किसान, मजदूर, आदिवासी इस पूँजी की दुनिया में उपस्थित असुविधाएँ थीं जिनको समेटने और निपटाने के लिए हर संभव प्रयास किए गए। न्यायपालिकाएँ भी इसकी भागीदार बनीं और इस दौर में तमाम मजदूर-किसान विरोधी फैसले सामने आए। आजादी के बाद से ही स्थापित मान्यताएँ एक-एक करके ध्वस्त होने लगीं। हालत यह हुई कि किसी जनपक्षीय मुद्दे पर धरने-प्रदर्शन-बंद के बाद बजाय इसके कि उस मुद्दे पर बहस हो, बहस इस बात पर की जाने लगी कि इससे कितना नुकसान हुआ! जाहिर है पूँजी के इस खुले खेल के लिए अभिव्यक्ति के
अधिकार, लोकतंत्र, समानता जैसी बातें बेहद असुविधाजनक थीं। आखिर हमारे प्रधानमंत्री ने कुछ साल पहले विदेश में बोलते हुए निजीकरण के क्षेत्र में हर पाँच साल पर होने वाले चुनावों को एक अवरोध बताया ही था। विनायक सेन भी एक ऐसा ही अवरोध पैदा कर रहे थे। छत्तीसगढ़ के प्राकृतिक संसाधनों को वेदान्त जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हवाले किए जाने में अवरोध। सलवा जुडूम के नाम पर आदिवासियों को उनके घरों से भगाए जाने में अवरोध। सरकारों के पूँजीपतियों के खेल का हिस्सा बनते जाने में अवरोध!
जिस तरह से पिछले दिनों नई आर्थिक नीतियों के नाम पर देश भर में लूट का दौर चला है उसमें सबसे बड़ा खेल जमीनों के कब्जे का है। छत्तीसगढ़, उड़ीसा जैसी तमाम जगहों पर आदिवासियों और किसानों की जमीनें छीन कर उन्हें कौडि़यों के मोल देशी-विदेशी पूँजीपतियों के हवाले करने का खेल चल रहा है, उसका कोई भी विरोध बर्दाश्त करने को सरकारें तैयार नहीं हैं। विनायक सेन इस खेल का विरोध करने वालों में सबसे आगे थे। उन्होंने देश-विदेश के तमाम मंचों से गरीबों और आदिवासियों के हक की बात उठाई थी और इसीलिए वह सरकार की आँख की किरकिरी बने हुए थे और इसी विरोध के चलते उन्हें अब तक बच्चों के स्वास्थ्य पर बनी समिति का सम्मानित सदस्य बनाने वाली सरकारें उनके खिलाफ होकर उन्हें नक्सलियों का हरकारा साबित करने पर तुल गईं। झूठे सबूत गढ़े गए और सारे पुलिसिया दंद-फंद का प्रयोग कर उन्हें फँसाया गया। अपने खिलाफ उठी किसी भी आवाज को कुचलने पर आमादा ये सरकारें हिटलर के शासन की याद दिला रही हैं। फासीवाद का खतरा न केवल भारत बल्कि दुनिया भर में मँडरा रहा है। पाकिस्तान के जाने-माने पत्रकार जब विनायक की तुलना पाकिस्तान में कट्टरपंथ के खिलाफ आवाज उठाकर अपनी जान गँवाने वाले सलमान तासीर से करते हैं तो इसके पीछे यही बात है।
