गाय लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
गाय लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

बुधवार, 2 दिसंबर 2015

दिल्ली में प्रदूषित गंगा बहाने चले

वर्तमान सत्तारूढ़ दल चुनाव से पहले और चुनाव के बाद जिस तरह से रंग बदल रहा है. उससे यह साबित होता है कि नैतिकता आदर्श नाम की चीज उनके पास सार्वजानिक जीवन में नहीं है. एक तरफ तो कश्मीर के सवाल पर सीमा पर रोज गोला बारी हो रही है हिंदुवत्व वादी कवियों की सारी कविता और नेताओ का भाषण कश्मीर, पाकिस्तान और मुस्लिम तुष्टिकरण पर होती है. विशेषकर उत्तर भारत में इन्ही सवालों को लेकर नागपुर के लोग मतदाताओं को गोलबंद करते हैं. अभी बरखा दत्त की प्रकाशित पुस्तक ' दिस अनक्विट लैंड-स्टोरीज फ्रॉम इंडियाज फाल्ट लाइन्स ' में खुलासा किया गया है कि नेपाल में सार्क देशों की बैठक से अलग भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र दामोदर मोदी व पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की एक घंटे की गुप्त बैठक हुई थी और सीमा पर बराबर गोलियां भी चलती रही हैं. दोनों नेताओं की पिछली मुलाक़ात रूस के उफ़ा में हुई थी, जिसके बाद एक साझा घोषणापत्र भी जारी किया गया था  और अब फ्रांस में हो रहे जलवायु सम्मलेन में भी नरेन्द्र मोदी व नवाज शरीफ की बातचीत होती है और हमारे प्रधानमंत्री मुंह पर हाथ लगा कर बात करते हैं. जिससे लोग ओठ देखकर अंदाजा न लगा ले की वह क्या कह रहे हैं. 
लोकतंत्र में जनता से छिपाकर कोई बात नहीं होती है. सारी बातें गोपनीय हो रही हैं. हमारे देश का पैसा अनावश्यक रूप से सीमा पर खर्च हो रहा है, जवान मर रहे हैं और नेतागण हाथ मिलाकर फोटो खिंचवा रहे हैं. हम पाकिस्तानी जनता के विरोधी नहीं हैं. भारत-पाक एकता होनी चाहिए. वोटों के लिए देशभक्ति और राष्ट्रभक्ति का फर्जी नाटक बंद होना चाहिए. भारत और पाकिस्तान का और अच्छा विकास तभी हो सकता है जब दोनों देशों के सम्बन्ध अच्छे हों लेकिन जमीनी स्तर पर नेतागण जनता की भावनाओं को भड़काकर एक छद्म युद्ध का वातावरण तैयार करते हैं. एक देशभक्ति, राष्ट्रभक्ति का नाटक शुरू होता है और फिर मारपीट, वार्ताओं का दौर शुरू होता है जिसकी कोई आवश्यकता नहीं होती है. वर्तमान सत्तारूढ़ दल के चुनावी भाषणों का विश्लेषण अगर किया जाए तो देशभक्त, राष्ट्रभक्त, पाकिस्तान विरोध व मुस्लिम तुष्टिकरण उनके केंद्रबिंदु थे. गाय को चुनाव का मुद्दा बनाकर एक धार्मिक उन्माद पैदा किया गया लेकिन सरकार में आने के बाद इस वर्ष अप्रैल से अगस्त के बीच 10 करोड़ 95 लाख रुपए की बीफ की चर्बी का निर्यात हुआ, जो पहले से 36 गुना अधिक है। इस तरह से यह लोग जो भी कहते हैं आचरण उसके विपरीत है. आप और हम मिलकर इस देश की एकता और अखंडता के लिए इन सांप्रदायिक उन्मादियों से दूर रहे और मिलजुलकर देश को आगे बढ़ने के लिए कार्य करें. इनकी हालत यह है कि 'अपना दिल दामन धो न सके, दिल्ली में गंगा बहाने चले'.
जिस तरह से देश के अन्दर गंगा प्रदूषित है उसी तरह इनके दिल और दिमाग प्रदूषित हैं. राष्ट्रपति प्रणव कुमार मुखर्जी ने सही कहा है कि विभाजनकारी विचारों को असल गंदगी है जो गलियों में नहीं, बल्कि हमारे दिमाग में और समाज को विभाजित करने वाले विचारों को दूर करने की अनिच्छा में है।
सुमन 

