रविवार, 23 फ़रवरी 2025
संघ के सौ साल
संघ के सौ साल
प्रेमकुमार मणि
संघ यानि राष्ट्रीय स्वयंसवेक संघ या संक्षेप में आरएसएस. 2025 इसकी स्थापना का शताब्दी वर्ष है. किसी जातक केलिए कामना की जाती है जीवेत शरदः शतम; यानि सौ साल जिओ. संघ व्यक्ति नहीं, संस्था है. लेकिन उसके लिए भी सौ साल महत्त्व के हैं. अनेक संस्था संगठन सौ साल में थक कर बिखर जाते हैं. कांग्रेस 1985 तक तो परवान चढ़ती रही, लेकिन उसके बाद ढलान पर आ गई. बोल्शेविक क्रांति और कम्युनिस्ट आंदोलन सौ साल में थक कर बिखरने लगे. लेकिन कहा जा सकता है कि संघ अपने अंदाज में अब तक बढ़ते रहा है. आज नि:संदेह वह मजबूत स्थिति में है. लोग कह रहे हैं, देश की वास्तविक बागडोर उसके हाथ में है. राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री से लेकर राज्यपाल, कुलपति, चपरासी तक उसके निदेश पर चुने जा रहे हैं. दिल्ली का पूरा लुटियन जोन उसकी मुट्ठी में है. भाजपा शासित राज्यों में मुख्यमंत्री का चयन वह करता है. भाजपा पार्टी जरूर है.लेकिन यथार्थ तौर पर वह संघ की छाया है. 1980 के दशक में अटलबिहारी वाजपेयी ने पार्टी लाईन में तनिक सुधार करते हुए गाँधीवादी समाजवाद को इससे जोड़ा नहीं, की संघ ने उनकी औकात बता दी. अगले चुनाव (1984 )में वह केवल दो की संख्या में थी. अटल स्वयं चित हो गए. अंततः पार्टी की बागडोर लालकृष्ण आडवाणी को सौंप दी गई. 2005 में आडवाणी पाकिस्तान गए और जिन्ना की तारीफ कर आए. आते ही उनकी छुट्टी कर दी गई. तो ये सब संघ की ताकत रही है. बड़ा से बड़ा नेता वहां कुछ नहीं है.
मैं समझता हूँ संघ के बारे में जनता को जानना ही चाहिए.
1925 की विजयादशमी के रोज, जो उस वर्ष 27 सितम्बर को था, नागपुर में डॉ केशव बलिराम हेडगेवार के प्रयासों से आरएसएस की स्थापना हुई. बुद्ध का संघ सारनाथ मृगदाव में कुल पांच भिक्षुओं के साथ आरम्भ हुआ था. आरएसएस की स्थापना में भी पांच लोग ही थे. इनके नाम हैं, बालकृष्ण शिवराम मुंजे ( 1872- 1948 ), केशव बलिराम हेडगेवार ( 1879 - 1940 ), लक्ष्मण वासुदेव परांजपे ( 1877- 1958 ), गणेश दत्तात्रेय सावरकर ( 1879 -1945 ) और बी बी थोलकर. थोलकर के बारे में मुझे विशेष जानकारी नहीं है. गणेश सावरकर को बाबाराव सावरकर भी कहा जाता है और वह हिंदुत्व के सिद्धांतकार सावरकर के बड़े भाई थे. मुंजे और परांजपे की विशिष्ट पहचान थी. सभी पांच हिन्दू महासभा से जुड़े थे. डॉ मुंजे 1927 में हिन्दू महासभा के अध्यक्ष भी हुए थे.
1925 के अक्टूबर में ही उत्तरभारत के एक औद्योगिक नगर कानपुर में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का गठन हुआ था. उस समय मुल्क की राजनीतिक स्थिति निराशा और असमंजस वाली थी. गाँधी के नेतृत्व में चल रहा कांग्रेस का असहयोग आंदोलन ढाई-तीन साल पहले विफल हो चुका था. जवाहरलाल नेहरू, सुभाषचंद्र बोस, भगत सिंह जैसे युवा नेतृत्व को राष्ट्रीय परिदृश्य पर अभी आना था. दामोदर सावरकर अंडमान के सेलुलर जेल से सशर्त बाहर हुए थे, लेकिन उन्हें रत्नागिरी जिले से बाहर जाने की अनुमति नहीं थी. 1921 में मोपला में सांप्रदायिक हिंसक घटनाएं हो चुकी थीं और दो साल पूर्व नागपुर भी हिंसक सांप्रदायिक घटनाओं का शिकार हुआ था. यह पृष्ठभूमि थी.
हेडगेवार की राजनीतिक परवरिश डॉ मुंजे और सावरकर की देख-रेख में हुई थी. वह कांग्रेस से जुड़े हुए थे. 1920 में आयोजित नागपुर कांग्रेस अधिवेशन के स्वागतकर्ता थे. इसी कांग्रेस ने गाँधी के नेतृत्व में अपनी आस्था व्यक्त की थी. हेडगेवार की उच्च शिक्षा कोलकाता में हुई थी. यहीं पर वह अनुशीलन समिति से जुड़े और प्रभावित हुए. देखा जाय तो आरएसएस की संरचना पर बंगाल के अनुशीलन समिति का पूरा प्रभाव था. अनुशीलन समिति के कार्यकर्त्ता राष्ट्रीय स्वयंसेवक कहे जाते थे. इसमें संघ जोड़ कर हेडगेवार ने उन्हें राष्ट्रीय स्वयंसवेक संघ बना दिया. समिति अपने शाखा (ब्रांच ) संगठन को अखाडा कहता था. 1920 के आसपास समिति के लगभग चार सौ अखाड़े थे. हेडगेवार ने अखाड़ों को शाखा बना दिया. शेष कार्य भी समिति के अनुसार ही होते रहे. अखाड़ों में भी खेल-कूद होते थे. वैचारिक स्तर पर आरएसएस सावरकर के विचार दर्शन हिंदुत्व से प्रभावित था. लेकिन उन्होने कभी संघ से जुड़ाव प्रदर्शित नहीं किया. सावरकर अपनी शर्त के अनुसार खुल कर सामाजिक जीवन में आना नहीं चाहते थे. उनके बड़े भाई ने उनका प्रतिनिधित्व किया.
संघ को समझने के पूर्व हमें उस दौर की राष्ट्रीय सामाजिक- राजनीतिक स्थिति को समझना चाहिए. यह मानी हुई बात है कि ब्रिटिश भारत में राष्ट्रीय भावनाओं का उन्मेष बंगाल में हुआ. बंगाल उन दिनों ब्रिटिश भारत की राजधानी थी. उसी प्रान्त में 1757 में पलासी युद्ध के बाद भारत में ब्रिटिश शासन की शुरुआत हुई थी. 1799 में मैसूर के पतन और 1818 में भीमकोरेगांव युद्ध में पेशवा सेना के पतन के बाद लगभग भारत के बड़े हिस्से पर अंग्रेजी राज कायम हो गया था. पंजाब हालांकि अभी उसके अंकुश से बाहर था, लेकिन बंगाल,मैसूर और महाराष्ट्र तो पूरी तरह उसकी गिरफ्त में आ चुके थे. अंग्रेजो के जमने की सामाजिक-राजनीतिक प्रतिक्रिया कुछ समय बाद देखने में आई. बंगाल में एक तबके ने इसे रचनात्मक स्तर पर लिया. एक नया समाज, नए लोग और नई जीवन पद्धति अब उनके सामने थी. यह वह दौर था जब यूरोप में भी सामाजिक चिंतन जोरदार स्तर पर हो रहा था. रेनेसां और प्रबोधन के विचारों से गुजर कर आने वाली एक ऐसी यूरोपीय जाति बंगाल में राजनीतिक प्रभुत्व में आई थी जिनके जीवन मूल्य मुगलिया मूल्यों से बहुत भिन्न थे. हिन्दुओं की सामाजिक परंपरा से इनका कोई मेल नहीं था. चूँकि मुस्लिम शासकों को अंग्रेजों ने अपदस्थ किया था, इसलिए मुसलमानों का कुलीन तबका अंग्रेजों को फूटी आँख नहीं देखना चाहता था. लेकिन हिन्दू कुलीन तबके को मानो आज़ादी मिल गई थी. इस भाव का प्रकटीकरण बंगला साहित्य के मूर्धन्य लेखक बंकिमचंद्र के उपन्यास ' आनंदमठ ' में मिलता है, जहाँ हिन्दू युवकों का प्रशिक्षित जत्था मुसलमानों से संघर्ष करता हुआ दीखता है. कथा में मुसलमानी राज का अंत हो गया है. ऐसे में प्रश्न उठता