लेकिन आमतौर पर चुप रहने वाला वाम-लिबरल समाज इस मुद्दे पर चुप नहीं है। न केवल भारत बल्कि अमरीका, इंग्लैण्ड, पोलैण्ड, जर्मनी सहित तमाम देशों के बुद्धिजीवियों ने इस घटना की कठोर निंदा की है बल्कि इस अन्याय के खिलाफ सड़कों पर भी उतरे हैं। अमत्र्य सेन, अरुंधती राय, नोम चाम्स्की सहित दुनिया भर के बुद्धिजीवियों ने इस घटना की कड़े शब्दों में निंदा की है। देश के भीतर भी दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, मद्रास आदि हर छोटे-बड़े शहर में विनायक सेन के समर्थन में सभाएँ, धरना-प्रदर्शन और अन्य कार्यक्रम हुए हैं। भले एक छोटी सी संख्या आज विरोध में दिख रही हो लेकिन उन्माद और चुप्पी के इस मिले-जुले माहौल में सिविल समाज की उपस्थिति का एहसास भी कम नहीं है।
हालाँकि इन सबका सरकारों के ऊपर कोई असर पड़ता नहीं दिख रहा है। हालात ये हैं कि अभी वर्धा के अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय में कार्यरत उनकी पत्नी इलीना सेन के खिलाफ एक सेमीनार में कुछ विदेशी विद्वानों को आमंत्रित करने के ‘आरोप’ में मामला दर्ज किया गया। जबकि न केवल उन विदेशी विद्वानों को वीसा आदि सभी जरुरी कागजी कार्रवाइयाँ पूरा करने के बाद आने की अनुमति मिली थी बल्कि इलीना के खिलाफ जो आरोप लगाए गए हैं वे विदेशियों को अपने यहाँ ठहराने और इसकी सूचना प्रशासन को न देने वाले होटल मालिकों के खिलाफ ही लगाया जा सकता है। ऐसे में अगर इलीना अपने परिवार पर सरकारों से जान का खतरा होने की आशंका व्यक्त करती हैं तो इसमें क्या गलत है? यह प्रकरण बताता है कि सरकारें अपनी तानाशाही लागू करने के लिए किस हद तक जा सकती हैं।
आज सवाल एक विनायक सेन की सजा का नहीं है। सवाल किसी एक विचारधारा का भी नहीं है। सवाल यह है कि क्या लोकतंत्र का मतलब सिर्फ पाँच साल में एक बार वोट दे देना होता है? क्या जनता को अपने खिलाफ हो रही साजिशों के खिलाफ आवाज उठाने का भी हक नहीं है? क्या इस देश में नीरा राडिया, राजा, कलमाड़ी और येदियुरप्पा जैसे भ्रष्टाचार के आरोपी ही देशभक्त हैं और सवाल उठाने वाला हर शख्स देशद्रोही? विनायक सेन को सजा किसी एक आदमी को मिली सजा नहीं है बल्कि महात्मा गांधी और नेल्सन मंडेला की उस पूरी परंपरा को सजा है जो अन्याय के विरोध को हमारा अधिकार बताती है और अगर इस बार हमने इसका पुरजोर विरोध नहीं किया तो सत्ता के दमन का चक्र और तेज होगा तथा जनता के पक्ष में उठने वाली हर आवाज को बेरहमी से कुचल दिया जाएगा।
-अशोक कुमार पाण्डेय
समाप्त
अधिकार, लोकतंत्र, समानता जैसी बातें बेहद असुविधाजनक थीं। आखिर हमारे प्रधानमंत्री ने कुछ साल पहले विदेश में बोलते हुए निजीकरण के क्षेत्र में हर पाँच साल पर होने वाले चुनावों को एक अवरोध बताया ही था। विनायक सेन भी एक ऐसा ही अवरोध पैदा कर रहे थे। छत्तीसगढ़ के प्राकृतिक संसाधनों को वेदान्त जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हवाले किए जाने में अवरोध। सलवा जुडूम के नाम पर आदिवासियों को उनके घरों से भगाए जाने में अवरोध। सरकारों के पूँजीपतियों के खेल का हिस्सा बनते जाने में अवरोध!
