रहेंगे।
मार्क्स ने विश्व को सही ढंग से समझने तथा उसे बदलने के लिये मानव जाति और उसके सबसे ज्यादा क्रांतिकारी वर्ग, सर्वहारा वर्ग को एक महान अस्त्र का काम करने वाले अत्यंत विकसित एवं वैज्ञानिक द्रष्टिकोण से लैस किया था, जिसका नामकरण बाद में उन्हीं के नाम पर- मार्क्सवाद किया गया। उसके बाद महान लेनिन ने उसे अपनी सामयिक परिस्थितियों के अनुकूल व्याख्यायित और विकसित कर सर्वहारा के स्वप्नों को अमलीभूत करने वाले राज्य – सोवियत संघ की स्थापना कर डाली। तदुपरान्त यह सिध्दांत मार्क्सवाद- लेनिनवाद कहलाया।
महर्षि मार्क्स ने ही समाजवाद को काल्पनिकता के स्थान पर वैज्ञानिक रूप प्रदान किया तथा पूंजीवाद के अवश्यंभावी पतन व साम्यवाद की विजय के लिये एक विशद एवं सर्वांगीण सैध्दांतिक विश्लेषण प्रस्तुत किया।
उन्होने ही अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन तथा मजदूर वर्ग की प्रारंभिक क्रांतिकारी पार्टियों का गठन किया था। इन पार्टियों ने वैज्ञानिक समाजवाद की विचारधारा को स्वीकार किया।
उन्होने ही पूंजीवाद को नेस्तनाबूद करने और समाजवादी ढंग पर समाज के क्रांतिकारी रूपान्तरण के लिये पूंजीवादी उत्पीड़न के विरूध्द उठाने वाले मजदूरों के स्वतःस्फूर्त आंदोलनों को सचेत वर्ग- संघर्ष का रूप प्रदान किया।
मार्क्स प्रथम व्यक्ति थे जिनहोने सामाजिक विकास का नियंत्रण करने वाले नियमों की खोज के बल पर मानव कल्याण और प्रत्येक व्यक्ति को शारीरिक और आध्यात्मिक शक्ति के सर्वांगीण विकास तथा सामाजिक उत्पीड़न को समाप्त करके सम्मानजनक जीवन- पध्दति के अनुरूप आवश्यक परिस्थितियों का निर्माण करने के लिये मेहनतकशों को सही रास्ता और उपाय समझाया था।
मार्क्स के पहले के सामाजिक सिध्दांत नियमतः धनिक वर्ग का पक्ष- पोषण करते थे। उनसे गरीबों की बेहतरी की कोई आशा नहीं की जा सकती थी। वर्गीय समाज के संपूर्ण इतिहास में शासक और शोषक वर्ग शिक्षा, वैज्ञानिक उपलब्धियों, कलाओं और राजनीति पर एकाधिकार जमाये हुये थे जबकि मेहनतकश लोगों को अपने मालिकों के फायदे के लिये मेहनत करते हुये अपना पसीना बहाना पड़ता था। यद्यपि समय समय पर दलितों के प्रवक्ताओं ने अपने सामाजिक विचारों को परिभाषित किया था, पर वे विचार अवैज्ञानिक थे। उनमें अधिक से अधिक चमक मात्र थी, पर समग्र रूप से ऐतिहासिक विकास के नियमों की समझदारी का उनमें अभाव था। वे स्वाभाविक विरोध और स्वतःस्फूर्त आंदोलन की एक अभिव्यक्ति ही कहे जा सकते थे।
इसी दौर में आगे बढ़ रहे मुक्ति आंदोलनों को वैज्ञानिक विचारधारा की नितांत आवश्यकता थी, जिसकी भौतिक और सैद्धांतिक पूर्व शर्तें कालक्रम से परिपक्व हो चुकी थीं।
औद्योगिक क्रान्ति के दौरान उत्पादक शक्तियों के तीव्र गति से होने वाले विकास ने मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण की समाप्ति और मजदूर वर्ग की मुक्ति के ऐतिहासिक कार्य के प्रतिपादन के लिये वास्तविक आधार तैयार कर दिया था। पूंजीवाद के विकास के साथ ही एक ऐसी सक्षम सामाजिक शक्ति का उदय होगया था जो इस कार्य को पूरा कर सकती थी। उस शक्ति का नाम था- मजदूर वर्ग।
मजदूर वर्ग के हितों की वैज्ञानिक अभिव्यक्ति के रूप में मार्क्सवाद सर्वहारा के वर्ग संघर्ष के साथ निखरा और विकसित हुआ। पूंजीवाद के आंतरिक अंतर्विरोधों के प्रकाश में आने से यह निष्कर्ष सामने आया कि पूंजीवादी समाज का विध्वंस अवश्यंभावी है। साथ ही मजदूर वर्ग के आंदोलन के विकास से यह निष्कर्ष उजागर हुआ कि सर्वहारा ही आगे चल कर पूंजीवादी पध्दति की कब्र खोदेगा तथा नए समाजवादी समाज का निर्माण करेगा।
इस संबन्ध में लेनिन ने एक बहुत ही सुस्पष्ट व्याख्या प्रस्तुत की। उन्होने लिखा, “ एकमात्र, मार्क्स के दार्शनिक भौतिकवाद ने ही सर्वहारा को ऐसी आध्यात्मिक गुलामी से निकालने का रास्ता सुझाया जिसमें संपूर्ण दलित वर्ग अभी तक पीसे जा रहे थे। एकमात्र, मार्क्स के आर्थिक सिध्दांत ने ही पूंजीवादी व्यवस्था के दौरान सर्वहारा वर्ग की सही नीति की व्याख्या की थी।“