है कि अब क्या किया जाय. क्या मातृभूमि को मुक्त करने केलिए अब अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया जाय ? लेकिन उपन्यास में आय़े दिव्य पुरुष का आदेश होता है- नहीं, ' अंग्रेज मित्र राजा हैं. ' बहुत कुछ इसी के अनुरूप महाराष्ट्र के सम्मानित समाज-सुधारक और मराठी लेखक जोतिबा फुले अपनी किताब गुलामगिरी में भाव व्यक्त करते हैं. वह भी अंग्रेजों का अभिनन्दन करते है. लेकिन इसलिए कि उसने पुणे केंद्रित ब्राह्मण पेशवाओं के राज को ख़त्म कर दिया है. वह शूद्र किसानों की इसमें मुक्ति देखते हैं. बंगाल में द्विज हिन्दुओं और महाराष्ट्र में शूद्र हिन्दुओं की मुक्ति अंग्रेजी राज से होती है. यह ऐसी गुत्थी है जिसे समझने में अधिकतर इतिहासकार गच्चा खा गए हैं.
बंगाल में अंग्रेजी रहन-सहन उनकी साफ़-सफाई और सोच के मुरीद राजा राममोहन राय भी होते हैं और मिर्ज़ा ग़ालिब भी. जोतिबा फुले जैसे शूद्र जानते हैं कि यदि मैकाले की नयी शिक्षा पद्धति नहीं आती तो उनका लिखना-पढ़ना संभव नहीं होता. राजा राममोहन राय, जोतिबा फुले और बंकिमचंद्र यदि अंग्रेजों को सकारात्मक नजरिए से देखते हैं तो इसके कारण थे. उन्नीसवीं सदी के मध्य में लंदन में बैठे कार्ल मार्क्स को भी भारत में अंग्रेजी राज बहुत कुछ इतिहास के अवचेतन साधन के रूप में दिखा था.
1857 में अंग्रेजी राज के विरुद्ध जो लोकविद्रोह था वह मुख्यतः पेशवाओं और मुसलमानों का विद्रोह था. कम से कम अंग्रेजों ने इसे इसी रूप में लिया था. इस विद्रोह के बाद अंग्रेज मुसलमानों और पेशवाओं के प्रति अधिक कटु हो गए. इसी पृष्ठभूमि पर भारत में एक नयी राष्ट्रीयता का विकास हुआ. इसमें संसदीय ढाँचे और वैज्ञानिक सोच के साथ आगे बढ़ने की बात थी. सैयद अहमद खान से लेकर जिन्ना और फुले-रानाडे से लेकर गोखले तक इसी मत के थे. 1920 के बाद गाँधी ने इसे अपनी तरह के लोक संघर्ष में बदलने की कोशिश की, जिसमें पढ़े-लिखे कुलीन लोग शामिल जरूर थे, किन्तु वैचारिकता के केंद्र में किसान थे. लक्ष्य था, इन फटेहाल किसानों की मुक्ति केलिए सब लोग काम करें.
बीसवीं सदी में इसी परिप्रेक्ष्य में वैचारिक स्वर फूटे. 1902 में बंगाल में अनुशीलन समिति का गठन हुआ. जिसमें मुस्लिम विरोध की जगह अंग्रेज विरोध मुखर हुआ. लोग वही थे जो राष्ट्रीयता को आनंदमठ के नजरिए से देखते थे. लेकिन उसमें परिवर्तन भी नजर आता था. कर्जन के बंग-भंग के फैसले का पुरजोर विरोध बंगाल के हिन्दुओं ने किया. जो अंग्रेज अब तक मुसलमानों को शत्रु मानते थे अब उनके तुष्टिकरण में लग गए थे. बंगाली कुलीन हिन्दू भी हिन्दू-मुस्लिम एकता की बात करने लगे थे. अनुशीलन पन्थी अब धर्म की जगह राष्ट्र में अधिक दिलचस्पी ले रहे थे. उनका साम्राज्यवाद विरोधी रुख स्पष्ट होने लगा था. 1930 के दशक में अनुशीलन समिति का एक हिस्सा मार्क्सवादी हो गया.