जिस तरह से पिछले दिनों नई आर्थिक नीतियों के नाम पर देश भर में लूट का दौर चला है उसमें सबसे बड़ा खेल जमीनों के कब्जे का है। छत्तीसगढ़, उड़ीसा जैसी तमाम जगहों पर आदिवासियों और किसानों की जमीनें छीन कर उन्हें कौडि़यों के मोल देशी-विदेशी पूँजीपतियों के हवाले करने का खेल चल रहा है, उसका कोई भी विरोध बर्दाश्त करने को सरकारें तैयार नहीं हैं। विनायक सेन इस खेल का विरोध करने वालों में सबसे आगे थे। उन्होंने देश-विदेश के तमाम मंचों से गरीबों और आदिवासियों के हक की बात उठाई थी और इसीलिए वह सरकार की आँख की किरकिरी बने हुए थे और इसी विरोध के चलते उन्हें अब तक बच्चों के स्वास्थ्य पर बनी समिति का सम्मानित सदस्य बनाने वाली सरकारें उनके खिलाफ होकर उन्हें नक्सलियों का हरकारा साबित करने पर तुल गईं। झूठे सबूत गढ़े गए और सारे पुलिसिया दंद-फंद का प्रयोग कर उन्हें फँसाया गया। अपने खिलाफ उठी किसी भी आवाज को कुचलने पर आमादा ये सरकारें हिटलर के शासन की याद दिला रही हैं। फासीवाद का खतरा न केवल भारत बल्कि दुनिया भर में मँडरा रहा है। पाकिस्तान के जाने-माने पत्रकार जब विनायक की तुलना पाकिस्तान में कट्टरपंथ के खिलाफ आवाज उठाकर अपनी जान गँवाने वाले सलमान तासीर से करते हैं तो इसके पीछे यही बात है।
लेकिन आमतौर पर चुप रहने वाला वाम-लिबरल समाज इस मुद्दे पर चुप नहीं है। न केवल भारत बल्कि अमरीका, इंग्लैण्ड, पोलैण्ड, जर्मनी सहित तमाम देशों के बुद्धिजीवियों ने इस घटना की कठोर निंदा की है बल्कि इस अन्याय के खिलाफ सड़कों पर भी उतरे हैं। अमत्र्य सेन, अरुंधती राय, नोम चाम्स्की सहित दुनिया भर के बुद्धिजीवियों ने इस घटना की कड़े शब्दों में निंदा की है। देश के भीतर भी दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, मद्रास आदि हर छोटे-बड़े शहर में विनायक सेन के समर्थन में सभाएँ, धरना-प्रदर्शन और अन्य कार्यक्रम हुए हैं। भले एक छोटी सी संख्या आज विरोध में दिख रही हो लेकिन उन्माद और चुप्पी के इस मिले-जुले माहौल में सिविल समाज की उपस्थिति का एहसास भी कम नहीं है।
हालाँकि इन सबका सरकारों के ऊपर कोई असर पड़ता नहीं दिख रहा है। हालात ये हैं कि अभी वर्धा के अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय में कार्यरत उनकी पत्नी इलीना सेन के खिलाफ एक सेमीनार में कुछ विदेशी विद्वानों को आमंत्रित करने के ‘आरोप’ में मामला दर्ज किया गया। जबकि न केवल उन विदेशी विद्वानों को वीसा आदि सभी जरुरी कागजी कार्रवाइयाँ पूरा करने के बाद आने की अनुमति मिली थी बल्कि इलीना के खिलाफ जो आरोप लगाए गए हैं वे विदेशियों को अपने यहाँ ठहराने और इसकी सूचना प्रशासन को न देने वाले होटल मालिकों के खिलाफ ही लगाया जा सकता है। ऐसे में अगर इलीना अपने परिवार पर सरकारों से जान का खतरा होने की आशंका व्यक्त करती हैं तो इसमें क्या गलत है? यह प्रकरण बताता है कि सरकारें अपनी तानाशाही लागू करने के लिए किस हद तक जा सकती हैं।
आज सवाल एक विनायक सेन की सजा का नहीं है। सवाल किसी एक विचारधारा का भी नहीं है। सवाल यह है कि क्या लोकतंत्र का मतलब सिर्फ पाँच साल में एक बार वोट दे देना होता है? क्या जनता को अपने खिलाफ हो रही साजिशों के खिलाफ आवाज उठाने का भी हक नहीं है? क्या इस देश में नीरा राडिया, राजा, कलमाड़ी और येदियुरप्पा जैसे भ्रष्टाचार के आरोपी ही देशभक्त हैं और सवाल उठाने वाला हर शख्स देशद्रोही? विनायक सेन को सजा किसी एक आदमी को मिली सजा नहीं है बल्कि महात्मा गांधी और नेल्सन मंडेला की उस पूरी परंपरा को सजा है जो अन्याय के विरोध को हमारा अधिकार बताती है और अगर इस बार हमने इसका पुरजोर विरोध नहीं किया तो सत्ता के दमन का चक्र और तेज होगा तथा जनता के पक्ष में उठने वाली हर आवाज को बेरहमी से कुचल दिया जाएगा।
-अशोक कुमार पाण्डेय
समाप्त
1 टिप्पणी:
व्यवस्था पर
अच्छा आलेख!
एक टिप्पणी भेजें