जब से मैंने इंदौर के संवेदनशील कुत्ते का हाल पढ़ा है, इस बारे में, मैं चिंतन मनन पर मजबूर हुआ, आप कहेंगे क्यों आप कुत्ते को लेकर इतना परेशान होते हैं ? ज्यादा सोचेंगे तो घर के रहेंगे न घाट के !
खैर यही क्या कम है कि मैं कुत्ता नहीं बना, अगर बन गया होता तो मोहल्ले के आवारा लड़कों के धेले खाता रहता, ऐसी किस्मत कहाँ थीं कि एल्सेशियन बन कर सेठ जी की गाडी पर बैठता और केक बिस्कुट उडाता और अपने ही गरीब कुत्ते भाइयों पर शीशे से झांक झांक कर भौंकता ।
किसी कवि ने कभी बड़े गर्व से कहा था ' अहो भाग्य मानव तन पावा ' उसने यह बात अध्यात्मिक श्रेष्ठता के लिए कही होगी यह सोचकर कि पता नहीं कितनी करोडो अरबों योनियों से मुक्ति पाकर यहाँ तक पहुंचा। समय के अनुसार शब्दों के अर्थ एवं वाक्यों के भावार्थ बदलते हैं जब आज का पदार्थ वादी यही कहे गर तो उसका अभिप्राय यह होगा कि अगर मानव न बनता तो न घोटाले करता, न रिश्वतें लेता, न महलों का सुख भोगता ! फंसता तो रिश्वत देकर छूटता ।
इस्लाम में भी मनुष्य को 'अशरफुल-मखलुकात' अर्थात स्रष्टि में सब से श्रेष्ट बताया गया है। मैं तो हालात देख कर क्षमा कीजियेगा यह समझता हूँ कि आज का मानव कुत्ते से भी बदतर है, गुणों की अगर बात करें तो कुत्ते में वफादारी होती है- एक कुत्ता 'असहाबे- हफ' का भी था, कितना वफादार था। अब इंसान को देखिये ये हद से ज्यादा बेवफा, हद से ज्यादा दगाबाज ।
कुत्ते का सबसे बड़ा अवगुण यह है कि वह स्वयं अपने भाई बन्धुवों से लड़ता है, गुर्राता है। इंसान इस अवगुण में भी कुत्ते से बहुत आगे है। पडोसी हो, परिवार वाले हो, जाति के गैर जाति के हों, सब से लड़ाई, कतल खून, लाठी डंडा, बंदूख, कट्टा, बम, सब के हक़ मारना, किसी को हक़ न देना। ' खुमार' भी इसी का शिकार हुए होंगे ? क्या पता कभी शिकार किया भी होगा- आदमी तो अपनी ही गाता है-
खैर यही क्या कम है कि मैं कुत्ता नहीं बना, अगर बन गया होता तो मोहल्ले के आवारा लड़कों के धेले खाता रहता, ऐसी किस्मत कहाँ थीं कि एल्सेशियन बन कर सेठ जी की गाडी पर बैठता और केक बिस्कुट उडाता और अपने ही गरीब कुत्ते भाइयों पर शीशे से झांक झांक कर भौंकता ।
किसी कवि ने कभी बड़े गर्व से कहा था ' अहो भाग्य मानव तन पावा ' उसने यह बात अध्यात्मिक श्रेष्ठता के लिए कही होगी यह सोचकर कि पता नहीं कितनी करोडो अरबों योनियों से मुक्ति पाकर यहाँ तक पहुंचा। समय के अनुसार शब्दों के अर्थ एवं वाक्यों के भावार्थ बदलते हैं जब आज का पदार्थ वादी यही कहे गर तो उसका अभिप्राय यह होगा कि अगर मानव न बनता तो न घोटाले करता, न रिश्वतें लेता, न महलों का सुख भोगता ! फंसता तो रिश्वत देकर छूटता ।
इस्लाम में भी मनुष्य को 'अशरफुल-मखलुकात' अर्थात स्रष्टि में सब से श्रेष्ट बताया गया है। मैं तो हालात देख कर क्षमा कीजियेगा यह समझता हूँ कि आज का मानव कुत्ते से भी बदतर है, गुणों की अगर बात करें तो कुत्ते में वफादारी होती है- एक कुत्ता 'असहाबे- हफ' का भी था, कितना वफादार था। अब इंसान को देखिये ये हद से ज्यादा बेवफा, हद से ज्यादा दगाबाज ।
कुत्ते का सबसे बड़ा अवगुण यह है कि वह स्वयं अपने भाई बन्धुवों से लड़ता है, गुर्राता है। इंसान इस अवगुण में भी कुत्ते से बहुत आगे है। पडोसी हो, परिवार वाले हो, जाति के गैर जाति के हों, सब से लड़ाई, कतल खून, लाठी डंडा, बंदूख, कट्टा, बम, सब के हक़ मारना, किसी को हक़ न देना। ' खुमार' भी इसी का शिकार हुए होंगे ? क्या पता कभी शिकार किया भी होगा- आदमी तो अपनी ही गाता है-
यूँ तो हम जमाने में कब किसी से डरते हैं,
आदमी के मारे हैं, आदमी से डरते हैं।
आदमी के मारे हैं, आदमी से डरते हैं।
-डॉक्टर एस.एम हैदर
2 टिप्पणियां:
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
अति प्रभावकारी अभिव्यक्ति !
सद्भावी -डॉ० डंडा लखनवी
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