महाराष्ट्र में तिलक का राष्ट्रवाद बहुत कुछ ब्राह्मण केंद्रित था और फुले के शूद्र केंद्रित राष्ट्रवाद से इसकी टक्कर होती रहती थी. सावरकर अपने विचार-गुरु तिलक के विचारों का प्रतिनिधित्व करते थे, लेकिन हिन्दुओं के वर्ण और जाति भेद के आलोचक भी थे. उनका ब्राह्मण थोड़ा आधुनिक और वैश्विक होना चाहता था. गाय को महत्त्व जरूर दिया जाय, लेकिन उपयोगी जानवर के रूप में, न कि माता के रूप में. ऐसी अनेक बातों के साथ सावरकर ने फुले के शूद्र अस्मिता-बोध के एक हिस्से को अपने हिंदुत्व के फलसफे से जोड़ने की कोशिश की, ताकि ब्राह्मणों और शूद्रों के बीच एक सेतु बन सके. लेकिन पुणे का रूढ़िवादी ब्राह्मण कितना क्रान्तिकारी हो सकता था! हालाकि कुछ मामलों में यह परिवर्तन दिखने लगा था.
अनुशीलन समिति का राष्ट्र भी अब पूर्व की तरह मुस्लिम विरोधी नहीं रहा था. बंगाल में मुसलमानों की संख्या हिन्दुओं से लगभग बराबर की थी. मुसलमानों के विरोध या उपेक्षा के साथ वहां किसी राष्ट्र की तस्वीर नहीं बन सकती थी. अनुशीलन समिति को ब्रिटिशराज विरोध तीव्र करने थे. महाराष्ट्र में सावरकर को ब्रिटिश विरोध की उतनी चिंता नहीं थी, जितनी मुस्लिम विरोध की. यह तिलक की लाइन से अलग की बात थी. तिलक का ब्रिटिश विरोध तीव्र था, क्योंकि उनमें यह भाव था कि इन अंग्रेजों के कारण ही महाराष्ट्र का ब्राह्मण प्रभुत्व ख़त्म हुआ है और ये फुले जैसे शूद्र जो अंग्रेजी राज का समर्थन कर रहे हैं उसके पीछे उनका यही ब्राह्मण विरोध का भाव है.
यह परिवर्तन देखने लायक है. क्या यह महाराष्ट्रीय ब्राह्मणों की दो कदम आगे बढ़ने केलिए एक कदम पीछे हटने की रणनीति थी, या कुछ और था. संभवत: इस में एक घुटी हुई हताशा भी थी. तिलक की मृत्यु और गुजराती वैश्य गाँधी के कांग्रेस पर छा जाने से तिलकपंथियों का यह तबका खिन्न था. इन लोगों ने 1907 के सूरत कांग्रेस में भी मुँह की खाई थी. भारी जूतम पैजार के बाद भी तिलक को कोई सफलता नहीं मिली थी. अंततः उनको कांग्रेस से निकाल दिया गया था. इस बीच तिलक को अंग्रेजी राज की सजा भुगतनी हुई. 1916 में वे बाहर आए तब निष्प्रभ हो चुके थे. यह कांग्रेस इतिहास की अजीब दुर्घटना है कि तिलक ऐसा नेता हर प्रयास के बावजूद कभी कांग्रेस अध्यक्ष नहीं बन सका. तिलक के अनुयायियों ने आखिरी कोशिश की कि महर्षि अरविन्द को सक्रिय होने केलिए बुला लावें. ये लोग उनसे मिले भी. किन्तु अब वह अपने सन्यस्त जीवन में ड़ूब चुके थे. उन्होने राजनीति में वापसी के प्रस्ताव को ठुकरा दिया. इसके बाद इस दस्ते को अलग संगठन बना कर सक्रिय रहने के अलावे कोई रास्ता नहीं था.
( जारी )
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें