चितिमय निखिल चराचर की,
विभूति ,मैंने अपना ली।
अंतस के तल में मैंने
विरहा की ज्योति जला ली॥
जो अग्नि प्रज्ज़वलित कर दी,
वह शांत अश्रु करते है॥
अब आंसू के जीवन में -
हम तिरते ही रहते है।
जीवन से लगन नही है,
इति से भी मिलन नही है ॥
अब कौन लोक है मेरा ?
चिंतन का विषय नही है॥
-डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल ''राही''
4 टिप्पणियां:
saadhu saadhu !
बहूत ही लाजवाब लिखा है........... सुन्दर रूप से उतारा है मन के भावों को......
मुझे आपका ब्लॉग बहुत अच्छा लगा! बहुत सुंदर कविता लिखा है आपने!
मेरे ब्लोगों पर आपका स्वागत है!
nice poem like it
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