बुधवार, 9 अप्रैल 2025
जनसंघियों का नारा था - भैया बचके रहिया हो रूस से चोरवा आईल बा गहबर लाल रंगाइल बा ना
आदरणीय भाई राघवेन्द्र भाऊ की दीवार से
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हिन्दुस्तानियों की एकता मजहबों की चिता पर होगी
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महापंडित राहुल सांकृत्यायन ( केदारनाथ पाण्डेय )
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जन्मदिन: 9 अप्रैल ( 1893 )
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राहुल् सांकृत्यायन के पास कोई औपचरिक डिग्री नही थी । जब पंडित नेहरू को पता चला कि हिंदी में लिखी राहुल जी की किताब ' मध्य एशिया का इतिहास ' आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के कोर्स में है तो उन्होंने तत्कालीन शिक्षा मंत्री हमायूँ कबीर से कहा - ' राहुल जी को किसी विश्वविद्यालय में प्रोफेसर बना दो । नही तो कुलपति ही बना दो ।' लेकिन लकीर के फकीर और डिग्री के व्यामोह में फंसे हुमांयू कबीर ने ऐसा नहीं किया । बाद में उन्हें श्रीलंका के अनुराधापुर विश्वविद्यालय के दर्शन विभाग में बौद्ध धर्म पढ़ाने के लिए आमंत्रित किया गया । उन्हे सोवियत सरकार ने भी बुलाया । राहुल सांकृत्यायन पहली बार चार सितंबर 1937 को इलाहाबाद आए । छह सितंबर को इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रों ने उनका 'मेरी कमजोरियां ' शीर्षक व्याख्यान रखा था । इसकी अध्यक्षता पं. जवाहरलाल नेहरू ने किया था ।
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" ... मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना ’- इस सफ़ेद झूठ का क्या ठिकाना है ? अगर मज़हब बैर नहीं सिखलाता, तो चोटी-दाढ़ी की लड़ाई में हज़ार बरस से आज तक हमारा मुल्क़ पामाल (बर्बाद) क्यों है ?
पुराने इतिहास को छोड़ दीजिए, आज भी हिंदुस्तान के शहरों और गांवों में एक मज़हब वालों को दूसरे मज़हब वालों के ख़ून का प्यासा कौन बना रहा है?
असल बात यह है--' मज़हब तो है सिखाता आपस में बैर रखना । भाई को है सिखाता भाई का ख़ून पीना । ' हिंदुस्तानियों की एकता मज़हबों के मेल पर नहीं होगी, बल्कि मज़हबों की चिता पर होगी ।'
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मेरा भी मानना है कि बेशक धर्म की कभी उदात्त और नवजागरण /पुनर्जागरण वाली भूमिका भी रही । लेकिन इन दिनों कोई फिरका हो धर्म की संस्थागत भूमिका आतताई और पतनशील है ।
भारतीय जनता पार्टी ने तो धर्म और राजनीति का ऐसा घातक मेल बनाया है जिससे अंततः मानवीयता /मनुष्यता का ही हनन होगा । भाजपा को वोट देना धार्मिक, कर्मकांडी कृत्य बना दिया गया है । यह भारत की महान जनता को तर्क , विवेक और वैज्ञानिक नजरिये से दूर रखने की बहुत संगठित, व्यापक और आपराधिक दक्षता के हद तक की साजिश है । क्या हम धर्म को फिलवक्त के लिए उसके बैरक तक ही सीमित कर देने का अभियान चला सकते हैं -- कोई फिरका हो ।
फ्रांसिस फुकुयामा अपनी किताब ‘ एंड आफ द हिस्ट्री एंड द लास्ट मैन ‘ में कहता है कि ( छोटे - छोटे गलाकाटू चुनाव की बहुतायत ) , पूजा - पाठ को प्रतिस्पर्धी और लोकप्रिय बनाकर भी आम जन को रैडिकल राजनीतिक चेतना से विरत रखा जा सकता है ।
डीपी त्रिपाठी ( डीपीटी ) कहते हैं --- हम जा कहां रहे हैं ? सीमाओं पर सैनिक टकराव भी राष्ट्रवादी उन्माद उभारते हैं जो यथास्थिति बनाये रखने में मददगार होता है । सारे महान विचारों के अध:पतन का , उनके अवसरवादी आत्मकेंद्रियता का यह दौर बदल सकने की पहल से कौन असहमत होगा ? दरअसल आज गांधी की ज्यादा जरूरत है -- ईश्वर अल्ला तेरो नाम सबको सन्मति दे भगवान ….।
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60 के दशक का यह वह दौर था जब हमारी सांस्कृतिक समझ और आस्था कुछ उन सी ग्रेड हिंदी ( कथित धार्मिक ) फिल्मों से तय हो रही थी जिसमें किसी देवता की हथेली से निकले रेज ( रश्मियों ) से कोई कुष्ठ पीड़ित तुरन्त कंचन देह प्राप्त कर लेता था । सिनेमा हॉल में तब औरतें सुबकने लगती थीं , प्रभु की अपार करुणा देखकर ।
इन फिल्मों में बहुत कुछ स्वतः होता था । मतलब जड़ पत्थर का हवा में अचानक नाचने लगना , पेड़ों का बेमौसम अचानक फलों से लद जाना और बिना तेल - बाती दीयों का जगजग हो उठना । सब प्रभु की कृपा से होता था । ये वो धार्मिक फिल्में थीं जो अंततः ' खुल जा सिमसिम ' मुहावरे में ढल जाती थीं । तब रही होगी मेरी उम्र 11 -12 की ।
मेरे तीन बाबा में सबसे छोटे पंडित रामसुंदर दुबे , मुख्तार थे । जो बाद में पूरे गोरखपुर मंडल के रेवेन्यू मामलों के नामी और सबसे काबिल एडवोकेट हुए ।
घर में स्तोत्र जोर - जोर से पढ़ने का चलन था और भोजन से पहले मंत्र का भी । मैंने भी कई साल पूजा के बर्तन मांजे । छोटे बाबा का संस्कृत के विपुल साहित्य से देवताओं की आराधना - प्रार्थना ( स्तोत्र ) तक ही मतलब था । अभी यह समझ कमजोर नहीं पड़ी थी कि संस्कृत देवभाषा है और उत्कृष्ट देवाराधन उसी में संभव है ।
छोटे बाबा 1952 में जनसंघ से देवरिया से सांसद का चुनाव भी लड़े । उनके प्रचार में चाचा लोग कम्युनिस्टों से सावधान रहने का गीतात्मक नारा लगाते थे --
भैया बचके रहिया हो रूस से चोरवा आईल बा
गहबर लाल रंगाइल बा ना ( गहबर मतलब गाढ़ा , चटख )
ठीक - ठीक नहीं कह सकता लेकिन उसी के आसपास दीवानी मामलों के ( यशस्वी अधिवक्ता पं कन्हैयालाल मिश्र के सुयोग्य जूनियर रहे ) मशहूर वकील पंडित लक्ष्मीकांत चतुर्वेदी भारतीय जनसंघ की उत्तर प्रदेश राज्य इकाई के अध्यक्ष थे ।
बाबा के मित्रों की विप्र श्रेष्ठ टोली खासकर किसी मलिकार जी की स्थापना थी कि कम्युनिस्ट वही है जिसका कमीनापन ही ईष्ट हो । कम्युनिष्ट विधर्मी और पथभ्रष्ट माना जाता था ।
पंडित जवाहरलाल नेहरू की निंदा की जाती थी , यह कहना गलत है । नेहरू को गाली दी जाती थी । इसी माहौल से निकला था मैं जो नेहरू को अप्रतिम राजनेता , नए भारत का निमार्णकर्ता और दुनिया का सर्वश्रेष्ठ राजनीतिक चिन्तक मानता हूं ।