शुक्रवार, 16 अक्टूबर 2015

मोदी टोडीज का मतलब अंधविश्वास

देश के सांस्कृतिक मंत्री महेश शर्मा ने एलानिया तौर पर यह वक्तव्य जारी किया हैकि लेखकों को लेखन कार्य बंद कर देना चाहिए. इसका सीध -सीधा अर्थ यह है की नागपुरी कथित सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के लिए ही लेखन करने की स्वतंत्रता अब देश में है. नागपुरी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का सीधा-सीधा अर्थ यह है कि देश के अन्दर चुड़ैल है, भूत हैं, प्रेत हैं, जिन्नाद हैं, जिन्द हैं, नटवीर हैं, भुइंया हैं, भवानी हैं, देवी आती हैं, जिन्नाद आता है, पुनर्जन्म है, स्वर्ग है, नर्क है. 
इस देश के अन्दर तर्क और बुद्धि वाले लोगों की साम्यवादी दलों की यथार्थवादी दलों की विचारधारा  ने  यह सारे भ्रम समाज से लगभग ख़त्म कर दिए थे लेकिन प्राइवेट इलेक्ट्रॉनिक चैनल्स ने भूत-प्रेत, जिंद-जिन्नाद की काल्पनिक कहानियो से पुन: जिन्दा कर दिया है. सुबह होते ही लगभग सभी प्राइवेट इलेक्ट्रॉनिक चैनल्स ज्योतिष से लेकर तंत्र-मन्त्र-घंट का प्रवचन प्रारंभ कर देते हैं. जिसके कारण देश के अन्दर लाखों महिलाओं को चुड़ैल या डायन बता कर पीट-पीट कर मार डाला गया. नागपुरी मुख्यालय शैतान की तरह हँसता और मुस्कुराता रहा. पुष्पक विमान से इस देश के निवासियों को उडाता रहा. हकीकतन यह है कि एक अच्छी खासी तादाद के लोग गोबर से गेंहू निकाल कर खाने के आदी हो गए हैं. पत्ते व पेड़ों की छालें उबाल कर जिन्दा रहने की कोशिश प्रारंभ हुई है. हद तो तब हो गयी है कि एक बहुसंख्यक समाज के बड़े तबके के ऊपर यह भावनात्मक रूप से यह बात हावी हो गयी है कि गाय उनकी अम्मा है. सोचने समझने की स्तिथि को कुंद कर दिया है. एक जानवर को जो हमारे लिए बहु उपयोगी अवश्य है उसको माँ का रूप दे दिया गया लेकिन बुद्धिनिर्पेक्ष लोगों की समझ में यह आ गया की गाय माँ है और उसका मांस खाने वाले लोगों को मार डालना चाहिए. उनकी बुद्धि ने यह कभी नहीं सोचा की कोई अपनी माँ के खाल का जूता पहनता है. हड्डियाँ निकाल कर बेचता है. बीमार होने पर या दूध न देने पर कसाई के हाथ माँ को बेच देने का प्रचलन कभी नहीं रहा है लेकिन बुद्धि निरपेक्ष लोगों को यह स्तिथि भी स्वीकार हो गयी की माँ की खाल के जूते पहन लेने माँ के पुत्र बैल के अंडकोष समाप्त कर बधिया बना देंगे और फिर लाचार हो जाने पर अपने भाई को काट कर बेच डालेंगे. घर के अन्दर आज भी यह बड़े गर्व के साथ कहा जाता है कि क्या बैल हो गए हो. गौ पुत्र यानी मोदी टोडीज बैल हो गए हैं. तभी देश का सांस्कृतिक मंत्री लेखकों से कहता है कि सोचना समझना बंद कर दो, लिखना बंद कर दो.
        देश में गाय के सवाल के ऊपर लोगों को पीट-पीट कर मार डाला जायेगा दूसरी तरफ देश के आधे हिस्से में गाय अम्मा नहीं रहेगी, उसको काट कर खाया जायेगा. मंत्री मंडल में गाय खाने वाले भी रहेंगे उनको कभी पीट-पीट कर मारा नहीं जायेगा जैसे किरण रिजिजू या पारिकर उनको देश में सम्मानित किया जायेगा और निरीह लोगों को गाय के सवाल के ऊपर पीट-पीट कर मार डाला जायेगा. अब गाय रहेगी, बैल बुद्धि का प्रतीक हो जायेगा. लेखक, विचारक, दार्शनिक, वैज्ञानिक बैल हो यही सरकार की मंशा है. बुद्धि और विवेक की बात करना, तर्क की बात करने का मतलब  अपनी हत्या गोविन्द पानसरे, नरेन्द्र दाभोलक व एम एम कुलबर्गी की तरह से कराना होगा. इसका मतलब है की बैलगाड़ी से चलना किसी दुसरे मुल्क का गुलाम होना, नागपुरी मुख्यालय की मंशा है और इसी दिशा में देश को दूसरी गुलामी की तरफ देश को ले जाने का प्रयास हो रहा है. अब आपको सोचना है की आप गुलाम रहना चाहते हैं या आजाद। आजाद रहना चाहते हैं तो मैदान-इ-जंग में आना पड़ेगा. इसमें जान भी जा सकती है.


