गुरुवार, 18 दिसंबर 2025
क्या स्तालिन तानाशाह थे..? ➖➖➖➖➖➖➖➖ भाग..४
क्या स्तालिन तानाशाह थे..?
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भाग..४
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#मास्को 1933 -38 यह वो वक्त था जब गैर मुल्क के पत्रकारों , कानूनविदों और राजनैतिकों का जमावड़ा लगातार रहा था।
कारण था #मास्को_मुकदमा। इतिहास इसी शीर्षक से दर्ज है।
वर्ष 1934 में स्तालिन के कर्णधार #किरोव की हत्या से पुरा सोवियत भोचक्का हो गया। जांच के बाद पता चला कि पार्टी, राज्य,लाल सेना के अंदर प्रतिक्रांतिकारी समुहों का निर्माण हो चुका है।
स्थिति इतना गंभीर हो गई थी कि "सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी" के सदस्यों का सदस्यता कार्ड वापस ले लिया गया था।
आखिर यह हुआ क्यों..कौन था इसके पिछे..?
#ट्रॉटस्की..
जब भी लेनिन ,स्तालिन का जिक्र होता है तो एक नाम ट्रॉटस्की का भी आता है। बोल्सेविक पार्टी के नेतृत्व में जब सोवियत क्रांति हुई थी उस वक्त के केन्द्रीये कमेटी में ट्रॉटस्की भी प्रमुख सदस्य थे।
जैसा कि होता है हर पार्टी में मुद्दे पर,कार्य पद्धति पर ,नेतृत्व पर आंतरिक चर्चा,बहस होता है..उसी प्रकार बोल्सेविक पार्टी के अंदर भी चर्चा,बहस से निष्कर्ष निकाला जाता था।
ट्रॉटस्की एक महत्वकांक्षी व्यक्ति थे..जो खुद में सम्पूर्ण समझते थे और दुसरों को कमतर। उनकी यही महत्वकांक्षा व्यक्तिवाद से ग्रसित कर अहंकारी,अपनी गलतियों को न स्विकार कर क्रांति विरोधी रास्ता अखतियार कर लिये थे।
यहां पर आपको #एम_एन_राय का वक्तव्य जानना चाहिये। लेकिन यह एम.एन.राय थे कौन..?
एम.एन.राय लेनिन के जमाने से हीं #कम्युनिस्ट_इंटरनेशनल की महत्वपूर्ण सदस्य थे और बड़ी जिम्मेदारी निभा रहे थे। बाद में मतांतर की वजह से वहां से निकल आये और अपने अंतिम समय में स्तालिन का विरोधी बन गये। न सिर्फ़ स्तालिन बल्कि कम्युनिज्म का हीं विरोधी बन गये।
वही एम.एन.राय "ट्रॉटस्की और स्तालिन " शीर्षक निबंध में लिखते हैं... "दरअसल उन दोनों के बीच कोई व्यक्तिगत विरोध नहीं था। ... स्तालिनवाद कहकर जिस नीति का ट्रॉटस्की ने विरोध किया था, वह लेनिन द्वारा लायी गयी नयी आर्थिक नीति के साथ पूरी तरह से मेल खाती है। इस नीति की वजह से मार्क्सवाद में कोई भटकाव नहीं आया, बल्कि कहा जा सकता है कि तब की स्थिति का आकलन कर वास्तविकता के साथ मार्क्सवाद का मेल करना ही स्तालिन का मकसद था। ...
