शुक्रवार, 10 अक्टूबर 2025
गुलाम दिमाग की भारत माता प्रेम सिंह
गुलाम दिमाग की भारत माता
प्रेम सिंह
कभी-कभी जैसे ही मैं किसी सभा में पहुंचता था, मेरे स्वागत में अनेक कंठों का स्वर गूंज उठता था – “भारत माता की जय”। मैं उनसे अचानक प्रश्न कर देता कि इस पुकार से उनका क्या आशय है? यह भारत माता कौन है, जिसकी वे जय कहते हैं, मेरा प्रश्न उन्हें मनोरंजक लगता और चकित करता। . . . आखिर एक हट्टा-कट्टा जाट, जिसका न जाने कितनी पीढ़ियों से मिट्टी से अटूट नाता है, जवाब में कहता कि यह भारत माता हमारी धरती है, भारत की प्यारी मिट्टी। मैं फिर सवाल करता: “कौन-सी मिट्टी? - उनके अपने गांव के टुकड़े की, या जिले और राज्य के तमाम टुकड़ों की, या फिर पूरे भारत की मिट्टी?” प्रश्नोत्तर का सिलसिला तब तक चलता रहता जब तक वे प्रयत्न करते रहते और आखिर कहते भारत वह सब कुछ तो है ही जो उन्होंने सोच रखा है, उसके अलावा भी बहुत कुछ है। भारत के पहाड़ और नदियां, जंगल और फैले हुए खेत जो हमारे लिए खाना मुहैया करते हैं सब हमें प्रिय हैं। लेकिन जिस चीज का सबसे अधिक महत्व है वह है भारत की जनता, उनके और मेरे जैसे तमाम लोग, वे सब लोग जो इस विशाल धरती पर चारों ओर फैले हैं। भारत माता मूल रूप से यही लाखों लोग हैं और उनकी जय का अर्थ है इसी जनता जनार्दन की जय। मैंने उनसे कहा तुम भारत माता के हिस्से हो, एक तरह से तुम खुद ही भारत माता हो।” (जवाहरलाल नेहरू, ‘भारत की खोज’)
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हर साल 5 जून को मनाए जाने वाले विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर पर केरल की राज्य सरकार और वहां के राज्यपाल राजेंद्र विश्वनाथ अर्लेकर के बीच राज्यपाल भवन में आयोजित एक कार्यक्रम में भारत माता के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) द्वारा प्रायोजित चित्र पर पुष्पांजलि अर्पित करने को लेकर विवाद हुआ। कार्यक्रम में कृषि मंत्री पी प्रसाद और शिक्षा मंत्री वी शिवनकुट्टी को भी रहना था। लेकिन जब कृषि मंत्री पी प्रसाद को पता चला कि तय कार्यक्रम से हट कर भारत माता के चित्र पर पुष्पांजलि अर्पित करने का कार्यक्रम भी जोड़ दिया गया है तो उन्होंने आयोजन से अपने को अलग कर लिया। उन्होंने कहा कि विश्व पर्यावरण दिवस समारोह के लिए राजभवन ने एक मिनट-दर-मिनट कार्यक्रम तैयार किया था, लेकिन शुरुआत में उसमें भारत माता के चित्र पर पुष्पांजलि अर्पित करने का कोई प्रावधान नहीं था। कार्यक्रम की पूर्व संध्या पर हमें एक नया कार्यक्रम भेजा गया, जिसमें भारत माता के चित्र पर पुष्पांजलि अर्पित करना भी शामिल था।
पी प्रसाद जो पहली बार विधायक बने हैं और भारतीय मार्क्सवादी पार्टी (सीपीआई) के नेता हैं, ने कहा कि मैंने इस बाबत राजभवन से पूछताछ की और उनसे भारत माता का वह चित्र भेजने को कहा जिस पर पुष्पांजलि अर्पित की जानी थी। वह आरएसएस द्वारा इस्तेमाल किया जाने वाला चित्र था, जिसकी कोई आधिकारिक मान्यता नहीं है। मैंने राजभवन को सूचित किया कि हम उस चित्र पर पुष्पांजलि नहीं चढ़ा सकते। राजभवन ने जवाब दिया की चित्र नहीं हटाया जाएगा।