सुमन 

शुक्रवार, 9 अक्टूबर 2015

गाय न गंगा

 संघ की नागपुरी प्रयोगशाला का कोई सम्बन्ध गाय की भलाई से नहीं है और न ही गंगा से कोई मतलब है. गाय और गंगा का यह प्रयोग अपने राजनीतिक मुखौटे के वोट बैंक को बढाने के लिए करते हैं. मांसाहार का विरोध इनकी योजना का प्रमुख अंग होता है लेकिन मुनाफे के लिए इनके नेतागण बराबर इस व्यापार में शामिल होते रहते हैं. गेरुआ चोला ओढ़कर यह सारे पाप करना चाहते हैं. अभी हाल में यह खुलासा हुआ है कि बीजेपी के फायरब्रांड नेता संगीत सोम और उनके दो साथियों ने 2009 में अलीगढ़ में मीट प्रोसेसिंग यूनिट के लिए जमीन खरीदी थी। इस बात का खुलासा हिंदुस्तान टाइम्स द्वारा रजिस्ट्री संबंधी दस्तावेजों की पड़ताल में हुआ। दस्तावेज बताते हैं कि अल दुआ फूड प्रोसेसिंग प्राइवेट लिमिटेड नाम की इस कंपनी में सोम भी एक डायरेक्टर हैं।मीट यूनिट की  यह फैक्ट्री 'हलाल मीट का उत्पादन करने वाली बड़ी यूनिट्स' में से एक है और बेहतरीन गुणवत्ता वाला भैंस, भेड़ और बकरे का मांस उपलब्ध कराती है।
 सोम के अलावा मुइनुद्दीन कुरैशी और योगेश रावत नाम के दो लोग जमीन के इस सौदे में शामिल हैं और कंपनी के डायरेक्टर हैं। 
देवधर संघी पत्रकार ने यह स्वीकार किया है कि संघ प्रमुख मोहन भागवत समेत प्रमुख प्रचारक मांसाहार करते रहे हैं. उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी के उपाध्यक्ष रहे व पूर्व सांसद सत्यदेव सिंह के ऊपर उन्ही के नेतागण आरोप लगाते थे कि उनकी ट्रक्स गोवंशीय जानवरों को कलकत्ता स्लॉटर हाउस लेकर जाती हैं. इस तरह से संघ व भाजपा के लोग मांस व्यापार में हो रहजे मुनाफे को हासिल करने के लिए तथा राजनीतिक लाभ के लिए हिंदी बेल्ट में जनता की भावनाओ को भड़काते रहते हैं लेकिन वह कभी नहीं चाहते हैं कि गौ वंशीय पशुओं की हत्या रोकी जाए. मुनाफा तथा वोटों का रोजगार गाय व मांसाहार से चलता रहे, इसी के लिए वह सदैव कार्य करने के लिए तत्पर रहते हैं. एखलाक को गौ मांस के अफवाह पर यह लोग पिटवा कर मार डालते हैं लेकिन दूसरी तरफ किरण रिजिजू मोदी सरकार के मंत्री हैं वह मांस भक्षण करते हैं तो गंगा स्नान का पुन्य देश को मिलता है.
गोमांस पर प्रतिबंध की मांग कर रहे लोगों को यह कड़वी सचाई पचाने में मुश्किल हो सकती है कि पशुओं को सिर्फ गोमांस खाने वालों के लिए नहीं मारा जाता, बल्कि दवा उद्योग की जरूरतों के लिए भी ऐसा किया जाता है। दवाओं के कैप्सूल, विटामिन की दवाओं और चिकन के चारे में इस्तेमाल होने वाले जेलेटिन को जानवर की हड्डियों और चमड़े की प्रोसेसिंग से बनाया जाता है। एक फार्मा कंपनी के सीनियर ऐग्जिक्युटिव ने नाम न छापने की शर्त पर बताया, 'किसी न किसी रूप में हम अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में गोमांस कन्ज्यूम करते ही हैं।'इंडिया में ज्यादातर जेलेटिन मेकर्स का कहना है कि वे इसे बनाने में भैंस की हड्डियों का उपयोग करते हैं, लेकिन महाराष्ट्र और हरियाणा में गोवध विरोधी कानूनों को देखते हुए कंपनियों को आने वाले दिनों में परेशान किए जाने का डर सता रहा है। http://navbharattimes.indiatimes.com/business/business-news/ban-on-beef-to-affect-medical-care/articleshow/46671551.cms

दूसरा महत्वपूर्ण मुद्दा गंगा है. गंगा को प्रदूषित करने का काम भी यही लोग सबसे ज्यादा करते हैं. बनारस की हाल की घटना इसका प्रमुख उदाहरण है. एक तरफ तो सरकार गंगा सफाई योजना चला रही है, दूसरी तरफ लाखों टन मिटटी की मूर्तियाँ गंगा से लेकर विभिन्न नदियों में डालने का काम यही लोग कर रहे हैं. माननीय उच्चतम न्यायलय ने साफ़ तौर पर मूर्ति विसर्जन के लिए रोक लगा दी है तो भगवाधारी रूप धारण किये हुए संघी संत, महंत कानून व्यवस्था को न मानते हुए जबरदस्ती नदियों में मूर्तियाँ डालने के लिए प्रसिद्द हैं, बनारस में जब प्रशासन ने रोका तो लाठी चार्ज करने की नौबत आ गयी और जनता को सही बात न बताकर अफवाहें फैलाकर स्वयं अपराधी की भूमिका में आ जाते हैं. ऐसे अपराधियों के खिलाफ कार्यवाई की जाए तो यह चिल्लाने लगते हैं कि हिन्दू धर्म को दबाया जा रहा है. 
गंगा या विभिन्न नदियों को सबसे ज्यादा प्रदूषित कारखाने के मालिक करते हैं और उन्ही मालिकों के चंदे से इन तथाकथित संघी संत महात्माओं के चेहरे की लाली बढती है इनकी नियत न आजादी की लड़ाई में साफ़ थी न आज साफ़ है. 

सुमन 

सोमवार, 23 मार्च 2015

हिन्दू राष्ट्र, गाय व मुसलमान

भाग.1
उच्च जातियों के हिन्दुओं और हिन्दू राष्ट्रवादी संगठनों का गाय के प्रति . एक पशु बतौर व हिन्दू राष्ट्र के प्रतीक बतौर . ढुलमुल रवैया रहा है। कभी वे गाय के प्रति बहुत श्रद्धावान हो जाते हैं तो कभी उनकी श्रद्धा अचानक अदृश्य हो जाती है। हाल के कुछ वर्षों में, हिन्दू राष्ट्रवादियों ने गाय को एक पवित्र प्रतीक के रूप में प्रस्तुत करना शुरू कर दिया है। और यह इसलिए नहीं कि सनातन धर्म की चमत्कृत कर देने वाली विविधता से परिपूर्ण धार्मिक.दार्शनिक ग्रंथ ऐसा कहते हैं, बल्कि इसलिए क्योंकि गाय, हिन्दुओं को लामबंद करने और मुसलमानों को खलनायक के रूप में प्रस्तुत करने के लिए अत्यंत उपयोगी है। ऐसा क्यों ? क्योंकि मुसलमानों के गौमांस भक्षण पर कोई धार्मिक प्रतिबंध नहीं है और इस धर्म के मानने वालों का एक तबका मांस व मवेशियों के व्यापार में रत है। मुस्लिम शासकों और धार्मिक नेताओं का भी गाय के प्रति ढुलमुल रवैया रहा है। कभी उन्होंने हिन्दुओं के साथ शांतिपूर्ण सहअस्तित्व की खातिर गौवध को प्रतिबंधित किया तो कभी अपने सांस्कृतिक अधिकारों और अपनी अलग पहचान पर जोर दिया।
दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास के प्रोफेसर डीएन झा की पुस्तक 'द मिथ ऑफ होली काऊ' ;पवित्र गाय का मिथक कहती है कि प्राचीन भारत में न केवल गौमांस भक्षण आम था वरन् गाय की बलि भी दी जाती थी और कई अनुष्ठानों में गाय की बलि देना आवश्यक माना जाता था। कई ग्रंथों में इन्द्र भगवान द्वारा बलि दी गई गायों का मांस खाने की चर्चा है। चूंकि उस समय समाज, घुमंतु से कृषि.आधारित बन रहा था इसलिए मवेशियों का महत्व बढ़ता जा रहा थाए विशेषकर बैलों और गायों का। मवेशी, संपत्ति के रूप में देखे जाने लगे थे जैसा कि 'गोधन'शब्द से जाहिर है। शायद इसलिएए गाय की बलि पर प्रतिबंध लगाया गया और उस प्रतिबंध को प्रभावी बनाने के लिए उसे धार्मिक चोला पहना दिया गया। सातवीं से पांचवी सदी ईसा पूर्व के बीच लिखे गए ब्राह्मण ग्रंथों, जो कि वेदों पर टीकाएं हैं, में पहली बार गाय को पूज्यनीय बताया गया है। 
इसके बाद, भारत में बौद्ध और जैन धर्मों का उदय हुआ और सम्राट अशोक ने सभी पशुओं के प्रति दयाभाव को अपने राज्य की नीति का अंग बनाया। यहां तक कि उन्होंने जानवरों की चिकित्सा का प्रबंध तक किया और उनकी बलि पर प्रतिबंध लगा दिया, यद्यपि यह प्रतिबंध मवेशियों पर लागू नहीं था। कौटिल्य के 'अर्थशास्त्र' में मवेशियों के वध को आम बताया गया है। इंडोनेशिया के बाली द्वीपसमूह के हिन्दू आज भी गौमांस खाते हैं। कुछ आदिवासी समुदायों में आज भी उत्सवों पर गाय की बलि चढ़ाई जाती है। कुछ दलित समुदायों को भी गौमांस से परहेज नहीं है। हिन्दुओं के गौमांस भक्षण पर पूर्ण प्रतिबंध, आठवीं सदी ईस्वी में लगाया गया,जब आदि शंकराचार्य के अद्वैत वेदांत दर्शन का समाज में प्रभाव बढ़ा। बौद्ध धर्म.विरोधी प्रचार भी आठवीं सदी में अपने चरम पर पहुंचाए जब शंकर ने अपने मठों का ढांचा, बौद्ध संघों की तर्ज पर बनाया। ग्यारहवीं सदी तक उत्तर भारत में हिन्दू धर्म एक बार फिर छा गया, जैसा कि उस काल में रचित संस्कृत नाटक 'प्रबोधचन्द्रोदय' से स्पष्ट है। इस नाटक में बौद्ध और जैन धर्म की हार का रूपक और विष्णु की आराधना है। तब तक उत्तर भारत के अधिकांश रहवासी शैव, वैष्णव या शक्त बन गए थे। 12वीं सदी के आते.आते, बौद्ध धर्मावलंबी केवल बौद्ध मठों तक सीमित रह गए और आगे चलकरए यद्यपि बौद्ध धर्म ने भारत के कृषक वर्ग के एक तबके को अपने प्रभाव में लिया, तथापि, तब तक बौद्ध धर्म एक विशिष्ट धार्मिक समुदाय के रूप में अपनी पहचान खो चुका था। वैष्णव, पशुबलि के विरोधी और शाकाहारी थे।
मुसलमानों का ढुलमुल रवैया