ट्रॉटस्की हमेशा यही मानते रहे कि वे ही सही हैं और पार्टी के दूसरे लोग गलत कर रहे हैं। अंत में पार्टी उन्हें ही आदर्श नेता मानने को मजबूर होगी। इसी उम्मीद से, वे पार्टी पर कृपा करके, उसके काम में अपनी ताकत का इस्तेमाल करते रहे। ... अगर ट्रॉटस्की के विचारों के आधार पर स्तालिन को पार्टी नेतृत्व पद से हटा दिया जाता, तो शायद आज सोवियत संघ का अस्तित्व ही नहीं रहता।" (चतुरंग पत्रिका,आश्विन 1347,अंक-१)
#ट्रॉटस्की..सत्ता लोलुप्ता में इतना पतीत हो गये थे कि द्वितीय विश्व युद्ध के वक्त यह मान कर चल रहे थे कि सोवियत संघ की पराजय हो जाती है,तो स्तालिन नेतृत्व का पतन हो जायेगा और फिर पार्टी और सोवियत का नेतृत्व मेरे हांथ में आ जायेगा।
यहां आपको बता देना चाहता हूं कि ट्रॉटस्की 1929 में पार्टी के खिलाफ गतिविधियों, गुटबाजी,अनुशासन हिनता के वजह से पार्टी से निष्कासित कर दिया गया था। फिर उनकी ख्यालि पोलाव यह था कि युद्ध में सोवियत सेना की हार होती है तब स्तालिन के नेतृत्व पर प्रश्न चिन्ह खड़ा करूंगा और बोल्सेविक पार्टी मुझे हांथो-हांथ ले लेंगे।
जब बैठक में ##ट्रॉटस्की पर निष्कासन का फैसला लिया जा रहा था तो उस बैठक में एम.एन.राय भी मौजूद थे।
लेख के शुरूआत में "मास्को मुकदमा" का जिक्र किया था।
जो #किरोव की हत्या सहित और भी क्रांति विरोधी लोगों पर मुकदमा चला था।
यह एक जनवादी मुकदमा उन पून्जीवादी राष्ट्रों, राजनेताओं,उस व्यवस्था में रचे-बसे लोगों के लिए अनोखी घटना घटने जा रही थी।
उस मुकदमें के प्रत्यक्ष दर्शी विदेशी पत्रकारों, कानूनविदों, कूटनीतिज्ञों,राजनैतिक नेता..सब ने यही कहा कि "एक बड़े साजिश का पर्दाफाश हुआ।
इसी मुकदमें को अमेरिकी राजदूत #जोसेफ_डेविस ने अपनी पुस्तक " मिशन टू मास्को" में कहा है कि...
"सब कुछ देखकर मैं निश्चिंत हो गया हूं कि इस मुकदमे में स्वीकारोक्ति के लिए किसी प्रकार का कोई जर्बदस्ती अभियुक्तों के साथ नहीं की गयी थी"
मुकदमा खत्म होने के बाद डेविस जब स्तालिन के बारे में अपनी बेटी से कहते हैं "उन्हें देखकर लगता है कि धैर्य और बौद्धिकता के मामले में वे काफी ताकतवर हैं। उनकी दोनों आंखें कोमल प्यार भरे भूरे रंग में सराबोर हैं। ऐसा लगता है मानो बच्चे उनकी गोद में बैठना पसंद करेंगे। उनका चिंतन जगत काफी रसपूर्ण
और विराट है। उनकी बुद्धि काफी कुशाग्र है।
..उनके सबसे बड़े दुश्मन उनके बारे में जो कुछ कहते हैं बिल्कुल इसके उलट सोंच सको,तभी स्तालिन की सच्ची तस्वीर मिल पायेगा"।
यह सच है कि #किरोव की हत्या के बाद बेहद पैमाने पर गिरफ्तारी की गयी थी। तब ऐसा देखकर पत्रकार और बुद्धिजीवियों के एक तबके ने बर्नार्ड शॉ से सवाल किया कि
" क्या रूस की क्रांति ने दुनियां के दबे-कुचले लोगों को आकर्षित किया है...?"
बर्नार्ड शॉ जवाब देते हैं.."बात बिल्कुल उल्टा है। इस क्रांति ने दुनियां के सर्वश्रेष्ठ लोगों को आकर्षित किया है"
क्रमशः जारी.......
#Dharmendra Kumar
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