शनिवार, 28 दिसंबर 2024
Pakistani Sayra पसंदीदा शायरा परवीन शाकिर की आज बरसी है
पसंदीदा शायरा परवीन शाकिर की आज बरसी है। उनका कौन-सा शेर है जो पसन्द न होगा, पर ये कुछ शेर हैं जो बेहद पसन्द हैं, और कुछ नज़्म भी:
तेरे सिवा भी कई रंग खुश नज़र थे मगर
जो तुझको देख चुका हो वो और क्या देखे।
उसी तरह से हर इक ज़ख़्म ख़ुशनुमा देखे
वो आये तो मुझे अब भी हरा-भरा देखे।
बस इक निग़ाह मुझे देखता चला जाता
उस आदमी की मोहब्बत फ़क़ीर ऐसी थी।
ये दुख नहीं कि अँधेरों से सुलह की हमने
मलाल ये है कि अब सुबह की तलब भी नहीं।
ज़ुल्म सहना भी तो ज़ालिम की हिमायत ठहरा
ख़ामुशी भी तो हुई पुश्त-पनाही की तरह।
दुश्मनों के साथ मेरे दोस्त भी आज़ाद हैं
देखना है खींचता है मुझ पे पहला तीर कौन।
मैं अपने हिस्से के सुख जिस के नाम कर डालूँ
कोई तो हो जो मुझे इस तरह का प्यारा हो।
कभी-कभार उसे देख लें कहीं मिल लें
ये कब कहा था कि वो ख़ुश-बदन हमारा हो।
क़ुसूर हो तो हमारे हिसाब में लिख जाए
मोहब्बतों में जो एहसान हो तुम्हारा हो।
मैं औरत ज़ात ठहरी हूँ मुझे मस्जिद नहीं जायज़
तुम पांच वक़्त जाते हो ख़ुदा से मांग लो मुझ को।
उस ने जलती हुई पेशानी पे जब हाथ रखा
रूह तक आ गई तासीर मसीहाई की।
तेरा पहलू तिरे दिल की तरह आबाद रहे
तुझ पे गुज़रे न क़यामत शब-ए-तन्हाई की।
वो कहीं भी गया, लौटा तो मेरे पास आया
बस यही बात है अच्छी मेरे हरजाई की।
किस शख़्स का दिल मैंने दुखाया था कि अब तक
वो मेरी दुआओं का असर काट रहा है।
आंसू मेरे चूमता था कोई
दु:ख का हासिल यही घड़ी थी।
(संग्रह 'इंकार' से)
उसके यूं तर्क-ए-मोहब्बत का सबब होगा कोई
जी नहीं ये मानता वो बेवफा पहले से था।
ये क्या कि वो जब चाहे मुझे छीन ले मुझ से
अपने लिए वो शख़्स तड़पता भी तो देखूँ।
पा-ब-गिल सब हैं रिहाई की करे तदबीर कौन
दस्त-बस्ता शहर में खोले मिरी ज़ंजीर कौन।
मेरा सर हाज़िर है लेकिन मेरा मुंसिफ़ देख ले
कर रहा है मेरी फ़र्द-ए-जुर्म को तहरीर कौन।
कोई मक़्तल को गया था मुद्दतों पहले मगर
है दर-ए-ख़ेमा पे अब तक सूरत-ए-तस्वीर कौन।
सच जहाँ पा-बस्ता मुल्ज़िम के कटहरे में मिले
उस अदालत में सुनेगा अद्ल की तफ़्सीर कौन।
ये हवा कैसे उड़ा ले गई आँचल मेरा
यूँ सताने की तो आदत मिरे घनश्याम की थी।
मैं अंधेरों को उजालूं ऐसे
तीरगी आंख का काजल हो जाए।
वो न आएगा हमें मालूम था इस शाम भी
इंतिज़ार उस का मगर कुछ सोच कर करते रहे।
टूटी है मेरी नींद मगर तुमको इससे क्या
बजते रहें हवाओं से दर तुमको इससे क्या।
आइने की आँख ही कुछ कम न थी मेरे लिए
जाने अब क्या क्या दिखाएगा तुम्हारा देखना।
यूँ बिछड़ना भी बहुत आसाँ न था उस से मगर
जाते जाते उस का वो मुड़ कर दोबारा देखना।
क्या क़यामत है कि जिन के नाम पर पसपा हुए
उन ही लोगों को मुक़ाबिल में सफ़-आरा देखना।
जब बनाम-ए-दिल गवाही सर की माँगी जाएगी
ख़ून में डूबा हुआ परचम हमारा देखना।
जीतने में भी जहाँ जी का ज़ियाँ पहले से है