पी प्रसाद ने कहा कि आज़ादी के बाद से संविधान या सत्ता में रही किसी भी सरकार ने कभी भी भारत माता के चित्र-विशेष को आधिकारिक या अधिकृत संस्करण के रूप में स्वीकार नहीं किया है। उन्होंने आगे कहा कि इस कार्यक्रम में इस्तेमाल होने वाले चित्र पर भारतीय ध्वज नहीं, बल्कि एक राजनीतिक संगठन का ध्वज है, इसलिए किसी सरकारी कार्यक्रम के दौरान इसका सम्मान नहीं किया जा सकता। मंत्री ने कहा कि कोई भी राजनीतिक संगठन और राज्यपाल अपने निजी कार्यक्रमों में भारत माता के अपने पसंदीदा चित्र पर पुष्पांजलि अर्पित करने के लिए स्वतंत्र हैं, लेकिन राज्य सरकार के कार्यक्रमों में ऐसा नहीं किया जा सकता।
उन्होंने आगे कहा कि हम सभी का एक राजनीतिक दृष्टिकोण होता है, लेकिन संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों के लिए इसे व्यक्त करने के तरीके सीमित होते हैं। मंत्री ने यह भी सवाल उठाया कि राज्यपाल इस मुद्दे पर अड़ियल क्यों बने हुए हैं, जबकि राज्य के किसी भी पूर्व राज्यपाल, यहां तक कि देश के राष्ट्रपतियों ने भी अतीत में ऐसा नहीं किया है। संवैधानिक पदों पर बैठे लोग सरकारी कार्यक्रमों को राजनीतिक आयोजनों में नहीं बदल सकते। राज्य के शिक्षा मंत्री वी. शिवनकुट्टी ने राय व्यक्त की कि राजभवन और राज्यपाल राजनीति से ऊपर हैं, और अर्लेकर को अपने पद से हट जाना चाहिए।
बहरहाल, राज्यपाल ने राज्य सरकार के पक्ष और बहिष्कार की परवाह नहीं की। उन्होंने राजभवन के कार्यक्रम में आरएसएस प्रायोजित भारत माता के चित्र का उपयोग किया। जबकि राजभवन का रुख जानने के बाद राज्य सरकार ने कार्यक्रम को सचिवालय के दरबार हॉल में स्थानांतरित कर दिया। राजभवन ने सरकार के कार्यक्रम से अलग अपना कार्यक्रम जारी रखा। कार्यक्रम के बाद राज्यपाल ने कहा कि किसी भी दबाव के तहत भारत माता के साथ कोई समझौता नहीं किया जाएगा। जाहिर है, वे आरएसएस प्रायोजित भारत माता की छवि को ही सही (और अधिकृत भी) मानते हैं।)
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स्वतंत्रता आंदोलन के दौर से ही ‘भारत माता’ को परिभाषित और व्याख्यायित करने की परंपरा मिलती है। यह परंपरा ब्रिटिश साम्राज्यवाद से मुक्ति के लिए सशस्त्र बगावत करने वाले 1857 के लड़ाकों, भूमिगत क्रांतिकारियों, वृहद पैमाने पर जनता के आंदोलन करने वाले नेताओं और उन आंदोलनों में हिस्सेदारी करने वाली भारतीय जनता तक फैली है। भारत की सभी भाषाओं के साहित्यकारों, कलाविदों, कलाकारों, विद्वानों ने अपनी रचनाओं और प्रस्तुतियों के माध्यम से उस विमर्श में अपनी भूमिका निभाई है। जवाहरलाल नेहरू और राममनोहर लोहिया जैसे दार्शनिक प्रतिभा वाले नेताओं ने अपनी लेखनी और वक्तृताओं से भारत माता के स्वरूप से जुड़े विमर्श को समृद्ध किया है। इस सबके चलते भारतीय जनमानस में भारत माता की विविध छवियां कल्पित हुई हैं, जिनके आधार पर भारत माता के कई चित्र उपलब्ध होते हैं। ये चित्र प्रतिष्ठित कलाकारों से लेकर बच्चों तक ने बनाए हैं। इनमें धार्मिक मिथक प्रेरित चित्रों – देवी रूप में भारत माता की कल्पना - से लेकर धर्म-तटस्थ चित्र मिलते हैं. विशिष्ट राष्ट्रीय पर्वों पर बच्चे भारत माता के रूप में चाव से सजते भी हैं। कह सकते हैं कि इस पूरे परिदृश्य में देश के नक्शे की पृष्ठभूमि में तिरंगे परिधान में तिरंगा ध्वज हाथ में लेकर खड़ी भारत माता की छवि को अघोषित राष्ट्रीय मान्यता मिली हुई है। भारत माता का यह रूप देश की भौगोलिक बनावट, विपुल प्राकृतिक सम्पदा और समस्त देशवासियों के अस्तित्व को अपने में समाहित करने के साथ बलिदान और स्वतंत्रता की चेतना का प्रतीक है।
