सोमवार, 24 फ़रवरी 2025
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सौ साल : आत्म-मंथन की बेला
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सौ साल : आत्म-मंथन की बेला
-गिरीश पंकज
यह अद्भुत संयोग है कि आज से सौ साल पहले 1925 को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना हुई और इसी वर्ष भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का भी गठन हुआ. संघ की स्थापना हिंदू एकता के लिए हुई, वही भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी उर्फ भाकपा की स्थापना पूर्ण स्वराज की मांग को लेकर हुई. साथ ही यह लक्ष्य भी रहा कि देश के मजदूर, किसान और अन्य शोषित वर्ग के लोगों का उन्नयन हो. जातिवाद के विरुद्ध भाकपा की उन्नत सोच रही. यही कारण है कि इस पार्टी के दरवाजे सभी के लिए खुले रहे. इसमें दो राय नहीं कि आजादी की लड़ाई में कम्युनिस्ट पार्टी ने अपनी एक वैचारिक भूमिका निभाई और आजादी के बाद जब संविधान बन रहा था, तब उसमें भी विशिष्ट योगदान रहा. हमारे संविधान में दर्ज 'हम भारत के लोग' जैसा वाक्य कम्युनिस्ट पार्टी की ही देन है.
कानपुर में जब इनका पहला अधिवेशन हुआ, तब वहां छुआछूत की कुप्रथा का खुलकर विरोध किया गया. इसी प्रथा का विरोध महात्मा गांधी पहले से करते आ रहे थे. कम्युनिस्ट पार्टी ने सबसे पहले पूर्ण स्वराज की आवाज उठाई थी. बाद में दूसरे नेताओं ने भी इसी मुद्दे पर देश में आंदोलन तेज किया. कम्युनिस्ट पार्टी से प्रभावित होकर ही उसकी अन्य शाखाएं भी विकसित हुई. जैसे अखिल भारतीय किसान सभा, भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस, अखिल भारतीय छात्र संगठन और प्रगतिशील लेखक संघ. सभी संगठनों ने अपने-अपने फोरम के माध्यम से देश में एक वैचारिक वातावरण बनाने का काम किया. स्वामी सहजानंद सरस्वती जैसे लोग कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े. किसान आंदोलन को गति प्रदान की. क्रांतिकारी भगत सिंह भी कम्युनिस्ट पार्टी से प्रभावित थे. यह अलग बात है कि बाद में उन्होंने अपना एक अलग वैचारिक संगठन बनाया. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से वैचारिक लोग काफी प्रभावित हुए क्योंकि इस संगठन का उद्देश्य मजदूर, किसानों की भलाई के लिए काम करना था. देश में समतावादी समाज की स्थापना भी भाकपा का लक्ष्य रहा. पूंजीवाद का विरोध तो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का प्रमुख एजेंडा रहा. यही कारण है कि आजादी के तत्काल बाद होने वाले आम चुनाव में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थिति बहुत अच्छी रहा करती थी. उसके अनेक सांसद चुनकर आया करते थे. देश के तीसरे आम चुनाव में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के 29 सांसद निर्वाचित हुए थे. तब जनसंघ के इक्का दुक्का सांसद ही चुनकर आया करते थे . दक्षिण के कुछ राज्यों में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की सरकारें भी बनी
आजादी के पहले तक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की अपनी एक बेहतर छवि बनी रही. आजादी के बाद यह उम्मीद थी कि यह पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान कायम कर पाएगी, लेकिन दुर्भाग्य बस ऐसा हुआ नहीं. आजादी के इन सात दशकों के बावजूद कम्युनिस्ट पार्टी की लोकप्रियता जन-जन तक नहीं पहुंच सकी, जैसी लोकप्रियता भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस, बसपा और समाजवादी पार्टी की रही. यहां तक कि आम आदमी पार्टी की भी अपनी लोकप्रियता बनी. इतनी लोकप्रियता कि उसने पंजाब में अपनी सरकार बना ली. लेकिन भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की ऐसी लोकप्रियता देश में नहीं बन पाई.यह एक विचारणीय मुद्दा है, जिस पर पार्टी के शीर्षस्थ पदाधिकारियों को सोचना चाहिए कि आखिर ऐसा कैसे हुआ. अगर कोई पार्टी देश और समाज के हित में काम कर रही है, तो जनमानस उसे अपनी वैचारिक स्वीकृति क्यों नहीं देगा? यह बड़ा प्रश्न है. मेरा अपना मानना है कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की विचारधारा सर्वहारा के उन्नयन की रही है, वह पूंजीवाद के विरुद्ध भी है, फिर भी इस पार्टी को इस देश की आम जनता ने वैसे स्वीकृति क्यों प्रदान नहीं की, जैसी स्वीकृति अन्य दलों को मिल सकी. इसका मतलब यह है कि पार्टी अपने एजेंडे को समझाने में विफल रही.
मुझे लगता है कि इस मामले मामले में गंभीरता के साथ हाथों मंथन की जरूरत है. न मैं भारतीय जनता पार्टी का सदस्य हूं न किसी और दल का, इसलिए बिना किसी पूर्वाग्रह किए कहना चाहूंगा कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की कुछ ऐसी गलतियां रहीं,जिसके कारण इन्हें देश की आम जनता का व्यापक समर्थन नहीं मिल सका. सबसे बड़ी गलती जो मैंने महसूस की, वह यह है, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में भारत छोड़ो आंदोलन की आलोचना की थी और नेताजी सुभाष चंद्र बोस की भी निंदा की थी. चीन के प्रति पार्टी का लगाव भी उस पर भारी पड़ा. यही कारण है कि बाद में पार्टी का विघटन हुआ और मार्क्सवादी कांग्रेस पार्टी का जन्म हुआ. प्रगतिशील लेखक संघ के भी दो टुकड़े हुए और जनवादी लेखक संघ अस्तित्व में आया. चीन हमारा घोषित शत्रु है.उससे हुई 1962 की लड़ाई में भारत की पराजय हुई थी. उसी चीन को उस समय समर्थन देना कम्युनिस्ट पार्टी की एक बड़ी भूल थी. कांग्रेस द्वारा सन 1975 में इस देश में थोपे गए आपातकाल का समर्थन करना. आपातकाल के बारे में हमें पता है कि किस तरह से इंदिरा गांधी के नेतृत्व में देश भर के आंदोलनकारी को जेल में ठूँसा गया. अभिव्यक्ति के सारे अधिकार समाप्त कर दिए गए. ऐसे अलोकतांत्रिक निर्णय को अगर किसी पार्टी ने अपना वैचारिक समर्थन दिया, तो जाहिर है, जनता के मन से वह पार्टी उतर ही जाएगी. यह अच्छी बात है कि कम्युनिस्ट पार्टी ने भारत विभाजन का विरोध किया था लेकिन उसकी गलती यह रही कि उसने पहले स्वतंत्रता दिवस समारोह में भाग नहीं लिया. उसे लेना चाहिए था. स्वतंत्रता समारोह का बहिष्कार करने के कारण भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की छवि खराब हुई. ये कुछ ऐसे महत्वपूर्ण कारण है,जिसके कारण इस महादेश में इस पार्टी की वैसी प्रतिष्ठा नहीं बन सकी, जैसी बननी चाहिए थी. जबकि वह सर्वथा योग्य है. पश्चिम बंगाल में पार्टी ने वर्षों राज किया. लेकिन धीरे-धीरे उनकी नीतियों ने सत्ता से बाहर कर दिया और ऐसा बाहर किया कि हर चुनाव में सीटों के लाले पड़ गए. जन पक्षधरता की बात करने वाली कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार ने पश्चिम बंगाल में सिंगूर और नंदीग्राम में जिस तरह का क्रूर दमन कार्य किया, उससे देश भर में इस पार्टी की कटु निंदा हुई. परिणाम यह हुआ कि तीन दशक तक वहां राज करने वाली भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी सत्ता से बाहर हो गई और फिर दोबारा उसकी वापसी नहीं हो पाई. धीरे-धीरे कांग्रेस की जो स्थिति इस समय बनती जा रही है, बिल्कुल वैसी ही स्थिति कम्युनिस्ट पार्टी की बहुत पहले हो गई. हालत यह हुई है कि भारत निर्वाचन आयोग ने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा ही वापस ले लिया है. क्योंकि वर्तमान में इनके लोकसभा सदस्यों की संख्या केवल दो रह गई है. गनीमत है कि तीन राज्यों में अभी भाकपा सरकार में है. कहा गया है कि सब दिन होत न एक समान. संघर्ष करके भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी एक बार फिर देश की मुख्यधारा में शामिल हो सकती है. जैसे फीनिक्स पक्षी खत्म होकर एक बार फिर जीवित होता है, उसी तरह अगर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ढंग से मेहनत करे, तो वह फिर खड़ी हो सकती है. इसके लिए यह बहुत जरूरी है कि वह संघर्ष का रास्ता अपनाए. विचारधारा का प्रचार प्रसार होता रहे, साथ ही सड़क पर उतरकर जन मानस से जुड़े मुद्दों के लिए लड़ाई भी लड़नी होगी.
