शनिवार, 26 अप्रैल 2025
मोदी वैसे जैसे घीसू-माधव ने कफन के पैसे से शराब पी,
हमारा “लहालोट” शासक !
कभी मधुबनी की धरती पर, जहां मैथिली की मिठास और हिंदी की सरलता गूंजती थी, एक “वैश्विक नेता” ने टेलीप्रॉम्प्टर की कृपा से अंग्रेजी में डायलॉग मारा: “We will track and punish every terrorist!”
जनता हैरान है कि भाई ये अंग्रेजी में क्या बखान कर रहे हैं? हिंदी में तो पहले ही समझ आ गया था! मधुबनी में टेलीप्रॉम्प्टर से बोले गये कथन, कि “आतंकियों को धरती के किसी कोने में नहीं छोड़ेंगे”, में वास्तव में कोई रोमांच नहीं था । यह वही पुराना “घुस कर मारा” वाला जुमला था, जो बालाकोट की सुर्खियों से निकलकर अब सचमुच थक चुका है।
फिर भी हम कहेंगे कि मोदी का यह कोई साधारण भाषण नहीं था । यह एक अनोखी “भाषिक फैंटेसी” थी जिसकी ओट में देश का प्रधानमंत्री यथार्थ से मुँह चुरा रहा था ।
गौर करने की बात है कि उसी मंच पर मोदी-नीतीश का एक नाटक लहालोट भी चल रहा था। मोदी-नीतीश, दोनों प्रेमचंद के घीसू-माधव की तरह, हंसी-ठिठोली में मस्त थे, मानो पहलगाम के 26 शहीदों का दुख कोई पुराना गाना हो, और पंचायती राज का “हलुआ-पूड़ी” उनके आज का आनंद। आख़िर वे वहाँ पंचायती राज दिवस मनाने के लिए ही इकट्ठे हुए थे !
दरअसल हमारे शासकों की यह अश्लील हंसी-ठिठोली सिर्फ मधुबनी तक सीमित नहीं है। यह उस “अय्याश और अशक्त बूढ़े शासक” की कहानी है जो जनता के प्रति पूरी तरह से “निष्ठुर और निर्दयी” हो चला है।
जनता पूछ रही थी: “साहब, आतंकियों को छोड़ने की बात छोड़ो, पहले बताओ कि कश्मीर में सुरक्षा क्यों नहीं?” पर शासक तो अपनी ही मौज में उलझा हुआ है, वैश्विक मंच पर इंग्लिश में “डायलॉगबाजी” करने की पीनक में, ताकि दुनिया ताली बजाए।
लेकिन वे नहीं जानते कि दुनिया में आज इनको पूछता कौन है ? ट्रंप की “चरणवंदना” और चीन से “सौदेबाजी” में उलझे “अतिरिक्त चालाक” मोदी आज भू-राजनीति के तूफान में दिशाहारा हैं । “मेक इन इंडिया” का ढोल पीटते-पीटते भारत को “मेड इन चाइना” का गुलाम बना डाला है । इलेक्ट्रॉनिक्स से लेकर सैन्य उपकरण तक, सब कुछ चीन से आता है । और नतीजा? कश्मीर में सुरक्षा चूक, क्योंकि स्वदेशी हथियारों का सपना अभी भी “प्रोजेक्ट इन प्रोग्रेस” है।
जनता पूछ रही है: “आत्मनिर्भरता का क्या हुआ?” और जवाब में उनके पास टेलीप्रॉम्प्टर की चमक और “लहालोट” हंसी है ।
यह मसला सिर्फ विदेश नीति या रक्षा का नहीं। यह उस “दुर्भाग्य” की कहानी है, जिसमें एक चरम “अशक्त” टीम को देश सौंप दिया गया है। मधुबनी का मंच तो बस एक झलक था—जहां शहीदों के दुख को भूलकर “हलुआ-पूड़ी” के सपने बांटे जा रहे थे । असल खेल तो दिल्ली में है, जहां लोकतंत्र और भाईचारा हर दिन खतरे में पड़ रहा है।
जैसे घीसू-माधव ने कफन के पैसे से शराब पी, वैसे ही ये शासक लोकतंत्र के कफन पर सांप्रदायिकता का जश्न मना रहे हैं ।
—अरुण माहेश्वरी
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1 टिप्पणी:
हजूर क्या लपेटा है क्या लपेट के मारा है जियो :)
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