थोड़ा और बड़ा हुआ । तब शायद 10वीं या 11वीं कक्षा में था । मेरे पास से राहुल सांकृत्यायन की ' बोल्गा से गंगा ' बरामद हुई थी । ' तुम्हारी क्षय ' भी । घर में कोहराम मच गया । मेरी खासी प्रताड़ना हुई ।
मुझसे कहा गया मैं इस मंत्र का प्रतिदिन 11 बार पाठ करूं -- ' मैं पापी हूं , पापात्मा हूं , मुझसे पाप कर्म ही संभव है । हे भगवान विष्णु मेरे पापों को क्षमा करें ' पापोहं पापकर्माहं पापात्मा पापसम्भव, पाहि मां पुण्डरीकाक्ष सर्वपापहरो भव ।'
और यहीं से जो मैं आज हूं उसका प्रस्फुटन होने लगा था । यह अब पकड़ पा रहा हूं । सोचता हूं आखिर मानव जाति आदिम बर्बरता से जाने कितनी ऐतिहासिक बाधाओं को पार करते यहां तक आयी है ।
पंडित नेहरू से हमने सीखा कि यहीं जड़ होकर नहीं रह जाना है । हम बुद्धिसंगत विवेक से ही अपने समय के भयावह दौर से भी लड़ेंगे । न हम अपने इतिहास को अस्वीकार कर सकते हैं न बेहतर भविष्य के सपने देखना बंद कर सकते हैं । यह सभ्यतागत मानवीय दायित्व ही हमें जिंदा रखता है ।
मुझे लगता है एक विवेकशील मनुष्य होने के लिए राहुल सांकृत्यायन को पढ़ना जरूरी है । जिन्हें पढ़ने की मैं बचपन में सजा पा चुका । रिश्ते में चाचा लगते लेकिन दोस्त अधिक प्रोफेसर जयराम दुबे ही यह किताब ले आये थे बाद के दिनों के मशहूर रेवेन्यू मामलों के वकील रामनगेन्द्र सिंह से ।
कई बार लगता है अगर मौजूदा नरेंद्र मोदी सरकार रह गयी तो जल्दी ही मुझे 70 पार की इस उम्र में अपने बचपन का दौर देखना ही पड़ जाएगा । हो सकता है राहुल सांकृत्यायन का साहित्य प्रतिबंधित भी कर दिया जाए । हम रामानंद सागर के जरिये रामायण या रामचरित मानस समझने , थरिया , लोटा बजाने और भूखे पेट पर दीया जलाने तक तो आ ही गए ।
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राहुल सांकृत्यायन ( मूल नाम केदार पांडेय ) चिर विद्रोही , महान लेखक, इतिहासविद, पुरातत्ववेत्ता, त्रिपिटकाचार्य के साथ-साथ एशियाई नवजागरण के प्रवर्तक-नायक थे ।
काशी के बौद्धिक समाज ने उन्हें 'महापंडित' के अलंकार से सम्मानित किया था । क्या हम लोग उन्हें फिर से पढ़ना शुरू करेंगे , इस आतताई दौर को समझने और इससे मुकाबले के लिए ।
वह आजीवन यायावर रहे । घुमक्कड़ । वह कहते हैं -- ' यह वही कर सकता है जिसमें बहुत भारी मात्रा में हर तरह का साहस है - तो उसे किसी की बात नहीं सुननी चाहिए, न माता के आंसू बहने की परवाह करनी चाहिए, न पिता के भय और उदास होने की, न भूल से विवाह लाई अपनी पत्नी के रोने-धोने की फिक्र करनी चाहिए और न किसी तरुणी को अभागे पति के कलपने की ।
बस शंकराचार्य के शब्दों में यही समझना चाहिए - ' निस्त्रैगुण्ये पथि विचरत: को विधि: को निषेधा: ' और मेरे गुरु कपोतराज के बचन को अपना पथप्रदर्शक बनाना चाहिए -
' सैर कर दुनिया की गाफिल, जिंदगानी फिर कहां ?
जिंदगी गर कुछ रही तो नौजवानी फिर कहां ?
दुनिया में मनुष्य-जन्म एक ही बार होता है और जवानी भी केवल एक ही बार आती है । साहसी और मनस्वी तरुण-तरुणियों को इस अवसर से हाथ नहीं धोना चाहिए । कमर बाँध लो भावी घुमक्कड़ो ! संसार तुम्हारे स्वागत को तैयार है ।...'
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राहुल जी का बुद्ध के प्रति आकर्षण की मुख्य वजह ईश्वर के अस्तित्व से इंकार था । उन्होंने कहा - बौद्ध धर्म को दूसरे धर्मों से जो चीज भिन्न बनाती है वो है ईश्वर के अस्तित्व से पूरी तरह इंकार । ईश्वर के आगे-पीछे तो बड़े-बड़े दर्शन खडे़ किए गए, बड़े-बड़े पोथे लिखे गए ।
दुनिया के सारे धर्म दूसरी बातों में आपस में कट मरें पर ईश्वर, महोवा या अल्लाह के नाम पर सभी सिर नवाए और अक्ल बेच खाने को तैयार हैं । सिर्फ बौद्ध ही ऐसा धर्म है जिसमें ईश्वर के लिए कोई स्थान नहीं है । ईश्वर से मुक्ति पाए बगैर बुद्धि पूरी तरह मुक्त नहीं होती ।
राहुल जी का यह प्रसिद्ध कथन है - बुद्ध और ईश्वर साथ-साथ नहीं रह सकते । ' प्रत्यक्ष से इतर किसी अदृश्य ताकत को मैं नहीं मानता। ' यही चीज राहुल जी को बुद्ध में सबसे अधिक पसंद थी।
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नामवर सिंह जी राहुल के विचारधारात्मक नजरिए का मूल्यांकन करते लिखते हैं - ' विचारधारा जिस हद तक काम आए ,इस्तेमाल करो । काम जब न आए ,छोड़ दो । जो बेहतर चीज हो ,उसे ले लो ।’ अपने नजरिए के बारे में इस तरह का अनासक्त भाव उनकी सबसे बड़ी शक्ति थी और इसे उन्होंने महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं से ग्रहण किया था । राहुलजी के इस नजरिए की धुरी हैं महात्मा बुद्ध । ‘ मेरी जीवन यात्रा ' में राहुल जी ने बुद्ध का एक वचन पालि में उद्धृत किया है-
“कुल्लुपमं देसेस्यामि वो भिक्खिवे धम्मं
तरणत्थाय नो गृहणत्थाय।।”
( हे भिक्षुओ ! यह धर्म मैं छोटी सी नाव के समान दे रहा हूँ पार उतरने के लिए । पार उतर जाने के बाद,सिर पर रखकर ढोने के लिए नहीं। )
प्रो. जगदीश्वर चतुर्वेदी लिखते हैं -- राहुल सांकृत्यायन ने कट्टर सनातनी ब्राह्मण कुल में जन्म लेकर भी सनातन धर्म की रूढ़ियों को अपने ऊपर से उतार फेंका और जो भी तर्कवादी धर्म या तर्कवादी समाजशास्त्र उनके सामने आते गये, उसे ग्रहण करते गये और शनै: शनै: उन धर्मों एवं शास्त्रों के भी मूल तत्वों को अपनाते हुए उनके बाह्य ढाँचे को छोड़ते गये ।
सनातन धर्म, आर्य समाज और बौद्ध धर्म से साम्यवाद की ओर राहुल जी के सामाजिक चिन्तन का क्रम है, राहुल जी किसी धर्म या विचारधारा के दायरे में बँध नहीं सके । 'मज्झिम निकाय' के सूत्र का हवाला देते हुए राहुल जी ने अपनी 'जीवन यात्रा' में इस तथ्य का स्पष्टीकरण इस प्रकार किया है-
' बड़े की भाँति मैंने तुम्हें उपदेश दिया है, वह पार उतरने के लिए है, सिर पर ढोये-ढोये फिरने के लिए नहीं - तो मालूम हुआ कि जिस चीज़ को मैं इतने दिनों से ढूँढता रहा हूँ, वह मिल गयी '।
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वर्तमान समय में वाम मार्ग ही सच्चा विकल्प है
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