आत्म-मंथन और नवाचार ज़रूरी
मुझे लगता है कि अगर कम्युनिस्ट पार्टी के लोग ईमानदारी के साथ मेहनत करके जनमानस में अपनी छवि बनाने का काम करें, तो आने वाले समय में उनकी लोकप्रियता बढ़ेगी और सत्ता में उनकी भागीदारी भी सुनिश्चित हो सकेगी. इसके लिए सबसे जरूरी है नवाचार. ग्रास रूट स्तर पर काम करना पड़ेगा. केवल वैचारिक लेख लिख देने या भाषण देने से बात नहीं बनेगी. जनता के बीच उनके महत्वपूर्ण मुद्दों को लेकर जमीनी संघर्ष करना होगा, लाठियां खानी होगी, जेल जाना होगा. एक जुझारू छवि पार्टी को बनानी पड़ेगी. जनता को लगना चाहिए कि यह पार्टी हमारे लिए संघर्ष कर रही है. अभी जनता के बीच में पार्टी की वैसी छवि बिल्कुल नहीं बन पाई है. टीवी के बहसो में भारतीय जनता पार्टी को गरियाना या लेखों के माध्यम से कुछ कहने से बात नहीं बनेगी. सड़कों पर उतर करके जनता का दिल जीतना होगा. यह सिद्ध करना होगा कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी भारत को एक महान राष्ट्र बनाना चाहती है. वह समतावादी समाज की रचना का लक्ष्य लेकर चल रही है. वह पूंजीवाद के विरुद्ध संघर्ष कर रही है. ऐसा कहने से भर से काम नहीं चलेगा. पार्टी के कार्यकर्ताओं और नेताओं के जीवन में सादगी और समर्पण नजर आना चाहिए. उनकी कथनी करनी का अंतर खत्म होना चाहिए. और कहीं-न-कहीं राष्ट्र के प्रति उनकी सकारात्मक छवि भी विकसित होनी चाहिए. 'भारत तेरे टुकड़े होंगे इंशाल्लाह' कहने वाले तत्वों के विरुद्ध उन्हें खुलकर खड़ा होना पड़ेगा. देश विरोधी बयानों की निंदा करनी होगी. भारतीय जनता पार्टी के कट्टर राष्ट्रवाद के बरक्स एक उदारवादी राष्ट्रवाद का स्वर तो बुलंद करना ही होगा. जनता को यह महसूस होना चाहिए कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी भी राष्ट्रवादी है. बेशक यह उग्र राष्ट्रवादी नहीं है. इनके राष्ट्रवाद में हिंदू मुसलमान या बाकी धर्मावलंबी भी सम्मान के साथ रह सकते हैं. भारतीय जनता पार्टी ने समय के हिसाब से अपने आप को बदलना शुरू किया है. सबका साथ सबका विश्वास जैसा नारा बुलंद किया. उसने अपनी मुस्लिमविरोधी छवि को भी काफी हद तक दूर किया है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी अपने आप को बदला है. राष्ट्रीय मुस्लिम मंच जैसा संगठन बनाकर मुसलमानों को अपने साथ जोड़ने की कोशिश की. यही कारण है कि भारतीय जनता पार्टी की सभी धीरे-धीरे बनती जा रही है. संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने संघ की उदार छवि बनाने में महती भूमिका निभाई है. उसी तरह भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के पदाधिकारियों को काम करना होगा. और जनता के बीच जाकर यह साबित करना होगा कि यह जन सरोकार वाली पार्टी है. केवल बौद्धिक विमर्श से काम नहीं चलने वाला. पार्टी का यह शताब्दी वर्ष आत्ममंथन का वर्ष होना चाहिए और आगामी लोकसभा चुनाव के लिए अभी से राष्ट्रव्यापी तैयारी करनी चाहिए. कभी भारतीय जनता पार्टी के चार सांसद हुआ करते थे. आज 240 हैं. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी भी दो सीट से 200 तक भी पहुंच सकती है. बस उनके नेताओं को अपने 'कंफर्ट जोन' से बाहर निकलना होगा.
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अंधविश्वास धर्म में लगाव और जातिवादी राजनीति का उभार ने भी वाम दल को पीछे धकेलने का कार्य किया है
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