    मुस्लिम शासक और धार्मिक नेता, वर्चस्वशाली उच्च जाति के हिन्दुओं की भावनाओं का आदर करने और अपने सांस्कृतिक अधिकारों पर जोर देने के बीच झूलते रहे। मुगल बादशाह बाबर ने गौवध पर प्रतिबंध लगाया था और अपनी वसीयत में अपने पुत्र हुमांयू से भी इस प्रतिबंध को जारी रखने को कहा था। कम से कम तीन अन्य मुगल बादशाहों.अकबर, जहांगीर और अहमद शाह.ने भी गौवध प्रतिबंधित किया था। मैसूर के नवाब हैदरअली के राज्य में गौवध करने वाले के हाथ काट दिए जाते थे। असहयोग और खिलाफत आंदोलनों के दौरान गौवध लगभग बंद हो गया था क्योंकि कई मुस्लिम धार्मिक नेताओं ने इस आशय के फतवे जारी किए थे और अली बंधुओं ने गौमांस भक्षण के विरूद्ध अभियान चलाया था। महात्मा गांधी ने हिन्दुओं से खिलाफत आंदोलन का समर्थन करने की जो अपील की थी, उसके पीछे एक कारण यह भी था कि इसके बदले  मुसलमान नेता गौमांस भक्षण के विरूद्ध प्रचार करेंगे। मुस्लिम धार्मिक नेताओं ने इस अहसान का बदला चुकाया और गौवध के खिलाफ अभियान शुरू किया। इससे देश में अभूतपूर्व हिन्दू.मुस्लिम एकता स्थापित हुई और पूरे देश ने एक होकर अहिंसक रास्ते से ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ मोर्चा संभाला।
हाल में कई राज्यो द्वारा गौवध पर प्रतिबंध लगाने संबंधी कानून बनाए गए हैं। इनका विरोध गौमांस व्यापारी  व मांस उद्योग के श्रमिक कर रहे हैं। इनमें मुख्यतः कुरैशी मुसलमान हैं परंतु हिन्दू खटीक व अन्य गैर.मुसलमान भी यह व्यवसाय करते हैं। वे इस प्रतिबंध का विरोध मुख्यतः इसलिए कर रहे हैं क्योंकि इससे उनके व्यावसायिक हितों को नुकसान पहुंचेगा। फिक्की और सीआईआई यह चाहते हैं कि उद्योगों और व्यवसायों पर सरकार का नियंत्रण कम से कम हो। अगर ये छोटे व्यवसायी भी ऐसा ही चाहते हैं तो इसमें गलत क्या है ? और यहां इस तथ्य को नहीं भुलाया जाना चाहिए कि मांस के व्यवसायियों में हिन्दू और मुसलमान दोनों शामिल हैं परंतु मीडिया केवल मुसलमानों के विरोध को महत्व दे रहा है और गैर.मुसलमानों द्वारा किए जा रहे विरोध का अपेक्षित प्रचार नहीं हो रहा है। गौवध पर प्रतिबंध और गौमांस के व्यवसाय के विनियमन को कई आधारों पर चुनौती दी जाती रही है, जिनमें से एक है संविधान के अनुच्छेद 19;1 द्वारा हर नागरिक को प्रदत्त 'कोई भी वृत्ति, उपजीविका, व्यापार या कारोबार' करने का मौलिक अधिकार। इसके अतिरिक्तए अनुच्छेद 25, जो कि सभी नागरिकों को किसी भी धर्म को मानने और उसका आचरण करने की स्वतंत्रता देता है,के आधार पर भी इस प्रतिबंध को अनुचित बताया जाता रहा है। उच्चतम न्यायालय ने इस प्रतिबंध को इस आधार पर उचित ठहराया है कि यह जनहित ;दुधारू व भारवाही पशुओं और पशुधन का संरक्षण,में है और यह व्यवसाय करने की स्वतंत्रता पर अनुचित प्रतिबंध नहीं है। धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार के उल्लंघन के आधार पर चुनौती को यह कहकर खारिज कर दिया गया कि यद्यपि इस्लाम में गौमांस भक्षण की इजाजत है तथापि मुसलमानों के लिए गौमांस भक्षण अनिवार्य नहीं है।
गौवध संबंधी पुराने कानूनों का चरित्र मुख्यतः नियामक था और उनमें गौवध पर पूर्ण प्रतिबंध नहीं लगाया था। इन कानूनों में गायों और दोनों लिंगों के बछड़ों के वध को प्रतिबंधित किया गया था परंतु राज्य सरकार द्वारा नियुक्त प्राधिकृत अधिकारी की इजाजत से, एक निश्चित आयु से ज्यादा के पशुओं का वध किया जा सकता था। इन कानूनों को शाकाहार.समर्थक नागरिकों ने इस आधार पर चुनौती दी थी कि वे राज्य के नीति निदेशक तत्वों में से एक, जिसमें'गायों,बछड़ों व अन्य दुधारू व भारवाही पशुओं के वध पर प्रतिबंध' लगाए जाने की बात कही गई है, का उल्लंघन हैं। उच्चतम न्यायालय ने मोहम्मद हमीद कुरैशी विरूद्ध बिहार राज्य प्रकरण में इस तर्क को इस आधार पर खारिज कर दिया कि एक निश्चित आयु के बाद, गौवंश की भारवाही पशु के रूप में उपयोगिता समाप्त हो जाती है और वे सीमित मात्रा में उपलब्ध चारे पर बोझ बन जाते हैं। अगर ये अनुपयोगी जानवर न रहें तो वह चारा दुधारू व भारवाही पशुओं को उपलब्ध हो सकता है। राज्यों ने अनुपयोगी हो चुके गौवंश के संरक्षण के लिए जो गौसदन बनाए थे, वे घोर अपर्याप्त थे। इस संबंध में दस्तावेजी सुबूतों के आधार पर न्यायालय ने कहा कि गौवध पर पूर्ण प्रतिबंध उचित नहीं ठहराया जा सकता और वह जनहित में नहीं है।