सामाजिक संबंधों के विकास संबंधी विशद विश्लेषण से मार्क्स और एंगेल्स की यह समझदारी पक्की हुयी कि इन संबंधों में क्रान्तिकारी परिवर्तन करने, मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण को समाप्त करने और समाजवादी समाज के निर्माण के लिये एक सक्षम शक्ति के रूप में सर्वहारा को महान ऐतिहासिक भूमिका निभानी होगी। सर्वहारा वर्ग की वर्तमान स्थिति से ही उसकी युग परिवर्तनकारी भूमिका निःस्रत होगी। पूंजीवादी शोषण के जुए से समस्त मेहनतकशों को मुक्त कराये बिना वह खुद भी मुक्त नहीं हो सकता। मार्क्स ने इस काम को सर्वहारा के वर्ग- संघर्ष का उच्च मानवीय उद्देश्य माना था, जिसका लक्ष्य मेहनतकश इंसान को पूंजीवादी समाज की अमानवीय स्थिति से मुक्ति दिलाना था।
मार्क्सवाद हमें यह भी सिखाता है कि विशुध्द वैज्ञानिक क्रान्तिकारी सिध्दांत और क्रांतिकारी व्यवहार की एकता कम्युनिज़्म की मुख्यधारा है। क्रान्तिकारी व्यवहार के बिना, और मार्क्सवादी विचारधारा को जीवन में अपनाए वगैर, यह सिद्धान्त महज ऊपरी लफ्फाजी तथा सुधारवाद व अवसरवाद के लिये एक आवरण मात्र बन कर रह जाता है। विज्ञान और सामाजिक विकास के बारे में वैज्ञानिक द्रष्टिकोण के बिना क्रान्तिकारी कार्यवाही का पतन दुस्साहसवाद के रूप में हो जाता है जो अराजकता की ओर लेजाता है।
मजदूरवर्ग के हितों का वाहक कौन बनेगा इस पर भी मार्क्स का सुस्पष्ट द्रष्टिकोण है-
अंतर्राष्ट्रीय मजदूर वर्ग के आंदोलनों के संपूर्ण इतिहास, विश्व की क्रांतिकारी प्रक्रिया तथा विभिन्न देशों में होने वाले क्रान्तिकारी संघर्षों के उतार- चढ़ाव ने अकाट्य रूप से यह साबित कर दिया है कि केवल मार्क्सवाद- लेनिनवाद के क्रान्तिकारी सिध्दांतों से निर्देशित पार्टी ही एक लड़ाकू अगुवा दस्ते का काम कर सकती है।
लेनिन ने रूस के मजदूर वर्ग के आंदोलन के शुरू में ही मार्क्स के सिध्दांतों का क्रान्तिकारी निचोड़ प्रस्तुत करते हुये लिखा था, “इस सिध्दांत का, जिसको समस्त देशों के समाजवादियों ने अपनाया है, अपरिहार्य आकर्षण इस तथ्य में निहित है कि इससे सही अर्थों में, सर्वोपरि रूप से वैज्ञानिकता और क्रान्तिकारिता का अपूर्व सामंजस्य है। इसमें उन गुणों का आकस्मिक सामंजस्य केवल इसलिए नहीं है कि उस सिध्दांत के प्रणेता के व्यक्तित्व में एक वैज्ञानिक और क्रान्तिकारी के गुणों का समावेश है, अपितु उनमें एक स्वाभाविक और अटूट समंजस्य है।“
आज कोविड- 19 के आक्रमण ने विश्व पूंजीवादी व्यवस्था की निरीहता की कलई खोल के रख दी है। यह व्यवस्था अपने नागरिकों और समाज को बीमारी के प्रकोप से बचाने के बजाय विधवा प्रलाप कर रही है। पूंजीवाद ने बड़ी ध्रष्टता से संकट का भार सर्वहारा के कंधों पर लाद दिया है। दौलत पैदा करने वालों को कोरोना और भूख के हाथों मरने को छोड़ दिया है। आज अपने ही वतन में वे बेघर और बेगाने नजर आरहे हैं। शारीरिक, मानसिक और आर्थिक आघात झेल रहे हैं। उनके अनुभवों ने सिध्द कर दिया है कि मौजूदा व्यवस्था में उनका वाजिब स्थान नहीं है। उन्हें इस व्यवस्था से मुक्ति हासिल करनी ही होगी। उनके मुक्तियुध्द में मार्क्सवाद ही पथ- प्रदर्शक की भूमिका निभा सकता है। यह भूमिका यह पहले भी निभाता आया है। अब यह संगठित- असंगठित मार्क्सवादियों का दायित्व है कि वे सर्वहाराओं की मुक्ति के काम को आगे बढ़ाएं। मार्ग कठिन भी है और मौजूदा दौर में खतरनाक भी। घबराइए नहीं, मार्क्स यहाँ भी आपका मार्गदर्शन करते नजर आते हैं। वे कहते हैं-
“यदि हमने अपने जीवन में वह रास्ता अख़्तियार किया है जिसमें हम मानव जाति के लिये अधिकाधिक कार्य कर सकते हैं तो कोई भी ताकत हमें झुका नहीं सकती”
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