सोमवार, 4 अगस्त 2025
प्रज्ञा सिंह ठाकुर को बचाने के लिए क्या क्या हुआ है
क्या मालेगांव ब्लास्ट के अहम दस्तावेजो के गायब होने से और मामले मे राजनीतिक दख़लअंदाज़ी से केस का फैसला प्रभावित हुआ है ?
मालेगांव ब्लास्ट 2008 केस में विशेष एनआईए कोर्ट ने बीजेपी की पूर्व सांसद प्रज्ञा सिंह ठाकुर, कर्नल प्रसाद पुरोहित समेत 7 लोगों को बरी कर दिया। लेकिन इस विस्तृत फैसले को पढ़ा जाना चाहिए, क्योंकि अदालत ने तमाम सवाल उठाए हैं। इस फैसले के बाद जिस तरह तमाम तत्व इसे सोशल मीडिया पर अपने नजरिए से परोस रहे हैं, उससे मूल सच्चाई सामने नहीं आ पा रही है।
टाइम्स ऑफ इंडिया और इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट में एक सनसनीखेज खुलासा किया गया है। विशेष एनआईए कोर्ट ने बताया कि इस मामले से संबंधित महत्वपूर्ण दस्तावेज गायब हो गए और मूल बयानों के कागजात भी खो गए हैं। इस घटना ने जांच की पारदर्शिता और विश्वसनीयता पर गंभीर सवाल खड़े किए हैं।
29 सितंबर 2008 की रात को महाराष्ट्र के नासिक जिले के मालेगांव में भिखु चौक पर हुए विस्फोट ने पूरे क्षेत्र को हिलाकर रख दिया था। इस धमाके में छह लोगों की मौत हो गई थी और सौ से अधिक लोग घायल हुए थे। यह विस्फोट रमज़ान के पवित्र महीने और नवरात्रि के हिंदू त्योहार की पूर्व संध्या पर हुआ था, जिसके कारण सांप्रदायिक तनाव की आशंका बढ़ गई थी। इस मामले की जांच और सुनवाई 17 साल तक चली, और अंततः 31 जुलाई 2025 को विशेष एनआईए कोर्ट ने सभी सात आरोपियों को बरी कर दिया।
कोर्ट ने अपनी टिप्पणियों में कहा कि इस मामले में कई महत्वपूर्ण दस्तावेज गायब हो गए, और गवाहों के मूल बयान खो गए। इसके अलावा, जांच के दौरान सबूतों के साथ छेड़छाड़ और गवाहों के बयान वापस लेने के आरोप भी सामने आए।
इस मामले में एक सेवारत सेना अधिकारी को आतंकी गतिविधियों के आरोप में गिरफ्तार किया गया था, जिसने उस समय काफी विवाद खड़ा किया था। विभिन्न जांच एजेंसियों द्वारा इस मामले को संभालने के कारण जांच की दिशा और विश्वसनीयता पर सवाल उठे हैं।
मुंबई मिरर के अनुसार, सीआरपीसी 164 और मकोका के तहत दर्ज कम से कम 13 गवाहों और दो आरोपियों के इकबालिया बयान 2016 तक अदालती रिकॉर्ड से गायब हो गए।
इनमें प्रज्ञा ठाकुर और रामजी कलसांगरा (एक फरार आरोपी) के बीच मालेगांव विस्फोट की योजना पर चर्चा के दौरान हुई बैठकों के विवरण शामिल थे।
अदालत-दर-अदालत ट्रैकिंग के बावजूद मूल दस्तावेजों का पता न चलने के बाद, विशेष अदालत ने अंततः बचाव पक्ष की आपत्तियों के बावजूद, फोटोकॉपी के इस्तेमाल की अनुमति दे दी।
दिल्ली में एनआईए द्वारा दर्ज किए गए नए बयान पहले के बयानों के बिल्कुल विपरीत थे, जिसके कारण अब आरोपियों को दोषमुक्त किया गया है।
मालेगांव ब्लास्ट की जांच में राजनीतिक दखल -
राजनीतिक हवा और सरकारी पक्ष की उदासीनता 2014 से नज़र आने लगी थी। 2014 में केंद्र की सत्ता में बीजेपी आई। इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार, 2014 के बाद सरकारी पक्ष का रवैया बदल गया, जिसकी पुष्टि शुरुआती विशेष लोक अभियोजक रोहिणी सालियान ने सार्वजनिक रूप से की।
2015 में, सालियान ने खुलासा किया कि एनआईए अधिकारियों ने उन्हें आरोपियों के प्रति "नरम रुख" अपनाने का निर्देश दिया था। जब उन्होंने इनकार किया, तो उन्हें दरकिनार कर दिया गया और उनकी जगह किसी और को पेश किया गया।