आरएसएस की भारत माता के हाथ में उसके संगठन का भगवा झंडा होता है, न कि भारत का। आरएसएस के चित्र में आभूषणों से सुसज्जित भारत माता शेर का सहारा लेकर खड़ी है, जिसकी पृष्ठभूमि में ‘अखंड भारत’ का नक्शा है, न कि भारत या भारतीय उपमहाद्वीप का। इस भारत माता के ‘साधक’ आरएसएस को न आज़ादी के पहले की साम्राज्यवादी गुलामी से विरोध था, न अभी की नवसाम्राज्यवादी गुलामी से। केरल के राज्यपाल ने राजभवन में आयोजित कार्यक्रम में इसी चित्र का उपयोग किया; और जब उन्होंने कहा कि भारत माता के मुद्दे पर कोई समझौता नहीं किया जा सकता, तो वे यही कह रहे हैं कि आरएसएस की भारत माता ही असली भारत माता है। अर्थात, भारत में आरएसएस की सरकार है, तो सरकारी आयोजनों में भारत माता भी आरएसएस की होगी!
यह आश्चर्य की बात नहीं है कि आरएसएस ने स्वतंत्रता संघर्ष के खिलाफ साम्राज्यवादियों का साथ दिया था, या उसने भारतीय संविधान, राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्र-गान का स्पष्ट अस्वीकार किया था। ये इतिहास के सर्वविदीदत तथ्य हैं। आश्चर्य की बात यह है कि वह अपनी स्थापना के 100 साल बाद भी अपनी देशभक्ति के खोखलेपन को समझ नहीं पाया है. यह समझने की तो शायद वह योग्यता ही गंवा बैठा है कि राजनीतिक सत्ता के बल पर बलिदान और स्वतंत्रता की चेतना से विहीन भारत माता की छवि थोप कर वह भारत माता का ही सतत अपमान करता है; और संततियों को भी उस लीक पर डालने कि कोशिश करता है। जड़ता की इतनी लंबी स्थिति न किसी व्यक्ति के लिए, न ही समूह/संगठन के लिए, न ही समाज और देश के लिए सही मानी जा सकती है।
आरएसएस कतिपय प्रयासों के बावजूद इस जड़ता को नहीं तोड़ पाता है, इसके मुख्यत: दो कारण लगते हैं। पहला, आधुनिक भारत में राष्ट्रवाद के सभी विमर्श और विचार ब्रिटिश साम्राज्यवाद के साथ टकराहट से पैदा होते हैं। जबकि आरएसएस का ‘हिंदू-राष्ट्रवाद’ एक पुरातनपंथी मानसिकता में रचा-बसा है। लिहाजा, भारतीय नवजागरण की विविध अभिव्यक्तियों से आरएसएस का रिश्ता नहीं जुड़ पाता। दूसरा, स्वतंत्रता आंदोलन की विचारधाराओं और उनसे जुड़ी शख्सियतों के साथ आरएसएस का सलूक हाईजैक करने का होता है। उसकी नीयत उन्हें ‘हिंदुत्व’ अथवा ‘हिंदू-राष्ट्रवाद’ की जड़ीभूत मानसिकता के पक्ष में इस्तेमाल करने की होती है। हिंदू धर्म के विविध संप्रदायों, अन्य धर्मों और दलित-आदिवासी समुदायों के साथ भी उसका सलूक इसी तरह का है। जड़ता को तोड़ने के लिए विचार के विविध स्रोतों के साथ स्वस्थ संवाद बनाने की योग्यता विकसित करना जरूरी होता है। सभी मनुष्यों और उनके संगठनों में यह संभावना होती है। आरएसएस को भी उसका अपवाद नहीं बने रहना चाहिए।
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अर्लेकर इस कार्यक्रम के आगे-पीछे भी इस तरह का विवाद पैदा करते रहे हैं। दरअसल, भाजपा सरकार के ज्यादातर राज्यपालों की कमोबेश यही स्थिति है। वे पद की गरिमा और संवैधानिक शिष्टाचार के बरक्स भाजपेतर राज्य सरकारों के साथ उलझते रहते हैं। उनमें यह हिम्मत कहां से आती है? अर्लेकर की आरएसएस की भारत माता पर समझौता नहीं करने की सीनाजोरी पर एनडीए में शामिल ‘सेकुलर’ और ‘सामाजिक न्यायवादी’ नेताओं ने एतराज नहीं उठाया है। संविधान की अभिरक्षक राष्ट्रपति को इसमें कुछ गलत नजर नहीं आया। न ही सुप्रीम कोर्ट को राज्यपाल द्वारा राज्यपाल भवन में किए गए प्रोटोकाल के उल्लंघन में कुछ गलत लगा। विपक्षी पार्टियों ने अर्लेकर की खुली चुनौती के बावजूद इसे विरोध का जरूरी मुद्दा नहीं बनाया। विपक्षी केरल कांग्रेस ने इस मुद्दे पर कुछ नहीं बोलने के लिए मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन की आलोचना करके अपना कर्तव्य पूरा मान लिया। मानो यह केवल केरल राज्य का एकाकी मुद्दा है। विद्वानों/लेखकों/कलाकारों की तरफ से भी इस पर गंभीर चिंता जाहिर नहीं की गई।
तो क्या आरएसएस की भारत माता ही पूरे देश की भारत माता है? पिछले एक दशक से देश का माहौल ऐसा ही बना हुआ है। शैक्षिक/साहित्यिक/कलात्मक संस्थाओं और सरकारी विभागों के कार्यक्रमों में आरएसएस के नेता, विचारक, अधिकारी आदि बिना अवसर और जरूरत के भारत माता की जय का नारा बोलते और उपस्थित लोगों से बुलवाते हैं। यहां करीब साल-डेढ़ साल पहले के एक वाकये का उल्लेख करना चाहूंगा। भोपाल की रवीन्द्रनाथ टैगोर प्राइवेट यूनिवर्सिटी का लेखकों को सम्मानित करने का एक कार्यक्रम मध्य प्रदेश दूरदर्शन पर प्रसारित हो रहा था। उसमें उपस्थित साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त हिंदी के एक लेखक और साहित्य अकादमी की पत्रिका ‘इंडियन लिटरेचर’ की अतिथि संपादक को मैं जानता था। इसलिए चाव से कार्यक्रम देखने लगा। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि मध्य प्रदेश के राज्यपाल और शिक्षामंत्री ने अपने भाषण के शुरू और अंत में सभी से भारत माता की जय के नारे लगवाए। भारतीय भाषाओं के कुछ लेखकों के साथ कार्यक्रम में कुछ विदेशी ‘भारत-प्रेमी’ भी उपस्थित थे। पूरे देश में यह हो रहा है।
नवसाम्राज्यवादी गुलामी के साढ़े तीन दशकों में भारत माता की भक्ति का जुनून बढ़ता गया है। कहा जाता है कि यह देशभक्ति की कसौटी है। मोहन भागवत उपदेश देते रहते हैं कि युवकों को अपनी देशभक्ति का प्रदर्शन करने के लिए भारत माता की जय बोलते रहना जरूरी है। बच्चों में देशभक्ति की भावना पैदा करने और बढ़ाने के कोर्स चलाए जाते हैं। भारत माता की यह भक्ति अपना स्वावलंबन, स्वतंत्रता, संप्रभुता और संवैधानिक शिष्टाचार खोते जाने की पीड़ा से परे होती है। इसमें किसी तरह का कोई जोखिम नहीं है। क्योंकि वह बलिदान की नहीं, पूजा और जयकारों की मांग करती है। नवसाम्राज्यवादी गुलामी के दौर में शासक-वर्ग को ऐसी ही भारत माता चाहिए। ऐसी भारत माता का पेटेंट शुरू से आरएसएस के पास है। उसे अवसर मिला है, जिसका वह पूरा इस्तेमाल कर रहा है।
अंत में कहना चाहूंगा कि इस मुद्दे पर सीपीआई नेता पी प्रसाद और बिनोय विश्वम् ने राज्यपाल की हठधर्मिता के बावजूद बहुत संयत, शालीन, तार्किक और मजबूत ढंग से अपना पक्ष रखा है।
(समाजवादी आंदोलन से जुड़े लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व शिक्षक और भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला के पूर्व फ़ेलो हैं।)
-प्रेम सिंह
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