परंतु दूसरे दौर के गौवध.निषेध कानूनों में गौवध पर प्रतिबंध तो लगाया ही गया साथ ही,गौमांस खरीदने व उसका भक्षण करने वालों के लिए भी सजा का प्रावधान कर दिया गया। इस संबंध में मध्यप्रदेश सरकार द्वारा बनाया गया कानून तो यहां तक कहता है कि गौमांस भंडारण करने व उसे पकाने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले सामान, जिनमें फ्रिज और बर्तन तक शामिल हैं, को भी जब्त किया जा सकता है। अर्थात अब पुलिसवाला हमारे रसोईघर में घुस सकता है और अगर वहां गौमांस पाया गया या उसके भंडारण या पकाने का इंतजाम मिला,तो हमें जेल की सलाखों के पीछे सात साल काटने पड़ सकते हैं।  
गौवध व हिन्दू राष्ट्रवादी संगठन
    गौवध के संबंध में जिस तरह का ढुलमुल रवैया हिन्दू व मुस्लिम धार्मिक व राजनैतिक नेताओं का था,कुछ वैसा ही हिन्दू राष्ट्रवादी संगठनों का भी रहा है। हिन्दुत्व चिंतक वी. डी. सावरकर ने गाय को श्रद्धा का पात्र बनाने का विरोध किया था। उनका कहना था कि गाय एक पशु है, हमें उसके प्रति मानवीय दृष्टिकोण अपनाना चाहिए और हिन्दुओं को करूणा व दयावश उसकी रक्षा करनी चाहिए। परंतु उनके लिए गाय किसी भी अन्य पशु के समान थी.न कम न ज्यादा। वे लिखते हैं 'गाय और भैंस जैसे पशु और पीपल व बरगद जैसे वृक्ष, मानव के लिए उपयोगी हैं इसलिए हम उन्हें पसंद करते हैं और यहां तक कि हम उन्हें पूजा करने के काबिल मानते हैं और उनकी रक्षा करना हमारा कर्तव्य है परंतु केवल इसी अर्थ में। क्या इसका यह अर्थ नहीं है कि अगर किन्हीं परिस्थितियों मेंए वह जानवर या वृक्ष मानवता के लिए समस्या का स्त्रोत बन जाए तब वह संरक्षण के काबिल नहीं रहेगा और उसे नष्ट करना,मानव व राष्ट्र हित में होगा और तब वह मानवीय व राष्ट्र धर्म बन जाएगा';समाज चित्र, समग्र सावरकर वांग्मय, खण्ड 2, पृष्ठ 678। सावरकर आगे लिखते हैं 'कोई भी खाद्य पदार्थ इसलिए खाने योग्य होता है क्योंकि वह हमारे लिए लाभदायक होता है परंतु किसी खाद्य पदार्थ को धर्म से जोड़ना, उसे ईश्वरीय दर्जा देना है। इस तरह की अंधविश्वासी मानसिकता से देश की बौद्धिकता नष्ट होती है' ;1935, सावरकरांच्या गोष्ठी, समग्र सावरकर वांग्मय, खण्ड 2, पृष्ठ 559 द्। 'जब गाय से मानवीय हितों की पूर्ति न होती हो या उससे मानवता शर्मसार होती हो,तब अतिवादी गौसंरक्षण को खारिज कर दिया जाना चाहिए' ;समग्र सावरकर वांग्मय,खण्ड 3, पृष्ठ 341,।'मैंने गाय की पूजा से जुड़े झूठे विचारों की निंदा इसलिए की ताकि गेंहू को भूंसे से अलग किया जा सके और गाय का संरक्षण बेहतर ढंग से हो सके';1938,स्वातंत्रय वीर सावरकर, हिन्दू महासभा पर्व,पृष्ठ 143।
खिलाफत आंदोलन के दौरान, जब मुसलमानों ने गौमांस भक्षण बंद कर दिया और गौवध का विरोध करने लगे तब सावरकर और हिन्दू राष्ट्रवादियों के लिए गाय वह मुद्दा न रही जिसका इस्तेमाल हिन्दुओं को एक करने और मुसलमानों को 'दूसरा' या 'अलग' बताने के लिए किया जा सके। परंतु सावरकर हिन्दुओं द्वारा गाय की पूजा करने का विरोध एक अन्य कारण से भी कर रहे थे। सावरकर लिखते हैंए 'जिस वस्तु की हम पूजा करें, वह हमसे बेहतर व महान होनी चाहिए। उसी तरहए राष्ट्र का प्रतीक, राष्ट्र की वीरता, मेधा और महत्वाकांक्षा को जागृत करने वाला होना चाहिए और उसमें देश के निवासियों को महामानव बनाने की क्षमता होनी चाहिए। परंतु गाय, जिसका मनमाना शोषण होता है और जिसे लोग जब चाहे मारकर खा लेते हैं, वह तो हमारी वर्तमान कमजोर स्थिति का एकदम उपयुक्त प्रतीक है। पर कम से कम कल के हिन्दू राष्ट्र के निवासियों का तो ऐसा शर्मनाक प्रतीक नहीं होना चाहिए' ;1936, क्ष.किरण, समग्र सावरकर वांग्मय, खण्ड 3ए पृष्ठ 237। 'हिन्दुत्व का प्रतीक गाय नहीं बल्कि नृसिंह है। ईश्वर के गुण उसके आराधक में आ जाते हैं। गाय को ईश्वरीय मानकर उसकी पूजा करने से संपूर्ण हिन्दू राष्ट्र गाय जैसा दब्बू बन जाएगाए वह घास खाने लगेगा। अगर हमें अपने राष्ट्र से किसी पशु को जोड़ना ही है तो वह पशु सिंह होना चाहिए। एक लंबी छलांग लगाकर सिंह अपने पैने पंजों से जंगली हाथियों के सिर को चीर डालता है। हमें ऐसे नृसिंह की पूजा करनी चाहिए। नृसिंह के पैने पंजे न कि गाय के खुर, हिन्दुत्व की निशानी हैं, ;1935, क्ष.किरण, समग्र सावरकर वांग्मयए खण्ड 3,पृष्ठ 167। सावरकर की मान्यता थी कि हिन्दुओं द्वारा गाय की पूजा करने से वे जरूरत से ज्यादा विनम्र, दयालु व सभी प्राणियों को समान मानने वाले बन जाएंगे। जबकि सावरकर तो राष्ट्रवाद का हिन्दूकरण और हिन्दुओं का सैन्यीकरण करना चाहते थे।
-इरफान इंजीनियर