उन्होंने बताया कि एक वरिष्ठ अधिकारी आए और कहा कि उच्च अधिकारियों से निर्देश मिले हैं। आपकी जगह कोई और पेश होगा।"
सालियान की जगह आए अविनाश रसाल ने बाकी मुकदमे की अगुवाई की। एनआईए के 2016 के सप्लीमेंट्री चार्जशीट ने एटीएस मामले को कमज़ोर कर दिया, मकोका हटा दिया, और एटीएस की हिरासत में प्राप्त स्वीकारोक्ति की विश्वसनीयता पर सवाल उठाया। ज्यादातर आरोपियों को कथित यातना को आधार बनाया।
आरोपियों ने दावा किया कि उनके बयान ज़बरदस्ती लिए गए थे। एनआईए इससे सहमत दिखी। हालांकि एटीएस ने हिरासत में जो कथित यातना आरोपियों के साथ की थी, उसके लिए उस पर कोई औपचारिक मुकदमा नहीं चलाया गया।
एटीएस ने एक मज़बूत मामला बनाया था कि अभिनव भारत एक कट्टरपंथी हिंदुत्ववादी संगठन है जो हिंसा की साज़िश रच रहा है। एक मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, स्वामी दयानंद पांडे द्वारा स्वयं रिकॉर्ड की गई बैठकों के टेपों में, एक समानांतर राज्य ढांचे की विस्तृत योजनाएँ दिखाई गईं, जिसका अपना झंडा, संविधान और सेना होगी। आरोपियों ने कथित मुस्लिम आतंकवादियों के कृत्यों का बदला लेने और बलपूर्वक "हिंदू राष्ट्र" बनाने के लिए खुद को तैयार करने की बात की।
नासिक स्थित भोंसला मिलिट्री स्कूल - जिसका इस्तेमाल कैडरों को प्रशिक्षित करने के लिए किया जाता था - को जाँच से बचा लिया गया। जिन वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों ने यहां बैठकों में मदद की या विस्फोटकों तक पहुँच प्रदान की, उन्हें गवाह के रूप में सूचीबद्ध किया गया, न कि अभियुक्त के रूप में। इसके बावजूद, अदालत ने माना कि समूह की रूपरेखा, ढांचा साबित नहीं हो सका, और इसलिए साज़िश भी स्थापित नहीं हो सकी। अभिनव भारत के गठन का आरोप कर्नल पुरोहित पर था।
अभिनव भारत ने एक बड़ा नेटवर्क फैलाया था, जिसकी कभी जाँच नहीं हुई। मालेगांव मामला कोई अकेली घटना नहीं थी। कुछ और भी घटनाओं का संबंध इस नेटवर्क से जुड़ा था लेकिन बाद में खामोशी छा गई। समझौता एक्सप्रेस विस्फोट (2007) अजमेर शरीफ दरगाह विस्फोट (2007) हैदराबाद में मक्का मस्जिद विस्फोट (2007) नांदेड़ और परभणी मस्जिद विस्फोट (2003-2006)।
एटीएस ने शुरू में इन विस्फोटों को एक बड़े हिंदुत्व आतंकवादी नेटवर्क का हिस्सा मानने का तर्क दिया था, जिसकी विचारधारा, धन और लोग एक जैसे थे। 2011 में एनआईए के इसकी जांच संभालने के बाद इस कहानी को चुपचाप दरकिनार कर दिया गया।
इस खुलासे ने सामाजिक और राजनीतिक हलकों में तीखी प्रतिक्रियाएं पैदा की हैं। सोशल मीडिया पर इस मामले को लेकर चर्चा तेज है, जहां कुछ लोग इसे जांच एजेंसियों की विफलता बता रहे हैं, तो कुछ इसे सुनियोजित साजिश का हिस्सा मान रहे हैं। एक्स पर तमाम लोगों ने इस मामले में गायब दस्तावेजों पर सवाल उठाते हुए गृह मंत्रालय से जवाब मांगा।
बहरहाल, मालेगांव विस्फोट मामले में दस्तावेजों के गायब होने और मूल बयानों के खो जाने की घटना ने जांच प्रक्रिया की निष्पक्षता पर सवाल खड़े किए हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि इस तरह की खामियां न केवल न्याय प्रक्रिया को प्रभावित करती हैं, बल्कि आम जनता के बीच जांच एजेंसियों के प्रति विश्वास को भी कम करती हैं। आने वाले दिनों में इस मामले में आगे की जांच और जवाबदेही तय करने की मांग जोर पकड़ सकती है।
स्रोत : विभिन्न मीडिया रिपोर्टस
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें