रविवार, 19 सितंबर 2010

महात्मा गांधी की राजनैतिक सार्थकता, भाग 2

एक क्रान्तिकारी की पहचान इस बात से भी होती है कि उसके शिष्य कैसे हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका में मार्टिन लूथर किंग उभरे एवं वह महात्मा गांधी के पद चिन्हों पर चले। अमेरिकी इतिहास के एक बहुत बड़े आन्दोलन का उन्होंने नेतृत्व किया। उन्होंने यू0एस0 के मिलिट्रीवाद का विरोध तथा अमेरिका के अफ्रीकी लोगों की मुक्ति का आन्दोलन चलाया। उनका मत था कि सेना का अन्याय वहाँ के कामकाजी लोगों के खिलाफ हैं, यह मानवता के विरुद्ध है तथा नस्लवाद एवं शोषण को बढ़ावा देता है। महात्मा गांधी का मत था कि एक ऐसे देश में जहाँ लाखों भूखे हांे, खाना ही प्रथम आवश्यकता है। वे कहते थे कि धार्मिक-दर्शन पूरी मानवता के सम्मान का उपदेश देता है, इसमें संस्कृतियों के आधार पर कोई भेद-भाव नहीं है। मार्टिन लूथर किंग इस बात पर जोर देते हैं ‘‘कोई भी धर्म जो मनुष्य की आत्मा की तो चिंता करे और उस गंदी बस्ती की चिंता न करे जिसमें आत्मा पैदा हुई और जहाँ की आर्थिक दशाओं ने उसे लँगड़ा कर रखा है, वह धर्म बीमार है उसे खून देने की जरूरत है’’ राजनैतिक प्रशिक्षण के आलोक में गांधी ने राजनैतिक रणनीति के तौर पर सविनय अवज्ञा, असहयोग, आन्दोलन तथा सत्याग्रह को चुना। भारतीय आन्दोेलन पर भी इस का यह प्रभाव पड़ा कि यहाँ लाखों लोग इस जनसंघर्ष में कूद पड़े जिससे ब्रिटिश साम्राज्यवाद को अपना शासन चलाना मुश्किल हो गया। वर्तमान में बोलोविया की स्थिति पर अगर ग़ौर करें तो वहाँ के देशी लोगों ने एक बड़ा असहयोग आंदोलन चलाकर, राजनैतिक और आर्थिक न्याय को हासिल करने के लिए वहाँ का तख़्ता पलट दिया था।
अब देखिए, दूसरी ओर भारत में मुख्य धारा की राजनैतिक पार्टियों ने ‘आपरेशन ग्रीन हन्ट‘ का कोई विरोध नहीं किया। बहुत बड़ा ‘पैरा मिलिट्री‘ अभियान मध्य एवं पूर्वी भारत के देशी आदिवासियों एवं किसानो के ख़िलाफ़ छेड़ दिया गया। सुप्रीम कोर्ट ने भी ‘सल्वा जुडुम‘ को बन्द करने के निर्देश दिए थे। जिसकी वित्तीय सहायता मध्य एवं पूर्वी भारत में भारतीय एवं विदेशी मल्टीनेशनल कार्पोरेट खान उत्खनन जगत करता था, जिनका उद्देश्य था उस जमीन को खाली करा लेना जो मिनरल पदार्थों से परिपूर्ण है तथा यह हज़ारों एकड़ जमीन वहाँ के आदिवासियों और किसानो के क़ब्ज़े में पुराने ज़माने से रही है तथा उस पर वह खेती करते चले आ रहे हैं। औद्योगिक स्वार्थों के तहत उस ज़मीन पर बड़े पैमाने पर क़ब्ज़े किए गए तथा गरीब बस्तियों को उजाड़ा गया। कुछ लोगों ने इस ज़्यादती को ‘आन्तरिक उपनिवेशवाद‘ की संज्ञा दी है। कृषि एवं उद्योग के बीच ‘बैलेंस‘ बनाने हेतु अगर गांधी होते तो क्या करते? आज का हाल तो यह है कि कुछ गंाधीवादी जो यहाँ के आदिवासियों एवं कृषकों के हित में काम कर रहे थे वे निशाना बनाए गए तथा जेलों में डाल दिए गए।
गांधी जी की ग़लत तस्वीर पेश की गई, उन्होंने औद्यीगीकरण तथा आर्थिक विकास का कभी विरोध नहीं किया। उनका नज़रिया यह था कि जो भी बड़ी या छोटी इन्डस्ट्री हो उसका मुुख्य उद्देश्य देहातों व शहरों में बेरोज़गारी का ख़त्म करना, होना चाहिए। उनका दृष्टिकोण था कि भारी उद्योगों पर सामाजिक कन्ट्रोल हो, प्रबंधन के सभी सेक्टरों में श्रमिकों की भागीदारी हो और उन्नत कृषि तकनीक हेतु भारी प्रयास किए जाएँ। उनका इस बात पर ज़ोर था कि ग्रामीण ढाँचागत विकास के तहत साफ़ पानी, सफ़ाई, स्वास्थ्य, साक्षरता, शिक्षा, तथा आधारभूत निवास को त्वरित प्राथमिकता दी जानी चाहिए। महात्मा गांधी और माओत्सेतुंग के प्रोग्रामों में बहुत सी समानताएँ हैं। ख़ास तौर से उन देशों में जो उपनिवेशवाद के कारण ऐतिहासिक रूप से तबाह हुए, जहाँ खेतियाँ बर्बाद हुईं, वहाँ आर्थिक उत्थान का आरम्भ कैसे किया जाए, हालाँकि दोनों के तरीक़ों में अन्तर था। माओ एक ऐसे राष्ट्रवादी थे जिनकी चिंताएँ चीन-वासियों हेतु थीं। महात्मा गांधी हालाँकि भारतीय समाज के विशिष्ट हालात को बखूबी समझते थे फिर भी उनकी चिंताएँ समस्त मानवता के लिए थीं। 20वीं सदी के राजनैतिक आन्दोलनों की पूरी समझ रखते थे तथा वे एक राजनैतिक यर्थाथवादी भी थे। महात्मा गांधी ने ‘सेलेक्टेड वकर््स‘ तीसरे खण्ड में ‘रिकान्सट्रकशन प्रोग्राम‘ के अन्तर्गत, जो 1941 में, फिर संशोघित 1945 में प्रकाशित हुआ ‘इकोनामिक इक्वैलिटी‘ के शीर्षक से पैरा 13 में यह कह कर सावधान किया, ‘‘जब तक धनवानों एवं लाखों भूूखों के बीच एक बड़ी खाई बनी रहेगी, एक हिंसा रहित सरकारी-तंत्र का स्थापित होना असंभव है। जब तक नई दिल्ली के बड़े-बड़े महलों एवं गरीब श्रमिक वर्ग की दुखदायी झोपड़ पट्टियों का अन्तर बाकी रहेगा एक न एक दिन हिंसक और खूनी क्रान्ति निश्चित है। जब तक कि धनी वर्ग स्वेच्छा से अपनी सम्पदा और शक्ति को आम भलाई के कामों मंे न लगा दे।
गांधी आज कल के भारतीय एवं अन्य स्थानों के राजनैतिक वर्ग के स्तर तथा व्यक्तिगत स्तर पर स्व-चरित्र के उदाहरण पेश करने पर ज़ोर देते थे। विलासिता पूर्ण, अविवेकी, निर्लज्ज जीवन बिताने हेतु, जीवन भर के लिए ज़रूरत से अधिक सामान एवं धन-सम्पदा एकत्र करना तथा दूसरी ओर एक बड़े समूह का इन सब से वचिंत होना, गांधी जी के विचार में अत्यंत घातक था। वे चाहते थे कि देशवासी सादा, सरल, नैतिक जीवन का ढंग अपनाएँ क्योंकि आज के भारतीय राजनैतिक वर्ग अथवा अन्य का आचरण इसके विपरीत है। अनेक देशों के सरकारी तंत्र भी क़र्ज लेते-लेते इसी चक्रव्यूह में फँसते हैं जिससे उनमें रहने वाले समाज पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है।
यह बात निर्विवाद है कि महात्मा गांधी के राजनैतिक संघर्ष का एक मानवीय पहलू भी था, जिसके कारण उन्हें पिछाड़ पाना कठिन था। उन्हों ने व्यक्ति के बजाय समाज की नाइंसाफियों तथा उस राजनैतिक प्रणाली पर अपना ध्यान केन्द्रित रखा जो मानव को दासता की ओर ले जाता है। उनके पास आगे बढ़ने और पीछे पिछड़ने का राजनैतिक कौशल तथा राजनैतिक अनुभवों की गहरी समझ थी। उपनिवेशवाद के खिलाफ़ किसी भी आन्दोलन को इतना अधिक सहयोग एवं विभिन्न विचार धाराओं के लोगों का समर्थन नहीं मिला जितना उनके आन्दोलन को।

-नीलोफर भागवत
उपाध्यक्ष-इण्डियन एसोसिएशन आॅफ लायर्स
अनुवादक-डा.एस0एम0 हैदर
फोन-05248-220866
(क्रमश:)
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