सोमवार, 27 जनवरी 2014

सच्चाई को दबाने का संघी आतंक


सितम्बर 2013 में पश्चिमी उत्तर प्रदेश (मुजफ्फरनगर, शामली और बागपत) के दंगे को संघियों ने भड़काया और मजदूर वर्ग के एक समुदाय को घर से बेघर कर दिया। दिन की उजाले की तरह साफ है कि दंगे राजनीतिक फायदे के लिये कराये गये थे, जिसमें सभी राजनीतिक पार्टियों ने अपने फायदे के लिए अपने-अपने तरीकों से दंगें में अपनी-अपनी भूमिका को निभाया। मुख्य भूमिका भाजपा विधायक संगीत सिंह सोम का था जिसने एक घटना को साम्प्रदायिक रंग देने और लोगों के अन्दर जहर घोलने के लिये, पकिस्तान के सियालकोट में दो युवकों  की हत्या का बर्बर विडियो फेसबुक पर अपलोड किया। इस विडियो को जब फेसबुक से हटा दिया गया तो यह मोबाईल पर भेजा गया और लोगों के अन्दर झूठा प्रचार कर एक समुदाय के खिलाफ भड़काने का काम किया गया ।
लोगों की समस्या रोटी, कपड़ा, मकान, स्वास्थ्य व रोजगार के मुद्दों से भटकाने के लिए ‘बहु-बेटी बचाओ’ महापंचायत का आयोजन किया गया। इसमें एक सम्प्रदाय विशेष के खिलाफ जहर उगला गया तो दूसरी तरफ यह अफवाह फैला दी गई कि लोग हमले करने के लिए आ रहे हैं। इसी तरह टीकरी गांव, जिला बागपत में एक हिन्दू लड़के को मार कर मस्जिद गेट पर लटका दिया गया। सवाल उठता है कि कोई मुस्लिम लड़के को मार कर मस्जिद गेट पर क्यों लटकायेगा?
दंगे के मुख्य आरोपी संगीत सिंह, जिन्होंने फेसबुक पर फर्जी विडियो अपलोड किया था, को मोदी के मंच से आगरा में पुरस्कृत किया गया। विश्व हिन्दू परिषद के नेता अशोक सिंघल खुलेआम बयान देकर कहते हैं कि ‘‘पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बंधुओं ने इस बार ‘लव जेहादियों’ को ऐसा करारा जबाब दिया है जैसा कि गुजरात में रामभक्तों को जलाने वालों को दिया गया’’।
7 सितम्बर के नांगला-मंदौड़ पंचायत में ‘बहू बेटी बचाओ’ महापंचायत को धारा 144 के बावजूद होने दिया गया, जबकि उससे पहले उत्तर प्रदेश के डीजीपी देवराज नागर ने दौरा भी किया था। डीजीपी देवराज नागर भाजपा सांसद व दंगा भड़काने के आरोपी हुकूम सिंह के रिश्तेदार भी हैं। दंगे के दौरान जब एक समुदाय के लोग पुलिस को फोन कर रहे थे तो पुलिस फोन रिसिभ नहीं कर रही थी या कर रही थी तो बस यही पुछ रही थी कि कोई मरा तो नहीं। मुस्लिम समुदाय के घरों की तलाशी ली गई, और बीच में पड़ने वाले हिन्दू घरों को छोड़ दिया गया। शिनाना गांव के मीर हसन व दीन मुहम्मद के घरों के जेवर पुलिस तलाशी के दौरान चुरा लिये गये और उनको झूठे केसों में फंसा कर जेल भेज दिया गया। क्या इसे हिन्दू फासिज्म नहीं बोला जायेगा? 1987 में मेरठ में पीएसी जवानों द्वारा किये गये जनसंहार में अभी तक पीडि़त परिवार को न्याय नहीं मिल पाया है। बर्खास्त पीएसी जवानों को कर्तव्यनिष्ठ व अनुशासित मानते हुए वापस नौकरी पर ले लिया गया।
मुजफ्फरनगर दंगे के पीडि़त परिवार अभी भी शिविरों में रह रहे हैं और उत्तर प्रदेश सरकार उन शिविरों को हटाने के लिए लगातार दबाव बना रही है। पीडि़त परिवार अपने गांव जाने को तैयार नहीं हैं। कुछ पीडि़तों को मुआवजा दिया गया और उनसे शपथ पत्र लिया गया कि वे अपने गांव नहीं जायेंगे-अगर वापस गये तो उनको मुआवजा वापस करना पड़ेगा।
डेमोक्रेटिक स्टूडेन्ट्स यूनियन ने दिल्ली विश्वविद्यालय के नार्थ कैम्पस में 22 जनवरी, 2014 को मुजफ्फरनगर दंगे में हिन्दुत्वा फासिज्म (संघ परिवार) की भूमिका पर एक सेमिनार रखी थी। इसमें संघ परिवार से जुडे़ ‘अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद’ के गुंडों ने बाधा डाला। सेमिनार रूम के बाहर पुलिस की मौजदूगी में वे नारे लगाते रहे व सेमिनार रूम में बैठ कर वक्ताओं की बातों पर टोका-टोकी करते रहे। ‘संघी, गाय’ आदि का नाम नहीं लेने की बात कह रहे थे। आयोजकों के पूछने पर कि ‘‘संघी को संघी और गाय को गाय नहीं कहा जाये तो क्या कहा जाये’’ तो उनका जबाब था कि जानवर कहो। इस पर सभी लोग हंस पड़े। सच कहा जाये तो ये जानवर ही हैं जिनको यह ज्ञान नहीं है कि इंसानियत क्या होती है। संघीय गुंडों ने ‘न्यू सोशलिस्ट इनिसिएटिभ (छैप्)’ के साथी बनोजीत के कपड़े फाड़ दिये। इन संघी गुंडों का जबाब कौन , छैप् व अध्यापकों ने मिलकर दिया जिससे वे अपने मनसुबे में कमयाब नहीं हो पाये। दिल्ली पुलिस का भी वही रवैय्या था जो कि यूपी पुलिस का था। वह मूक दर्शक बनी देख रही थी। दिल्ली पुलिस डिर्पाटमेंट के एचओडी से ही सवाल पूछ रही थी कि सेमिनार के आयोजन का परमीशन क्यों दिया गया? दबाव में आकर डिर्पटमेंट ने जल्द से जल्द सेमिनार खत्म करने के लिए आयोजकों पर दबाव डालना शुरू कर दिया। दिल्ली के अन्दर किसी भी डेमोक्रेटिक सम्मेलन, सभा, धरना में आकर यह संघी परिवार बाधा उत्पन्न कर रहा है और दिल्ली पुलिस उनका पूरा साथ दे रही है।
संघी और सभी संसदीय राजनीतिक पार्टिया साम्राज्यवाद के नई आर्थिक नीतियों को जोर-शोर से लागू करवाने के लिए वही नीति अपना रहे हैं जो 1991-1992 में नरसिम्हा राव-मनोमहन औ संघी ने अपनाया था। आर्थिक नीति लागू करवाने के लिए अडवाणी ने रथ यात्रा निकालकर हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य को बढ़ा कर मुद्दे को भटकाया था। वही नीति अभी संघी अपना रहे हैं जब भूमंडलीकरण के नीतियों को जोर-शोर से लागू करने में शासक वर्ग लगा हुआ है तो देश में अचानक दंगों में तेजी आ गयी है। सभी शांतिप्रिय, जनवादपसंद संगठनों, बुद्धिजीवियों, नागरिकों को यह सोचने की जरूरत है कि भगवाधारियों व पुलिस गठजोड़ को कैसे चुनौती दी जाये। भगवाधारियों की झूठी देशभक्ति को चुनौती देते हुए आत्मनिर्भर, जनवादी भारत का निर्माण कैसे किया जाये।

-सुनील कुमार
Share |