ऐसी बाज़ी हारने में क्या ख़सारा देखना।
एक मुश्त-ए-ख़ाक और वो भी हवा की ज़द में है
ज़िंदगी की बेबसी का इस्तिआ'रा देखना।
हारने में इक अना की बात थी
जीत जाने में ख़सारा और है।
अब्र बरसते तो इनायत उस की
शाख़ तो सिर्फ़ दुआ करती है।
मुझ से भी उस का है वैसा ही सुलूक
हाल जो तेरा अना करती है।
दुख हुआ करता है कुछ और बयाँ
बात कुछ और हुआ करती है।
शाम पड़ते ही किसी शख़्स की याद
कूचा-ए-जां में सदा करती है।
जाने कब तक तिरी तस्वीर निगाहों में रही
हो गई रात तिरे अक्स को तकते तकते
मैं ने फिर तेरे तसव्वुर के किसी लम्हे में
तेरी तस्वीर पे लब रख दिए आहिस्ता से।
धूप में बारिश होते देखकर हैरत करने वाले
शायद तूने मेरी हंसी को छूकर कभी नहीं देखा।
वो मुझको छोड़ के जिस आदमी के पास गया
बराबरी का भी होता तो सब्र आ जाता।
अब तो इस राह से वो शख़्स गुज़रता भी नहीं
अब किस उम्मीद पे दरवाज़े से झाँके कोई।
कोई आहट कोई आवाज़ कोई चाप नहीं
दिल की गलियाँ बड़ी सुनसान हैं आए कोई।
काँटों में घिरे फूल को चूम आएगी लेकिन
तितली के परों को कभी छिलते नहीं देखा।
तेरे पैमाने में गर्दिश नहीं बाक़ी साक़ी
और तिरी बज़्म से अब कोई उठा चाहता है।
पलट कर फिर यहीं आ जाएंगे हम
वो देखे तो हमें आज़ाद कर के।
बंद कर के मिरी आँखें वो शरारत से हँसे
बूझे जाने का मैं हर रोज़ तमाशा देखूँ।
अपनी रुस्वाई तिरे नाम का चर्चा देखूँ
इक ज़रा शेर कहूँ और मैं क्या क्या देखूँ।
तितलियाँ पकड़ने में दूर तक निकल जाना
कितना अच्छा लगता है फूल जैसे बच्चों पर।
यूँ देखना उस को कि कोई और न देखे
इनाम तो अच्छा था मगर शर्त कड़ी थी।
मैं फूल चुनती रही और मुझे ख़बर न हुई
वो शख़्स आके मिरे शहर से चला भी गया।
मुझे हर कैफ़ियत में क्यूँ न समझे
वो मेरे सब हवाले जानता है।
मैं उस की दस्तरस में हूँ मगर वो
मुझे मेरी रज़ा से माँगता है।
एक बार खेले तो वो मिरी तरह और फिर
जीत ले वो हर बाज़ी मुझको मात हो जाए।
सब चराग़ गुल करके उसका हाथ थामा था
क्या क़ुसूर उसका जो बन में रात हो जाए।
रात हो पड़ाव की फिर भी जागिये वरना
आप सोते रह जाएँ और घात हो जाए।
रस्ते में मिल गया तो शरीक-ए-सफ़र न जान
जो छाँव मेहरबाँ हो उसे अपना घर न जान।
हम तो समझे थे कि इक ज़ख़्म है भर जाएगा
क्या ख़बर थी कि रग-ए-जाँ में उतर जाएगा।
कुछ तो हवा भी सर्द थी कुछ था तिरा ख़याल भी
दिल को ख़ुशी के साथ साथ होता रहा मलाल भी।
बात वो आधी रात की रात वो पूरे चाँद की
चाँद भी ऐन चैत का उस पे तिरा जमाल भी।
सब से नज़र बचा के वो मुझ को कुछ ऐसे देखता
एक दफ़ा तो रुक गई गर्दिश-ए-माह-ओ-साल भी।
मेरी तलब था एक शख़्स वो जो नहीं मिला तो फिर
हाथ दुआ से यूँ गिरा भूल गया सवाल भी।
उस की सुख़न-तराज़ियाँ मेरे लिए भी ढाल थीं
उस की हँसी में छुप गया अपने ग़मों का हाल भी।
गाह क़रीब-ए-शाह-रग गाह बईद-ए-वहम-ओ-ख़्वाब
उस की रफ़ाक़तों में रात हिज्र भी था विसाल भी।
उस के ही बाज़ुओं में और उस को ही सोचते रहे
जिस्म की ख़्वाहिशों पे थे रूह के और जाल भी।
शाम की ना-समझ हवा पूछ रही है इक पता
मौज-ए-हवा-ए-कू-ए-यार कुछ तो मिरा ख़याल भी।
जुगनू को दिन के वक़्त परखने की जि़द करें
बच्चे हमारे अहद के चालाक हो गए।
पलट कर फिर यहीं आ जाएँगे हम
वो देखे तो हमें आज़ाद कर के।
मैं वो लड़की हूं
जिसको पहली रात
कोई घूंघट उठाके यह कह दे
मेरा सब कुछ तेरा है, दिल के सिवा।
मैं ही क्यों उसको फोन करूँ
उसको भी तो इल्म यह होगा
कल शब
मौसम की पहली बारिश थी।
वक़्त के इतने तेज़ बहाव में
तुझसे मिलने की रुत कुछ ऐसे गुज़रती है
जैसे घने जंगल में
सरपट दौड़ती रेल की खिड़की से
हाथ बढा कर
किसी घनेरी शाख को थामना चाहूं
और अपने फैले हुए हाथ पे
एक खराश बसा लूं
इक इंकार की नीली लकीर का
और इज़ाफ़ा कर लूं
- परवीन शाकिर
अयादत / परवीन शाकिर
पतझड़ के मौसम में तुझको
कौन-से फूल का तोहफ़ा भेजूं
मेरा आंगन ख़ाली है
लेकिन मेरी आंखों में
नेक दुआओं की शबनम है
शबनम का हर तारा
तेरा आंचल थाम के कहता है
ख़ुशबू, गीत, हवा, पानी और रंग को चाहने वाली लड़की
ज़ल्दी से अच्छी हो जा
सुब्हे-बहार की आंखें कब से
तेरी नर्म हंसी का रस्ता देख रही हैं
उसने फूल भेजे हैं / परवीन शाकिर
उसने फूल भेजे हैं
फिर मेरी अयादत को
एक-एक पत्ती में
उन लबों की नरमी है
उन जमील हाथों की
ख़ुशगवार हिद्दत है
उन लतीफ़ साँसों की
दिलनवाज़ ख़ुशबू है
दिल में फूल खिलते हैं
रुह में चिराग़ां है
ज़िन्दगी मुअत्तर है
फिर भी दिल यह कहता है
बात कुछ बना लेना
वक़्त के खज़ाने से
एक पल चुरा लेना
काश! वो ख़ुद आ जाता
परवीन शाकिर / अली सरदार जाफ़री
बहार-ए-हुस्न जवाँ-मर्ग सूरत-ए-गुल-ए-तर
मिसाल-ए-ख़ार मगर उम्र-ए-दर्द-ए-इश्क़ दराज़
वो विद्यापति की शाइ'री की
मासूम-ओ-हसीन-ओ-शोख़ राधा
वो अपने ख़याल का कनहैया
इन शहरों में ढूँडने गई थी
दस्तूर था जिन का संग-बारी
वो 'फ़ैज़'-ओ-'फ़िराक़' ज़ियादा
तक़्दीस-ए-बदन की नग़्मा-ख़्वाँ थी
तहज़ीब-ए-बदन की राज़-दाँ थी
गुलनार बदन की तहनियत में
गुलनार लबों से गुल-फ़िशाँ थी
लब-आश्ना लब ग़ज़ल के मिसरे
जिस्म-आश्ना जिस्म नज़्म-पैकर
लफ़्ज़ों की हथेलियाँ हिनाई
तश्बीहों की उँगलियाँ गुलाबी
सरसब्ज़ ख़याल का गुलिस्ताँ
मुबहम से कुछ आँसुओं के चश्मे
आहों की वो हल्की सी हवाएँ
सद-बर्ग हवा में मुंतशिर थे
तितली थी कि रक़्स कर रही थी
और दर्द के बादलों से छन कर
नग़्मों की फुवारे पड़ रही थी
पुर-शोर मुनाफ़िक़त के बाज़ार
अफ़्वाहें फ़रोख़्त कर रहे थे
वो अपनी शिकस्ता शख़्सियत को
अशआ'र की चादरों के अंदर
इस तरह समेटने लगी थी
एहसास में आ रही थी वुसअ'त
नज़रों का उफ़ुक़ बदल रहा था
और दर्द-ए-जहान-ए-आदमियत
टूटे हुए दिल में ढल रहा था
इस आलम-ए-कैफ़-ओ-कम में इक दिन
इक हादसे का शिकार हो कर
जब ख़ूँ का कफ़न पहन लिया तो
उड़तीं सलीबें नौहा-ख़्वाँ थीं
ख़ामोश था कर्ब-ए-ख़ुद-कलामी
अब कुछ नहीं रह गया है बाक़ी
बाक़ी है सुख़न की दिल-नवाज़ी
2.
जन्नत में है जश्न-ए-नौ का सामाँ
महफ़िल में 'मजाज़'-ओ-'बाइरन' हैं
मौजूद हैं 'कीट्स' और 'शैली'
ये मर्ग-ए-जवाँ के सारे आशिक़
ख़ुश हैं कि ज़मीन-ए-पाक से इक
नौ-मर्ग-ए-बहार आ गई है
लिपटी हुई ख़ाक की है ख़ुश्बू
और साया-फ़गन सहाब-ए-रहमत
"वही नर्म लहजा"
- परवीन शाकिर, फुनुन, लाहौर, जून 1973
वही नर्म लहजा
जो इतना मुलाएम है जैसे
धनक गीत बन के समाअ'त को छूने लगी हो
शफ़क़ नर्म कोमल सुरों में कोई प्यार की बात कहने चली हो
किस क़दर रंग-ओ-आहंग का किस क़दर ख़ूबसूरत सफ़र
वही नर्म लहजा
कभी अपने मख़्सूस अंदाज़ में मुझ से बातें करेगा
तो ऐसा लगे
जैसे रेशम के झूले पे कोई मधुर गीत हलकोरे लेने लगा हो
वही नर्म लहजा
किसी शोख़ लम्हे में उस की हँसी बन के बिखरे
तो ऐसा लगे
जैसे क़ौस-ए-क़ुज़ह ने कहीं पास ही अपनी पाज़ेब छनकाई है
हँसी को वो रिम-झिम
कि जैसे फ़ज़ा में बनफ़्शी चमकदार बूंदों के घुंघरू छनकने लगे हों
कि फिर
उस की आवाज़ का लम्स पा के
हवाओं के हाथों में अन-देखे कंगन खनकने लगे हों
वही नर्म लहजा मुझे छेड़ने पर जब आए
तो ऐसा लगेगा
जैसे सावन की चंचल हवा
सब्ज़ पत्तों के झाँझन पहन
सुर्ख़ फूलों की पायल बजाती हुई
मेरे रुख़्सार को
गाहे गाहे शरारे से छूने लगे
मैं जो देखूँ पलट के तो वो
भाग जाए मगर
दूर पेड़ों में छुप कर हँसे
और फिर नन्हे बच्चों की मानिंद ख़ुश हो के ताली बजाने लगे
वही नर्म लहजा
कि जिस ने मिरे ज़ख़्म-ए-जाँ पे हमेशा शगुफ़्ता गुलाबों की शबनम रखी है
बहारों के पहले परिंदे की मानिंद है
जो सदा आने वाले नए सुख के मौसम का क़ासिद बना है
उसी नर्म लहजे ने फिर मुझ को आवाज़ दी है।
ख़याल-ओ-ख़्वाब हुआ बर्ग-ओ-बार का मौसम
बिछड़ गया तिरी सूरत बहार का मौसम।
कई रुतों से मिरे नीम-वा दरीचों में
ठहर गया है तिरे इंतिज़ार का मौसम।
वो नर्म लहजे में कुछ तो कहे कि लौट आए
समाअ'तों की ज़मीं पर फुवार का मौसम श।
पयाम आया है फिर एक सर्व-क़ामत का
मिरे वजूद को खींचे है दार का मौसम।
वो आग है कि मिरी पोर पोर जलती है
मिरे बदन को मिला है चिनार का मौसम।
रफ़ाक़तों के नए ख़्वाब ख़ुशनुमा हैं मगर
गुज़र चुका है तिरे ए'तिबार का मौसम।
हवा चली तो नई बारिशें भी साथ आईं
ज़मीं के चेहरे पे आया निखार का मौसम।
वो मेरा नाम लिए जाए और मैं उस का नाम
लहू में गूँज रहा है पुकार का मौसम।
क़दम रखे मिरी ख़ुशबू कि घर को लौट आए
कोई बताए मुझे कू-ए-यार का मौसम।
वो रोज़ आ के मुझे अपना प्यार पहनाए
मिरा ग़ुरूर है बेले के हार का मौसम।
तिरे तरीक़-ए-मोहब्बत पे बारहा सोचा
ये जब्र था कि तिरे इख़्तियार का मौसम।
DrJayant Jigyasu
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