बुधवार, 8 जनवरी 2025
सौ साल की कम्युनिस्ट पार्टी के भविष्य की चिंता
सौ साल की कम्युनिस्ट पार्टी के भविष्य की चिंता
नागेंद्रनाथ नाथ शिक्षा विभाग के वरिष्ठ पदाधिकारी रहे हैं। अवकाश ग्रहण पश्चात पटना में रह रहे हैं। बेगूसराय के पदस्थापन काल का परिचय फेसबुक की मित्रता के कारण नवीकृत हो गया।
कम्युनिस्ट आंदोलन के समर्थक हैं। बुढापे में भी अध्ययनरत हैं । इनके पोस्ट और कमेंट्स चालू किस्म के नहीं होते हैं। मेरे पोस्ट से जुड़ ये गंभीर सैद्धांतिक बहस शुरू करते हैं। हल्के -फुल्के ढंग से जबाब देकर इनसे पींड छुड़ा पाना संभव नहीं है।
बिहार के गौरवशाली कम्युनिस्ट आंदोलन में इस कदर गिरावट क्यों है ?
भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन को ह्रासोन्मुख स्थिति से मुक्ति मिलेगी ?
उनके इस प्रश्न का उत्तर देना मुश्किल लगा। उन्हीं से ही इस सवाल का जबाब जानने की जिज्ञासा की। इतना जरुर कहा ,जीवन के जय की चाहत है लेकिन मृत्यु से क्या मुक्ति संभव है ?
एक ' नहीं 'शब्द से उन्होंने बहस का समापन कर दिया ।
यह सवाल उनके अकेले का नहीं है। उनके ,हमारे जैसों लाखों -लाख लोगों को इस प्रश्न ने परेशान कर रखा है।
वैधानिक कम्युनिस्ट अब नहीं रह गया हूँ लेकिन कम्युनिज्म के सिद्धांतों पर अटल विश्वास है। मार्क्सवादी विचारधारा मेरी जीवनदृष्टि है । आजीवन इससे जुड़ा जीवन रहा है। इसके प्रचार -प्रसार केलिए यशपाल के शब्दों में कहूँ तो पहले बुलेट चलाता था और अब बुलेटिन निकालता हूँ। इसलिए बहस में हिस्सा लेने से अलग नहीं रह पाता हूँ।
निम्नपूंजीववादी वर्गीय चेतना का परित्याग किए बिना मार्क्सवादी सिद्धांतों पर अमल करना संभव नहीं है। सिद्धांत को आंख और व्यवहार को पांव नहीं बना पाने से भटकाव तेजी से आती है। पूंजीवादी और सामंती संस्कृति को जीते हुए अगर नेतृत्व अपनी मनमर्जी के मुताबिक पार्टी को चलाएगा तो व्यक्तिवाद स्थापित होगा ।
सिद्धांत और संगठन के प्रति निष्ठा और विश्वास नहीं रहे और व्यक्ति के प्रति कायम हो जाय तो अनर्थकारी परिणाम भुगतना होगा । यही कारण है कि कब्र में गर्दन तक डूबे लोग नेतृत्व में सांप की तरह कुंडली मारे विराजमान हैं। पद पर बने रहना ही उनका लक्ष्य है ,यही उनकी क्रांति है।
फलस्वरूप संगठन गिरोह बन जाता है और नेता सरदार ।
व्यक्तिवाद के वर्चस्व स्थापित होने से सुधार की गुंजाइश नहीं रह जाती है। स्वाभाविक रुप से तब चतुर ,चालाक मक्कार और चापलूसों का संगठन पर वर्चस्व स्थापित हो जाता है।
परिणामस्वरूप अफसरशाही और भ्रष्टाचार के शिकंजे में फंसे संगठन से क्रांतिकारी तत्वों का पलायन होने लगता है या निष्क्रियता पसर जाती है।
समझौता कर गिरोह और सरदार की अधीनता जो कबूल नहीं करते हैं या अंधभक्त बन वहां रहना नापसंद करते हैं तो उनके लिए दरवाजे बंद कर देने की घोषणा आकाशवाणी की तरह प्रसारित कर दी जाती है।
यही कारण है कि संगठित कम्युनिस्टों की तुलना में असंगठित कम्युनिस्टों की संख्या कई गुना ज्यादा है। नेतृत्व ईमानदार हो तो सबो को जोड़ने केलिए जीजान से प्रयास करता । लेकिन हाल है कि रोम जल रहा है और नीरो वंशी बजा रहा है।
आएं ,मूल विषय की ओर , मार्क्स के अनुसार एक ही प्रश्न प्रधान है , दुनिया को कैसे बदला जाए ? मार्क्स और एंजिल्स ने कभी नहीं पसंद किया था कि मार्क्सवाद को लोग सिर्फ विश्वास प्रतीक बनाएं और कट्टरपंथ का रूप दे दें। उनके अनुसार यह कार्य संबंधी पथ प्रदर्शन था , रूढ़िगत निष्ठा नहीं थी ।
मार्क्स सिद्धांत को जनता के जीवन की चुनौतियों के सवालों पर परखते थे। अगर सिद्धांत व्यवहार में नहीं उतरता है तो वह भौतिकवादी नहीं ,भाववादी ही बना रहेगा।भाववादी बनकर भौतिक धरातल पर समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता है।
अराजनीतिक नेतृत्व की पहचान है कि वह संगठन को वैचारिक और सैद्धांतिक नहीं बनने देगा । सिद्धांतविहीन ढंग से काल्पनिक संसार में संगठन को फंसाए रखेगा। वर्गसंघर्ष को तिलांजलि देकर संसदीय मकड़जाल और भाषणबाजी में कम्युनिस्ट आंदोलन को सिसकने केलिए मजबूर कर देगा। संगठन को नुमाइशी कर्तव्यों ,तमाशाई हरकतों और लाभ -हानि के चक्रब्यूह में फंसा देगा।
ऐसी स्थिति बना दी जाती है कि पदलोलुपों ,गुटबाजों और प्रपंचियों की मंडली नेतृत्व के शीर्ष स्थानों पर काबिज हो जाती है।
ऐसा बेईमान नेतृत्व कम्युनिस्ट पार्टी के ईमानदार कार्यकर्ताओं में अपने प्रति भक्ति भाव उत्पन्न कर पिछलग्गू बना लेता है।
इस दशा में बदलाव की ,व्यवस्था परिवर्तन की छोटी लड़ाई भी कहीं शुरू नहीं हो पाती है। नतीजतन न जनसंगठनों का अस्तित्व बच पाता है और न जनसंघर्षों की योजना बन पाती है।
जनसंघर्षों से ही जननेताओं का जन्म होता है । दुखद है , संगठन को ही बांझ बनाने पर स्वार्थी और अवसरवादी नेतृत्व आमदा रहता है। गाल बजाने वाले नेताओं का आधिपत्य सुनियोजित ढंग से स्थापित किया जाता है।
ऐसे नेतृत्व से उम्मीद करनेवाले अंधानुयायी होते हैं। जो मुखर बन अंदरूनी आलोचनाओं को दबा देते हैं।
लफ्फाजी और चुप्पी की मिलीजुली स्थिति राजनीति में तानाशाही को जन्म देती है। कम्युनिस्ट राजनीति भी इससे अछूता नहीं रहता है।
अपने समय में बुद्ध की विचारधारा अद्भुत क्रांतिकारी और नैतिक बल से युक्त प्रभावशाली बनी हुई थी। बदलाव की चेतना से इसका वैश्विक प्रभाव स्थापित हुआ था। लेकिन नकारात्मक और ध्वंसात्मक प्रयासों और कर्मकांडों ने इसे विनष्ट कर दिया। आज मठों में बुद्ध कैद हैं।
कबीर की क्रांतिकारी वाणी प्रार्थनाओं में बदल गई । बुद्ध की तरह ये भी भगवान बन गए और इनकी जनपक्षधरता भी विनष्ट हो गई।
अतएव कम्युनिस्टों को मार्क्स की चेतावनी को याद कर दुनिया को बदलने की लड़ाई को प्रमुख सवाल बनाना होगा ,विजातीय प्रवृत्तियों और भटकावों को पीछे छोड़ना होगा और सही क्रांतिकारी नेतृत्व को आगे लाना होगा ,नहीं तो सिर्फ नाम रह जाएगा।
कम्युनिस्ट पार्टी के सौ वर्षों की यात्रा गाथा का बखान करने से ज्यादा जरूरी आज यह है कि अनुभवों का वैज्ञानिक विश्लेषण हो और भविष्य की योजना बने। मार्क्सवाद केवल सिद्धांत नहीं व्यवहार है, इस कसौटी पर विचारने का मौजू समय यही है।
विलंव होगा तो फासीवादी राजनीति के बढते कदम को रोकना मुश्किल होगा।
-राजेन्द्र राजन
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